Thursday, March 31, 2011

हमें यह भी समझना चाहिए कि आकाशीय और क्यूकीलिपटस के जंगलों में सरहुल-सखुआ फूल, धवाई फूल, महुंआ, चार, केन्दु और पलाश के फूल खिल नहीं सकते। sarhul-part4

1865 में ब्रिटिश सताधिशों ने आदिवासी समाज से जंगल को छीन कर अपने कब्जा में करने के लिए वन अधिनियम बनाया। 1865 के वन कानून में 1875 में संशोधन कर जंगल लूट तंत्र को और मजबूती दी गयी। जिसके तहत सुरक्षित वन, आरक्षित वन एवं गामीण वन कानून बना। इसे भी साम्रात्यवादी व्यवस्था को मन नहीं भरा तो 1927 में भारतीय वन अधिनियम बनाया, ये सारे कानूनी हथकांडे आदिवासी समाज एवं प्राकृति के बीच के संबंध को तार-तार कर दिया। अब आदिवासियों को जंगल में घुसने तक की मनाही लगा दी गई। जंगल रक्षा के नाम पर सरकारी तंत्र, जंगल माफिया , लकडी तस्कर और पुलिस , जंगल के मालिक बन बैठै। जिन्होंने झारखंड के पचास फीसदी जंगल को नष्ट कर चुके।
झारखंड के हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडिह, देवघर तथा संताल परगना के कई जिले ओपन-कस्ट माईनिंग के कारण मरूभूमि में तब्दील हो चूका है। गुमला और सिमडेगा जिला के सैकड़ों गांव जो जंगल क्षेत्र में है तत्कालीन बिहार सरकार ने 1997 में भेडिया अश्राएणी परियोजना के लिए योजना बना रखी है। इसके लिए गामीणें को जंगल खाली कराया जाएगा। रांची, गुमला, पू0 सिंहभूम एवं हजारीबाग, पलामू एवं प0 सिहभूम के कई जंगलों से ग्रामीणें को बेदखल कर वन कानून ने वन्य अश्राएणी बना चुका है। 1988 के राष्ट्रीय वन कानून ने जंगल और आदिवासी समाज को अलग करने को कोशिश किया है। एक ओर सरकारी तंत्र- वन माफिया और पुलिस मिल कर जंगल उजाड़ दे रहे हैं, दूसरी ओर सरकारी तंत्र वन-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हर जगह आकासीय और क्यूकपीटस के झााडी और पेड लगा रहे हैं। यहां के माटी और अबोहवा के प्रतिकूल नहीं है। इसे ने केवल ग्रामीण सामाजिक , आर्थिक, सांस्कृतिक आधार नष्ट हो रहा है वरण पर्यावरण असंतुलन बिगड़ता जा रही है। जिसे किसानों के खेत-खलिहान बंजर हो रहे हैं साथ ही कभी सुखा तो कभा अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। हमें यह भी समझना चाहिए कि आकाशीय और क्यूकीलिपटस के जंगलों में सरहुल-सखुआ फूल, धवाई फूल, महुंआ, चार, केन्दु और पलाश के फूल खिल नहीं सकते।

अंम्बा मांजरे-मधु मुधवाए जोड़ी पेलो मताला जाए रे 2-sarhul-part-3


sarna me jhumte log


Sirom toli sarna akhra

संताली समाज सरहुल पर्व-चंडु उपिन दिन से(चांद निकलने के चैथे दिन से) बाहा पोरोब मनाना शुरू करते हैं और पुर्णिमा के दिन अंत करते हैं। इसी बीच लोग अपनी सुविधानूसार दिन निश्चित कर लेतें हैं। संताली समाल भी प्राकृति के साथ सामाजिक ताना-बाना को बाहा पोरोब में गीतों में प्रकट करता है-
ओकोए मई रे सबेआ दादा
ने सरजोम बाहा दो,
ओकोए मई रे सबेआ दादा
ने मदुकम बाहा दो।
नायके मई रे सबेआ दादा
ने सरजोम बाहा दो,
देवरी मई रे सबेआ दादा
ने मदुकम बाहा दो।
(
हिन्दी-दादा कौन पकडेगा सखुआ फूल, और कौन पकडेगा महुंआ फूल। नायके पकडेगा सखुआ फुल, पुजार पकडेगा महुंआ फुल)

उरांव समाज सरहुल पर्व अपने मान्यता के आधार मानता है। इसी तरह मुंडा और हो भी। पुरा बसंत झारखंड के गांव-गांव गीतों से गूंज उठता है।
गीत-सदरी में
सराई फूला-फूली गेंलैं आयो
बोना में चारेका दिसै रे 2
सराई फूले बना सोभाए
धवाई फूले रसा चुवाए रे 2
अंम्बा मांजरे-मधु मुधवाए
जोड़ी पेलो मताला जाए रे 2

आदिवासियों ने आंग्रेज शाशकों, जमींदारों के खिलाफ उलगुलान का बिंगुल फूंका था। आज भी लोग इस संघर्ष को सरहुल-जदूर गीतों में याद करते हैं-part-2



jangal se sarhul phul todte..
जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ 1855-56 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में संतालियों ने समझौता विहीन हूलकिया था। 1895-1900 तक मुंडा- हो असदिवासियों ने मुंडा सरदार और बिरसा मुंडा की अगुआई में उलगुलानकिया था। जब दामिन ईकोह के घने साल के जंगल को काट कर आंग्रेजों ने भगलपुर तक रेलवे लाईन बिछा रहे थे, संताली आदिवासियों ने जंगल-पर्यावरण की रक्षा में हुल अभियान चलाया। पाकुड़ के धनुष पूजा गांव के करीबखड़ा मारटिएल टावर जो मारटिएल इंजिनियर की देख-रेख में आंग्रेजों ने रातों-रात टावर खड़ा किया, जो सालजंगल बचाने के लिए हुल छेडे संतालियों को मारने के लिए बनया गया। इसी टावर से आंग्रेजों ने सैकड़ों संतालियोंको छलनी किया था। शहीदों के खून से धरती रंग गई, बावजूद अपने धरोहर की रक्षा के लिए सिना तने सेतालियोंने सिने पर गोली खाते टावर तक पहुंच कर आंग्रेज सैनिकों को तीर से मार गिराया, जो भागने को कोशिश-आदिवासियों के तीर उनके पीठ को भेदता गया। यह संघर्ष 10 जुलाई 1856 की हुआ। दूसरी ओर इसी दरम्यानमुंडा इलाके में खूंटकटी जंगल-जमीन की रक्षा के लिए बुन्डू, तमाड़, खूंटी क्षेत्र में मुंडा आदिवासियों ने आंग्रेजशाशकों, जमींदारों के खिलाफ उलगुलान का बिंगुल फूंका था। आज भी लोग इस संघर्ष को सरहुल-जदूर गीतों मेंयाद करते हैं-
जदुर राग
ओको रेको मपआ तना
लुपु मुई कपिस गोअना
चियम रेको तुपुइ तना
टोंटो मुई टेम्पाए तोलाना।
बुन्डु रेको मपआ तना
लुपु मुई कपिसय गोअना
तमाड़ रेको तुपुई तना
टोंटों मुई टेम्पाए तोलाना।
(हिन्दी-कहां मार-काट हो रहा है छोटी चींटी-आदिवासी फरसा ढ़ोये हुए हैं, कहां तीरो से लड़ाई हो रही है-बड़ी चींटी-आंग्रेज बंन्दूक ढ़ोये हुए हैं)
झारखंड अंचज सोना, रूपा हीरा, कोयला, चोदी, अबरख, तांबा जैसे रत्नोंसे अटा पड़ा है। इसी भूखंड ने विभिन्नजनजातियो की बहुरेगी सांस्कृतिक बिरासत विविधता में एकता को संजोये रखा है। इसी धरती ने झारखंडी भूमिपुत्रों, दरांव, मुंडा, खडि़या, संताल, हो, नगेसिया, बिरहोर, बिरजिया, पहाडिया, आदि को स्तन पान कराते रहा है।यह समाज प्राकृतिक छटा के बीच खेतों खलिहानों, जंगलों के बीच निकाई-बुनाई, दातुन-पताई करतें प्राकृति केसाथ आत्मीय रिस्तों को सरहुल- बसंत ऋतु में गीतों में व्यत्क करता है
खडि़या-भाषा
आता खोंचाते जरानो बेलोंगचि
आता सहिया जरआ योंओना
माई दादा उमींग गारो ठाकैती
सुरी संगों मेलाय गारो टुयोब-टुयोब।

सरहुल एक पर्व-त्योहार मात्र नहीं है, बल्कि झारखंड के गैरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है सरहुल।-PART-1



सरहुल एक पर्व-त्योहार मात्र नहीं है, बल्कि झारखंड के गैरवशाली प्राकृतिक धरोहर का नाम है सरहुल। यही धरोहर मानव-सभ्यता, संस्कृति एवं पर्यावरण का रीढ़ भी है। आदिवासी समाज इंद्रधानुषी आकाश के नीचे प्राकृतिक छटटा की रंगस्थली में निवास करता है। लहरदार पृष्ट भूमि में विभिन्न रंग विरंगे पतों, पक्षियों-जानवरों से भरे जंगल-पहाड़, नही-घाटियों के गोद में बसे हैं आदिवासीयों की बस्तियां । चटटानों-पहाड़ों की ढ़लान में उछलते-कुददतें, -क्षरने, आकाश में घिरे बादल, बादलों का आनंद लेते पंख फैलाए-नाचते मोर, आम मंजरियों का आंनंद लेते भैंरों की टोली, आदिवासी समाज को जीने की कला सिखलाता है। जंगल के लार-झार, पेड़-पैधों पर सुगबुगाये लाल-हरे कोपलें, मंजरियों से ढ़के आम-आमड़ो के पेड़, सफेद दुधिया फूलों से सजे-कांटों भरे ढेलकाटों की झाड़ चिलचिलाती धूप से तपती धरती एवं आकाश में मंडराते बादल, कड़कते बिजली की कौंध के साथ मुसलाधार बारिस प्राकृतिकमूलक समाज में जीवन संघर्ष एवं जीने की नयी चेतनाएं भरता है। यही आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक राजनीतिक जीवन दर्शन का मुलाधार भी है।

एक ओर लाल-हरे तिरिल, तरोब, मदुकम, बारू औरसरजोम(साल) सुड़ा नये पते, दुधिया-सफेद फूलों से लदे साल बृक्षों और आम मंजरियों के मधीम-मधिम खुशबु से मदहोश बयार, फुदकते चिडि़यों के चहचहाहट और कोयल की मधुर कुक झारखंड के शान- सम्पनता एवं अपराजित सांस्कृति का बोध कराता है। वहीं दुसरी ओर पते-विहीन लाल पलाश फुल झारखंडी आदिवासी समाजिक विरासत पर हो रहे पूंजीवादी व्यवस्था एवं वैश्वीकरण के हमलों का अहसास दिला रहा है। यही नहीं झाडियों में खिले नन्हें लाल इचआ(धवाई) फुल वतैवाम साम्राज्यवादी -फासीवादी शत्कियों के खिलाफ संघर्ष का अहवान कर रहा है ताकि द्धिदू-कान्हू, सिंदराय-बिंदराय, फूलो-झानो, बिरसा मुडा, माकी देवमानी केअबुआ हातु,अबुआ रार्रज की स्थापना की जा सके। वैश्वीकरण के इस दौर में कथित विकास की अवधारणा ने सरहुल फूल पर हमला बोल दिया है। आदिवासियों के विरासत जल-जंगल-जमीन आबाद करने का अपना इतिहास रहा है। मोहन जोदडों और हड़प्पा के सभ्यता- सांस्कृति से लेकर छोटानागपुर-संथाल परगना (झारखंड) तक जंगल-जमीन आबाद करने, उजाड़े-खदेड़ जाने का संघर्षपुर्ण इतिहास रहा है। जिस प्राकृतिक धरोहर को आदिवासियों ने आबाद किया यह इस समुदाय का खूंट-कटी समुदायिक विरासत माना गया। देश के लिस भी हिस्से में आदिवासी बसते गये, इनके द्वारा आबाइ इलाकों में मुगलों, आर्यों एवं अंग्रेलों का क्रम से आना जारी रहा। इतिहास गवाह है 1700-1900 के दशक में अंग्रेज शोषक-शशको, जमींदारों, ईजारेदारों द्वारा आदिवासियों के हाथों से जल-जंगल-जमीन की लूट का दामन चक्र से समूचा झारखण्ड जलता रहा।

आदिवासी समाज के सामुदायिक विरासत को इनके हाथ से छीन करअंग्रेजी हुकूमत ने व्यत्किगत सम्पति बना दिया। देश के जिस भी क्षेत्र में बाहरी शत्कियों ने आदिवासी समाज पर हावी हुआ, आदिवासियों ने प्रतिवाद आंदोलन चलाया। इस संघर्ष को आज भी आदिवासी समाज बसंत ऋतु तथा सरहुज त्योहार में गाता है-जदुर राग

ससंग हातु हाले -सासंग हातु
हगिया- बोया को मपा तना
ससंग हातु हाले-ससंग हातु
कुमाया-गेडेया किन तुपुइं तना
हगिया-बोया को मापा तना
ओते सोबेन दुदुगर जना
कुमया-गेडेयो को तुपुइं तना
सिरिमा सोबेन कोहाडी जना।
इचा बहा सहर तेका तुपुइं तना
ओते सोबेन दुदुगर जना
मुरूद बहा कापी तेको मापा तना
सिरिमा सोबेन कोहाडी जाना।
हिन्दी-हल्दी घाटी मैदान में अंग्रेज सैनिकों के साथ मामा और भागीना दोनों लड़ रहे हैं। दोनों अंग्रज सैनिकों के गोलियों का जवाब इचआ-जंगली फूल के चियारी तथा पला’ा फूल के तलवार से दे रहे हैं।

उपायुक्त साहब ने कहा-इस बैठक को सीओ साहब ने स्थागित कर दिया है-हमको पत्र भेज कर सूचना दिया है। मै उपायुक्त साहब से पूछी-सर किस कारण से स्थागित किये ह



C O Shri Kamlakant Gupta
ठेकेदार-माफिया और भ्रष्ट आधिकारी, राजनीतिक गंठजोड़ की जडें झारखंड में बहुत हो चुकी हैं। इसको उखाड़फेंकना सबकी जिम्मेवारी बनती है। कई अधिकारी इस व्यवस्था को खत्म करना चाहते हैं, लेकिन उनके मतहतकाम करने वाले कई अधिकारी इस को बरकारार रखना चाहते हैं, ताकि जानता का हक इनके पाकेट में कैद रहे।और जनहित में जो भी संसाधन केंद्र और राज्य से आबंटित हो, सीधे उनके पोकेट में चला आए। आज इसव्यवस्था को मजबूती देने वाले बहु संख्यक में हैं। इसकी पूष्टि यहां उल्लेखित घटना से होती है।

खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड में घोरपिंडा, जबड़ा, जोन्हे, लुदरू, कांटी गांवो से होते हुए बह रही छाता नदी में जलपथप्रमंडल धु्रर्वा 65 करोड़ का डैम बनाने जा रही है। इस योजना का डेंडर निकाला गया। जलपथ प्रमंडल केअधिकारियों के साथ,
Triveni Engicons pvt.ltd नेमें ठेका का काम तय किया गया।

ग्रामीणों द्वारा लगातार विरोध के बाद, इस योजना के संबंध में जानकारी देने के लिए 17 मार्च 11 को एस डी , खूंटी, अपर समाहर्ता खूंटी , बिशेष भूअर्जन पदाधिकारी रांची, जलपथ प्रमडल ध्रुवा रांची के कार्यपालक अभियंता, आंचल अधिकारी तथा प्रखंड विकास पदाधिकारी नवनिर्वाचित पंचायत समिति सदस्यों को प्रखंड के किसान भवनमें बैठक के लिए बुलाये थे। विदित हो कि 25 मार्च 2011 को सरकारी अधिकारी इस परियोजना को लेकर मेरले मेंग्राम सभा बुलाये थे। इसकी तैयारी बैठक के रूप में,17 मार्च को किसान भवन में बैठक बुलाया गया था।

उपस्थित ग्रामीणों ने यहां किसी तरह का डैम बनाने नहीं देगें-कहते हुए बैठक का बहिष्कार किया। इसके बाद सभीअधिकारी बी डी के चैमबर में बैठे। वहां इन सभी अधिकारिय यह तैयारी बैठक था। अधिकारियों से इस संदर्भ मेंहमने कई सवाल पूछा। बिशेष भूआर्जन पदाधिकारी, अपर समाहर्ता , एस डी , सभी अधिकारियों ने कहा-बिशेषभूअर्जन विभाग द्वारा जमीन का मापी करने, जिनकी जमीन जाएगी-उन किसानों का सही पहचान करने, जमीनका 80 प्रतिशत मुआवजा भुगतान करने के बाद ही जमीन पर किसी तरह का काम शुरू किया जा सकता है।जमीन किसानों की है उनकी सहमति के बिना जमीन अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। लेकिन यहां जमीन कामापी किये बिना, मुआवजा का भुगतान किये बिना काम शुरू किया गया-यह गलत हुआ है। लेकिन जलपथप्रमंडल के कार्यपालक अभियंता नहीं मानते हैं कि गलती हुआ है।

25 मार्च 2011 को मेरले गांव में आयोजित सरकारी ग्राम सभा को अचानक ही स्थागित कर दिया गया। इस संबंधमें जानकारी मिलने पर मैंने 24 मार्च शाम को एस. डी. . से पूछी कि, कल का बैठक क्यों स्थागित किया गया? इसके जवाब में -एस. डी. . साहब ने कहा-क्या पता क्यों स्थागित किया गया है-सी का लेटर आया है, इसमेंकहा है अपरिहर्या कारणों से सथागित किया जा रहा है. आप से इसके लिए कोई सहमति ली गयी थी-यह नहीं?इस पर अधिकारी ने जवाब दिये-नहीं। मैंने क्यों स्थागित किया गया-इस संबंध में जानकारी लेने के लिए सी श्री कमलाकांत गुप्ताजी से फोन पर पूछी-तो इन्होंने कहा-उपायुक्त साहब ने स्थागित करने के लिए बोले हैं-अभीमार्च क्लोजिंग है।

मैंने 25 मार्च 2011 को उपायुक्त साहब से पूछी-सर आज का बैठक में आप रहे हैं? उन्होंने पूछा-कौन सा बैठक, सर कर्रा वाला। अच्छा-जबड़ा डैम वाला ना? जी-उपायुक्त साहब ने कहा-इस बैठक को सीओ साहब ने स्थागित करदिया है-हमको पत्र भेज कर सूचना दिया है। मै उपायुक्त साहब से पूछी-सर किस कारण से स्थागित किये हैं-कारणबताये होगें ना सीओ साहब? उपायुक्त ने कहा-नहीं उसी से पूछियेगा-क्यों उनहोंने ही स्थागित किया। मैंने फिरसीओ साहब को फोन कर बोली-उपायुक्त साहब तो बोल रहे हैं-नहीं जानते हैं सीओ साहब ने क्यों स्थागित किया है।इस पर सीओ बोलते हैं-हां हल्का से उपायुक्त साहब बोले थे-मार्च के बारे। हां निर्णय लेते समय अपर समाहर्ता औरइक्जीक्यूटिव इंजीनियर साहब थे। मैंने अपर समाहर्ता श्री केरकेटा जी को फोन कर इस संबंध में पूछी-इन्होंनेकहा-नहीं मुझको नहीं पता कि किस कारण से बैठक स्थागित किया गया है-हम को तो एक पत्र आया है, इसी सेजान रहे हैं कि-बैठक स्थागित किया गया है