Friday, October 30, 2020

आज भी इस जामुन पेड़ को देखकर, पेड़ से गिरे सुखी टहनियों को देखकर हिम्मत बढ़ता है। कुंआ में पानी भरते लोगों को देखती हुं-तो वहीं लड़कियां याद आती हैं। महेशा मन ही मन उन लड़कियांे को धन्याबाद देती हंु और उनके कुशलता की कामना करती हुं।

 बरसाती पहना आदमी की नियत सही नहीं थी

ग्लोशोप मेमोरियल हाई स्कूल कमडारा से आठवीं पास कर मैं रांची पढ़ने के लिए आयी। क्योंकि रांची में ही मेरी मां पीपी कमपाउंड के एक पंजाबी परिवार में आया का काम करती थी, और मेरा मिझला बड़ा भाई पीपी कमपाउंड में ही एक पजाबी परिवार के आउटहाउस में मजदूरों के साथ रह कर मजदूरी करता था। स्ंात मग्रे्र्रटस बालिका उच्चा विद्यालय चर्च रोड़ में मेरा दखिला 9वीं क्लास में हुआ। रोटी के लिए रांची मेन रोड़ स्थित सुजाता चैक के पुलिस टीओपी में सुबह-शाम वर्तन धोते थे, झाडू लगाते थे। मेरे साथ बड़ा भाई भी पुलिस टीओपी जाते थे। मैं वर्तन धोती थी, दादा टीओपी में झाडु लगाते थे, और मासाला पीसते थे। इसकी मजदूरी महिने में 15 रूपया मिला था। साथ ही जो भी खाना उनका बचता था, उसी से जिंदगी कट रही थी। 9वीं क्लास का किताब, काॅपी, फीस भी देना पड़ता था। रहने के लिए पीपी कंमपांउड के एक पंजाबी परिवार के बागान में बना छोटा सा आउट हाउस ही असियाना बना। खाने-पीने की तंगी के कारण अपने जरूरत की चीजें भी नहीं खरीद पाते थे। हां पढ़ाई लिखाई के लिए किताब-काॅपी का जुगाड़ी कर लेना ही काफी था।

बरसात का समय पहुंच गया था। हमदानों छाता नहीं खरीद सके थे। रिमछिम रिमछिम चार दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। मैं अपना किताब-काॅपी एक प्लासटिक में डालकर स्कूल जाती थी।  लड़कियां छाता से यह तो बरसाती से बचते स्कूल जाती थी। स्कूल ट्रेस आसमनी रंग का फ्रांक के साथ सफेद दुपटा लगाते थे।  मैं पानी से बचने के लिए अपने सिर पर सफेद दुपटा ढांक कर, प्लासटिक में काॅपी किताब दबा कर जाती थी। 

दिन भर रिमझिम पानी बरस रहा रहा था , स्कुल छुटटी हुई तब भी पानी बरस ही रहा था।  स्कूल से घर जाने के लिए सभी लड़कियां निकलने लगी। मेरे पास छाता नहीं था, लेकिन घर तो जाना ही था। मैं और दिनों की तरह ही अपनी किताब-काॅपी प्लास्टिक में डाली, सिर पर दुपटा डाली और स्कूल से बाहर निकली। चर्च रोड़ में बरनाबस अस्पताल होते हुए गुुगुटोली वाली गली में पहुंचें। गुंगुटोली से बाबूलाइन के लिए दो-तीन घरों को पार करना होता था। जैसे ही बाबूलाइन वाले गली में पहुंची एक बरसाती पहना आदमी मुझको पार करते आगे निकला। सिर पर भी बरसाती टोपी था। बरसाती पहना आदमी बेथेसदा स्क्ूल वाले रोड़ पर आगे आगे जाने लगा। जैसे जैसे बड़ा इमली पेड़ के नजदीक पहुंचने लगा, वह आदमी धीरे-धीरे चलने लगा। मैं उनको पार कर स्कूल के पिछवाडे बड़ा जामुन पेड़  पहुंचने के पहले दहिने लीची बगान की ओर जाने वाले रास्ता पहुंचने के पहले ही उसने मुझे पकड़ कर बलपूर्वक लीचीबगान की ओर लेजाने लगा। मेरा किताब जमीन पर गिर गया। मैं अपनी पूरी ताकत से अपने को छूड़ाने की कोशिश में थी। छटका देकर मैं अपने को छुटा ली। सामने जामुन पेड़ की एक छोटी सूखी डाली गिरा हुआ था। मैने उसे उठा कर उस आदमी को मारने लगी। 

पिलर्गल लाईन की लड़कियां स्कूल के सामने के कुंआ से पानी भर रही थी। उन लोगों ने हमदोनों को देखा, उनलोगों को समझ में आ गया कि क्या हो रहा है। तीन-चार लड़कियां पानी भरना छोड़कर हमारे तरफ दौड़ने लगी। लड़कियों को आते देख बरसाती वाला आदमी आगे लीची बागान के रास्ते जाने लगा। लड़कियां आयीं, मैं अपनी किताब जो जमीन पर गिरा पिछे छूट गया था, वापस लौट कर उठायी।  लड़कियां मुझ से पूछी, कहां जाना है तुमको? बतायी-पीपी कमपाउंड जाना है। लड़कियां बोली-लेकिन वो तो उसी रास्ता से जा रहा है-खजूर तलाब के रास्ते से। तब लडकियां पूंछीं, अगर मेन रोड़ तक हम लोग तुमको छोड़ देगें तो, घर तक चली जाओगी?

तब सभी लड़कियां मुझ को मेने रोड़ तक पहुंचा दी। तब मैं अपना बाजार वाले रास्ते से मां के बीबीजी के घर तक पहुंची। मां को सारी बात बतायी। मां-इसीलिए तुम अकेले मत आना करो कहती हुं। आगे से तुम अकेले नहीं आना।

मैं प्रतिदिन इसी रास्ते से स्कूल आती -जाती थी। इस घटना के बाद मां अपने दाई साथियों से पता लगायी की, कि इधर से कौन-कौन लड़कियां संत माग्रेटस हाई स्क्ूल जाती हैं। पता चला दो आदिवासी लड़कियां हिंदपीड़ी की जाती हैं। तब उन दोनों से मुझको मिला दिये और एक साथ स्कूल आने जाने लगे।

आज भी इस जामुन पेड़ को देखकर, पेड़ से गिरे सुखी टहनियों को देखकर हिम्मत बढ़ता है। कुंआ में पानी भरते लोगों को देखती हुं-तो वहीं लड़कियां याद आती हैं। महेशा मन ही मन उन लड़कियांे को धन्याबाद देती हंु और उनके कुशलता की कामना करती हुं। लड़कियों ने मुझे नयी जिंदगी दी। 



आॅनलाईन रैयतों का जमीन गायब हो रहा है, यह सिस्टम किसानों की जीमन लूटने का डिजिटल माॅडल है-

 आॅनलाईन रैयतों का जमीन गायब हो रहा है, यह सिस्टम किसानों की जीमन लूटने का डिजिटल माॅडल है- सरकार को इस डिलिटल सिस्टम को बदलकर पुरानी व्यवस्था, मेनवली व्यवस्था को पुना स्थापति करना चाहिए। क्योंकि राज्य के 90 प्रतिशत किसान, जमीन मालिक पढ़े-लिखे नहीं हैं, जो आॅनलाईन सिस्टम का समझ नहीं पाते हैं। अब इनके जमीन का मालिक प्रज्ञा केंन्द्र बन गया है। किसानों के हाथ में कुछ भी नहीं है। पहले आंचल कार्याकल के करमचारी, आमीन, सीओं से लड़-झगड़ कर गलतियों को ठीक करवा लेते थे। अब ये आंचल कार्यालय से प्रज्ञा केंन्द्र, यहां से आंचल कार्यालय चक्कर काटते-काटते थक जाते हैं, लेकिन काम नहीं बनता है। यहां सिर्फ तीन-चार किसानों की स्थिति को रख रही हुं, यही स्थिति हर गांव के हर किसान क्षेल रहे हैं। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले 10-15 वर्षों के भीतर राज्य के सभी किसानो के हाथ से जमीन लूट लिया जाएगा और किसान स्वतः भूमिहीन और कंगाल हो जाएगें। 

नियरन तोपनो-पोजे गांव-कमडारा प्रखंड, जिला-गुमला  ने बताया, उनके एक खाता में कुल 39 एकड़ जमीन है। मलगुजारी 2014-15 तक का करमचारी के द्वारा कटवाया गया है। इसके बाद मलगुजारी करमचारी द्वारा कटवाना सरकार बंद कर दिया है। अंचल अधिकारी बोलते हैं-अब जमीन का मलगुलारी प्रज्ञा केंन्द्र में कटेगा। 2015-16 का मलगुजारी देने के लिए जब प्रज्ञा केंन्द्र गये, वहां कार्यरत लोगों ने पुराना रसीद मांगा, देखने के बाद कप्युटर में जमीन का रसीद काटने के लिए इंटरनेट मे देखा। देखने के बाद प्रज्ञा केंन्द्र संचालक ने कहा-आंनलाईन जमीन के उक्त खाता  में sirf  19 एकड़ दिखाया गया है। इसी तरह नियरजन के परिवार का ही एक दूसरा खाता में 1 एकड़ 10 डिसमिल जमीन है। इसको आंन लाईन कुछ भी नहीं दिखा रहा है। पूरी तरह गायब हो गया। 


स्ुालामी तोपनो-भालू टोली, मरचा, जिला -खूंटी, प्रखंड-तोरपा इन्होंने बतायी-हमारे परिवार 2014 तक का मलगुजारी काटा गया है करमचारी के द्वारा। 2015 का रसीद काटने मेरा भतिजा प्रज्ञा केंन्द्र गया, तब प्रज्ञा केंन्द्र संचालक ने कहा-अभी रसीद नहीं कटेगा। कुछ दिन के बाद फिर प्रज्ञा केंन्द्र गये, संचालक ने फिर वही बात को दुहराया कि-अभी रसीद नहीं कटेगा। इस कारण 2014 के बाद आज तक का रसीद नहीं कटा है। किसानों के मन में भय है कि कहीं जमीन की गड़बड़ी तो नहीं की जा रही है। 

रामतोल्या पाहन टोली-सदवा तोपनो ने बताया, हमारे परिवार जमीन का रसीद बुधवा पाहन वगैरह के नाम से काटता है। इन्होंने बाताया हमारे खनदान में दो खाता में कुल जमीन 32 एकड़ 70 डिसमिल है। 2014 तक का रसीद करमचारी द्वारा कटवये हैं। मेनवली रसीद कटना बंद होने के बाद प्रज्ञा केंन्द्र गये थे, रसीद कटवाने। लेकिन आनलाईन जमीन का खाता संख्या भी नहीं दिखा और न ही जमीन का रकबा या तो भुगतान होने वाला राशि आनलाईन दिखाई नहीं दिया। 


बड़ा सुलेमान-गांव गराई सरना टोली, जिला गुमला, प्रखंड -कमडारा -इन्होंने बताया हमारे खनदान के दो खातों का जामाबंदी 25 एकड़ है। 2014 तक करमचारी से रसीद कटवाये हैं। बाद में करमचारी बोला-अब रसीद प्रज्ञा केंन्द्र में आनलाईन कटेगा, वहां जाइये । हमलोग पुराना रसीद लेकर प्रज्ञा केंन्द्र गये। वहां आनलाईन जमीन का रसीद कटवाना चाहे। लेकिन आनलाईन जमीन सिर्फ 9 एकड़ ही चढ़ाया गया है'। एैसे स्थिाति में रसीद कैसे काटेंगें, पूरा जमीन दिखाएगा, तभी रसीद कटवाया सकते हैं। 


फिलमोन सुरिन-ग्राम सालेगुटू, सालेगुटू पंचायत, प्रखंड-कमडारा, जिला-गुमला-स्व0 अलकसियुस का बेटा, फिलमोन सुरिन बताये हमरे एम खाता के खेसरा 1233, रकबा-2 एकड़ है। कहते हैं-पहले करमचारी से रसीद कटवाते थे। करमचारी से 2014 तक का रसीद कटवाये हैं। 2015 का रसीद कटवाने के लिए करमचारी के पास अंचल कार्यालय गये, तब करमचारी बोले, रसीद अब आनलाईन प्रज्ञा केंन्द्र में कटेगा। तब प्रज्ञा केंन्द्र गये। वहां प्रज्ञा केंन्द्र वाला बोला-नहीं दिखा रहा है, रसीद नहीं काटेगा। इसके बाद पुना करमचारी के पास गये और स्थिाति बाताये। करमचारी पहले बोले, अब नहीं बनेगा, क्योंकि तुम लोग रसीद नहीं काट रहे हो, इसलिए जमीन सरकार ले लिया। फिर करमचारी बोला-खर्चा पानी लगेगा, तब बन सकता हैै। 

सुतुगन सुरिन-गांव पिम्पी, प्रखंड-कमडारा, जिला-गुमला-सुतुगन सुरिन, पिता स्व. जयमसीह सुरिन। सुतुगन बताया-खनदानी जमीन एक खाता में 81 एकड़ 84 डिसमिल है। दूसरा खाता में 3 एकड़ करीब है। 2014 तक का रसीद काटा हुआ है करमचारी के द्वारा। बाद में प्रज्ञा केंन्द्र गये थे-रसीद कटवाने के लिए। लेकिन दोनों खाता आनलाईन नहीं चढा है। सुतुगन सुरिन को भय है-कहीं ऐसा न हो कि जमीन सरकार लेलेगी, और लिख देगा-भूदान में दे दिया। 

कोटबो गांव-कमडारा प्रखंड, (जिला-गुमला) के वार्ड सदस्य बताता है-हम लोगों का खेवट 1/2 है। जमीन 142 एकड़ 77 डिसमिल है। कहता है-मेनुवली रसीद कटता था, तब सही था। आनलाईन होने के बाद हम अपना जमीन का रसीद कटवाने प्रज्ञा केंन्द्र पहुंचे। नेट से जमीन का रिकोर्ड निकाले, देखे-तो हैरान रह गये। आनलाईन 142 एकड़ जमीन गायब हो गया, सिर्फ 77 डिसमिल जमीन ही दिखा रहा है। सुधारने के लिए कई बार करमचारी के पास गये, बोला सुधार देगें , लेकिन अब तक सुधार नहीं किया। 

राम पाहन ने बताया, ग्रामीण किसानों का बहुत जमीन संडक में चला गया, सरकार ने जमीन के एवज में मुवाआजा कुछ भी नहीं दिया। तुरबुल से पोकला रोड़ बना। खेती की बहुत जमीन चली गयी, आज तक किसानों को मुआजा नहीं मिला। राम पाहन कहते हैं-मेरा एक एकड जमीन रिकोर्ड से ही गायब हो गया। 


Thursday, October 29, 2020

देश की जनता को हजारों करोड़ रूपया लेकर भागने वाला और उनको भागने में साथ देने वाले पर क्या देशद्रोह का मामल बनता है या नहीं?। दूसरी तरफ भूतपूर्व कोयला मंत्री को कोयला आबंटन में घोटाला के लिये तीन साल की सजा हुई, लेकिन जिन गांवों के नदी, नाला, खेत-जंगल, पर्यावरण सहित हजारों -लाखों आदिवासियों की जिंदगी देश भक्ति के नाम पर उजाड़ फेंका गया, इनको कौन सा संज्ञा दिया जाएगा?

 वर्ष 2020 का यह साल पूरे विश्व के लिए चूनौती का वर्ष रहा है

 कोरोना महामारी ने विश्व के जनमानस को झकझोर कर रख दिया है। ऐसे संक्रामण काल में जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण सहित आदिवासी, मूलवासी, किसान, दलितों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का आवाज उठाने वाले झारखंड राज्य के मानव अधिकार कार्यकर्ता 83 वर्षीय स्टेन स्वामी की 8 अक्टोबर की रात राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा आतंकवादी होने के आरोप में गिरफतारी करना, केंन्द्र सरकार द्वारा देश के लोकतंत्र पर हमला की एक कड़ी ही माना जाएगा। इस गिरफतारी का झारखंड समेत देश के कई हिस्सों में देश के लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी सहित जन समुदायों के संवैधानिक अधिकारों पर विश्वास करने वाले आम आदमी एवं जनसंगठन विरोध कर रहा है। साथ ही केन्द्र की मोदो सरकार द्वारा 2019 में 1967 के न्।च्। न्दसवूनिस ।अजपअपमे च्तमअमदजपवद ।बज में संशांेधन कर लाये न्।च्। न्दसवूनिस ।अजपअपमे; च्तमअमदजपवद द्ध ।उमदकउमदज ।बजण् 2019 (गैर कानूनी गतिविधि प्रतिषेध संशोधन कानून 2019 ) को रदद करने की मांग कर रहे हैं। यही नहीं इस काले कानून के तहत फा0 स्टेन स्वामी सहित 16 मानव अधिकार कार्याकर्ताओं की रिलाई की मांग कर रहे हैं। 

गैर कानूनी गतिविधि प्रतिषेध कानून 1967 को 2020 के पहले कभी पढ़ी नहीं थीं-इस कानून के विशेषताओं के बारे 2019 में पहली बार सुनी थी, जब 2018 में भीमा कोरेगांव के मामले में देश के सामाजिक कार्याकर्ता, पत्रकार, वकील, कवि सहित कई सामाजिक जनमुददों पर काम करने वाले 16 लोगों के उपर केस किया गया। इनमें से कई लोगों को घरों में ही कैद में रखा गया। इसके बाद उनलोगों को जेल भेज दिया गया। इन मामलों पर चर्चा में इस कानून के बारे सुने और समझने की कोशिश किये। 2019 में जब इस कानून में कई जनपक्षिये धाराओं को संशोधन कर कानून के रूप में पारित किया गया, उस समय पढ़े थे कि नये कानून के तहत एनआइए अब किसी भी व्यक्ति को संदेह के आधार पर आतंकवादी घोषित कर सकती है। लेकिन उस समय तक इतना गहराई समझ में नहीं आया था। जब फा0 स्टेन की गिरफतारी हुई, तब इस कानून की असलियत समझ मे आयी। 

1995 में मैं सक्रिया रूप से सामाजिक काम में, या जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण की रक्षा में सक्रिया जनआंदोलनों से जुड़ी। 1995 में पूरे विश्व में जीत का परचम लहराने वाले, विस्थापन के विरोध में लड़ी गयी लड़ाई, जो कोइलकारो जनसंगठन ने 710 मेगावट की क्षमता वाले कोयलकारो हाईडल पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ लड़ा था। इस जनआंदोलन में शामिल होकर, अपने धरोहर को रक्षा के लिए जनशक्ति की गांेलबंदी के मूलमंत्र को सीखने-समझने का मौका मिला। जो पूरी तरह परंपरगात सामूहिक नेतृत्व पर लड़ी गयी। जिसका अध्याक्ष पड़हा राजा पौलुस गुडिया थे। साथ ही पलामू-गुमला में पर्यावरण की रक्षा एवं विस्थापन के खिलाफ 245 गांवों के आदिवासी, मूलवासी, किसान, दलित, मेहनतकश, शोषित, बंचितों के सामूहिक जनतंत्रिक शक्ति को समझने का मौका मिला। जिस सामूहिक शक्ति ने तत्कालीन बिहार सरकार और केंन्द्र की सरकार के 245 गांवो को उजाड़ने वाली विकास नीति को रोकने का काम किया। 

1995 के बाद 2020 तक राज्य के साथ देश भर के जनआंदोलन जो पर्यावरण की रक्षा, विस्थापन करने वाली नीतियों के खिलाफ संघर्ष, आदिवासी, मूलवासी, किसानो, दलितो, महिलाओं, अल्पसंख्याकों, मेहनतकश वर्गो के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए संषर्धरत आंदोलनों को देखने-सुनने-समझने का मौका मिला। इस दौरान झारखंड के आदिवासियों के, जल, जंगल, जमीन, समाज, भाषा, संस्कृति की रक्षा के लिए 1908 में बने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1949 में बने संताल परगाना काश्तकारी अधिनियम, 1947 के बाद बने पांचवी अनूसूची तथा छटवी अनूसूची के प्रावधानों, पेसा कानून-1996, नारेगा कानून 2006, वन अधिकार कानून 2006, राईट टू इनफोरमेशन कानून-2006, जमीन अधिग्रहण कानून-1894, जमीन अधिग्रहण कानून-2013, समता जजमेंन्ट सहित दर्जनों संविधान प्रादत कानूनों को पढ़ने और समझने की कोशिश किये। साथ ही दर्जनों जनआंदोलनों में शामिल होने को मौका भी मिला। कई आंदोलनों का नेतृत्व संभालने का मौका मिला, जीत भी हाशिल हुई। कई बार सरकारी काम में बाधा डालने, नजायज मजमा, भीड़ जमा करने का मामला भी हमारे उपर दर्ज हुआ। कई वर्षो तक केस लड़े, बेल मिला, इस दौरान कोर्ट की प्रक्रियाओं को भी देखने समझने का मौका मिला। इस उतार-चढ़ा से न्यायालय पर मेरा विश्वास और भरोसा और मजबूत हुआ है। मैने महसूस किया है-न्यायालय सिर्फ आरोप लगाने वाली की ही नहीं सूनता, लेकिन जिन पर आरोप लगाया जाता है-उनकी भी न्याय करता है। 

देशप्रेम, लाकतंत्र और देश की गारिमा आखिर क्या है? मैं सोचते रहती हुं-गांव -समाज की रक्षा करना, जंगल, जमीन, पानी, नदी-नाला की रक्षा करना क्या देशप्रेम नहीं है? यह सवाल मेरे मन में हमेशा उठते रहता है। पहले भारत का संविधान की उद्वेशिका को सिर्फ 26 जनवरी गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त स्वतंत्र दिवस के दिन पढ़ा जाता था, लेकिन अब हर कमद म नही मन दुहराते हैं-हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथ-रिपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों कोः सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गारिमा और राष्ट्र की एकता और  अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने के लिए बच्चनबद्व हैं, यह भाव भीतर से उद्वेलित करता है। शायद इसलिए एैसा महसूस होता है क्योंकि आज जल, जंगल, जमीन, पहाड, नदी, झील-झरनों और मानवता को प्रेम करने वाले, अन्याय के खिलाफ मुंह खोलने वाले, लिखने वाले, दबे-कुचले, शोषित-बंचितों के न्याय का वकालत करने वाले आज देश द्रोही, आतंकवादी माने जाते हैं। 

 आज लोेकतत्र का मतलब क्या है?

शायद लोकतंत्र का अर्थ है सब की वात को सुनना और  यहां तक कि परस्पर विरोधी विचारों को भी सुनना ही लोकतत्र है। यही बाबा साहब और गाधीं जी बोले हैं-लोकतन्त्र मंे आखरी आदमी के आख से आसू पोछना है। जनता की आवाज बनना लोकतत्र को सशक्त करना होता है और ये मैने अपने जीवन में कर के देखा जंल जंगल जमीन और पर्यावरण की रक्षा की लडाई को लडते हुए। नेतरहाट फिल्डफायरिंग रेंज,  कोयल कारो जलविद्यत परियोजना, यूरेनियम रेडियेशन और विस्थापन को लेकर जादुगोडा का संर्धष इसका जिता जगाता उदाहरण है। लोहीया कहते थे सडके सुनी होगी तो संसद बेलगाम हो जायेगी। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के लोकतंत्र और असंतोष विषय पर नई दिल्ली में आयोजित व्याख्यान में एक माननीय जज साहब ने कहा-असाहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट है। अगर आप अलग राय रखते हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप देशद्रोही हैं या राष्ट्र के प्रति सम्मान भाव नहीं रखते। 

2014 के पहले हमले कभी नहीं सुना था-देशद्रोह शब्द

2014 के पहले हमने कभी नहीं सुना था, या देखा भी नहीं था कि, किसी सामाजिक कार्याकर्ता, या मानव अधिकार कार्यकर्ता को, या जनआंदोलन मे शामिल कार्याकर्ताओं पर देशद्रोह, शहरी नक्सली या आंतकवादी का मामला दर्ज हुआ हो। 2016 के बाद झारखंड लगातार तत्कालीन रघुवर सरकार द्वारा कई आंदोलनों में शामिल नेताओं को राष्ट्रविरोधी, देशद्रोही और शहरी नाक्सली आदि शब्दों से संबोधित करने की खबरे अखबारों में प्रकाशित होते रहे। 2016 में तत्कालीन रघुवर सरकार ने सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट में संशोधन प्रस्ताव लाया था। इसका कड़ा विरोध राज्य भर में हुआ। झारखंडी जनता को सफलता भी मिली। इसी दौरान राज्य सरकार विश्व के कई देशों में झारखंड में पूंजीपितयों को निवेश के लिए आमंत्रित करने के लिए राज्य का करोड़ों धन राशि खर्ज कर विदेशों में रोड़शो का आयोजन किया। 

देश की जनता को हजारों करोड़ रूपया लेकर भागने वाला और उनको भागने में साथ देने वाले पर क्या देशद्रोह का मामल बनता है या नहीं?। दूसरी तरफ भूतपूर्व कोयला मंत्री को कोयला आबंटन में घोटाला के लिये तीन साल की सजा हुई, लेकिन जिन गांवों के नदी, नाला, खेत-जंगल, पर्यावरण सहित हजारों -लाखों आदिवासियों की जिंदगी देश भक्ति के नाम पर उजाड़ फेंका गया, इनको कौन सा संज्ञा दिया जाएगा? 

विदेशों में रोड़ शो का आयोजन के बाद राज्य सरकार ने राज्य में 16-17 फरवारी क 2017 को पहला मोमेंटम झारखंड का आयोजन किया। जिसमें खबर के अनुसार 11000 विदेशी मेहमान शामिल हुए। इस आयोजन के दौरान सरकार ने 250 कंपनियों के साथ एमओयू साईन किया। इस तरह से सरकार ने 4 मोमेंटम झारखंड किया था। सभी देशी-विदेशी कंपनियों से सरकार ने बिना किसी दिक्कत के, बिना देर किये, जहां निवेशक जमीन चाहेगें, सरकार जमीन उपलब्ध करायेगी। इसके लिए सरकार ने किसानों, जमीन मालिकों, आदिवासी समुदाय से बिना किसी तरह के चर्चा के उनके गांवों के जमीन से भूमि बैंक तैयार कर पूंजिपतियों के सामने रखा। रघुवर सरकार ने पूजिंपतियों के सामने एलान किया, सरकार आप के लिए 21 लाख एकड़ जमीन भूमि बैंक बनायी है।  इसके लिए सिंगल विंण्डों सिस्टम भी तैयार किया। 

दूसरी ओर गांव के किसानों में दहशत फैलने लगा कि इतने सारे कंपनियों को सरकार किसकी जमीन देगी? कहां की जमीन को देगी? निश्चित तौर पर हमारी जमीन ही, जबरन हमसे  छीन के पूंजिपतियों को देगी। इससे रोकने के लिए खूंटी जिला के आदिवासियों ने अपने परंपरा और इतिहास को याद करते हुए गांवों में पांचवी अनूसूची क्षेत्र के प्रावधानों का शिलालेख हर गांव में गाडने का अभियान चलाया। लेकिन सरकार इसको लेकर तरह तरह की भा्रंतियां फैलाते हुए , ग्रामीणों पर देशद्रोह, का फर्जी मामल दर्ज करवाया। कई दर्जन गांव के ग्राम प्रधानों को जेल में डाला। अल्पसंख्यक समुदाय को राष्ट्रद्रोह करार दिया गया। रांची शहर के 20 सामाजिक कार्यकताओं, जिसमें पत्रकार, लेखक, बुद्विजीवि, मानव अधिकार कार्याकर्ता  हैं, पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया। इसमें फा0 स्टेन स्वामी को भी शामिल किया गया। 

कोयल कारो आंदोलन के मोजेस, राजा पौेलूस गुडिया, सेामा मुंडा, आलफ्रेड आईद, नेतरहाट आदोलन के अन्थोनी लकडा, हेनरी तिक्र्री हो या जादुगोडा के चरण मुर्मू ने जनता की अवाज को नेतृत्व किया और अन्याय व पीड़ा कोे समाज के सामने रखा।  पर वहीं छत्तिसगढ का एक मोडल रहा जहां सोनी सोरी जैसे कार्यकताओ को नक्सली बता कर सारे जनआदोलन को दबाने की क्रू्रुरतम कार्यवाही की गयी । लेकिन बिरसा मुंडा की धरती पर ये मोडल उस तरीके से नही चल पाया । 

झारखंड मे भी वही दमन चक्र चलाया गया, पर झारखंडी जनता सजग रही अब नये खनिज के दोहन के लूट पर होने वाले विरोध के बैचारिक आधार को चुप करने के लिये स्टेन दा का चुनाव किया  गया । झारखंड देश को 40 से 50 प्रतिशत खनिज का  रोयल्टी देता है, लेकिन विडंम्बना है यहां की जनता सबसे गरीब है। विस्थापितों की सूधी लेना तो भूल जाइये, राज्य सरकार को आज मोदी सरकार रोयल्टी तक नहीं दे रही है। पिछले तीन वर्षों से राज्य में भूख से होने वाली मौतों की संख्या बढ गयी है। 2017-19 के बीच करीब 24 लोगों की भूख से मौत हो चुकी है। 

स्टेन स्वामी जी लेखन के साथ मैदान में भी सवाल उठाते रहे

फा0 स्टेन स्वामी झारखंड में तीस वर्षो से आदिवासी, मूलवासी, दलित, किसानों के बीच जल, जंगल, जमीन, पर्यावरण की रक्षा तथा उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करते रहे। सीएनटी, एसपीटी एक्ट, पेसा कानून और पांचवी अनुसूचि में प्रावधान अधिकारों को लेकर लोगों को जागृत करते रहे। इन कानूनों का सरकार की नीतियों द्वारा हनन होने पर सवाल भी उठाते रहे। रघुवर सरकार द्वारा पूंजिपतियों के लिए तैयार  भूमि बैक पर भी स्टेन स्वामी ने सवाल उठाये, कि पांचवी अनूसूचि क्षेत्र में ग्राम सभा के अधिकार और रैयतों के अधिकारों को खारीज करके सरकार ने मनमाने तरीके से भूमि बैक बनाया है, या पेसा कानून का भी हनन है इस पर स्टेन जी की तीखी कलम चहते रहती थी। 

केंन्द्र की मोदी सरकार ने कोविड महामारी के बीच देश के 41 कोयला खदानों की नीलामी की थी। जिसमें झारखंड के 9 कोयला खदान, छतीसगढ के 9, आडिसा के 9 और मध्य प्रदेश के 11 हैं। स्टेन जी ने सवाल उठाया कि इसमें अधिकांश कोयला खदान आदिवासी बहुल इलाकों में हैं इस तरह की नीलामी से रैयतों को क्या मिलेगा। इसे केवल उनके अधिकार ही छीने जाऐगें। इस मुददे पर सवाल के साथ इन्हेंने अपनी रिपोट में सरकार को सलहा भी दिये कि राज्य का कर्तव्य बन जाता है कि वह सहकारी संस्थाओं के निर्माण और पंजीकरण में सहायता करे और प्रारंभिम संसाधन जैसे आवश्यक पूंजी, तकनीकी विशेषज्ञता, पं्रबंधन कौशल, विपणन मार्ग आदि मुहैया कराये, ताकि वे बाधा रहित काम कर सकें और पूरे समुदाय लाभ उठा सके, जहां चाह है, वहां राह है। 

Akda

राज्य बनने के 12 साल बाद इन्होंने झारखंड के विकास एवं विस्थापन पर एक विस्तृत अध्ययन के साथ विभिन्न परियोजनाओं से आज तक हुए विस्थापित आंकड़ो का एक बड़ा कैलैंडर इन्होने छपवाये थे, जो बहुत सारी जानकारी देता था। बगैइचा संस्थान परिसर का सभी जगह तरह तरह की जानकारियांे से लैस करता है। 2006 में केंन्द्र सरकार द्वारा लाया राईट टू इंनफोरमेशन एक्ट 2006, वन कानून 2006, भोजन के अधिकार कानून, केंन्द्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की सूची, पलायन और ट्राफिकिंग रोकने की अपील जैसे कई जानकारियां मिलती हैं दिवारों में लगे पोस्टरों और आर्टस से। 



Sarkari Bikas Yojnaon ki Jankari deta yah postar

बहुत दिन हो गया, एक प्रोग्राम में पहली बार मैं फादर को देखी तो मेरा नजर उन पर टिका रहा

प्रोग्राम का लांच बे्रक का समय था। मैं साथियों से खाने में व्यस्त थी। तीन-चार टेबल दहिनी ओर फादर के साथ और लोग बैठकर खा रहे थे। स्टेन जी का दहिना हाथ थाली के उपर कांपत-कांपतेे इधर-उधर हो रहा था। कुछ छणों बाद हाथ भात के थाली में रखे और कांपते हाथ से अंगुलियों से भात को समेटने का कोशिश करने लगे। भात उठाकर सीधे मुंह तक ले जाने में कठिनाई हो रही थी। मेरी नजर वहीं टिका रहा। उन्होंने ने दोनों हाथ से पानी का ग्लास को कस कर पकड़ा और पीने के लिए उपर उठाने लगे, लेकिन पानी का ग्लास मुंह तक लेजाने में दिक्कत हो रही थी, हाथ कांपते-कांपते इधर-उधर हो रहा था। मैं इस क्षण को नहीं भूल सकती हुं। 

उनके रांची आने के बाद करीब-करीब सभी कार्याक्रमों में फादर स्टेन जी से मुलाकात होने लगी। मैं उन्हे फादर कह कर संबोधित करती-तो वे कहते, दयामनी मैं तुम्हारे लिए फादर नहीं हुं, मैं तुम्हारा बड़ा भाई हुं, तुम मुझको दादा पुकारो। जब भी मुलाकात होती, मैं उनकी बात याद कर-दादा से ही संबोधित करती हुं। जब कभी छोटी बैठक बुलाने का हुआ, हमलोग पैसे देकर बैठक स्थल बुक नहीं कर सकते, तब सीघे दादा को बोलते, हम लोगों को फलां तिथि को 10-20 लोगों के बैठने के लिए जगह चाहिए, अगर पहले से बुक नहीं हुआ हो, तो दादा कभी ना नहीं बोले। हां बोलते थे-ठीक है जगह मिल जाएगा, लेकिन खाना नहीं खिला पाऐगें। हम लोग स्वंय आपस में चंदा एकत्र कर केनटीन में 30 रू0 में खिचड़ी खा लेते थे। 

Birsa Munda our Sal ke Bahut Sare Ped

Sal  ka Chata Ped

Arhar Dal ke Paudha



नामकोम क्षेत्र के बच्चों को नौकरी के लिए कम्पीटीसन की तैयारी के लिए लाईब्रेरी एवं पढ़ने के लिए जगह दे रखी है। जहां बच्चे आकर कम्पीटीसन की तैयारी करते हैं। बगैइचा परिसर झारखंड के जल, जंगल, जमीन, भाषा-सांस्कृति के इतिहास एवं संघर्ष का अहसास दिलाता है। यहां साल के दर्जनों नन्हें पौधों को सिंच कर बड़ा किया गया, आज यहां साल जंगल का दृश्य मिलेगा। साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ भारत की स्वतंत्रता संग्राम के नायक वीर बिरसा मुंडा के उलगुलान का प्रतिक डोम्बारी बुरू पर हाथ में तीर-धनुष और मशाल लिए बिरसा की प्रतिमा आदिवासियों के संर्घष का याद दिलाता है। परिसर के बीच  गांव सभा, ग्राम सभा की बैठकों और विभिन्न अवसरों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए परंपरागत अखडा भी बनाया गया है। अखड़ा के पीछे झारखंड की अमर शहीदों के नामों का बड़ा शिलालेख है। जिसमें राज्य के जंगल, जमीन, भाषा-सांस्कृति की रक्षा के संघर्ष में हुए शहीदों के नाम दर्ज किये जाते हैं। 




परिसर में कई पपिता फलों से लदे पेड़, अमरूद, कटहल, जामुन पेड़, नींबू, नेंवा, , डाहू पेड़, अरहर, आलू, धन मिर्चा, तुलसी के खेत, कुंदरी और अदरक आदि की खेती राज्य के खेती-किसानी को विकसित करने को प्रेरित करता है। राज्य में 245 गांवों को विस्थापित होने से बचाने का संघर्ष कोइलकारो जनसंगठन ने जीत हाशिल किया है। प्रत्येक वर्ष 5 जुलाई को संकल्प दिवस और 2 फरवरी को शहादत दिवस कोइलकारो जनसंगठन मनाता है। इन दोनों कार्यक्रमों में स्टेन स्वामीजी प्रत्येक वर्ष जाते हैं। तपकारा जाने के लिए स्टेन जी हमेशा मिनीडोर-ओटो बुक करते थे, और फोन करके पूछते थे, अगर किसी को मेरे साथ जाना है तो, ओटो में जगह है। जबकि हमलोग दूसरी गाड़ी टाटा सूमो आदि बुक कर जाते हैं, सच बात है कि अब हमलोगों की मानसिकता बदल चुकी है। 

राज्य में करीब 3000 निर्दोष आदिवासियों को विभिन्न अरोप लगा कर जेल में वर्षों से बंद रखा गया है। स्टेन स्वामी हमेशा इन निर्दोषों को रिहा करने की मांग को लेकर अपनी लेखन के साथ कार्यक्रमों में सवाल उठाते रहे हैं। यहां विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि-एक तरफ राज्य की रघुवर सरकार खूंटी क्षेत्र के आदिवासियों पर तरह-तरह के अरोप लगा कर उन्हें परेशान किया, जेल में भेज दिया। दूसरी ओर 2019 में राज्य में आयी महागठबंधन की सरकार ने 29 दिसंबर 2019 को घोषणा किया कि पत्थलगाड़ी आंदोलन के सभी फर्जी केस वापिस किये जाऐगें। इसको लेकर भाजपा विरोध भी किया-कहा कि हेमंत सरकार अरोपियों को बचाने का काम कर रही है।  हेमंत सरकार के आदेश के साथ ही राज्य के मुख्य सचिव ने जिला के उपायुक्त को कारईवाई करने के लिए पत्र भी लिखा। कुल 30 केसों में से 16 केसों को वापस लेने की अनुशांसा भी कर दी गयी, बाकी पर समीक्षा चल रहा है। 

स्टेन स्वामी सहित देश के 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की Giraftari  देश के आंदोलनरत जनसंगठनों, उनसे जुड़े नेताओं को भयभीत कर जनआंदोलनों को कमजोर करने की केंन्द्र सरकार की कोशिश है। स्टेन स्वामी को आतांकवादी घोषित करना एवं उनकी गिरफतारी करना इसी का एक कड़ी है। 


Friday, October 23, 2020

वो बारूद की गाड़ी

 


वो बारूद की गाड़ी


मेरा अरहरा गंाव से शहर आयी थी। आठवीं क्लास पास कर नवीं क्लास में दाखिला ली, संत माग्रेटस 

बालिका उच्च विद्यालय में। गांव में हर साल करम त्योहार के दिन अपने परिवार के तरफ से मैं ही करम राजा के लिए रोटी-दातून, तेल, धूप और सिंदूर चढाती थी। कारण की मां तो जब मैं चैथा क्लास में पढ़ रही थी, तभी घर से रांची शहर आकर आया का काम करने लगी थी। मां के जगह मैं करमा का सेवा करती थी। रात भर मंदर की थाप पर पूरा गांव करमा गीत के साथ अखाड़ा में सराबोर रहता था। सबके घर में दूर-दराज के कुटूम आते थे। 

गांव में 15 दिनों से करम परब की तैयारी चलती थी। उपसिन 15 दिन पहले ही उपवास कर गंगाई, मकई, धान, गेंहूं का जावा उठाती थी। हर दो तीन दिन में हल्दी पानी  देती थी। ताकि जावा तंदूरस्त रहे। रात को रोज पूरा गांव अखाड़ा में नाचता गाता था। शहर का वातावरण मेरे लिए बिलकूल नया था। गांव से बिलकूल अलग।

अक्टोबर माह था। मैं नावीं क्लास में पढ रही थी, स्कूल में नवाही परीक्षा चल रहा था। जिस दिन हमारी परीक्षा समाप्त हुई, उसी दिन रात को मेरा गांव अरहरा में करम का त्योहार था। स्कूल से परीक्षा लिखकर घर लौटे और शाम को बड़ा भाई सुशील को गांव करम परब मनाने गांव जाने की जिद की। हम दोनों गांव के लिए निकले। हम दोनों रांची से खूंटी तक एक टेकर से गये। खूंटी में पता चला कि अब सिमडेगा रूट में गाड़ी नहीं मिलेगा। सब गाड़ी निकल चुका है। फिर भी हम दोनों बहुत देर तक गाड़ी के इंतजार में रोड़ पर खड़े रहे, अगर कोई गाड़ी पोकला तरफ जाने वाला मिल जाएगा तो, उसमें बात कर के निकल जाएंगें। अब अंधेरा होने लगा था। 

थोड़ी दूर तक हम दोनों पैदल गये। सूरज का प्रकाश अंधकार में बदल चुका था। हमदोनों पिछे मुंड मुंडकर रोड़ की ओर देखते जा रहे थे कि कोई तो नहीं आ रहा है। एक घंण्टा चलने के बाद पिछे से गाड़ी का लाईट दिखाई दिया। हमदोनों खुश होने लगे कि-चलो एक गाड़ी ता आ रहा है। 

गाड़ी पास पहुंचने वाला था, तभी हमलोगों ने रूक कर गाड़ी को हाथ देकर रोकने के लिए कहा। गाड़ी रूकी। वो एक ट्रक था। बारूद वाला ट्रक। चारों तरफ से बंद था, उस पर आदमी का कंकालनुमा चित्र बना था, लिखा था-अंग्रेजी में -क्।छळम्त्ं। डाइ्रवर पूछा-कहां जाना है? हम दोनों बोले पोकला। हम दोनों बोलेे-हमदानों को पोकला जाना है, गाड़ी नहीं मिल रही है, आप लेते जाइए, हमदोनों भाड़ा ही देगें। 

पहले गाड़ी वाला बोला-कैसे ले जाएंगा, जगह भी नहीं है। फिर तुरंत ही बोला-ठीक है चलो, बैठो। हम दोनों गाड़ी पर चढें, ड्राईवर के पास ही। सुसील दादा दरवाजा के बगल में, और मैं ड्र्राइवर के ठीक पीछे वाले सीट पर। ड्राइवर के बगल में खलासी स्टुल पर बैठा था। हमदोनों चुपचाप बैठे थे। ड्राइवर और खलासी भी कभी कभार आपस में बात कर लेते थे, ज्यादा समय चुप ही रहे। हम दोनों के पैर के नीचे दो बड़ा-बड़ा पत्थर और  साथ में बड़ा बड़ा तीन-चार तलवार रखा हुआ था। हम दोनों उन दोनों चुपचाप इन चिजों को निहारते रहे। जिज्ञसा हुई तोे पूछे-इसको यहां क्यों रखे हैं? दानों ने जवाब दिया-हम लोग रात को सफर करते हैं, बदमाशा सब मिलते हैं-तब इसका प्रयोग करते हैं। 

करीब 12 बजे रात को गाड़ी किसी लाईन होटल में जा कर रूकी। चालक उतरे हुए बोला, हमदोनों खाना खा लेते हैं, चलो तुम दोनों भी खा लो। हमदोनों बोले-भूख नहीं लगी है। थोडी देर के बाद हमदोनों घर पहुंच जाएंगे। खलासी और चालक दोनों गाड़ी से उतर गये। करीब एक-डेढ घंण्टे के बाद एक आदमी हम दोनों को खाने के लिए बुलाने आया। हम दोनों नहीं खाने की बात बोल कर गाड़ी में ही बैठे रहे। कुछ देर बाद एक आदमी दो प्लेट लेकर आया। उसमें रोटी और मुर्गा मांस था। हम दोनों फिर से नहीं खाने की बात बोल कर प्लेट नहीं लिए। इसके करीब एक घंण्टा बाद दोनों वापस गाड़ी पर आये। 

चालक आधेड उम्र का था। खलासी जवान था। चालक गाड़ी को होटल से थोड़ा दूर लेकर अचानक रोकते हुए खलासी से बोला-लो अब तुम गाड़ी चलाओ, हमसे नहीं होगा। गाड़ी रूक गयी। खलासी चालक के ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। चालक मेरे बगल में आकर बैठा। खलासी गाड़ी चलाने लगा। चालक अभी तक उनको नशा आ चुका था, मेरे शरीर के उपर हाथ फेरने लगा। हम दोनों उनकी नीयत समझते, तब तक चालक सुशील से बोला-अब तुम अपनी बहन को मेरे हवाले कर दो कहते हुए खलासी को गाड़ी रोकवाया। बोला अब गाड़ी यहां से आगे नहीं बढेगी। 

यह सुनते हमदोनों के रोंगटे ,खड़े हो गये। दादा दरवाजा से सट कर बैठा था। उसके दहिने ओर अंदर तरफं मै बैठी थीं। मेरे दहिने बगल में चालक आकर बैठ गया था। दादा बोले-दोलारे डेगावेलांग( चलो गाड़ी से छलागं लगाकर उतरेगें)। मेरे बगल में चालक बैठा था। दादा के दिमाग में आया अगर हम पहले उतरते हैं-तो ये बहन को पकड कर रख लेगें, यह सोचते दादा बोले-चलो तुम पहले उतरो कहते हुए-वह मेरी तरफ सरक गया, और मैं दरवाजा की तरफ सरकते हुए दरवाजा से बाहर छालांग लगा दी। 

अंधकार था। रास्ता ठीक से दिख भी नहीं रहा था। हम दोनों रोड़ रोड़ सीधे भागने लगे। आगे आगे दादा भाग रहा था, पीछे पीछे मैं। थोडी दूर भगने पर मुझे लगा-हमदोनों रोड़ रोड़ भागेंगें तो-गाड़ी से दौड़ा कर हमदोनों को पकड़ लेगें। मन में यह आते ही मैं दादा को आवाज दी-रोड़ रे कलंग निरा-जोम पड लोयोंग रे अडगुनमें। ( रोड़ पर नहीं भागेगें-दहिनी ओर खेत में उतर जाओ)। हम दोनों रोड़ के दहिनी ओर धान के खेत में छलांग लगा दिये। अब तक उन लोगों गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ने लगे, गाड़ी की रोशनी फैलने लगी। मन में डर होने लगा कि, हम दोनों को पकड़ ना ले।  गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। 

खेत रोड़ से सटा हुआ है लेकिन रोड़ से बहुत नीचे है। मैं धान के खेत में छलांग तो लगायी, लेकिन मेरा सिर नीचे पानी में और पैर उपर खेत के आड़ सहारे उपर रह गया। मेरा सिर खेत के माटी-पानी में छाती तक डुब गया। लेकिन दिमाग चल रहा था। सोचने लगी, गाड़ी पीछे से आ रही है-मेरा पैर मेंड़ पर अटका है-वो देख लेगें। यह सोचते धान के पैधों के सहारे मैं अपने को सीधा करने की कोशिश की और धान खेत में खड़ी हो गयी। धान का पैधा मुझ से बहुत उपर था। धान खेत में छाप-छाप करते मैं आगे बढ़ते गयी और रोड़ से दूर खेत के दूसरे मेंड़ पर आ गयी। दो-तीन खेत पार करते गयी ।तब दादा का आवाज आया-कोतेरेमा रे..,? तुम किधर हो  ....?

मैं जवाब दी-इधर हुं। तक दोनों एक खेत के आड़ में आकर मिले। धान खेत में बहुत पानी था। खेतों के मेंड़ पर कई जगह डोभा था, पानी बहने की तेज आवाज आ रही थी।  , जहां से पानी की धारा हाद-हाद हाद करते, छींटा मारते बह रहा था। हमदोनों एक टांड पर निकले। टांड रोड़ से दूर था। मेरा एक पैर का चप्पल धान खेत के माटी में घुस गया भागने के समय। एक ही पैर में चप्पल रह गया था। उस चप्पल को हाथ में लेकर घांस के टांड से आगे निकलेे। तब तक आसमान में चांद निकल आया। चांद की रोशनी इतना साफ था कि-खेत का छोटा छोटा आड़ भी आसानी से दिखने लगा था। 

हमदोनों किस जगह हैं, अब किस दिशा में जाना है, किधर से जाना है-कुछ भी पता नहीं था। थोड़ी देर टांड-टांड चलते रहे। फैले हुए टांड में एक बड़ा सा पेड़ दिख रहा था।  सामने उतर दिशा में बगिचा जैसा पेंड़ा का छुण्ड दिखाई दे रहा था। हमदोनों अनुमान लगा रहे थे-जरूर वहां कोई गांव होगा। इसी उम्मीद में हमदोनों उस ओर जाने लगे। बगिचानुमा पेड़ों के छुंण्ड के पहले एक छोटा नाला मिला। हम दोनों नाला पार करने के लिए उतरे नाला में उतरे। नाला में घुटना था। पानी से पार निकल कर नाला के बड़ा ढ़लान-धसना पर चढ़ने लगे। धसना -ढ़लान  उचां था। वहां लाल गंुडगुड माटी था। धसना पर चढते समय बार बार मैं पिछल कर नीचे गिर जा रही थी, गुडगुड कंकड....से फिसल फिसल जा रही थी। धसना में कांसी का पैधा था......मैं कांसी पैधा का सहारा से उपर चढने की कोशिश में थी। कांसी पैधा के धारदार पत्ता से हाथ कट-कट जा रहा था। बहुत मेहनत के बाद उपर हम दोनों चढ़ पायंे। 

हम दोनों रोड़ की ओर सिर घुमा-घुमा कर बार बार देखते जा रहे थै। एक गाड़ी कमडारा की ओर से रोड़ में बहुत धीमे धीमे आ रही है। हम दोनो आपस में बात करने लगे, शायद वही गाड़ी वाले हम दोनों को ढूढने के लिए वापस आ रहे है। लेकिन अब हम दोनों रोड़ से बहुत दूर थे। हम दोनों चांद की रोशनी में आगे बढ़ते गये। आगे आम का बड़ा बगिचा था। वहां घर का तो कोई पता नहीं चला। अब पेड़ो का घना कतार मिलने लगा। इसे उम्मीद जाग रही थी कि गांव पास में होगा। थोड़ी देर चलने के बाद हम दोनों एक जगह पहुंचे-जहां बाजार में लगाने वालों दुकानों का छपरी-छपर था। यहां से थोडी दूर में एक दो घरनुमा दिखाई देने लगा था। 20-30 कदम आगे बढे, तब आम का पेड देखकर पहचान गये-हमदोनों पोकला गांव पहुंचे हैं। अब गांव के एक-दो कुत्तों के भौंकने की आवाज भी आ रही थीं 

अब हमदोनों के  जान में जान आ गयी थी। हमदोनों पोकला गांव में थे तभी मुर्गा बांग दे रहे थे। हमदोनों आपस में फूस फूस बात कर रहे थे-यह पहली मुर्गी बोली है यह दूसरी। शायद पहली होगी-चलो अब डर नहीं लगेगा। हमदोनों पोकला रेल स्टेशन होते हुए रेललाईन लाईन सोनमेर होते हुए अरहरा गांव की ओर बढे। सोनमेर गांव के पास से ही अरहरा में करम अखड़ा का मंदर की गुंज सुनाई देने लगा। हमदोनों कोटबो गडहा तक पहुंचे-अब तो मंदर और गीत की गुंज और तेज हो गयी है। 

हमदोनों करीब चार बजे गांव पहुंचे। करम अखड़ा में लोग गीत के साथ झुम रहे थे। हमदोनों घर पहुचें। हमदोनों के घर पहुंचने की खबर पा कर अखड़ा से जोलेन दादा भी अपने साथियों के साथ घर आया। बिजय दादा भी घर से बाहर निकला था, वो भी घर आ गया। इसके बाद सभी भाई बहन मिलकर करम नाचने अखड़ा चले गये। सुबह बड़ी मां, और गांव भाभी, चाची, बहन सब अपने घर से करम के लिए लोटा में पानी, दतवन, तेल, सिंदूर और पीठा-धान की रोटी ला रहे थे, मैं भी लेकर करम को लोटा पानी दी।  रात की घटना के बारे दूसरे दिन हमदोनों ने घर-बाहर सबको बता दिये। तब घटनास्थल का पता चला-वो जगह टुरूंडू है वहां रोड़ के उस पार एक बड़ा तलाब है रोड़ के बाईं ओर, इसी तलाब के नीचे वाले खेत में छलांग लगाये थे। 

सच्ची घटना-जब मैं नौवीं क्लास में थी। प्रत्येक वर्ष करम के दिन मुझको याद आता है, वो चांद की रोशनी में तय करते कदम....

दयामनी बरला 

23 अक्टोबर 2020

Woman Leads Tribals Against World's Steel Maker --By Gagandeep Johar : "

 

MINING-INDIA: Woman Leads Tribals Against World's Steel Maker
By Gagandeep Johar

Dayamani Barla: "The day we take outside funds the movement will break" / Credit:Surujit Bhattacharjee/IPS
Dayamani Barla: "The day we take outside funds the movement will break"

Credit:Surujit Bhattacharjee/IPS


NEW DELHI, Sep 12, 2009 (IPS) - The fight against the world's biggest steel maker, ArcelorMittal, is being waged from a tiny tea stall in Ranchi, eastern India.

It is run by Dayamani Barla, a journalist and activist, and is the office of the Adivasi Moolvaasi Ashthitva Raksha Manch (AMARM), which loosely translates as a platform for the protection of the rights and identity of indigenous peoples.

As AMARM'S convenor, Barla, in her forties, is at the forefront of a campaign to stop an 8.2 billion dollar steel plant project by transnational ArcelorMittal that will uproot 40 villages and 70,000 indigenous people in mineral-rich Jharkhand state.

The global steel giant has been allocated vast coal blocks and iron ore sites. Dense forests and rivers will be obliterated by the mining. Ancient ways of life practiced by tribals will be lost forever.

"The project will displace not just 70,000 aboriginals but 70,000 generations of people," says Barla. "Our culture, social values are linked to our jungles and cannot be replaced."

The project to build one of the world’s biggest steel mills was launched by stealth in 2005. Unknown to villagers, ArcelorMittal, which wants 12,000 acres of land, conducted a land survey.

Barla, who has written on tribal and Dalit rights issues for 10 years in Prabhat Khabar, an influential Hindi-language daily, stumbled on a map of Jharkhand in a block officer's cabin, where 40 villages, including her own, were marked. Further investigations revealed the markings constituted the project area of a proposed steel plant.

For four years, Barla has travelled from village to village alerting villagers of their impending displacement. "We want development but not at our cost," she is emphatic. "I have worked against displacement for a long time now and my research shows displaced people don’t have proper lives. They loose their sense of belonging."

In the nineties, Barla was involved with the massive protests against the ambitious Koel-Karo hydropower project in Jharkhand. Faced with unrelenting opposition, the government was forced to shelve the plan in 2000.

Jharkhand's tribals are well acquainted with the irreversibility of displacement. A power project in the early sixties - the state-run Heavy Engineering Corporation in the Hatiya region, set up in collaboration with Soviet and German help - had uprooted 36 villages belonging to the Uraanv, Munda and Khadia 'adivasis’ (indigenous people). The villagers are still rootless. Only 5 percent of people uprooted by so-called development projects in Jharkhand have ever been resettled, says Barla.

The pressure on tribal and forest lands has multiplied since the nineties, when India opened its economy and international and Indian industries flocked to Jharkhand to exploit its mineral wealth,

AMARM has taken an oath that no village will be uprooted by ArcelorMittal. The next move will be litigation against the transnational giant, she says, but doesn’t divulge details.

Barla, and her husband Nelson who previously owned a paan (betel leaves) stall, plot strategy with activist comrades in their tea stall-cum-office, Jharkhand Hotel on Ranchi's Club Road. Tea stalls are gathering places in India.

"Every villager contributes one muthi (fist) of rice and one rupee, each time a mass agitation is planned," says Barla. When 15,000 people camped in Ranchi, among Jharkhand's big cities, in March 2008 for weeks, AMARM was able to feed them day after day.

"The day we take outside funds, the movement will break," she says.

Barla who has a masters in commerce from Ranchi University, is a self-made woman. Born in Arahara village, Gumla district, she went to Ranchi at the age of 13. Her father's fields were taken away by moneylenders, and the family "disintegrated", she recounts.

"My family disintegrated because we couldn't fight the moneylenders. My father had to work as a daily wager; my brother went to Ranchi to work as a coolie (labourer). Even I worked for other farmers before I left for Ranchi," she says.

For the first two years in the unfamiliar city, she lived with her brother in a cattle shed - the only thing they could afford - and scraped together a living as a domestic worker. She washed dishes and mopped floors before and after school in several houses, she says. When she completed grade 10 (in 1984) she began tutoring children at home - stopping only when she graduated from college.

The rigours of her early life have given her confidence to pursue her dream, she says.

Barla became a journalist because "Dalit, tribal and women's issues were not really addressed in the media," she says. She dedicated her life in the cause of her people who, she says, have suffered because of lack of education.

"I was clear from the very beginning that I want to fight for my people. My parents were exploited because they were not educated and were uninformed. I didn’t want anybody in my community to suffer for not being educated."

Barla’s entry in her blog on Mar. 19, 2009 says: "We need food grains, not steel. Jharkhand is ours not a jagir (fiefdom) of any company. We want development, not industry."

Inevitably AMARM's fight is compared with the Narmada Bachao Andolan (NBA), the long-running movement to save the Narmada river in central India led by Medha Patkar, the 1992 winner of the Alternative Nobel Prize.

"Our movement is different from NBA's in the sense that there was no protest in the beginning but it happened later over the height of the dam," she says. "Here we are protesting from the very beginning that we will not give our land on any condition."

"Ek inch bhi zameen nahi denge (We won't give even an inch of our land)," she concludes. (END)