
pani ki mang ko lekar Dharna me baithe hain...
मोहन साहू, लक्षम्ण साहू, स्व. सेवा साहू ये तीन थे। इनमें दो भाई को नौकरी मिली थी। इन दोनों के नौकरी के बाद खनदान में किसी को भी नौकरी नहीं मिली। वर्तमान में इस खनदान में 80 सदस्य है, जो दिहाड़ी मजदूरी करके जी रहे हैं। तीनों भाईयों को पूनर्वास के नाम पर 60 डिसमिल जमीन मिली थी। नगेश्वर साहू, गुलशन साहू, खुलेश्वर साहू कहते हैं-पूनर्वास के नाम पर हमलोगों को 20 डिसमिल जमीन मिला है, यहां आये 42 वर्ष हो गये लेकिन जमीन का कोई कागजात नहीं दिया। यहां से जब भी सरकार भगाना चाहेगी, भगा देगी, क्योंकि हमारे पास कानूनी हथियार नहीं है। जगदेव ठाकुर के परिवार में पांच भाई है-पूनर्वास स्थल में इस परिवार को मात्र 20 डिसमिल जमीन मिला। कहते है किसी को नौकरी नहीं मिला। नगेश्वर नायक, पिता स्व. लक्ष्मण नायक कहते हैं-हमलोग तीन भाई हैं। कहते हैं-नौकरी तो है नहीं जिंदगी काटने के लिए मजदूरी ही एक मात्र साधन है। मिर्जापुर पूनर्वास स्थल के विस्थापित कहते हैं-यहां सिर्फ हमलोगों का डेरा है जीविका के लिए सभी परिवार के सदस्य पंजाब, हिरयाण, गुजरात, बोम्बें, आदि शहरों में जाकर मजदूरी कर रहे हैं।
विस्थापित बच्चों के लिए मिर्जापुर में 1968 में पहला से पांचवा क्लास तक स्कूल खोला गया, जिसके प्रबंधन की जिम्मेवारी सिंचाई विभाग को था। कुछ साल बाद विभाग ने स्कूल का देखरेख करना छोड़ दिया। पांचवा से आठवां क्लास तक बढ़ाने के लिए विस्थापितों ने एक-एक मुठी चावल चंदा करके क्लास बढ़वाया। विस्थापित बच्चे 6-7वां के बाद पढ़ नहीं पाते है क्योंकि हाईस्कूल मिर्जापुर से 18 मिलोमीटर दूर पेटरवार में है, दूसरा 22 मिलोमीटर दूर तेनुघाट में है। विस्थापित कहते हैं सरकार की ओर से चार लीटर मिटटी तेल देना है, लेकिन वह भी नहीं मिलता है। डैम से विस्थापितों को गर्मी में पानी भी नहीं मिलता है। मिर्जापुर के लोग पानी कि लिए तीन किलोमीटर दूर ललपनिया जाना पड़ता है। विस्थापितों से मिलने गये तोरपा, रनिया, कर्रा तथा कमडारा के आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच के प्रतिनिधियों को मिर्जापुर के लोग कहते हैं-आप लोग किसी भी कीमत में विस्थापित मत होइऐ, जान दिजीए, लेकिन जमीन मत दिजीए, अगर देते हैं तो आप के गर्भ में बच्चा है उसको भी गिनती किजीए और हक मांगिएगा।
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