Thursday, August 27, 2020

मांदर के मधुर गूंज के बीच -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2 आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एैसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही।

 मांदर के मधुर गूंज के बीच -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले

आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2

भाले...भाले के गीत के साथ युवक-युवातियां करमा राजा का गांव के अखड़ा में स्वागत किये। प्रकृति के जीवनचक्र में बसंत की नई किरण के बाद जेठ की तपती धूप से झुलसे प्रकृति को रिम झिम बारिस ने षीतला प्रदान किया है। आकाष के काले धने बादल किसानों के जीवन में नयी उम्मीदें भर दी है। लेवा-लुंडा, रोपा-डोभा, में व्यस्त प्रकृतिकमूलक आदिवासी-मूलवासी समाज अपने प्रकृति प्रेम तथा इनके साथ अपने सहचार्य जीवन की जीवंतता को करम त्योहर में इजहार कर रहे हैं। करम त्योहार, मात्र एक त्योहार ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासी मूलवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, इतिहासिक तथा पर्यावरणीय जीवन षैली का ताना बाना है। भादो के एकादष के दिन पूरे राज्य में आदिवासी मूलवासी समाज राईज करमा मना रहा हैं। झारखंड के सभी आदिवासी समूदाय करमा त्योहार मनाते हैं। करमा त्योहार मनाने के पीछे मुंडा, उरांव, खडिया, हो-संताल, आदिमजाति, मूलवासियों का अपना मन्याता है। कालेंडर के आधार पर राईज करमा 18 अगस्ता को मनाया गया। इसके साथ ही अपनी सुविधानुसार सभी गांव करमा त्योहार मनाएंगेे। सभी गांव अपने हिसाब से कहीं बुढ़ी करम, कहीं ईन्द करमा, कहीं जितिया करमा, कहीं ढेढिरा करम मनाते है। इन सभी करमा त्योहार मनाने के पीछे अपनी अपनी मन्याताएं हैं।

karam ped se karam dali la kar akhra me karam gadte

karam ka sewa karte, gaon ka pahan, pujar 

आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच -हम अपनू पूर्वजों की एक इंच जमीन नहीं देगें का संकल्प के साथ संर्घषरत है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच सिर्फ जमीन बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहा है लेकिन इसके साथ सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, इतिहास-पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। पूरे झारखंड में जब आदिवासी मूलवासी समाज मंदर की थाप पर करमा अखड़ा में झुम रहा है- 


karam parab ka ..Nachte- Gate

आठ दिन पहले गांव की उपासिनों ने नहा-धोवा कर नदी से बालू ला कर मकाई का जावा, उरद, गोंदली आदि अनाज का जावा  उठा दी हैं। जावा उठाने के बाद उसको सारू पता से ढंक देती हैं। जावा का सेवा करती हैं, इसको हल्दी पानी से सिंचती हैं।  करमा के दिन सुबह नहा-धोवा कर उपवास किये युवक-युवातियां अरवा सूता लेकर करमा लाने जाते हैं। जहां जंगल नजदीक है-वहां के लोग जंगल से लाते हैं और जहां जंगल दूर है, वहां के लोग अगल बगल गांवों से या अपने गांव में हो, तो वहीं से लाते हैं। अखडा में गाड़ने के लिए भूंईफूट करमा याने जो करमा पेड जमीन से उगा होता है, उसी को काटते हैं। लेकिन अब जंगल खत्म होते जा रहा है, इस कारण करमा पेड भी कम होता जा रहा है। इस कारण जो भी पेड मिलता है उसी से काट लेते हैं। उपवास किया युवक अरवा धागा लापेट कर करम डाली काटता है, नीचे उपासिन युवातियां डालियां सम्भाती हैं। करमा डाली को नीचे जमीन पर गिरने नहीं दिया जाता है।

Sengi -Susun, kaji gi durang...bolna hi get- sangit, chalna hi nritya

jal, jangal, jameen, bhasha, sanshkriti ka sangharsh

षाम को पूरा गांव के लोग अखडा में जमा होते हैं, पाहन पूजा करते हैं, उपवास किये युवक-युवातियां करमा के पास बैठते हैं, सभी अपने साथ जावा फूल और खीरा बेटा लेकर आते हैं। पाहन के पूजा के बाद सभी महिलाएं एक दुसरे के कमर में हाथ डाले जोडाती है, पुरूष मांदर केे साथ अखडा में प्रेवष करते हैं-गीत षूरू होता है-

लगे बाबू मंदिरिया-मंदेराबाजय रे, 

लगे बाबू मंदिरिया मंदेराबाजय, 

लगे माईया खेला जामकाय.. 

ओ रे लगे माईया खेला जामकाय

 करमा पेड का समाज हमेषा आदर करता है। इस पेड का लकड़ी जलावन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, न ही इसका पीडहा -बैठने के लिए नहीं बनाते हैं। करमा त्योहार और आदिवासी मूलवासी समाज पर्यावरण बचाने का संदेष दे रहा है। रात भर करम खुषीयाली मनाने के बाद दूसरे दिन करमा को घर-घर बुलाया जाता है। सभी परिवार करमा का पैर धोते हैं, उसे करमा को भेंट देते हैं। पूरां गांव घुमने के बाद इसे नजदीक के नदी में जा कर बहा देते हैं। 


jal, jangla, jameen ke sath juda bhasha sanshkriti aur dharmik Astha...Sasan Diri

किसान करम पर्व के पहले दिन जंगल से भेवला डाली लाकर घर के छत में रखे रहता है, इस डाली को दुसरे दिन किसान खेतों में लेजाकर गाड़ते हैं। इसके पीछे कृर्षि सुरक्षा का वैज्ञानिक महत्व हैं। धान के लहलहाते खेत हैं कुछ कीडे पौधों को खाते हैं-जो धान के पौधों में चिपके होते हैं। इन किड़ों को ठेंचुवा चिंडिया खाता है। जो भेलवा डाली धान खेत में गाड़ा जाता है-उसी में चिंडिया बैठकर किड़ों को खाता है। इसके साथ ही भेलवा पेड़ के और कई महत्व हैै। कृर्षि सुरक्षा का यह प्रकृतिक पद्वति है। 

मानसून की पहली बारिस के साथ ही धान बुनी, गोडा, गोंदली, मंडुआ, लेवा, बिंडा, कादो-धान रोपनी, के बाद खेती बारी में प्रकृति के योगदान की खुषीयाली मनायी जाती है-जो करमा पर्व के रूप में जाना जाता है। एैसे तो असार, सावन, भादो, कुवार, कातिक और अघन महीना तक करमा का मौसम होता है। इस मौसम में करमा का ही गीत गाते हैं। करमा के एक-एक गीत आदिवासी, मूलवासी सामाजिक जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सास्कृतिक, पर्यावरणीय जीवन मूल्यों का विष्लेषण करता है। जो प्रकृति-पर्यापरण और मानव सभ्यता का वैज्ञानिक जीवन पद्वति पर आधारित है। 



आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एैसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही। दिन को खेत-खलिहान, नदी-नाला, जंगल-पहाडों में काम करते हैं और रात को थकान मिटाने के लिए गांव के बीच तीन-चार ईमली पेड़ो से घिरे अखड़ा में पूरा गांव नाचता गाता है। आदिवासी समाज के पुरखों ने पूरी वैज्ञानिकता के साथ परंपारिक धरोहरों को संयोने का काम किये हैं। मनोरंजन के दौरान वहां उपस्थित लोगों के बैठने के लिए अखड़ा के किराने बडे़ बडे़ पत्थरों का पीढ़हा-बैठक बनाये है, साथ ही ईमली की ष्षीतल छाया मिलती है। 98 प्रतिषत आदिवासी गांवों में अखड़ा ईमली पेड़ के पास ही है। प्रकृति जीवनषैली-को करम गीत गाते हैं-ईमली पेड़ के नीचे अखड़ा में करमा नाचते गा रहे हैं-

1-रिमी-छिमी तेतारी छाईयां

   ना हारे धीरे चालू

   रासे चलू मादोना

   न हारे धीरे चाल

     एंडी का पोंयरी झलाकाते-मलाकाते आवै

     न हारे धीरे चालू-रासे

  धामिका चंदोवा झलाकाते-मलाकाते आवै


2-जेठे में तोराय कोयनार साग रे

सावन भादो रोपा-डोफा कराय रे-2


3-बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे-2

   बोन में झाईल मिंजुर सोभाय-2

4-चंकोड़ा जे जनामलै-हरियार रे

   से चंकोड़ा फूला बिनू सोभाय-रे

चंकोड़ा जे फरालैं-रूणुरे झुणु

हलुमान हिरी जोहे जाए

करम त्योहार मनुष्य और प्रकृति से संबेध को मजबूत करता है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी। एक गांव में करम गड़ाता है, इसमें अगल-बगल कई गांवों के लोग षामिल होते हैं। पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बंसुरी के सुरीली तान से गूुज उठता था। अखड़ा में मांदर के गुंज के बीच महिलाओं के जुड़ों में सफेद बगुला के पंख से बना-कलगा के साथ जावा फूल पूरे महौल को खुषियों में सराबोर कर देता था। लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोस में सामेटता जा रहा है। आज जब हम करमा मना रहे हैं-तब हमे यह चिंतन करना होगा कि औधोगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए। नही ंतो एक ऐसा समय आएगा-जब न जंगल-झाड़, नदी-नाला, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा-तब हमारा यह करमा त्योहार लोक गीतो-कथाओ में ही जीवित रहेगा।  


Wednesday, August 12, 2020

आदिवासियों की सही जनसंख्या का आकलन करने एवं उनके अस्तित्व को पहचान देने के लिए सरना कोड जरूरी है। इसीलिए 2001 से सरना कोड की मांग को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा हैं ।

 2011 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी का 8.6 प्रतिशत देश में आदिवासी जनसंख्या है। जो लगभग ग्यारह करोड़ है। पहले देश के आदिवासी समुदाय को जनगणना के विभिन्न धर्म कोड के तहत गनणना किया जाता था। वर्ष 1871, 1881, 1891 के जनगणना में आदिवासी समुदाय को अबोरिजनल काॅलम रख कर गणना किया गया था। 1901, 1911 और 1921 में इन्हें एनिमिस्ट काॅलम में दर्ज किया गया। 1931 और 1941 में ट्राइबल रिलिजन काॅलम में दर्ज किया था। 1951 में शिडयूल ट्राइबस काॅलम में रखा गया। लेकिन 1961 के जनगणना में हिंन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौध, जैन और अन्य काॅलम रखा गया। इस तरह से आदिवासी समुदाय के पहचान को खत्म कर दिया गया, इस तरह तब से आदिवासी समुदाय को मजबूरन अन्य या दूसरे धर्म कोड में शामिल करना पड़ रहा है। 

झारखंड में आदिवासी आबादी

2011 के जनगणना के अनुसार झारखंड की कुल आबादी 3 करोड़, 29 लाख, 88 हजार, 134(3,29,88,134) है। इसमें आदिवासियों की संख्या 86,45,042 है। जिसमें ईसाई लिखने वाले आदिवासियों की संख्या 14,18,608 लाख और सरना लिखने वाले 42,35,786 हैं। अगर दोनों को मिला दिया जाए, तो ईसाई औ सरना आदिवासियों की कुल संख्या 56,54,394 है। इसे कुल संख्या से घटा दिया जाए, तो 30,09,256 लाख कहां गए, या तो इन्हे हिंदू धर्म में दर्ज कराया या फिर अन्य में। 2011 में सरना कोड की मांग उठी, तो आदिवासियों ने जनगणना में फार्म में खुद ही सरना धर्म अंकित कर दिया था। इसलिए जनगणना रिपोर्ट में सरना धर्मावलंबियों का अंकडा 42 लाख आ सका। आदिवासियों की सही जनसंख्या का आकलन करने एवं उनके अस्तित्व को पहचान देने के लिए सरना कोड जरूरी है। इसीलिए 2001 से सरना कोड की मांग को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा हैं ।


pariwar ke mritakon ko apne purwajon ke sath samail karne ke liye Sasan Diri me har mritak ko laya jata hai, is samay gaon basanewala pahla Gaon Munda ko bhi yad kiya jata hai, yah sal ka brikch issi ka pratik hai

Samuhita Adivsi Samaj ka phachan hai- Jal, Jangal, Jameen hi Samaj ka bhsha- Sanshkriti hai

2020 के अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस के अवसर पर राज्य प्रबुद्व नागरिकों और राजनेताओं ने आदिवासी धर्म कोड की मांग के लिए एकजुट होकर आंदोलन करने का संकल्प लिया। इस अवसर पर राज्य के वितमंत्री सह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डाॅ रामेश्वर उरांव जी ने आदिवासी दिवस सम्मारोह को संबोधित करते घोषण किया कि-जल्द ही गठबंधन की सरकार विधान सभा से सरना कोड लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित कर केंन्द्र सरकार को भेजेगी। उन्होनंे बताया कि इस संबंध में हमारी बात मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन जी से भी हो गयी है। 

रघुवर दास की सरकार 2014 से 2019 तक सत्ता में रही। केंन्द्र में भी 2014 से भाजपा की सरकार रही। राज्य की रघुवर सरकार अपने कार्यकाल में  कई नये कानून लेकर आये। सबसे पहले आदिवासी-मूलवासी जनविरोधी स्थानीयता नीति 2016 लाया। गो रक्षा कानून,  झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017, जमीन अधिग्रहण संशोधन विधेयक 2017, भूमिं बैक भी बनाया। निवेशकों को झारख ड में आमंत्रित करने के लिए कई विदेशों में रोड़ शो किया। निवेशकों को झारखंड में बुलाया, इसके लिए राज्य में चार मोमेंन्टम झारखंड को आयोजन किया। लेकिन आदिवासी सामुदाय को पहचान देने के लिए विधानसभा में सरना कोड का प्रस्ताव नहीं ला सका। जब कि मुख्यमंत्री रहते हुए रघवर दास जी ने कई बार बयान भी दिया कि , सरना कोड जल्द लाया लाएगा। 

इन सभी कानून को विधानसभा में बिना बहस किये, जनता से बिना विमार्श किए एक छण भर में राज्य का कानून का रूप दिया गया। तब सरना समुदाय के लिए सरना धर्म कोड क्यों नहीं लाया गया? इस साजिश का समझने की जरूरत है।  जबकि राज्य के 14 संासदों में 12 संसद बीजेपी के, 4 राज्यसभा सदस्यों में 3 बीजेपी के थे, और राज्य में भी उन्हीं की सरकार थी।  तब सरना कोर्ड को कानूनी रूप देने में कोई बाधा थी ही नहीं, सिर्फ इच्छा शक्ति होना चाहिए था। 

झारखंड के कई कदावर आदिवासी नेता भाजपा के साथ है। श्री अर्जुन मुंडाजी केंन्द्र जनजाति मंत्री हैं, जो हमेशा आदिवासियों के अस्तित्व की बात करते रहते हैं। साथ ही श्री बाबूलाल मरांडी जी भाजपा विधायक दल के नेता हैं, आप भी भाजपा के बाहर थे, तो लगातार सरना कोड लागू कराने की बात करते थे। यदि सचमुच आदिवासी समुदाय के हितचिंतक हैं, तो गृहमंत्रालय से स्वीकृति दिलाना चाहिए। भाजपा जानती है कि यदि सरना कोड दे दिया जाए तो, उनका अंकड़ा में भारी कमी आएगी, तब सरना कोड़ दे कर अपना पैर पर कुल्हाडी नहीं मारेगा। सच्चाई है कि भाजपा सरना आदिवासियों के हितौसी बन कर सिर्फ राजनीतिक कार्ड खेलते रहना चाहती है। क्योंकि जाति और धार्मिक आंकडा पर ही सभी खेल खेला जाता है। 


Monday, August 10, 2020

आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी।

 9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी 

अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसे समय में विश्व के आदिवासी, मुलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित, बंचित सामुदाय को,  अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्वीक गोलबंदी की भी जरूरत है। 




इसी सोच के साथ  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने आदिवासियों के हित रक्षा के लिए एक कार्यदल गठित किया था जिसकी बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। उसी के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सदस्य देशों को प्रतिवर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की। आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी। संकल्प लेना होगा, कि नीजि स्वर्थ से उपर उठ कर आदिवासी, मुलवासी समाज के अधिकारो की रक्षा के लिए हम सामाजिक एकता को मजबूत करेगें, इसके लिए बचनबद्व हैं। दुनिया के आदिवासी एक हों, के साथ भारत के आदिवासी एक हो का नारा बुलंद करने की जरूरत है। पहले तो अपनी जड़ को मजबूत करना चाहिए, इसके लिए झारखंड के आदिवासी, मुलवासी सहित प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े सभी सामुदाय को एक होना होगा।  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने महसूस किया था कि-ग्लोबल शक्ति के हमले के खिलाफ, विश्व के आदिवासी, मूलवासी सामुदाय को एक होना होगा। इसीलिए 9 अगस्त को पूरे विश्व में आदिवासी दिवस मनाते हैं। 

आदिवासी दिवस के अवसर पर संविधान में प्रावधान अधिकारों का मूल्यंकन करना होगा, आज इसकी क्या स्थिति है। देश के संदर्भ में देखें तो, 5वीं अनुसूचि, 6वीं अनुसूचि में प्रावधान अधिकार, पेसा कानून में प्रावधान अधिकार, वनअधिकार कानून, सूचना अधिकार कानून, राईट टू एजेकेशन, स्वास्थ्य का अधिकार सहित अन्य अधिकारों की  जमीनी हकिकत क्या है, जिनके लिए यह कानून बना, उन्हें इसका लाभ मिला या नहीं?। झारखंड के संदर्भ में, सीएनटी, एपीटी एक्ट, ग्राम सभा के अधिकार, कोल्हान में ़़़़़.विलकिनशन रूल., मुडारी खूंटीकटी अधिकार की जमीनी स्थिति क्या है? सामाजिक, आर्थिक सामानता के लिए कमजोर समुदाय के लिए विभिन्न स्तर पर आरक्षित अधिकारों का क्या हुआ? इसकी समीक्षा करने की जरूरत है।

जमीन संबंधित अधिकारों पर लगातार केंन्द्र और राज्य सरकार कारपोरेट हित में संशोधन करते जा रहा है। पिछली राज्य सरकार ने ग्राम सभा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सामुदायिक झाड-जंगल, झाड़ी सहित सभी गैरमजरूआ आम और खास जमीन को कारपोरेट निवेश के लिए भूमि बैंक में एकत्रित किया है। इसके लिए ग्राम सभा से किसी तरह की सहमति नही ली गयी। जो आदिवासी, मूलवासी अधिकार पर सीधा हमला है। पांचवी अनुसूचि, सीएनटी, एसपीटी एक्ट, वन अधकार कानूून सहित सभी परंपरागत अधिकारों में गांव के भीतर की सभी जमीन, जंगल पर सामुदाय का परंपरागत अधिकार है। आज जगल,जमीन के साथ सभी जल स्त्रोतों पर समाज का अधिकार खत्म कर दिया जा रहा है। 





आदिवासी जनसंख्या लगातार घटते जा रहा है। जो ंिचता का विषाय है। देश में 130 करोड की आबादी में आदिवासी जनसंख्या 8.6 प्रतिशत है याने 10 करोड़ लगभग है। राज्य में 32 आदिवासी समुदाय हैं (अनुसूचित जनजातियां) और 22 अनुसूचित जातियां हैं। 2011 के जनणना के अनुसार झारखंड की 3,29,88,134 हंै। इसमें आदिवासी आबादी 86,45,042 है, जो 26.2 प्रतिशत है।  राज्य में आदिवासी आबादी घटने का मुल कारण विकास के नाम पर हो रहा विस्थापन और पलायन। बड़े परियोजनाओं से एक करोड़ से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है, साथ ही शहरीकरण से भी भारी विस्थापन हो रहा है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव राज्य के आदिवासी सामुदाय के सामाजिक, आर्थिक सहित तमाम अधिकार पर पड़ रहा है। यह आदिवासी सामुदाय के लिए चिंता बढ़ाने वाला है। 

आदिवासी दिवस में सभी एक मंच में आ तो जाते हैं, लेकिन यह पहल स्थायी नहीं पाता है। आज समाज, धर्म और राजनीतिक रूप से सामुदाय कई टुकड़ों में बांटा हुआ है। हमारी कमजोरी अगले के लिए ताकत साबित हो रहा है। इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि, जब तक समाज संगठति हैं, सामूहिक ताकत है, तभी हमारी पहचान भी है। यही संगठित ताकत झारखंड को, अपने सपनों का झारखंड के नवनिर्माण के दिशा में आगे बढ़ा सकती है। नीजि इच्छा के सामने क्या समाज, और राज्य के मुददे सर्वोपरी हो सकते हैं, क्या इस चुनौति को हम स्वीकार कर सकते हैं? यही चुनौती हमें आदिवासियों के सामाजिक, भाषा, सास्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्तित्व की नींव को मजबूती दे सकता है, जो सिद्वू, कान्हु, सिंदराय, बिंदराय, तिलका मांझी, वीर बुद्वु भगत, तेलेंगा खाडिया, बिरसा मुंडा और जतरा टाना भगत के समझौताविहिन शहादती इतिहास के नीवं को हिलाने नहीं देगा।

                                      दयामनी बरला


Wednesday, August 5, 2020

9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी ---- अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है।


9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी 
अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है।  अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसे समय में विश्व के आदिवासी, मुलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित, बंचित सामुदाय को,  अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्वीक गोलबंदी की भी जरूरत है। 


इसी सोच के साथ  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (UNO) ने आदिवासियों के हित रक्षा के लिए एक कार्यदल गठित किया था जिसकी बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। उसी के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सदस्य देशों को प्रतिवर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की। आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी। संकल्प लेना होगा, कि नीजि स्वर्थ से उपर उठ कर आदिवासी, मुलवासी समाज के अधिकारो की रक्षा के लिए हम सामाजिक एकता को मजबूत करेगें, इसके लिए बचनबद्व हैं। दुनिया के आदिवासी एक हों, के साथ भारत के आदिवासी एक हो का नारा बुलंद करने की जरूरत है। पहले तो अपनी जड़ को मजबूत करना चाहिए, इसके लिए झारखंड के आदिवासी, मुलवासी सहित प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े सभी सामुदाय को एक होना होगा।  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने महसूस किया था कि-ग्लोबल शक्ति के हमले के खिलाफ, विश्व के आदिवासी, मूलवासी सामुदाय को एक होना होगा। इसीलिए 9 अगस्त को पूरे विश्व में आदिवासी दिवस मनाते हैं। 
स्ंायुक्त राष्ट्र संघ के उद्वेश्यों में से एक महत्वपूर्ण उद्वेश्य यह है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवतावादी समस्याओं के निवारण के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग जुटाना, जिसमें जाति, लिंग, भाषा और धर्म का भेद किये बिना, अधिकारों के सम्मान को प्रोत्साहित करना है। 

18 दिसंबर 1990 की 45/164 के आम सभा में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि वर्ष 1993 को अंतरराष्ट्रीय विश्व आदिवासी वर्ष घोषित किया जाये। यह घोषणा करते समय इसका विशेष ध्यान रखा गया कि आदिवासी समुदायों द्वारा लगातार झेले जा रहे समस्यों, जो मानवाधिकार, पर्यावरण, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि से जुड़े हैं, के समाधान की दिशा में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को अधिक मजबूत बनाया जाए।
संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र इस तरह है। 




आदिवासियों के अधोलिखित अधिकारों की घोषणा पत्र का विधिवत ऐलान करता है-
भाग-1 
अनुच्छेद-1
संयुक्त राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार विधि द्वारा मान्यता प्राप्त प्रसंविध (चार्ट) के अनुसार आदिवासियों को पूर्ण एवं प्रभावी ढंग से सभी मानवाधिकारों एवं मूलभूत अधिकारों को उपभोग करने का अधिकार है। 
अनुच्छेद-2
आदिवासी, प्रतिष्ठा एवं अधिकार में अन्य सभी मनुष्यों की तरह स्वतंत्र एवं बराबर है और वे विशेषतः अपनी आदिवासी स्त्रोत (मूल) या पहचान से किसी प्रकार के भेदभाव से मुक्त रहने का अधिकार रखते हैं 
अनुच्छेद-3
आदिवासी आत्मनिर्णय का अधिकार रखते है। इस अधिकार के कारण वे स्वतंत्रतापूर्वक अपनी राजनैतिक हैसियत और अपनी आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास पर विचार करते हैं 
अनुच्छेद-4
अगर आदिवासी इच्छा रखते हैं तो उन्हें राज्य की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में पूर्ण रूप से भाग लेते समय अपनी विशिष्ठ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक पहचान केसाथ-साथ अपनी विधि व्यवस्था को भी बनाए रखने का अधिकार है। 
                       भाग-2
अनुच्छेद-5
आदिवासियों को शांति एवं सुरक्षा के साथ रहने के साथ-साथ भिन्न लोगों की तरह रहने का अधिकार है और उन्हें नरसंहार से बचाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त जीवन की भौतिक, मानसिक संपूर्णता, स्वतंत्रता एवं व्यक्ति के रूप में सुरक्षा का व्यक्तिगत अधिकार भी प्राप्त है।
अनुच्छेद-6
आदिवासियों का सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है कि वे जातीय -संहार के विरूद्व रक्षित किए जाएं जिसमें अधोलिखित के लिए रोक एवं क्षतिपूर्ति का अधिकार भी सम्मिलित है-
(क) जब किसी बहाने आदिवासी बच्चे का उसके परिवार एवं समुदाय से हआया गया हो
(ख) कोई कार्यवाही जिसका उद्वेश्य या प्रभाव यह है कि उन्हें उनकी संपूर्णता के साथ विशिष्ट समाज या उनकी सांस्कृतिक या जातीय विशिष्टता या पहचान से बंचित किया जा रहा हो
(ग) वैधानिक, प्रशासनिक, अन्य मापदंड या तरीके से अन्य संस्कृतियों द्वारा किसी प्रकार का आत्मसातीरण, एकीकरण का तरीका उनके जीवन पर थोपा गया हो
(घ) उनकी जमीन, क्षेत्र या संसाधनों से वंचित किया गया हो
(ङ) उनके विरूद्व इंगित किसी प्रकार का प्रचार
अनुच्छेद-7
अपनी निश्चित विशिष्टता एवं पहचान को विकसित करने एवं बनाए रखने का आदिवासियों को सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है साथ ही स्वंय को आदिवासी के रूप में मान्यता प्राप्त करने या इस रूप में पहचाने जाने का अधिकार है।
अनुच्छेद-8
एक आदिवासी व्यक्ति का अधिकार है कि वह आदिवासी राष्ट्र या समुदाय का रहे तदनुसार आदिवासी परंपरा एवं रीति रिवाज उसका या उसकी व्यक्तिगत चुनाव का मामला है। अतः कोई प्रतिकुल परिस्थिति नहीं उठायी जा सकती।
अनुच्छेद-9
संबंधित आदिवासियों से स्वतंत्र एवं पूर्ण सूचना सहित जब तब उनका मंतव्य नहीं लिया जाता उनका पुनस्र्थापन नहीं किया जा सकता और जहां संभव है लौटने का विकल्प देते हुए तथा यथोचित एवं न्यासंगत समझौते केबाद मुआवजा  दे नहीं दिया जाता तब तक आदिवासियों के उनकी जमीन या ़क्षेत्र से हटाया नहीं जाएगा। 
अनुच्छेद-10
आदिवासियों को युद्व के समय विशेष संरक्षण एवं सुरक्षा का अधिकार है। 
आपातकाल या सशस्त्र युद्व के समय नागरिक आबादी के संरक्षण हेतु अंतरराष्ट्रीय स्तर की व्यवस्था करेगी और इनका निषेध करेगी-
1) दूसरे आदिवासी समुदाय से लड़ने के लिए अपनी इच्छा के विरूद्व आदिवासियों को सशस्त्र सेना में नियुकत का। 
2) किसी भी परिस्थिति में आदिवासी बच्चे का सशस्त्र सेना में नियुक्ति का
3) सैन्य सम्बधी जरूरतों के लिए आदिवासियों को अपनी जमीन क्षेत्र और जीविका के साधन को त्यागकर विशेष क्षेत्र में पुनस्र्थापन के लिए जबरदस्ती का। 
अनुच्छेद-11
आदिवासियों को अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने एवं व्यवहार में लाने का अधिकार है। इसमें अपने संस्कृति के भूत, भविष्य एवं वर्तमान की रक्षा करना एवं अनुरक्षण भी शामिल है। इसके लिए वे पुरात्वविक एवं ऐतिहासिक स्थानों, परिकल्पना समारोह, तकनीक के प्रदर्शन एवं कला तथा साहित्य का सृजन कार्य कर सकते हैं। उनकी सांस्कृतिक, र्धािर्मक एवं आध्यात्मिक विरासतों के बारे मे उन्हें सम्पूर्ण सूचना दिए तथा सहमति प्राप्त किए वगैर उनकी कानून परंपरा एवं रीति रिवाजों को उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
अनुच्छेद-12
आदिवासियों को अपने आध्यामिक एवं धार्मिक परंपराओं रीति-रिवाजों के समाराहों को व्यवहार में लाने एवं अभिमुक्त करने का अधिकार हे। इनका अनुरक्षण, रक्षा और धार्मिक तथा संस्कृति स्थानों की गोपनीयता को मानने का अधिकार है। समारोहों के उपकरणों का प्रयोग एवं नियंत्रण का भी उन्हें अधिकार हे। उन्हें अपने मूल भूमि में वापस आने का भी अधिकार है। आदिवासियों के पवित्र स्थानों, कब्रों का सम्मान, करने, बचाने एवं रक्षा करने के लिए राज्य प्रभावशाली कदम उठायेंगे।
अनुच्छेद-13
आदिवासियों को अपनी मौलिक परम्पराओं, लेखन-प्रणाली एवं साहित्य को पुनजीवित करने, प्रयोग करने, विकास करने एवं भावी पीढ़ियों को बताने का अधिकार है। उन्हें अपने समुदाय स्थान एवं व्यक्तियों को बनाए रखने और विशिष्ट बनाए रखने का अधिकार है। 
राज्यों को यह सुनिश्चित करने के लिए कि आदिवासी राजनैतिक, विधिक एवं प्रशासनिक प्रक्रियाओं को समझ सकें और समझाए जांए इसके लिए जहां आवश्यक हो वहां व्याख्या का प्रावधान या अन्य उचित सुविधा उपलब्ध करायी जाए। 
अनुच्छेद-14
आदिवासियों को सभी स्तर का एवं सभी किस्म के शिक्षा पाने का अधिकार है। उन्हें यह भी अधिकार है कि वे अपनी शैक्षणिक प्रणाली एवं संस्थाऐ अपने नियंत्रणाधीन स्थापित कर अपनी भाषा में शिक्षा प्रदान कर सकते हैं ।
अनुच्छेद-15
आदिवासियों को यह अधिकार है कि उसकी संस्कृति, परम्परा, इतिहास एवं आकांक्षाएं, गारिमा एवं विविधता के साथ सभी प्रकार के शिक्षा और जन-सूचनाओं में सही ढंग से प्रतिबिंबित हो। पूर्वाग्रहों को दूर करने, उदारता, समझदारी और अच्छे संबंधों को बढ़ावा देने के लिए राज्यों को चाहिए  िकवे आदिवासियों से विचार-विमर्श करने के लिए प्रभावी कदम उठायें।
अनुच्छेद-16
आदिवासियों को अपनी भाषा में अपनी निजी प्रचार-तंत्र (मीडिया)  स्थापित करने का अधिकार है। गैर आदिवासी प्रचार तंत्र के सभी रूपों के समान इस विकसित करने का अधिकार है।
उनकी सांस्कृतिक विविधिता को प्रचार-तंत्र में उचित ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिए राज्य प्रभावशाली कमद उठायेगें। 
अनुच्छेद-17
अपनी प्रतिक्रियाओं के अनुसार उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से सभी प्रकार के नीति-निमार्ण करने वाले मामलों पर जो उनके अधिकार, जमीन और भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं, उनमें भाग लेने का अधिकार है। 
अनुच्छेद-18
यदि आदिवासी चाहते हैं तो उन्हें प्रभावित करने वाले विधायी या प्रशासनिक मानदंड़ों में उनके द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं में उनके विचार-विमर्श के लिए पूर्णतः भाग लेने का अधिकार है। 
राज्य ऐसे मानदंड़ों को स्वीकार करने एवं कार्यान्वित करने के पूर्व सबंधित लोगों से मुक्त एवं पूर्णसूचना सहित मंतत्य प्राप्त करेगा। 
अनुच्छेद-19
आदिवासियों को अपनी राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने एवं विकसित करने, अपने जीवन-निर्वाह के स्त्रोंतों को उपभोग करते हुए उसे रक्षित करने के साथ -साथ स्वतंत्रता पूर्वक अपने पारम्परिक एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों-शिकार करने, मछली मारने, पशु चराने , संचयन करने, वानिकी एवं खेती को बनाए रखने का भी अधिकार है। जिन आदिवासियों को जीवन-निर्वाह के साधनों से बंचित किया गया हे, वे न्यायपूर्ण एवं उचित मुआवजे पाने के पत्र हैंैं
अनुच्छेद-20
अपर्नी आिर्थक एवं सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए शीघ्र ही विशेष उपाय, प्रभावी एवं निरंतर सुधार का अधिकार है। जिसमें आर्थिक एवं सामाजिक सुधारों के साथ-साथ रोजगार, एच्छिक प्रशिक्षण एवं पुनप्रशिक्षण, आवास स्वच्छता, स्वास्यि एवं सामाजिक सुरक्षा का भी अधिकार हैं 
अनुच्छेद-21
आदिवासियों को अपने विकास के अधिकार पर विचार करने, संबंधित प्राथमिकताओं को विकसित करने एवं युक्तियों का उपयोग में लाने का अधिकार है। आदिवासियों को अधिकार है कि सभी स्वास्थय कार्यक्रमों के विकास पर विचार करें जो उन्हें प्रमाणित करते हैं। जहां तक संभव हो ऐसे कार्यक्रमों को उनके अपने संस्थाओं द्वारा चलाना चाहिए। 
अनुच्छेद-22
आदिवासियों को अपने परांपरिक औषधियों, स्वास्थ्य परंपराओं को बनाए रखने के साथ-साथ महत्वपूर्ण औषधि वनस्पतियों, जानवरों तथा खनिजों की रक्षा का भी अधिकार है। 
भाग-6
अनुच्छेद-23
आदिवासियों को अपनी भूमि तथा क्षेत्र, भूमि के समस्त प्र्यावरण सहित हवा, पानी, समुन्द्र, हिम, वनस्पति एवं जंतुओं और अन्य स्त्रोतों, जिसे उन्होंने परंपरा से प्राप्त किया है या अन्य तरीके से अधिग्रहित किया या उपयोग किया है, उनके साथ उनकी आध्यात्मिक विशिष्टता तथा भोतिक संबंधों के मान्यता प्राप्त करने का अधिकार है। 
अनुच्छेद-24
आदिवासियों को अपनी भूमि और क्षेत्र को खुद ही नियंत्रित एवं उपयोग करने का सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है। इसमें उनके कानून, परंपराएं एवं नीति रिवाजों, भूमि पटटेदारी व्यवस्था, संसाधानों के प्रबंधन हेतु संस्थानों पर बाधा या अतिक्रमण होने पर इसे रोकने के लिए राज्य से प्रभाव उपाय पाने का हकदार है। 
अनुच्छेद-25
जहां आदिवासियों के जमीन या क्षेत्र उनके स्वतंत्र एवं संपूर्ण सूचना सहित मंतव्य के वगैर अधिग्रहित, जब्त, प्रयुक्त या क्षति की गई है उसके वापसी का अधिकार है और जहां यह संभव नहीं है उन्हें न्यायोचित मुआवजा पाने का अधिकार है। जब तक संबंधित लोग भूमि या क्षेत्र की न्यूनतम समानता, गुणवता, आकार और विधि अवस्था से स्वतंत्रतता पूर्वक सहमत नहीं हो जाते मुआवजा नहीं दिया जाएगा। 
अनुच्छेद-26
आदिवाी अपने संपूर्ण प्र्यावरण की, अपने भूमि या क्षेत्र की उत्पादन क्षमता की, रक्षा एवं पुनः सृजन करने और इसके उद्वेश्य हेतु अंतरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा राज्य से सहायता प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं। जबतक उनकी स्वतंत्रता पूर्वक सहमित नहीं हो जाती तब तक आदिवासियों के क्षेत्र में सैनिक गतिविधियों के लिए खतरनाक सामग्रियों को जमा या व्यवस्थित नहीं किया जाए
अनुच्छेद-27
आदिवासियों को अपनी बौद्विक सम्पति, अपने विज्ञान, तकनीकी तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के साथ-साथ अनुवांशिक स्त्रोंतों, बीजों, औषधियों, वनस्पतियों तथा जंतुओं की ज्ञान संपति, मौधिक परंपराओं, साहित्य, दृश्य एवं कार्यशील कलाओं की रूपरेखा की रक्षा हेतु उपाय का अधिकार हैं
अनुच्छेद-28
नव विकास के कारण, खनिज या अन्य स्त्रोंतों को निकालने के कारण आदिवासियों की भूमि या क्षेत्र प्रभावित होता हो तो राज्य से आदिवासियों को उस परियोजना के अनुमोदन के लिए स्वतंत्र एवं सर्व सूचना संपन्न मंतव्य प्राप्त करने का अधिकार है। आदिवासियों से समझौते के लिए इस तरह की गतिविधियों से उनकी पर्यावरणीय, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीपन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने पर उचित एवं पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा। 
भाग-7
अनुच्छेद-29
आदिवासियों को आत्मनिर्णय के अधिकार को बनाए रखने का अधिकार है। संस्कृति, धर्म, शिक्षा, सूचना, प्रचार-तंत्र, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार, समाज कल्याण, आर्थिक गतिविधियों, भूमि एवं संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण, गैर सदस्यों के प्रवेश के साथ-साथ अपने अंतरिक एवं स्थानीय गतिविधियों के वित्तीय उपाय तथा स्वायतशासी क्रियाकलापों पर स्वायतता या स्वशासन का अधिकार है। 
अनुच्छेद-30
आदिवासियों को अपने संस्थाओं में अपनी प्रणाली के अनुसार उसकी संरचना और सदस्य चुनने का अधिकार है
अनुच्छेद-31
आदिवासियों को अपनी रीति-रिवाज, परंपरा, कानून एवं िवधि-व्यवस्था को, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मान्यता प्राप्त मानवाधिकार के अनुसार विकसित करने एवं बनाए रखने का अधिकार है। 
अनुच्छेद-32
आदिवासियों को अपने समुदाय के व्यक्तियों के दाचित्वों पर विचार करने का अधिकार है।
अनुच्छेद-33
आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उद्वेश्यों की प्राप्ति के लिए सीमा पर के आदिवासियों से सहयोग, संबंध सम्पर्क बढ़ाने एवं इसे बनाए रखने का अधिकार है।
अनुच्छेद-34
राज्यों से संधियों, समझौतों और अपने उत्तराधिकार में प्राप्त मूल संकल्पों में किए गए रचनात्मक प्रबंधों को प्रभावी बनाने और अनुपालन कराने का अधिकार आदिवासियों को है। मतभेद या विरोध जो किसी तरह सुलझाए नहीं जा सकते हैं उन्हें संबंधित सभी पार्टियों क्षरा स्वीकृत उचित अंतरराष्ट्रीय संस्था मे प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
भाग-8
अनुच्छेद-35
इस घोषणा के प्रावधानों को पूरी तरह से प्रभावी बनाने के लिए राज्य संबंधित आदिवासियों से विचार-विमशर्
 का समुचित एवं प्रभावकारी उपाय करेगा। इन अधिकारों को राष्ट्रीय विधायिका में इस प्रकार शामिल करना चाहिए कि आदिवासी इन अधिकारों को व्यावहरिक रूप में पा सके।
अनुच्छेद-36
आदिवासियों को अपने राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास के स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने के लिए राज्य और अंतरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा पर्याप्त आर्थिक, तकनीकी सहायत लेने का अधिकार है। इस घोषणा में वर्णित अधिकारों एवं स्वतत्रता को उपभोग करने का अधिकार भी है। 
अनुच्छेद-37
राज्यों से किसी विरोध या मतभेद के समाधान हेतु परस्पर स्वीकार्य और न्यायसंगत प्रक्रिया द्वारा शीघ्र निर्णय पाने के साथ ही किसी सामुहिक या व्यक्तिगत अधिकार के अतिलंघन पर उसका प्रभावी समाधान पाने का भी अधिकार आदिवासियों को है। 
अनुच्छेद-38
संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था एवं अंतर सरकारी संगठन एवं विशिष्ठ एजेसियां इस घोषणा के प्रावधानों को पूर्णरूपेण संघटन के माध्यम से कार्यान्वित करेगी। इसके अलावा आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग में भी योगदार देगी। आदिवासियों को प्रभावित करने वाले मुददों को हर तरह से उनकी भागीदारी सुनिश्चित करते हुए स्थापित किया जाएगा। 
अनुच्छेद-39
आदिवासियों के सीधे भागीदारों के साथ इस क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं उच्चस्तरीय संगठन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र के इस घोषण के प्रावधानों को प्रतिष्ठा दिलायेगें।
भाग-9
अनुच्छेद-40
दुनिया के आदिवासियों के जीवन पर प्रतिष्ठा के लिए यहां -यूनतम अधिकारों की समिलित किया गया हैं 
अनुच्छेद-41
वर्तमान में प्राप्त या भविष्य में मिलने वाले आदिवासियों के अधिकारों को घटाने या समाप्त करने के लिए इस घोषणा की बिलकुल ही व्याख्या नहीं की जा सकती । 
अनुच्छेद-42
किसी राज्य, समुह या व्यक्ति को इस चार्टर के विपरीत कार्य करने, गतिविधि में शामिल होने का अधिकार नहीं है। और न ही संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार राज्यों के बीच होना मित्रवत संबंध एवं सहयोग से संबंधित अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्वांतों के अनुसार इसकी कोई व्याख्या की जा सकती है। 
----------

संदर्भ स्त्रोत-अंतरराष्टी्रय आदिवासी वर्ष 1993 के रिपोर्ट
-----------------------ःःःःःःःःःःःःःःःःः-------------

Monday, August 3, 2020

9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी

9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसे समय में विश्व के आदिवासी, मुलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित, बंचित सामुदाय को, अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्वीक गोलबंदी की भी जरूरत है। इसी सोच के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ ने (UNO) ने आदिवासियों के हित रक्षा के लिए एक कार्यदल गठित किया था जिसकी बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। उसी के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सदस्य देशों को प्रतिवर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की। आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी। संकल्प लेना होगा, कि नीजि स्वर्थ से उपर उठ कर आदिवासी, मुलवासी समाज के अधिकारो की रक्षा के लिए हम सामाजिक एकता को मजबूत करेगें, इसके लिए बचनबद्व हैं। दुनिया के आदिवासी एक हों, के साथ भारत के आदिवासी एक हो का नारा बुलंद करने की जरूरत है। पहले तो अपनी जड़ को मजबूत करना चाहिए, इसके लिए झारखंड के आदिवासी, मुलवासी सहित प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े सभी सामुदाय को एक होना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने महसूस किया था कि-ग्लोबल शक्ति के हमले के खिलाफ, विश्व के आदिवासी, मूलवासी सामुदाय को एक होना होगा। इसीलिए 9 अगस्त को पूरे विश्व में आदिवासी दिवस मनाते हैं। स्ंायुक्त राष्ट्र संघ के उद्वेश्यों में से एक महत्वपूर्ण उद्वेश्य यह है कि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवतावादी समस्याओं के निवारण के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग जुटाना, जिसमें जाति, लिंग, भाषा और धर्म का भेद किये बिना, अधिकारों के सम्मान को प्रोत्साहित करना है। 18 दिसंबर 1990 की 45/164 के आम सभा में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि वर्ष 1993 को अंतरराष्ट्रीय विश्व आदिवासी वर्ष घोषित किया जाये। यह घोषणा करते समय इसका विशेष ध्यान रखा गया कि आदिवासी समुदायों द्वारा लगातार झेले जा रहे समस्यों, जो मानवाधिकार, पर्यावरण, विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि से जुड़े हैं, के समाधान की दिशा में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को अधिक मजबूत बनाया जाए। संयुक्त राष्ट्र के घोषणा पत्र इस तरह है। आदिवासियों के अधोलिखित अधिकारों की घोषणा पत्र का विधिवत ऐलान करता है- भाग-1 अनुच्छेद-1 संयुक्त राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार विधि द्वारा मान्यता प्राप्त प्रसंविध (चार्ट) के अनुसार आदिवासियों को पूर्ण एवं प्रभावी ढंग से सभी मानवाधिकारों एवं मूलभूत अधिकारों को उपभोग करने का अधिकार है। अनुच्छेद-2 आदिवासी, प्रतिष्ठा एवं अधिकार में अन्य सभी मनुष्यों की तरह स्वतंत्र एवं बराबर है और वे विशेषतः अपनी आदिवासी स्त्रोत (मूल) या पहचान से किसी प्रकार के भेदभाव से मुक्त रहने का अधिकार रखते हैं अनुच्छेद-3 आदिवासी आत्मनिर्णय का अधिकार रखते है। इस अधिकार के कारण वे स्वतंत्रतापूर्वक अपनी राजनैतिक हैसियत और अपनी आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास पर विचार करते हैं अनुच्छेद-4 अगर आदिवासी इच्छा रखते हैं तो उन्हें राज्य की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में पूर्ण रूप से भाग लेते समय अपनी विशिष्ठ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, एवं सांस्कृतिक पहचान केसाथ-साथ अपनी विधि व्यवस्था को भी बनाए रखने का अधिकार है। भाग-2 अनुच्छेद-5 आदिवासियों को शांति एवं सुरक्षा के साथ रहने के साथ-साथ भिन्न लोगों की तरह रहने का अधिकार है और उन्हें नरसंहार से बचाना चाहिए। इसके अतिरिक्त जीवन की भौतिक, मानसिक संपूर्णता, स्वतंत्रता एवं व्यक्ति के रूप में सुरक्षा का व्यक्तिगत अधिकार भी प्राप्त है। अनुच्छेद-6 आदिवासियों का सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है कि वे जातीय -संहार के विरूद्व रक्षित किए जाएं जिसमें अधोलिखित के लिए रोक एवं क्षतिपूर्ति का अधिकार भी सम्मिलित है- (क) जब किसी बहाने आदिवासी बच्चे का उसके परिवार एवं समुदाय से हआया गया हो (ख) कोई कार्यवाही जिसका उद्वेश्य या प्रभाव यह है कि उन्हें उनकी संपूर्णता के साथ विशिष्ट समाज या उनकी सांस्कृतिक या जातीय विशिष्टता या पहचान से बंचित किया जा रहा हो (ग) वैधानिक, प्रशासनिक, अन्य मापदंड या तरीके से अन्य संस्कृतियों द्वारा किसी प्रकार का आत्मसातीरण, एकीकरण का तरीका उनके जीवन पर थोपा गया हो (घ) उनकी जमीन, क्षेत्र या संसाधनों से वंचित किया गया हो (ङ) उनके विरूद्व इंगित किसी प्रकार का प्रचार अनुच्छेद-7 अपनी निश्चित विशिष्टता एवं पहचान को विकसित करने एवं बनाए रखने का आदिवासियों को सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है साथ ही स्वंय को आदिवासी के रूप में मान्यता प्राप्त करने या इस रूप में पहचाने जाने का अधिकार है। अनुच्छेद-8 एक आदिवासी व्यक्ति का अधिकार है कि वह आदिवासी राष्ट्र या समुदाय का रहे तदनुसार आदिवासी परंपरा एवं रीति रिवाज उसका या उसकी व्यक्तिगत चुनाव का मामला है। अतः कोई प्रतिकुल परिस्थिति नहीं उठायी जा सकती। अनुच्छेद-9 संबंधित आदिवासियों से स्वतंत्र एवं पूर्ण सूचना सहित जब तब उनका मंतव्य नहीं लिया जाता उनका पुनस्र्थापन नहीं किया जा सकता और जहां संभव है लौटने का विकल्प देते हुए तथा यथोचित एवं न्यासंगत समझौते केबाद मुआवजा दे नहीं दिया जाता तब तक आदिवासियों के उनकी जमीन या ़क्षेत्र से हटाया नहीं जाएगा। अनुच्छेद-10 आदिवासियों को युद्व के समय विशेष संरक्षण एवं सुरक्षा का अधिकार है। आपातकाल या सशस्त्र युद्व के समय नागरिक आबादी के संरक्षण हेतु अंतरराष्ट्रीय स्तर की व्यवस्था करेगी और इनका निषेध करेगी- 1) दूसरे आदिवासी समुदाय से लड़ने के लिए अपनी इच्छा के विरूद्व आदिवासियों को सशस्त्र सेना में नियुकत का। 2) किसी भी परिस्थिति में आदिवासी बच्चे का सशस्त्र सेना में नियुक्ति का 3) सैन्य सम्बधी जरूरतों के लिए आदिवासियों को अपनी जमीन क्षेत्र और जीविका के साधन को त्यागकर विशेष क्षेत्र में पुनस्र्थापन के लिए जबरदस्ती का। अनुच्छेद-11 आदिवासियों को अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने एवं व्यवहार में लाने का अधिकार है। इसमें अपने संस्कृति के भूत, भविष्य एवं वर्तमान की रक्षा करना एवं अनुरक्षण भी शामिल है। इसके लिए वे पुरात्वविक एवं ऐतिहासिक स्थानों, परिकल्पना समारोह, तकनीक के प्रदर्शन एवं कला तथा साहित्य का सृजन कार्य कर सकते हैं। उनकी सांस्कृतिक, र्धािर्मक एवं आध्यात्मिक विरासतों के बारे मे उन्हें सम्पूर्ण सूचना दिए तथा सहमति प्राप्त किए वगैर उनकी कानून परंपरा एवं रीति रिवाजों को उल्लंघन नहीं होना चाहिए। अनुच्छेद-12 आदिवासियों को अपने आध्यामिक एवं धार्मिक परंपराओं रीति-रिवाजों के समाराहों को व्यवहार में लाने एवं अभिमुक्त करने का अधिकार हे। इनका अनुरक्षण, रक्षा और धार्मिक तथा संस्कृति स्थानों की गोपनीयता को मानने का अधिकार है। समारोहों के उपकरणों का प्रयोग एवं नियंत्रण का भी उन्हें अधिकार हे। उन्हें अपने मूल भूमि में वापस आने का भी अधिकार है। आदिवासियों के पवित्र स्थानों, कब्रों का सम्मान, करने, बचाने एवं रक्षा करने के लिए राज्य प्रभावशाली कदम उठायेंगे। अनुच्छेद-13 आदिवासियों को अपनी मौलिक परम्पराओं, लेखन-प्रणाली एवं साहित्य को पुनजीवित करने, प्रयोग करने, विकास करने एवं भावी पीढ़ियों को बताने का अधिकार है। उन्हें अपने समुदाय स्थान एवं व्यक्तियों को बनाए रखने और विशिष्ट बनाए रखने का अधिकार है। राज्यों को यह सुनिश्चित करने के लिए कि आदिवासी राजनैतिक, विधिक एवं प्रशासनिक प्रक्रियाओं को समझ सकें और समझाए जांए इसके लिए जहां आवश्यक हो वहां व्याख्या का प्रावधान या अन्य उचित सुविधा उपलब्ध करायी जाए। अनुच्छेद-14 आदिवासियों को सभी स्तर का एवं सभी किस्म के शिक्षा पाने का अधिकार है। उन्हें यह भी अधिकार है कि वे अपनी शैक्षणिक प्रणाली एवं संस्थाऐ अपने नियंत्रणाधीन स्थापित कर अपनी भाषा में शिक्षा प्रदान कर सकते हैं । अनुच्छेद-15 आदिवासियों को यह अधिकार है कि उसकी संस्कृति, परम्परा, इतिहास एवं आकांक्षाएं, गारिमा एवं विविधता के साथ सभी प्रकार के शिक्षा और जन-सूचनाओं में सही ढंग से प्रतिबिंबित हो। पूर्वाग्रहों को दूर करने, उदारता, समझदारी और अच्छे संबंधों को बढ़ावा देने के लिए राज्यों को चाहिए िकवे आदिवासियों से विचार-विमर्श करने के लिए प्रभावी कदम उठायें। अनुच्छेद-16 आदिवासियों को अपनी भाषा में अपनी निजी प्रचार-तंत्र (मीडिया) स्थापित करने का अधिकार है। गैर आदिवासी प्रचार तंत्र के सभी रूपों के समान इस विकसित करने का अधिकार है। उनकी सांस्कृतिक विविधिता को प्रचार-तंत्र में उचित ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिए राज्य प्रभावशाली कमद उठायेगें। अनुच्छेद-17 अपनी प्रतिक्रियाओं के अनुसार उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से सभी प्रकार के नीति-निमार्ण करने वाले मामलों पर जो उनके अधिकार, जमीन और भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं, उनमें भाग लेने का अधिकार है। अनुच्छेद-18 यदि आदिवासी चाहते हैं तो उन्हें प्रभावित करने वाले विधायी या प्रशासनिक मानदंड़ों में उनके द्वारा निर्धारित प्रक्रियाओं में उनके विचार-विमर्श के लिए पूर्णतः भाग लेने का अधिकार है। राज्य ऐसे मानदंड़ों को स्वीकार करने एवं कार्यान्वित करने के पूर्व सबंधित लोगों से मुक्त एवं पूर्णसूचना सहित मंतत्य प्राप्त करेगा। अनुच्छेद-19 आदिवासियों को अपनी राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने एवं विकसित करने, अपने जीवन-निर्वाह के स्त्रोंतों को उपभोग करते हुए उसे रक्षित करने के साथ -साथ स्वतंत्रता पूर्वक अपने पारम्परिक एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों-शिकार करने, मछली मारने, पशु चराने , संचयन करने, वानिकी एवं खेती को बनाए रखने का भी अधिकार है। जिन आदिवासियों को जीवन-निर्वाह के साधनों से बंचित किया गया हे, वे न्यायपूर्ण एवं उचित मुआवजे पाने के पत्र हैंैं अनुच्छेद-20 अपर्नी आिर्थक एवं सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए शीघ्र ही विशेष उपाय, प्रभावी एवं निरंतर सुधार का अधिकार है। जिसमें आर्थिक एवं सामाजिक सुधारों के साथ-साथ रोजगार, एच्छिक प्रशिक्षण एवं पुनप्रशिक्षण, आवास स्वच्छता, स्वास्यि एवं सामाजिक सुरक्षा का भी अधिकार हैं अनुच्छेद-21 आदिवासियों को अपने विकास के अधिकार पर विचार करने, संबंधित प्राथमिकताओं को विकसित करने एवं युक्तियों का उपयोग में लाने का अधिकार है। आदिवासियों को अधिकार है कि सभी स्वास्थय कार्यक्रमों के विकास पर विचार करें जो उन्हें प्रमाणित करते हैं। जहां तक संभव हो ऐसे कार्यक्रमों को उनके अपने संस्थाओं द्वारा चलाना चाहिए। अनुच्छेद-22 आदिवासियों को अपने परांपरिक औषधियों, स्वास्थ्य परंपराओं को बनाए रखने के साथ-साथ महत्वपूर्ण औषधि वनस्पतियों, जानवरों तथा खनिजों की रक्षा का भी अधिकार है। भाग-6 अनुच्छेद-23 आदिवासियों को अपनी भूमि तथा क्षेत्र, भूमि के समस्त प्र्यावरण सहित हवा, पानी, समुन्द्र, हिम, वनस्पति एवं जंतुओं और अन्य स्त्रोतों, जिसे उन्होंने परंपरा से प्राप्त किया है या अन्य तरीके से अधिग्रहित किया या उपयोग किया है, उनके साथ उनकी आध्यात्मिक विशिष्टता तथा भोतिक संबंधों के मान्यता प्राप्त करने का अधिकार है। अनुच्छेद-24 आदिवासियों को अपनी भूमि और क्षेत्र को खुद ही नियंत्रित एवं उपयोग करने का सामूहिक एवं व्यक्तिगत अधिकार है। इसमें उनके कानून, परंपराएं एवं नीति रिवाजों, भूमि पटटेदारी व्यवस्था, संसाधानों के प्रबंधन हेतु संस्थानों पर बाधा या अतिक्रमण होने पर इसे रोकने के लिए राज्य से प्रभाव उपाय पाने का हकदार है। अनुच्छेद-25 जहां आदिवासियों के जमीन या क्षेत्र उनके स्वतंत्र एवं संपूर्ण सूचना सहित मंतव्य के वगैर अधिग्रहित, जब्त, प्रयुक्त या क्षति की गई है उसके वापसी का अधिकार है और जहां यह संभव नहीं है उन्हें न्यायोचित मुआवजा पाने का अधिकार है। जब तक संबंधित लोग भूमि या क्षेत्र की न्यूनतम समानता, गुणवता, आकार और विधि अवस्था से स्वतंत्रतता पूर्वक सहमत नहीं हो जाते मुआवजा नहीं दिया जाएगा। अनुच्छेद-26 आदिवाी अपने संपूर्ण प्र्यावरण की, अपने भूमि या क्षेत्र की उत्पादन क्षमता की, रक्षा एवं पुनः सृजन करने और इसके उद्वेश्य हेतु अंतरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा राज्य से सहायता प्राप्त करने का अधिकार रखते हैं। जबतक उनकी स्वतंत्रता पूर्वक सहमित नहीं हो जाती तब तक आदिवासियों के क्षेत्र में सैनिक गतिविधियों के लिए खतरनाक सामग्रियों को जमा या व्यवस्थित नहीं किया जाए अनुच्छेद-27 आदिवासियों को अपनी बौद्विक सम्पति, अपने विज्ञान, तकनीकी तथा सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के साथ-साथ अनुवांशिक स्त्रोंतों, बीजों, औषधियों, वनस्पतियों तथा जंतुओं की ज्ञान संपति, मौधिक परंपराओं, साहित्य, दृश्य एवं कार्यशील कलाओं की रूपरेखा की रक्षा हेतु उपाय का अधिकार हैं अनुच्छेद-28 नव विकास के कारण, खनिज या अन्य स्त्रोंतों को निकालने के कारण आदिवासियों की भूमि या क्षेत्र प्रभावित होता हो तो राज्य से आदिवासियों को उस परियोजना के अनुमोदन के लिए स्वतंत्र एवं सर्व सूचना संपन्न मंतव्य प्राप्त करने का अधिकार है। आदिवासियों से समझौते के लिए इस तरह की गतिविधियों से उनकी पर्यावरणीय, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जीपन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने पर उचित एवं पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा। भाग-7 अनुच्छेद-29 आदिवासियों को आत्मनिर्णय के अधिकार को बनाए रखने का अधिकार है। संस्कृति, धर्म, शिक्षा, सूचना, प्रचार-तंत्र, स्वास्थ्य, आवास, रोजगार, समाज कल्याण, आर्थिक गतिविधियों, भूमि एवं संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण, गैर सदस्यों के प्रवेश के साथ-साथ अपने अंतरिक एवं स्थानीय गतिविधियों के वित्तीय उपाय तथा स्वायतशासी क्रियाकलापों पर स्वायतता या स्वशासन का अधिकार है। अनुच्छेद-30 आदिवासियों को अपने संस्थाओं में अपनी प्रणाली के अनुसार उसकी संरचना और सदस्य चुनने का अधिकार है अनुच्छेद-31 आदिवासियों को अपनी रीति-रिवाज, परंपरा, कानून एवं िवधि-व्यवस्था को, अंतरराष्ट्रीय स्तर के मान्यता प्राप्त मानवाधिकार के अनुसार विकसित करने एवं बनाए रखने का अधिकार है। अनुच्छेद-32 आदिवासियों को अपने समुदाय के व्यक्तियों के दाचित्वों पर विचार करने का अधिकार है। अनुच्छेद-33 आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उद्वेश्यों की प्राप्ति के लिए सीमा पर के आदिवासियों से सहयोग, संबंध सम्पर्क बढ़ाने एवं इसे बनाए रखने का अधिकार है। अनुच्छेद-34 राज्यों से संधियों, समझौतों और अपने उत्तराधिकार में प्राप्त मूल संकल्पों में किए गए रचनात्मक प्रबंधों को प्रभावी बनाने और अनुपालन कराने का अधिकार आदिवासियों को है। मतभेद या विरोध जो किसी तरह सुलझाए नहीं जा सकते हैं उन्हें संबंधित सभी पार्टियों क्षरा स्वीकृत उचित अंतरराष्ट्रीय संस्था मे प्रस्तुत किया जाना चाहिए। भाग-8 अनुच्छेद-35 इस घोषणा के प्रावधानों को पूरी तरह से प्रभावी बनाने के लिए राज्य संबंधित आदिवासियों से विचार-विमशर् का समुचित एवं प्रभावकारी उपाय करेगा। इन अधिकारों को राष्ट्रीय विधायिका में इस प्रकार शामिल करना चाहिए कि आदिवासी इन अधिकारों को व्यावहरिक रूप में पा सके। अनुच्छेद-36 आदिवासियों को अपने राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास के स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने के लिए राज्य और अंतरराष्ट्रीय सहयोग द्वारा पर्याप्त आर्थिक, तकनीकी सहायत लेने का अधिकार है। इस घोषणा में वर्णित अधिकारों एवं स्वतत्रता को उपभोग करने का अधिकार भी है। अनुच्छेद-37 राज्यों से किसी विरोध या मतभेद के समाधान हेतु परस्पर स्वीकार्य और न्यायसंगत प्रक्रिया द्वारा शीघ्र निर्णय पाने के साथ ही किसी सामुहिक या व्यक्तिगत अधिकार के अतिलंघन पर उसका प्रभावी समाधान पाने का भी अधिकार आदिवासियों को है। अनुच्छेद-38 संयुक्त राष्ट्र व्यवस्था एवं अंतर सरकारी संगठन एवं विशिष्ठ एजेसियां इस घोषणा के प्रावधानों को पूर्णरूपेण संघटन के माध्यम से कार्यान्वित करेगी। इसके अलावा आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग में भी योगदार देगी। आदिवासियों को प्रभावित करने वाले मुददों को हर तरह से उनकी भागीदारी सुनिश्चित करते हुए स्थापित किया जाएगा। अनुच्छेद-39 आदिवासियों के सीधे भागीदारों के साथ इस क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं उच्चस्तरीय संगठन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र के इस घोषण के प्रावधानों को प्रतिष्ठा दिलायेगें। भाग-9 अनुच्छेद-40 दुनिया के आदिवासियों के जीवन पर प्रतिष्ठा के लिए यहां -यूनतम अधिकारों की समिलित किया गया हैं अनुच्छेद-41 वर्तमान में प्राप्त या भविष्य में मिलने वाले आदिवासियों के अधिकारों को घटाने या समाप्त करने के लिए इस घोषणा की बिलकुल ही व्याख्या नहीं की जा सकती । अनुच्छेद-42 किसी राज्य, समुह या व्यक्ति को इस चार्टर के विपरीत कार्य करने, गतिविधि में शामिल होने का अधिकार नहीं है। और न ही संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार राज्यों के बीच होना मित्रवत संबंध एवं सहयोग से संबंधित अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्वांतों के अनुसार इसकी कोई व्याख्या की जा सकती है। ---------- संदर्भ स्त्रोत-अंतरराष्टी्रय आदिवासी वर्ष 1993 के रिपोर्ट -----------------------ःःःःःःःःःःःःःःःःः--------------