1865 में ब्रिटिश सताधिशों ने आदिवासी समाज से जंगल को छीन कर अपने कब्जा में करने के लिए वन अधिनियम बनाया। 1865 के वन कानून में 1875 में संशोधन कर जंगल लूट तंत्र को और मजबूती दी गयी। जिसके तहत सुरक्षित वन, आरक्षित वन एवं गामीण वन कानून बना। इसे भी साम्रात्यवादी व्यवस्था को मन नहीं भरा तो 1927 में भारतीय वन अधिनियम बनाया, ये सारे कानूनी हथकांडे आदिवासी समाज एवं प्राकृति के बीच के संबंध को तार-तार कर दिया। अब आदिवासियों को जंगल में घुसने तक की मनाही लगा दी गई। जंगल रक्षा के नाम पर सरकारी तंत्र, जंगल माफिया , लकडी तस्कर और पुलिस , जंगल के मालिक बन बैठै। जिन्होंने झारखंड के पचास फीसदी जंगल को नष्ट कर चुके।
झारखंड के हजारीबाग, कोडरमा, गिरिडिह, देवघर तथा संताल परगना के कई जिले ओपन-कस्ट माईनिंग के कारण मरूभूमि में तब्दील हो चूका है। गुमला और सिमडेगा जिला के सैकड़ों गांव जो जंगल क्षेत्र में है तत्कालीन बिहार सरकार ने 1997 में भेडिया अश्राएणी परियोजना के लिए योजना बना रखी है। इसके लिए गामीणें को जंगल खाली कराया जाएगा। रांची, गुमला, पू0 सिंहभूम एवं हजारीबाग, पलामू एवं प0 सिहभूम के कई जंगलों से ग्रामीणें को बेदखल कर वन कानून ने वन्य अश्राएणी बना चुका है। 1988 के राष्ट्रीय वन कानून ने जंगल और आदिवासी समाज को अलग करने को कोशिश किया है। एक ओर सरकारी तंत्र- वन माफिया और पुलिस मिल कर जंगल उजाड़ दे रहे हैं, दूसरी ओर सरकारी तंत्र वन-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर हर जगह आकासीय और क्यूकपीटस के झााडी और पेड लगा रहे हैं। यहां के माटी और अबोहवा के प्रतिकूल नहीं है। इसे ने केवल ग्रामीण सामाजिक , आर्थिक, सांस्कृतिक आधार नष्ट हो रहा है वरण पर्यावरण असंतुलन बिगड़ता जा रही है। जिसे किसानों के खेत-खलिहान बंजर हो रहे हैं साथ ही कभी सुखा तो कभा अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। हमें यह भी समझना चाहिए कि आकाशीय और क्यूकीलिपटस के जंगलों में सरहुल-सखुआ फूल, धवाई फूल, महुंआ, चार, केन्दु और पलाश के फूल खिल नहीं सकते।
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