Friday, March 4, 2011

आज से 10 साल पहले मीडिया समाज का दिशा निर्देशक के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा था। क्षेत्रीय अखबार आदिवासी-मूलवासी, दलित समुदाय के सामाजिक, अर्थिक, स

आज से 10 साल पहले मीडिया समाज का दिशा निर्देशक के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा था। क्षेत्रीय अखबारआदिवासी-मूलवासी, दलित समुदाय के सामाजिक, अर्थिक, सांस्कृतिक , भाषा-पहचान, स्थिति-इतिहास कोबिशेष स्थान देता था। इससे समाज हर स्थिति में अपने को ससकत महसूस करता था। आज मीडिया पूरी तरह सेइन समुदायों से अपने को दूर कर लिया है। देश में उदारीकरण जितनी तेजी से बिश्वा बाजार में अपने को स्थापितकरने की होड़ में हैं, मीडिया भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। देश की अर्थव्यस्था अब कल्याणकारी व्यवस्था को छोड़सिर्फ पैसा बनाने के लिए पूंजीवाद के गोद में बैठ गया है। मीडिया भी समाज, जनसरोकार, जनहित, जनअकांक्षाओं से दूर हट कर पूंजी वाद का प्रवक्ता बन गया हैं।
मैं जब कोलेज की पढ़ाई कर रही थी तब रांची झारखंड से बहुत कम अखबार निकलते थे। उसमें से प्रभात खबर कोयाद करती हुं क्योंकि इसको महला में दूसरे कोई खरीदते थे-उसको मांग कर पढ़ते थे-क्योंकि इस में हर सप्ताहकोलेज के यूवावर्ग का हिंन्दी में, मुंडारी में, सदरी में कहानी और कविताएं छपती थी। झारखंड में अलग राज्य काअपना इतिहास रहा है। अलग राज्य की लड़ाई सिदू-कान्हू, सिंदराय-बिंदराय, माकी-देवमनी, बिरसा मुडा से लेकरजयपाल मुंडा ने अलग पहचान बना लिया थांं। प्रींट मीडिया ने भी इस आंदोलन को आगे बढ़ने-बढाने में अपनीभूमिका निभाते रही। मुझे याद है-एक बार अलग राज्य को लेकर रांची के मोराबादी में आदिवासियों का एकबिशाल - रैली-सभा हुआ था। इस दिन कोलेज में बिशेष रौनक थी-उत्साव जैसा महौल था। जो रैली निकाली गयीथी उसमें अधिकांश छात्र-छात्राएं थे। दूसरे दिन अखबार-दो-तीन पेज पहले दिन के रैली-सभा के रिपोट से पटा हुआथा। इस दिन से अखबार के प्रति लगाव बढ़ गया था। एक दूसरी बात मुझे याद है -हमारे ही पड़ोस में चर्च के एकअधिकारी की रहस्यमय ढंग सह मौत हुई थी, इसको दफनाने के तीन दिन बाद उनकालाश को फिर से निकला गयाथा जांच के लिए भेजा गया थां। इसका विस्तृत रिपोट भी अखबार में आया। प्राभात खबर ने इसे प्रमुखता से छपाथा-इस खबर इसको दरवाजा-दरवाजा तक पहुंचा दिया। अचानक हर परिवार इसका ग्रहक और पाठक बन गये।
मीडिया को मैंने पाठक के रूप मे देखी हुं-उससे ही यहां रखना चाहती हुं। अखबार हो या कोई भी व्यवसाय अपने कोअच्छी स्थिति में रखने के लिए हर समुदाय को अपनी अच्छी सेवाएं देकर उनके बीच स्थापित करते हैंं। उन दिनोंअखबार को अपने को मजबूज स्थिति में रखने का अच्छा विकल्प के रूप में सायद इनके आम पाठक वर्ग ही थे।यही नहीं मीडिया को, अपने को झारखंडी पहचान देने की भी चिंता थी-यही कारण है कि मीडिया अपने को हरसमाज के बहुत करीब रखने को प्रयास किया था। समाज की भाषा-सांस्कृति, जल-जंगल-जमीन, आदिवासी, मूलवासी, किसान, महिलाएं, युवा , बच्चे सभी के मुददों को मीडिया जगह देता था। झारखंड आंदोलन को भी बिशेषजगह दिया था। यही नहीं सभी जाति-समुदाय के लेखकों को अपनी रचना-कृति एवं, विचार-धारा ,को समाजराज्य तथा देशहित में रखने का अवसर दिया। पाठकों के बीच अपनी मजबूती पैठ के लिए ही समाज को स्थानदिया गया थां। मीडिया हर जाति-धर्म के बीच पैठ बनाने के लिए अखबारों में होड़ लगती थी। यही कारण हैकि-मीडिया समाज से जुड़ा रहा
1992-93 का समय आदिवासी-मूलवासियों द्वारा अपने पूर्वजों का दिया धरोहर को बचाने के लिए झारखंड केपलामू तथा गुमला जिला के नेतरहाट ++क्षेत्र में नेतरहाट जनसंघर्ष समिति का आंदोलन चरम पर था।जोकिपोखर के टुटवापानी में आंदोलनकारियों नारा-जान देगें-जमीन नहीं देगे, पूरे झारखंड में गुंज उठता था।वासवी जी उस समय जनसत्ता के लिए, फैसल अनुराग प्रभात खबर के लिए तथा अरूण ठाकुरजी टाईम्स ऑफइंडिया में नेतरहाट आंदोलन, कोयलकारो परियोजना के खिलाफ जनआंदोलन को प्रमुखता से उठाते रहे। इन दोनोंआंदोलनों से निकले युवा वर्ग मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगे। आदिवासी समाज के भाषा-सांस्कृति, इतिहास, जल-जंगल-जमीन के सवाल खुल कर मीडिया में आने लगे। इस तरह से आदिवासी-दलित वर्ग केविचारकों को मीडिया ने एक मंच दिया, जहां हर तरह के सवालों को उठाने का अवसर दिया। सभी नवोदित लेखकगांव से थे, इस कारण हरके की इच्छा होती थी कि ज्यादा से ज्यादा गांवों की खबरे अखबारों में जाये। एक दौर थाकोई ऐसा दिन नहीं था जिस दिन गांव की खबर नहीं छपती थी। लेख-रिपोट हर चार-पांचकोलम तक के छपते थे।यही करण है कि जो भी नवोदिय लेखक इस दौर में आया, उनको पहचान मिला।
समय समय में झारखंड के विभिन्न इलाकों के लेखको, बिश्लेसकों बुधिजिवियो, राजनितिकों, सामाजिककर्याताओं, शोधकर्ताओं के आलेख पढ़ने को मिलता था। इसे आम लोगों में भी समाजिक-राजनीतिक चेतनाजागृत होता था। उस समय प्रींट मीडिय क्षेत्रिया नहीं किया गया था। इस कारण एक कोने की खबर पूरी झारखंड कोमिलती थी। इस कारण समाजनिमर्ण यह दिशा निर्देशन में मीडिया की अहम भूमिका महसूस की जाती थीं। अबसभी पी्रट मीडिया जोन वाइज कर दिया गया हैं। इस कारण राज्य के किस इलाके में क्या घटना घट रहा है-पताभी नहीं चलता है। इसके साथ ही मीडिया ने भी अपनी भूमिका बदलना शुरू कर दिया। अब दिनों-दिन मीडिया सेजनमुददे गयाब होते जा रहे हैं। आदिवासी-मूलवासी, दलितों, महिलाओं के मुददे भी नदारद हो रहे हैं। ऐसा नहीं हैकि लेखकों की लेखनी में कमी रही है। बाजारवाद अब मीडिया में हावी होता जा रहा है। आदिवासी-मूलवासियोंके जल-जंगल-जमीन के आंदोलनों से मीडिया परहेज करने लगी है। क्योंकि आज के इस पूंजीवादी व्यवस्था में जोइस व्यवस्था को स्वीकार करेगा-वही खड़ा रह सकता है। मीडिया भी इसके सामने घुटना टेक लिया है। आजबाजार व्यवस्था में हर चीजों को पैसों से आंका जाता है। एक ओर बाजार व्यवस्था से ही मीडिया अपनी आर्थिकस्थिति मजबूत करने में जुडा है-वहीं उस व्यवस्था के खिलाफ ग्रामीण संघर्ष कर रहे हैं।ऐसी स्थिति में मीडियाबाजार को ही प्रथमिका दे रहा है।
जो सामाजिक सरोकार के लेखक हैं मीडिया इन्हें हाशिये पर ढ़केल दे रहा है। कभी जनआंदोलनों को दिशा देनेवाली मीडिया आंदोलनशब्द से ही परहेज करने लगा है। मीडिया अब कारपोरेट समाज का हितौसी बन गया है।जनआंदोलन में रहते हुए यह कडुआ अनुभव मैंने कीं। मीडिया आज किसी विषय में तटस्थ नहीं दिखता है।असलील तस्वीरों की भरमार, लूट-पाट, चोरी-डाकैती, भ्रष्ट नेताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीर, पूंजी घरानों का प्रोफाईलछपना, इनका प्रचार-प्रसार करना ही मीडिया का प्रथमिकता बन गया हैं।
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