Wednesday, July 8, 2015

SEN GI SUSHUN KAJI GI DURANG

SEN GI SISHUN  KAJI GI DURANG
YAHI HAI HAMARI  BIRASAT

SEN GI SUSHUN  KAJI GI DURANG
Festival of  Adivasi
KARMA PARAB

Tuesday, July 7, 2015

Hamesha aap Esi Tarah Hanste Rahiye................

 Hamesha  aap Esi  Tarah
Hanste Rahiye................




जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है।

            आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
                     खूंटी-गुमला-झारखंड
            केंन्द्रीय कार्यालय कोरको टोली-तोरपा-खूंटी-झारंखड      
सेवा में                                              पत्रांक........01.............
उपायुक्त महोदय                                      दिनांक.........26 मई 2015
.................                                        
खूंटी                                               

विषय-जल-जंगल-जमीन सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट को स्थापित करने वाले भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  201५  को हर हाल में वापस लेना होगा, तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। साथ ही राज्य के सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने की मांग।
इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छुओं से लड़ कर झारखंड की धरती को आबाद किया है। झाड़-जंगल साफ कर खेती लायक जमीन बनाया। जंगल-झाड़ एवं पर्यावरण को सुरक्षित रक्षा। जंगल-जमीन-पहाड़-नदी-नाला आदिवासी-मूलवासी, किसानों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान है। यही हमारी भाषा-संस्कृति, गीत और संगीत भी है। 
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश  अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है, तब तक ही आदिवासी-मूलवासी-किसान जीवित रह सकते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ हमारा सहअस्तित्व को अच्छुन रखने के लिए ही-छोटानागपुर काष्तकारी तथा संताल परगना काष्तकारी अधिनियम बनाया गया। आजाद भारत के संविधान ने भी पांचवी-छठवीं अनुसूचि के तहत हमारे समुदाय को प्रकृतिक संसाधनों के साथ विकसित तथा इसे संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार गांव सभा-ग्राम सभा को दिया है। 
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 के जनविरोधी प्रावधानों को खत्म कर जनपक्षिये कानून लाने,  देश  के प्रकृतिक संसाधनों पर किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों तथा स्थानीय ग्राम सभा का नियंत्रण बरकरार रखने  की मांग को लेकर लंबे संघर्ष के बाद, 2013 में ग्राम सभा के अधिकारों तथा आदिवासी-मूलवासी-किसानों के अधिकारों को मजबूदी देने के लिए भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 बनाया गया। 
ल्ेकिन केंन्द्र की मोदी सरकार ने इन तमाम अधिकारों को सीरे से खारीज करते हुए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  201५  लाया। जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है। यह कानून सिर्फ पूजिंपती और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन और तमाम प्रकृतिक संपदा को देने के लिए लाया गया है। यह सिर्फ जंगल-जमीन और प्रकृतिक संसाधनों की खूली लूट को ही बढ़वा देगा। इसे तेजी से झारंखडी जनता विस्थापित होंगें। परर्यावरण नष्ट होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। देश  सहित राज्य में प्रकृतिक अपदा बढ़ेगा। आदिवासी-मूलवासी-किसानों सहित तमाम मजदूर-मेहनतकषों पर हर तरह के हिंसा और अत्याचार बढ़ेगा। 
हमारी मांगें
1-उपरोक्त दुषपरिणामों को रोकने के लिए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  201५  को हर हाल में वापस लेना होगा तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। 
2-झारखंडी आदिवासी-मूलवासियों की भवना के अनुरूप स्थानीययता नीति बना कर तुरंत लागू किया जाए।
3-शिक्षा एवं स्वास्थ्य का निजीकरण, पीपीपी माॅडल को नहीं सौंपा जाए। राज्य और देश  के कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि  राज्य के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा दे।
4-सरकारी स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून के तहत शिककों की नियुक्ती तुरंत किया जाए।
5-प्रत्येक पंचायत में स्वस्थ्य उपकेंन्द्र खोला जाए तथा उपकेंन्द्रो में स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ती की जाए।
6-मनरेगा योजना को पूर्ववत चलाया जाए तथा इस योजना में फलदार वृक्षारोपण को भी शामिल  किया जाए।
7-प्रखंड कार्यालयों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंन्द्रों, अंचल कार्यालयों तथा पंचायतों में स्थानीय जनभावनाओं को देखते हुए स्थानों को भरा जाए। 
8-विभिन्न विकास परियोजनाओं से पूर्व में विस्थापितों को पूनर्वासित-तथा जिन परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं-वहीं नौकरी-रोजगार दिया जाए। 
                                           निवेदक
               आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, डैम प्रभावित संघर्ष समिति -झारखंड

झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।


९ जून बिरसा मुंडा शहीद दिवस पर 
बिरसा मुंडा के उलगुलान का सपना अबुआ हाते रे अबुआ राईज स्थापित करना था। उन्होनं आंदोलनकारियों को अहवान किया था दिकु राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना। (दिकू राईज खत्म हो गया-हमलोगों का राज्य शुरू हुआ)। बिरसा उलगुलान का सपना था आदिवासियों के जल-जगल-जमीन पर अंग्रेजो के कब्जा से मुक्त कराना, अग्रेजों, जमीनदारों, इजारेदारों द्वारा उनके धरोहर जल-जंगल-जमीन पर किये जा रहे कब्जा को रोकना, बेटी, बहुओं पर हो रहे शोषण को खत्म करने  तथा आदिवासी सामाज को तमाम तरह के शोषण दमन से मुक्त करना था। बिरसा मुंडा का उलगुलान सिर्फ झारखंड से अंग्रेज सम्राजवाद को रोकना नहीं था, बल्कि देष को अंग्रेज हुकूमत से मुक्त करना था। स्वतंत्रता संग्र्राम का इतिहास गवाह है कि जब देश  के स्वतंत्रता संग्राम के मैदान में बिरसा मुडा, डोंका मुंडा,  सहित सिद्वू-कान्हू, तिलका मांझी, सिंदराय-ंिबदराय जैसे आदिवासी  शहीद देश  के इतिहास में पहला संग्रामी थे। (1856-1900 का दशक) । बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जननायक रहे हैं। 
इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जल-जंगल-जमीन पर हमारा खूंटकटी अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जब जब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस धरोहर को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया तब-तब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस राज्य के जलन-जंगल-जमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्वू-कान्हू, फूलो-झाणो, सिंदराय-ंिबंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी हादत दी। इन शहीदों के खून का कीमत है-छोटानागपुर काशतकारी अधिनियक 1908 और संतालपरगना काशतकारी अधिनियम । इन कानूनों में कहा गया है कि आदिवासी इलाके के जल-जंगल-जमीन पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेश  नहीं कर सकता है। यहां के जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विषश  अधिकार मिला है-यह है पांचवी अनुसूचि क्षेत्र। इसे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में जंगल-जमीन-पानी, गांव-समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित एवं विकसित एंव नियंत्रित करने को अधिकार है।
झारखंड के इतिहास में आदिवासी शहीदों ने जून महिना को झारखंड में अबुअः हातु-अबुअः राईज स्थापित करने के हूलउलगुलान की तिथियों को रेखांकित किये हैं। .9 जून 1900 को बीर मुंडा की मौत जेल में अंग्रेजों के स्लो पोयजन से हुई। जबकि 30 जून 1856 को संताल परगना के भोगनाडीह में करीब 15 हजार संताल आदिवासी अंग्रेजों के गोलियों से भून दिये गये, इस दिन को भारत के इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है। 
बिरसा मुंडा एक आंदोलनकारी तो थे ही साथ ही समाज सुधारक और विचारक भी थे। यही कारण है कि समाज की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन का रूप-रेखा बदलते रहे। समाज में व्यप्त बुराईयों के प्रति लोगों को सजग और दूर रहने का भी अहवान किया। उन्होंने सहला दिया-हडिंया दारू से दूर रहो । उन्होनंे कहा- सड़ा हुआ हडिंयां मत पीना, उससे षरीर सिथिल होता है, इससे सोचने-समझने की शक्ति कमजोर होती है। (हडिंया केवल नहीं लेकिन सभी तरह के शराब से परहेज करने का कहा था।)
 बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलनकारियों ने समझौताविहीन लड़ाई लड़े। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों के शोषण-दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहता था। कहा जाता है जब गांव का ही एक व्यक्ति की मृत्यू हुई थी, उस मृत षव के साथ चावल और कुछ पैसे गाड़ दिया गया था। (आदिवासी सामाज में शव के साथ कपड़ा थोडा चावल, पैसा डाला जाता है। ) भूखे पेट ने बच्चा बिरसा को उस दफनाये षव के कब्र से उस पैसा को निकालने को मजबूर किया था। उस पेसा से वह चावल खरीद कर माॅ को पकाने के लिये दिया । इस गरीबी के बवजूद भी बिरसा मुंडा को सामाज, राज्य और अबुअः हातु रे आबुअः राईज का उलगुलान ने अंग्रेज हुकुमत के सामने कभी घुटना टेकने नहीं दिया। 
बिरसा मुंडा सामाज पर आने वाले खतरों के प्रति सामाज को पहले से ही अवगत कराते थे। जब अंग्रंजों का दमन बढ़ने वाला था-तब उन्होंन अपने लोगों से कहा-होयो दुदुगर हिजुतना, रहडी को छोपाएपे-(अंग्रेजो का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तौयार हो जाओ)।
9 जनवारी 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में खूंटी जिला स्थित डोमबारी बूरू आदिवासी शहीदों के खून से लाल हो गया था। उलगुलान नायकों को साईल रकम-डोमबारी पहाड़ में अंग्रेज सैनिकों ने रांची के डिप्टी कष्मिरन स्ट्रीटफील्ड के अगुवाई में घेर लिया था। स्ट्रीटफील्ड ने मुंडा आदिवासी आंदोलनकारियों से बार बार आत्मसामर्पण करने का आदेश  दे रहा था। इतिहास गवाह है-उनगुलान के नायकों ने अंग्रेज सैनिकों के सामने घुटना नहीं टेका। सैनिक बार बार बिरसा मुंडा को उनके हवाले सौंपने का आदेश  दे रहे थे-एैसा नहीं करने पर उनके सभी लोगों को गोलियों से भून देने की धमकी दे रहे थे-लेकिन आंदोलनकारियों ने बिरसा मुंडा को सरकार के हाथ सौंपने से साफ इनकार कर दिये।
जब बार बार आंदोलनकारियों से हथियार डालने को कहा जा रहा था-तब नरसिंह मुंडा ने सामने आया और ललकारते हुए बोला-अब राज हम लोगों का है-अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाह है तो मुंडाओं को नहीं, अंग्रेजों का हथियार रख देना चाहिए, और यदि लड़ाई की बात है तो-मुंडा समाज खून के आखिरि बुंद तक लड़ने को तैयार है।
स्ट्रीटफील्ड फिर से चेतैनी दिया कि-तुरंत आत्मसमार्पण करे-नही ंतो गांलियां चलाई जाएगी। लेकिन आंदोलनकारीे -निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों के गोलियों से छलनी-घायल एक -एक कर गिरते गये। डोमबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाषें बिछ गयीं। कहते हैं-खून से तजना नदी का पानी लाल हो गया। 
डोमबारी पहाड़ के इस रत्कपात में बच्चे, जवान, बृध , महिला-पुरूष सभी शमिल थे। आदिवासी में पहले महिला-पुरूष लंमा बाल रखते थे। अंग्रेज सैनिकों को दूर पता नहीं चल रहा था कि जो लाश  पड़ी हुई है-वह महिला का है या पुरूषों का है। इतिसाह में मिलता है-जब वहां नजदीक से लाश  को देखा गया-तब कई लाश  महिलाओं और बच्चों की थी।
 इस समूहिक जनसंहार के बाद भी मुंडा समाज अंग्रेजो के सामने घुटना नहीं टेका। इतिहास बताता है-जब बिरसा को खोजने अंग्रेज सैनिक सामने आये-तब माकी मुंडा एक हाथ से बच्चा गोद में सम्भाले, दूसरे हाथ से टांकी थामें सामने आयी। जब उन से पूछा-तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए-बोली-तुम कौन होते हो, मेरे ही घर में हमको पूछने वाले की मैं कौन हुं?
बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेज कों को सहसूस करा दिया कि-आदिवासियों का जंगल-जमीन की रक्षा जरूरी है। इतिहास गवाह है-बिरसा मुंडा सहित उलगुलान और हूल के नायकों के खून का कीमत ही छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 है। इसमें मूल धारा 46 को माना गया, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों की जमीन को कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता है। 
इस गौरवशली इतिहास को आज के संर्दभ में देखने की जरूरत है। आज जब झारखंड का एक एक इंच जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खेत-टांड पर सौंकड़ों देशी -विदेशी  कंपनियां कब्जा करने जा रहे हैं। बिरसा उलगुलान सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ था। आज तो हजारों कंपनियां हमारे जल-जंगल-जमीन सहित, भाषा-सस्कृति, और पहचान पर चैतरुा हमला कर रहे हैं। भोजन, पानी, शिक्षा, स्वस्थ्य, जो आम लोगों की बुनियादी आवशकताएं हैं-को जनता के साथ से छीन कर सरकार और कंपनियां इसे मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दे रहे हैं। सरकार आज सभी जनआंदोलनों का दमन कर स्थानीय जनता के परंपारिक और संवैधानिक अधिकारों को छीनने कर पूंजीपतियों के हाथों सौंपने में लगी हुई है। आज सीएनटी एक्ट की धज्जी उडायी जा रही है। परपरागत गांव सभा के अधिकार खत्म किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकारों चैतरफा हमला हो रहा है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश  जो आदिवासी-किसान विरोधी है -जो कारपोरेट लूट को मजबूती देगा को जबरन थोपने  की तैयारी चल रही है। आज बिरसा मुंडा के अबुअः राईज के समने आज चूरचूर होते जा रहे हैं। एैसे परिस्थिति में शहीदों के इतिहास को आगे बढ़ाने के तमाम आदिवासी -मूलवासी संगठनो, बुधिजीवियों, सामाजिक कार्याकताओं, जनआंदोलनों को अत्मसात करने की जरूरत है कि हम उलगुलान के शहीदों के सपनों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं। 
बिरसा मुंडा के समय आज की तरह बुनियादी सुविधायें नहीं थीं।  समाज अषिक्षित था, आने-जाने का कोई सुविधा नहीं था, आज की तरह सड़के नहीं थी, बिजली नहीं था, फोन नहीं था, गाड़ी की सुविधा नहीं था-फिर भी बिरसा मुंडा महसूस किया-कि मुंडा-आदिवासियों को अपना राज चाहिए, अपना समाज, गांव-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ चाहिए। बिरसा मुंडा ने-महसूस किया था-झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है। 

विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है,

               आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
                     खूंटी-गुमला-झारखंड
            केंन्द्रीय कार्यालय कोरको टोली-तोरपा-खूंटी-झारंखड      
सेवा में                                              पत्रांक.......o1..............
महामहिम राज्यपाल महोदय                             दिनांक...19 jan..2015.......................   
झारखंड
विषय-जल-जंगल-जमीन सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट को स्थापित करने वाले भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  201५  को हर हाल में वापस लेना होगा, तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। साथ ही राज्य के सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने की मांग।

इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छुओं से लड़ कर झारखंड की धरती को आबाद किया है। झाड़-जंगल साफ कर खेती लायक जमीन बनाया। जंगल-झाड़ एवं पर्यावरण को सुरक्षित रक्षा। जंगल-जमीन-पहाड़-नदी-नाला आदिवासी-मूलवासी, किसानों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान है। यही हमारी भाषा-संस्कृति, गीत और संगीत भी है। 
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश  अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है, तब तक ही आदिवासी-मूलवासी-किसान जीवित रह सकते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ हमारा सहअस्तित्व को अच्छुन रखने के लिए ही-छोटानागपुर काशतकारी तथा संताल परगना कशतकारी अधिनियम बनाया गया। आजाद भारत के संविधान ने भी पांचवी-छठवीं अनुसूचि के तहत हमारे समुदाय को प्रकृतिक संसाधनों के साथ विकसित तथा इसे संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार गांव सभा-ग्राम सभा को दिया है। 
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 के जनविरोधी प्रावधानों को खत्म कर जनपक्षिये कानून लाने,  देश  के प्रकृतिक संसाधनों पर किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों तथा स्थानीय ग्राम सभा का नियंत्रण बरकरार रखनंे की मांग को लेकर लंबे संघर्ष के बाद, 2013 में ग्राम सभा के अधिकारों तथा आदिवासी-मूलवासी-किसानों के अधिकारों को मजबूदी देने के लिए भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 बनाया गया। 
ल्र्किन  केंन्द्र की मोदी सरकार ने इन  तमाम अधिकारों को सीरे से खारीज करते हुए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  2014 लाया। जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है। यह कानून सिर्फ पूजिंपती और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन और तमाम प्रकृतिक संपदा को देने के लिए लाया गया है। यह सिर्फ जंगल-जमीन और प्रकृतिक संसाधनों की खूली लूट को ही बढ़वा देगा। इसे तेजी से झारंखडी जनता विस्थापित होंगें। परर्यावरण नष्ट होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। देश  सहित राज्य में प्रकृतिक अपदा बढ़ेगा। आदिवासी-मूलवासी-किसानों सहित तमाम मजदूर-मेहनतकशों  पर हर तरह के हिंसा और अत्याचार बढ़ेगा। 
हमारी मांगें
1-उपरोक्त दुशपरिणामों को रोकने के लिए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश  2014 को हर हाल में वापस लेना होगा तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। 
2-झारखंडी आदिवासी-मूलवासियों की भवना के अनुरूप स्थानीययता नीति बना कर तुरंत लागू किया जाए।
3-शिक्षा एवं स्वास्थ्य का निजीकरण, पीपीपी माॅडल को नहीं सौंपा जाए। राज्य और देश  के कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि  राज्य के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा दे।
4-सरकारी स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून के तहत क्षकों की नियुक्ती तुरंत किया जाए।
5-प्रत्येक पंचायत में स्वस्थ्य उपकेंन्द्र खोला जाए तथा उपकेंन्द्रो में स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ती की जाए।
6-मनरेगा योजना को पूर्ववत चलाया जाए तथा इस योजना में फलदार वृक्षारोपण को भी शमिल   किया जाए।
7-प्रखंड कार्यालयों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंन्द्रों, अंचल कार्यालयों तथा पंचायतों में स्थानीय जनभावनाओं को देखते हुए स्थानों को भरा जाए। 
8-विभिन्न विकास परियोजनाओं से पूर्व में विस्थापितों को पूनर्वासित-तथा जिन परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं-वहीं नौकरी-रोजगार दिया जाए। 
                                           निवेदक
      आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, डैम प्रभावित संघर्ष समिति - झारखंड

वनोपज पर जान जातीय समाज

राज्य में इमली का उत्पादन दो लाख टन......
वनोपज पर  जान जातीय समाज 
महुआ का सालाना उल्पादन भी दो लाख टन
जनजातीय समुदाय का जीविकांपार्जन लघु वनोपज पर निर्भर है। राज्य की कुल 86.45 लाख जनजीतीय आबादी की एक बड़ा हिस्सा जंगलों से इन्हें इकठा करता है। गौरतलब है कि राज्य के लगभग 80 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 23605 वर्ग किमी( 29.6) फीसदी में जंगल है। 
चतरा, कोडरमा और पलाूमू  जिले का 40 फीसदी से अधिक भाग जंगल है। झारख्ंड स्टेट माइनर फारेस्ट प्रोडयूस को-आॅपरेटिव डेवलपमेंट एंड मार्केंटिंग (झामकोफेड) की रिपोट के मुताबिक लघु वनोपज के कुल टर्न ओवर में करीब 75 फीसदी योगदान अकेले केंन्दू पता का है। 
हालांकि राज्य में केंन्दू पता का कुल उत्पादन कितना है, यह आंकड़ा झामकोफेड के पास नहीं है। यहां विभिन्न लघु वनोपज के सालाना उत्पादन का जिक्र किया जा रहा है।
विभिन्न वनोपज व उत्पादन(स्त्रोत झामकोफेड)
वनोपज सालाना उत्पादन उपयोग
इमली---- दो लाख टन----- बगैर बीज की पैकिंग व पेस्ट

महुआ---- दो लाख टन---- शराब (इसका उपयोग भोजन और दवा के रूप में आदिवासी मूलवासी समाज करता है , लेकिन सरकार इसे सिर्फ शराब के उपयोग में दिखती है जो गलत है )
  साल बीज--- एक लाख टन--- तेल व साबुन(, हवाई जहाज ग्रीस)
डोरी ----20 हजार टन--- तेल व साबुन
कुसुम---- 10 हजार टन--- तेल व साबुन
करंज बीज --5 हजार टन-- एंटीबायोटिक तेल, मलहम स स्प्रे
जामुन---- 5 हजार टन ---- पल्प, सिरप, व पाउडर
चिरौंजी 2 हजार टन ड्राई फ्रुट
हर्रा--- 2 हजार-- दवा
आवंला---- 2 हजार टन--- पावडर, मुरब्बा, त्रिफला, अचार 
बहेरा -----2 हजार टन --- त्रिफला
चिरैता---- 2 हजार टन----- एंटिबायोटिक पावडर
पलाश  फूल, बीज---- 1 हजार टन---- जैविक रंग, दवा
नीम बीज, पता, फूल, छल ---500 टन--- तेल, साबुन, दवा
सर्पगंधा---- 500 टन--- दवा
अष्गंधा---- 500 टन--- दवा
सतावरी----- 200 टन--- दवा
शहद ------- 100 टन--- दवा,खाद्य
केंन्दू पता, फल,----  उपलब्ध नहीं--- बीड़ी(सरकार के अनुसार उपलब्ध न`ही है` , सभी जानते हैं की हर साल हजारो  ट्रक केन्दु पता झारखण्ड के बिभिन् छेत्रो  से निकलता है। 

आदिवासियों के इतिहास-पहचान, भाषा-संस्कृति, जंल-जंगल-जमीन को किसी मुआवजा से नहीं भरा जा सकता है, न ही इसका पूर्नास्थापना या पुर्नास्थापित संभव है।

5 जुलाई 2015 को कोयलकारो जनसंठन जल-जंगल-जमीन, भाषा-संस्कृति अपने इतिहास और पहचान की रक्षा के लिए 20वां   संक्लप दिवस तोरपा-तपकरा के शहीद स्थल पर मना रही है। तत्कालीन बिहार सरकार द्वारा प्रस्तावित 710 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए खूंटी जिला में बह रही कोयल नदी और गुमला जिला के बसिया क्षेत्र से बह रही कोयल नदी पर दो अलग अलग जगह पर डैम बनाने की योजना थी। के्रन्द्र सरकार और तत्कालीन राज्य सरकार ने 5 जुलाई 1995 को परियोजना का शिलान्यास करने की घोषणा की थी। कोयलकारो हाईडल पावर प्रोजेक्ट के बनने से खूंटी जिला, गुमला जिला और पष्चिमी सिंह भूंम के कुल 245 गांव प्रभावित होते। 55 हजार एकड़ खेती की जमीन जलमग्न हो जाती। 27 हजार एकड़ जंगल भूमिं पानी में डूब जाता। आदिवासी-मूलवासियों के सैकडों धर्मिक स्थल सरना-ससन दीरी भी जलमग्न हो जाता। प्रभावित क्षेत्र के ग्रामीण कोयलकारो जनसंगठन के बेनर तले 1966-67 से ही परियोजना का विरोध करते आ रहे हैं। कोयलकारो जनसंगठन का मनना है कि-आदिवासियों के इतिहास-पहचान, भाषा-संस्कृति, जंल-जंगल-जमीन को किसी मुआवजा से नहीं भरा जा सकता है, न ही इसका पूर्नास्थापना या पुर्नास्थापित संभव है। 5 जुलाई 1995 को कोयलकारो जनसंगठन ने संकल्प लिया-कि हम किसी भी कीमत में विस्थापन स्वीकार नहीं करेगें। 
कोयलकारो जनसंगठन स्वर्गीय मोजेश  गुडिया, स्वर्गीय राजा पौलुस गुडिया, सोमा मुंडा, सदर कंडुलना, धनिक गुडिया, रेजन गुडिया, अमृत गुडिया, बिजय गुडिया, कोयल क्षेत्र से बलकु खडिया, अलफ्रेद आइंद, पीसी बड़ाईक सहित सैकड़ों संर्घरत साथियों के सामूहिक नेतृत्व में संर्घष को जीत के मंजिल तक पहुंचाये। आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन कभी झुका नहीं, न ही टूटा। राज्य बनने के बाद पुलिस प्रशासन द्वारा साजिश  के तहत कोयलकारो जनसंगठन द्वारा लगाया गया डेरांग स्थित बैरेकेटिंग को 1 फरवरी 2001 को तोड़ा गया। इसके विरोध में जनसंगठन ने 2 फरवरी को तपकरा ओपी के सामने शतिपूर्वक धरना दे रहा था-इस पर पुलिस ने गोली चलायी। जिसमें आठ साथी शहीद हो गये। शहीद समीर डहंगा-बण्डआजयपुर, सुंदर कन्डुलना-बनाय, सोमा जोसेफ गुडिया, लूकस गुडिया-दोनों गोंडरा, बोदा पाहन-चम्पाबहा, जमाल खाॅं-तपकरा, सुरसेन गुडिया-डेरांग इन शहिदों के खून से लाल इस धरती ने पूरे देश  के जनआंदोलन को दिशा  दिया है-हम षहिद हो सकते हें-लेकिन अपने धरोहर का सौदा नहीं कर सकते हैं। 
कोयलकारो जनसंगठन के इतिहास में कई महत्वपूर्ण दिन और घटनाएं जनआंदोलनों को उर्जा देती हैं। इनमें से प्रमूख तौर पर 5 जुलाई 1995 को जनविरोध की ताकत के सामने केंन्द्र और तत्कालीन राज्य सरकार को झुकना पड़ा था-और परियोजना के शिलान्यास का कार्यक्रम स्थागित करना पड़ा था। 2 फरवरी 2001 को जनसंगठन पर पुलिस फायरिंग किया गया था। इन दोनों तिथि में जनसंगठन शहिदों के रास्ते चलने के लिए तथा कोयलकारो परियोजना से होने वाले विस्थापन को रोकने का संकल्प लेता है 

Saturday, July 4, 2015

Land Record Online karna...Corporets , Punjipatiyon, Udyog Gharano ke liye Jameen ..ki loot



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Birsa Munda ne kaha tha...Ulgulan ka Anat nahi hoga



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garibon ke sarab dukan ko to band kar rahe hain...kya ham punjipatin , sarab mafiyan ke bewsay ko to aage nahi badha rahe hain??



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