आज से 10 साल पहले मीडिया समाज का दिशा निर्देशक के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा था। क्षेत्रीय अखबार आदिवासी-मूलवासी, दलित समुदाय के सामाजिक, अर्थिक, सांस्कृतिक , भाषा-पहचान, स्थिति-इतिहास को बिशेष स्थान देता था। इससे समाज हर स्थिति में अपने को ससकत महसूस करता था। आज मीडिया पूरी तरह से इन समुदायों से अपने को दूर कर लिया है। देश में उदारीकरण जितनी तेजी से बिश्वा बाजार में अपने को स्थापित करने की होड़ में हैं, मीडिया भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। देश की अर्थव्यस्था अब कल्याणकारी व्यवस्था को छोड़ सिर्फ पैसा बनाने के लिए पूंजीवाद के गोद में बैठ गया है। मीडिया aaj समाज, जनसरोकार, जनहित, जनअकांक्षाओं से दूर हट कर पूंजी वाद का प्रवक्ता बन गया हैं।
मैं जब कोलेज की पढ़ाई कर रही थी तब रांची झारखंड से बहुत कम अखबार निकलते थे। उसमें से प्रभात खबर को याद करती हुं क्योंकि इसको महला में दूसरे कोई खरीदते थे-उसको मांग कर पढ़ते थे-क्योंकि इस में हर सप्ताह कोलेज के यूवावर्ग का हिंन्दी में, मुंडारी में, सदरी में कहानी और कविताएं छपती थी। झारखंड में अलग राज्य का अपना इतिहास रहा है। अलग राज्य की लड़ाई सिदू-कान्हू, सिंदराय-बिंदराय, माकी-देवमनी, बिरसा मुडा से लेकर जयपाल मुंडा ने अलग पहचान बना लिया थांं। प्रींट मीडिया ने भी इस आंदोलन को आगे बढ़ने-बढाने में अपनी भूमिका निभाते रही। मुझे याद है-एक बार अलग राज्य को लेकर रांची के मोराबादी में आदिवासियों का एक बिशाल - रैली-सभा हुआ था। इस दिन कोलेज में बिशेष रौनक थी-उत्साव जैसा महौल था। जो रैली निकाली गयी थी उसमें अधिकांश छात्र-छात्राएं थे। दूसरे दिन अखबार-दो-तीन पेज पहले दिन के रैली-सभा के रिपोट से पटा हुआ था। इस दिन से अखबार के प्रति लगाव बढ़ गया था। एक दूसरी बात मुझे याद है -हमारे ही पड़ोस में चर्च के एक अधिकारी की रहस्यमय ढंग सह मौत हुई थी, इसको दफनाने के तीन दिन बाद उनका लाश को फिर से निकला गया था जांच के लिए भेजा गया थां। इसका विस्तृत रिपोट भी अखबार में आया। प्राभात खबर ने इसे प्रमुखता से छपा था-इस खबर इसको दरवाजा-दरवाजा तक पहुंचा दिया। अचानक हर परिवार इसका ग्रहक और पाठक बन गये।
मीडिया को मैंने पाठक के रूप मे देखी हुं-उससे ही यहां रखना चाहती हुं। अखबार हो या कोई भी व्यवसाय अपने को अच्छी स्थिति में रखने के लिए हर समुदाय को अपनी अच्छी सेवाएं देकर उनके बीच स्थापित करते हैंं। उन दिनों अखबार को अपने को मजबूज स्थिति में रखने का अच्छा विकल्प के रूप में सायद इनके आम पाठक वर्ग ही थे। यही नहीं मीडिया को, अपने को झारखंडी पहचान देने की भी चिंता थी-यही कारण है कि मीडिया अपने को हर समाज के बहुत करीब रखने को प्रयास किया था। समाज की भाषा-सांस्कृति, जल-जंगल-जमीन, आदिवासी, मूलवासी, किसान, महिलाएं, युवा , बच्चे सभी के मुददों को मीडिया जगह देता था। झारखंड आंदोलन को भी बिशेष जगह दिया था। यही नहीं सभी जाति-समुदाय के लेखकों को अपनी रचना-कृति एवं, विचार-धारा ,को समाज -राज्य तथा देश हित में रखने का अवसर दिया। पाठकों के बीच अपनी मजबूती पैठ के लिए ही समाज को स्थान दिया गया थां। मीडिया हर जाति-धर्म के बीच पैठ बनाने के लिए अखबारों में होड़ लगती थी। यही कारण है कि-मीडिया समाज से जुड़ा रहा ।
1992-93 का समय आदिवासी-मूलवासियों द्वारा अपने पूर्वजों का दिया धरोहर को बचाने के लिए झारखंड के पलामू तथा गुमला जिला के नेतरहाट ++क्षेत्र में नेतरहाट जनसंघर्ष समिति का आंदोलन चरम पर था। जोकिपोखर के टुटवापानी में आंदोलनकारियों नारा-जान देगें-जमीन नहीं देगे, पूरे झारखंड में गुंज उठता था। वासवी जी उस समय जनसत्ता के लिए, फैसल अनुराग प्रभात खबर के लिए तथा अरूण ठाकुरजी टाईम्स ऑफ इंडिया में नेतरहाट आंदोलन, कोयलकारो परियोजना के खिलाफ जनआंदोलन को प्रमुखता से उठाते रहे। इन दोनों आंदोलनों से निकले युवा वर्ग मीडिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करने लगे। आदिवासी समाज के भाषा-सांस्कृति, इतिहास, जल-जंगल-जमीन के सवाल खुल कर मीडिया में आने लगे। इस तरह से आदिवासी-दलित वर्ग के विचारकों को मीडिया ने एक मंच दिया, जहां हर तरह के सवालों को उठाने का अवसर दिया। सभी नवोदित लेखक गांव से थे, इस कारण हरके की इच्छा होती थी कि ज्यादा से ज्यादा गांवों की खबरे अखबारों में जाये। एक दौर था कोई ऐसा दिन नहीं था जिस दिन गांव की खबर नहीं छपती थी। लेख-रिपोट हर चार-पांच कोलम तक के छपते थे। यही करण है कि जो भी नवोदिय लेखक इस दौर में आया, उनको पहचान मिला।
समय समय में झारखंड के विभिन्न इलाकों के लेखको, बिश्लेसकों बुधिजिवियो, राजनितिकों, सामाजिक कर्याताओं, शोधकर्ताओं के आलेख पढ़ने को मिलता था। इसे आम लोगों में भी समाजिक-राजनीतिक चेतना जागृत होता था। उस समय प्रींट मीडिय क्षेत्रिया नहीं किया गया था। इस कारण एक कोने की खबर पूरी झारखंड को मिलती थी। इस कारण समाजनिमर्ण यह दिशा निर्देशन में मीडिया की अहम भूमिका महसूस की जाती थीं। अब सभी पी्रट मीडिया जोन वाइज कर दिया गया हैं। इस कारण राज्य के किस इलाके में क्या घटना घट रहा है-पता भी नहीं चलता है। इसके साथ ही मीडिया ने भी अपनी भूमिका बदलना शुरू कर दिया। अब दिनों-दिन मीडिया से जनमुददे गयाब होते जा रहे हैं। आदिवासी-मूलवासी, दलितों, महिलाओं के मुददे भी नदारद हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि लेखकों की लेखनी में कमी आ रही है। बाजारवाद अब मीडिया में हावी होता जा रहा है। आदिवासी-मूलवासियों के जल-जंगल-जमीन के आंदोलनों से मीडिया परहेज करने लगी है। क्योंकि आज के इस पूंजीवादी व्यवस्था में जो इस व्यवस्था को स्वीकार करेगा-वही खड़ा रह सकता है। मीडिया भी इसके सामने घुटना टेक लिया है। आज बाजार व्यवस्था में हर चीजों को पैसों से आंका जाता है। एक ओर बाजार व्यवस्था से ही मीडिया अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने में जुडा है-वहीं उस व्यवस्था के खिलाफ ग्रामीण संघर्ष कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में मीडिया बाजार को ही प्रथमिका दे रहा है।
जो सामाजिक सरोकार के लेखक हैं मीडिया इन्हें हाशिये पर ढ़केल दे रहा है। कभी जनआंदोलनों को दिशा देने वाली मीडिया आंदोलन ’शब्द से ही परहेज करने लगा है। मीडिया अब कारपोरेट समाज का हितौसी बन गया है। जनआंदोलन में रहते हुए यह कडुआ अनुभव मैंने कीं। मीडिया आज किसी विषय में तटस्थ नहीं दिखता है। असलील तस्वीरों की भरमार, लूट-पाट, चोरी-डाकैती, भ्रष्ट नेताओं की बड़ी-बड़ी तस्वीर, पूंजी घरानों का प्रोफाईल छपना, इनका प्रचार-प्रसार करना ही मीडिया का प्रथमिकता बन गया हैं।
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