Thursday, March 31, 2011

आदिवासियों ने आंग्रेज शाशकों, जमींदारों के खिलाफ उलगुलान का बिंगुल फूंका था। आज भी लोग इस संघर्ष को सरहुल-जदूर गीतों में याद करते हैं-part-2



jangal se sarhul phul todte..
जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ 1855-56 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में संतालियों ने समझौता विहीन हूलकिया था। 1895-1900 तक मुंडा- हो असदिवासियों ने मुंडा सरदार और बिरसा मुंडा की अगुआई में उलगुलानकिया था। जब दामिन ईकोह के घने साल के जंगल को काट कर आंग्रेजों ने भगलपुर तक रेलवे लाईन बिछा रहे थे, संताली आदिवासियों ने जंगल-पर्यावरण की रक्षा में हुल अभियान चलाया। पाकुड़ के धनुष पूजा गांव के करीबखड़ा मारटिएल टावर जो मारटिएल इंजिनियर की देख-रेख में आंग्रेजों ने रातों-रात टावर खड़ा किया, जो सालजंगल बचाने के लिए हुल छेडे संतालियों को मारने के लिए बनया गया। इसी टावर से आंग्रेजों ने सैकड़ों संतालियोंको छलनी किया था। शहीदों के खून से धरती रंग गई, बावजूद अपने धरोहर की रक्षा के लिए सिना तने सेतालियोंने सिने पर गोली खाते टावर तक पहुंच कर आंग्रेज सैनिकों को तीर से मार गिराया, जो भागने को कोशिश-आदिवासियों के तीर उनके पीठ को भेदता गया। यह संघर्ष 10 जुलाई 1856 की हुआ। दूसरी ओर इसी दरम्यानमुंडा इलाके में खूंटकटी जंगल-जमीन की रक्षा के लिए बुन्डू, तमाड़, खूंटी क्षेत्र में मुंडा आदिवासियों ने आंग्रेजशाशकों, जमींदारों के खिलाफ उलगुलान का बिंगुल फूंका था। आज भी लोग इस संघर्ष को सरहुल-जदूर गीतों मेंयाद करते हैं-
जदुर राग
ओको रेको मपआ तना
लुपु मुई कपिस गोअना
चियम रेको तुपुइ तना
टोंटो मुई टेम्पाए तोलाना।
बुन्डु रेको मपआ तना
लुपु मुई कपिसय गोअना
तमाड़ रेको तुपुई तना
टोंटों मुई टेम्पाए तोलाना।
(हिन्दी-कहां मार-काट हो रहा है छोटी चींटी-आदिवासी फरसा ढ़ोये हुए हैं, कहां तीरो से लड़ाई हो रही है-बड़ी चींटी-आंग्रेज बंन्दूक ढ़ोये हुए हैं)
झारखंड अंचज सोना, रूपा हीरा, कोयला, चोदी, अबरख, तांबा जैसे रत्नोंसे अटा पड़ा है। इसी भूखंड ने विभिन्नजनजातियो की बहुरेगी सांस्कृतिक बिरासत विविधता में एकता को संजोये रखा है। इसी धरती ने झारखंडी भूमिपुत्रों, दरांव, मुंडा, खडि़या, संताल, हो, नगेसिया, बिरहोर, बिरजिया, पहाडिया, आदि को स्तन पान कराते रहा है।यह समाज प्राकृतिक छटा के बीच खेतों खलिहानों, जंगलों के बीच निकाई-बुनाई, दातुन-पताई करतें प्राकृति केसाथ आत्मीय रिस्तों को सरहुल- बसंत ऋतु में गीतों में व्यत्क करता है
खडि़या-भाषा
आता खोंचाते जरानो बेलोंगचि
आता सहिया जरआ योंओना
माई दादा उमींग गारो ठाकैती
सुरी संगों मेलाय गारो टुयोब-टुयोब।

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