Friday, May 27, 2022

-आॅनलाइन जमीन के दस्तावेजों का हो रहा ़क्षेड़-छाड़ एवं जमीन का हेरा-फेरी बंद किया जाए।

 केंन्द्र की मोदी सरकार द्वारा काॅरपोरेट घराणों एवं पूंजिपतियों के लिए लायी जा रही स्वामित्व योजना के तहत प्राॅपटी/ संपत्ति कार्ड नहीं चाहिए। 

झारखंड में सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, मुंडारी खूंटकटी एवं 5वीं अनुसूचि क्षेत्र के आदिवासी बहुल जिला खूंटी में प्राॅपटी कार्ड बनाने के लिए ड्रोन से जमीन का सर्वे किया जा रहा है, को रोकने की मांग 

एवं आदिवासी-मूलवासी किसानों के परंपरागत अधिकार सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, मुंडारी खूंटकटी अधिकार, हो आदिवासी बहुल इलाका ......के बिलकिनशन रूल्स एवं 5वीं अनुसूचि में प्रावधान अधिकारों को कड़ाई से लागू करने की मांग को लेकर 28 फरवरी 2022 को विधान सभा के समक्ष धरना।

इतिहास गवाह है कि झारखंड में जल, जंगल, जमीन को आबाद करने का आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय का अपना गैरवशाली इतिहास है।  आदिवासी समुदाय खतरनाक जंगली जानवकरों से लड़ कर जंगल-झाड़ को साफ किया, गांव बसाया, जमीन आबाद किया है। आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय जंगल, जमीन, नदी, पहाडों की गोद में ही अपने 

भाषा-सास्कृतिक पहचान के साथ विकसित होता है। 

प्रकृतिक-पर्यावरण जीवन मूल्य के साथ आदिवासी-मूलवासी समुदाय के ताना-बाना को संरक्षित और विकसित करने के लिए ही छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 बनाया गया है। साथ ही भारतीय संविधान में 5 वीं अनूसचि एवं पेसा कानून 1996 में आदिवासी समुदाय के जल, जंगल, पर इनके खूंटकटी अधिकारा सहित अन्य परंपरागत अधिकारों का प्रावधान किया गया है। 

सर्व विदित है कि आदिवासी समुदाय के जंगल-जमीन, सामाजिक-ससर््ंतिक, असर्थिक आषार को संरक्षित एवं विकसित करने के लिए भारतीय वंविधान में विशेष कानूनी प्रावधान किये गये है। स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि-गांव के सीमा के भीतर एवं बाहर जो प्रकृतिक संसाधन है जैसे, गिटी, मिटी, बालू, झाड-जंगल, जमीन, नदी-झारना, सभी गांव की सामुदायिक संपत्ति है। इस पर क्षेत्र के ग्रामीणों का सामुदायिक अधिकार है।

ये सभी सामुदायिक अधिकार को सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पेसा कानून, कोल्हान क्षेत्र के लिए विलकिनशन रूल, मुंडारी खूंटकटी अधिकार में कानूनी मन्यता मिला हुआ है। ये सभी अधिकार आदिवासी समुदाय के लंबे संघर्ष और शहादत के बाद मिला है। खतियान एवं वीलेज नोट में दर्ज सामुदायिक एवं खूंटकटी अधिकार को बचाना जगरूक नागरिकों के साथ राज्य के कल्याणकारी सरकार की भी जिम्मवारी है। 5 वीं अनुसूचि क्षेत्र का संरक्षक राज्यपाल महादयहै, इनकी जिम्मेवारी है हमारे अधिकारों को संरक्षित करने का। 

वर्तमान में लाया जा रहा स्वामित्व योजना के तहत प्राॅपटी कार्ड बनायी जाएगी। 

इससे कई बड़े सवाल उभर कर आ रहे हैं-

1-आदिवासी सामुदाय क ेजल, जंगल, जमीन जैसे भूईहारी खेत, डालीकतारी खेत, भूत खेता, पहनाई खेत, चरागल, सरना, मसना, ससनदीरी, हड़गड़ी, कब्रिस्तान, जहिरा, जाहेरस्थान, देवस्थान, अखड़ा, बांध, पोखरा, जतरा टांड जैसे बेलगान जमीन का स्वामित्व योजना के तहत प्राॅपटी कार्ड किसके नाम से बनेगा? 

2-2014 के बाद आदिवासी-मूलवासी समुदाय के सामुदायिक जमीन, जो खतियान पार्ट दो में, वीलेज नोट में, सीएनटी, एसपीटी एक्ट में, पेसा कानून में एवं वन अधिकार कानून 2006 में प्रावधान है, को रघुवर दास की भाजपा सरकार ने भूमि बैंक में शामिल कर दिया है-इसका प्राॅपटी कार्ड किसके नाम से बनेगा?

3- आॅनलाइन व्यवस्था होने के बाद 1932 के खतियान में भारी छेड़छाड़ हुआ है, जिसमें खतियान धारियों का नाम गलत दर्ज किया गया है। किसी में खाता संख्या गलत दर्ज है, किसी में असली जमीन मालिक को हटा कर दूसरे लोगों का नाम दर्ज कर दिया गया है । आॅनलाइन गलत अपडेट होने के कारण जमीन मालिक जमीन का रसीद नहीं काट पा रहे हैं। स्वामित्व योजना के तहत इस तरह के जमीन का प्राॅपर्टी कार्ड किसके नाम से बनेगा?

 सीएनटी, एसपीटी एक्ट, पेसा कानून 1996, 1932 के खतियान में प्रावधान अधिकार,ं वन अधिनियम कानून 2006 एवं 5 वीं अनूसचित क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के जल, जंगल, जमीन पर इनके परंपरागत अधिकारों का प्रावधान किया गया है। के जंगल-जमीन, सामाजिक-संस्कृतिक मूल्यों पर प्रतिकूल असर होगा। 

ये सभी गंभीर सवाल हैं-जमीन का आॅनलाइन व्यवस्था होने के बाद भारी संख्या में आॅनलाइन जमीन का लूट, नजायज कब्जा चल रहा है। इसको ठीक करने लिए किसान प्रज्ञा केंन्द्र से सीओ कार्यालय, सीओ कार्यलाय से अमीन के पास दौडतें दौड़ते दो-तीन साल बित गया, लेकिन गलती ठीक नहीं हो रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

प्राॅपटी कार्ड-मकान के साथ, उनके सभी जमीन को एक में लिंक किया जाएगा, तब इसका संपति कार्ड बनेगा। (जिस जमीन पर ग्रामीण अपना मालिकाना हक साबित कर सकेगें, जिस जमीन का मालिकाना हक साबित नहीं कर पाऐगें उस जमीन का सरकार अपने नाम कर लेगी), जो डिजिटल नक्सा में रखा जाएगा। 

भारत सरकार पंचायत मंत्रालय की स्वामित्व योजना नियामावली के अनुसार अब जमीन का स्वामित्व पंचायत मंत्रालय के हाथ में दिया जाएगा। यहां समझने की जरूरत है कि जो परंपरागत गांव समुदाय के हाथ में जो अधिकार था, उसको सरकारी पंचायती व्यवस्था के अधिन किया जाएगा। यह नयी व्यवस्थ लागू होने पर निश्चित तौर पर कागजों में सीएनटी, एसपीटी एक्ट, पांचवी अनुसूचि, मुंडारी खूंटकटी अधिकार, कोल्हान विलकिनसन रूल्स सहित अन्य परंपरागत व्यवस्था दर्ज रहेगा, लेकिन इसका जमीनी अधिकार स्वतः कमजोर हो जाएगा। यह कहना गलत नहीे होगा कि-आने वाले समय में से सभी परंपरागत अधिकार अस्तित्व विहीन हो जाएगा। आदिवासी समुदाय पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। 

भारत सरकार की स्वामित्व योजना के पंचायत मंत्रालाय निर्देशिकानुसार ग्रामीण क्षेत्रों के जमीन का मौद्रिकरण किया जाएगा, इससे ग्रामीण क्षंत्र के जमीन व्यवसाीयकरण को बढ़ावा दिया जाएगा। इसे ग्रामीणों पर टैक्स का बोझ बढ़ेगा। जंगल, जमीन सहित सभी संसाधनों का खरीद-फरोक्त एवं लूट-भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। 

स्ंापति कार्ड/प्राॅपटी कार्ड लागू होने से आदिवासी इलाके को निम्नलिखित खतरों का सामना  भविष्य में करना होगा। 

1-परंपरागत आदिवासी इलाके का डेमोग्राफी -भौगोलिक स्थिति पूरी तरह से बदल जाएगा।

2-5वीं अनुसूचि, सीएनटी, एसपीटी एक्ट, मुंडारी खूंटकटी एवं विलकिनसन रूल्स के तहत गांव के सीमा के भीतर के गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, जंगल-झाड़ी, परती-झारती, नदी-नाला आदि सामुदायिक जमीन पर बाहरी समुदाय का प्रावेश एवं कब्जा होगा।

3-प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े आदिवासी-मूलवासी, किसान, दलित समुदाय का परंपरागत सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, आधार ध्वस्त हो जाएगा।

4-ड्रोन सर्वे पूरा होने के साथ ही गांव का डिजिटल नक्सा बनेगा, नक्सा डिजिटल होगा, तब खतियान भी डिजिटल होगा। तब सवाल है कि-आदिवासी-मूलवासी समुदाय को सामुदाचिक अधिकार देने के साथ ऐतिहासिक पहचान देने वाला 1932 (जिससे आधार माना जाता है) खतियान का अस्तित्व बना रहेगा? या स्वतः निरस्त हो जाएगा?

5-ड्रोन से सर्वे के बाद जमीन मालिकाना हक क्लेम या दावा करने के लिए ग्रामीणों से कहा जाएगा, तब जिस जमीन का मजगुजारी रसीद काटा जा रहा है, उस जमीन का फ्रूफ या सबूत पेस करेगें, लेकिन ग्रामीणों का सामुदायिक जमीन जिसका रसीद नहीं काटा जाता है, उसका क्या होगा?

क्या इसके लिए स्वामित्व योजना में पांचवी अनुसूचि के अधिकारों, सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, में प्रावधान सामुदायिक अधिकारों के लिए कोई विशेष प्रावधान किया गया है?। क्योंकि पूरे नियामावली में कहीं पर इसका जिक्र नहीं किया गया है। तब सीधे तौर पर यह माना जा सकता है कि-स्वामित्व योजना में आदिवासी, मूलवासी किसानों के परंपरागत अधिकारों के संरक्षण के लिए कोई जगह नहीं है। 

6-ग्रामीण इलाके में बढ़ते शहरी, आबादी के कारण ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था, परंपरागत जलस्त्रोतों, वन व्यवस्था, जैव विविधता, एवं पर्यावरणीय व्यवस्था पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ेगा।

7-प्राॅपटी कार्ड योजना के तहत ग्रीमीण आदिवासी इलाके में बड़ी संख्या में बाहरी आबादी के प्रवेश होने से, राज्य में आदिवासी आबादी तेजी से घटेगी। परिणाम स्वरूप आदिवासी समुदाय की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति स्वतःकमजोर होगा। 

नोट-ज्ञात हो कि झारखंड में भूमि सुधार कानून के तहत राज्य में लाखों छोटे किसानों को एक-एक एकड़, कहीं कहीं दो-तीन एकड़ तक जमीन बंदोबस्त कर दिया गया था। जब से जमीन लोगों के नाम से बंदोबस्त किया-उत्क जमीन पर लोग खेती करते आ रहे हैं, याने जमीन उनके उपयोग में है। जमीन का रसीद भी उनके नाम से काटा जा रहा था। अचानक पिछले 2014-15 के बाद से इस तरह के जमीन धारकों को राज्य सरकार की ओर से अंचल कार्यालयों से उत्क बंदोबस्ती का सक्ष्य/दसस्तावेज प्रस्तूत करने की नोटिस जारी की गयी। उत्क नोटिस में कहा गया-फलां तिथि को अंचल कार्यालय में आकर बंदोबस्त जमीन का, बंदोबस्ता कागजात, सहित अन्य कागजात अधिकारियों के समक्ष प्रस्तूत करें। यदि निर्धारित तिथि को कागजात प्रस्तूत नहीं करेगें, ऐसे स्थिति में अधिकारी अपनी तरफ से निर्णाय लेने को अधिकृत हैं। इन नोटिसों का जवाब, जिन लोगों ने कागजात सुरक्षित रख पाये थे, अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया, जो असक्षम थे प्रस्तुत नहीं किये। परिणाम यह हुआ कि-राज्य के कई इलाके में भूमिदान में बंदोबस्त जमीन का रसीद काटना बंद कर दिया गया। ग्रामीणों का समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें?

राज्य में जमीन संबंधित काम-काज 2014-15 तक आॅफलाइन संचालित हो रहा था। जमीन मालिक आॅफलाइन रसीद हल्का कर्मचारियों के द्वारा काटने का व्यवस्था था। इसके समय तक जमीन के दस्तावेजों का आॅनलाइन नहीं हुआ था। आॅफलाइन व्यवस्था होने के कारण जो भी गडबड़ियां होती थी, संबंधित अधिकारियों के पास जा कर ठीक करवा लेते थे। 

लेकिन आॅनलाइन व्यवस्था के बाद जमीन के दस्तावेजों में के अपडेट करने में भारी गलतियां हुई हैं। आॅनलाइन खतियानों में, किसी में खाता नंबर गलत दर्ज हुआ, किसी में प्लाॅट नंबर गलत, किसी में जमीन का रकबा गलत दर्ज किया गया है। जमीन मालिक प्रज्ञा केंन्द्र रसीद कटवाने जा रहे हैं, तो उन्हें कहा जा रहा है कि जमीन आॅनलाइन नहीं दिख रहा है-रसीद नहीं कटेगा। इसको ठीक करने के लिए पज्ञा केंन्द्र से अमीन, अंचल के सीओ, उपायुक्त तक चक्कर कटते-कटते थक रहे हैं। कई पीड़ितों को सीधे कहा जा रहा है-एक प्लाॅट को ठीक करने के लिए 14 हजार से 20 हजार तक की मांग की जा रही है। 

आॅनलाइन खतियान में गलती के कारण बहुत से जमीन मालिक 4-5 वर्षों से जमीन का रसीद नहीं कटवा पा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ खतियान से परंपरागत रैयातों का नाम हटाकर रातों-रात पांजी टू में में जमीन मालिक का नाम बदल दिया जा रहा है। कम पढ़े-लिखे सीधे, साधे आदिवासी किसानों को नहीं समझ में आ रहा कि ये क्या हो रहा है? बड़ा सवाल है कि आखिर इसके लिए कौन जिम्मेवार है?। 

ये सारी दिक्कतें तक हो रही है, जब जमीन-जंगल हमारा है। जमीन का सारा दस्तावेज गांव के लोगों के हाथ में मैनुआली मौजूद है। 1932 का खतियान, विजेल नोट, गांव का नक्सा ग्रामीणों  के हाथ में है। सच्चाई है कि जब तक जमीन संबंधित व्यवस्था आॅफलाइन था, ग्रामीण इलाकों में जमीन का हेराफेरी, गैर कानूनी कब्जा की घटनाएं हो रही थी, लेकिन आज की तुलना में कम था। कारण की, गांव वाले अपने क्षेत्र की जमीन की रक्षा अपने तरीके से करते आ रहे थे। अब ग्रामीणों के अपने व्यवस्था पर डिजिटल व्यवस्था भारी पड़ गया है। 

इस तरह से आदिवासी-मूलवासी किसान, समुदाय से जमीन, जंगल निकलते जा रहा है। साथ ही समुदाय का सुरक्षा कवच सीएनटी, एसपीटी एक्ट, कमजोर होता जा रहा है। अब जमीन का लूट बढ़ेगा, परिवार और समाज में अशांति बढ़ेगा। इससे उत्पन्न परिस्थियों से विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी, भूख, गरीबी, भूमिहीन, अस्वस्थ्य, सूखा-आकाल एवं पर्यावरण प्रदूषण जैसे महामारी का सामना करना होगा। 

हमारी मांगें-

1-केंन्द्र सरकार की नयी स्वामित्व योजना/प्राॅपटी /संपति कार्ड बनाने के लिए आदिवासी बहुल खूंटी जिला में परंपरागत ग्राम सभा एवं आदिवासी किसान संगठनों के मांग को अनुसुनी करके, ड्रोन द्वारा जमीन का सर्वे किया जा रहा हे, को रोका जाए। 

2-मोदी सरकार द्वारा काॅरपोरेट घराणों एवं पूंजिपतियों के लिए लाया जा रहा स्वामित्व योजना को झारखंड में लागू नहीं किया जाए। 

3-सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, मुंडारी खूंटकटी एवं 5वीं अनुसूचि में प्रावधान ग्राम सभा के अधिकारों को कड़ाई से लागू किया जाए। एवं आदिवासी-मूलवासी समुदाय के सामुदायिक अधिकारों को संरक्षित किया जाए।

4-रघुवर सरकार ने गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, जंगल-झाड़ी जमीन को भूमि बैंक में शामिल किया है, इस भूमि बैंक को रदद किया जाए। 

5-क्षेत्र के सभी जलस्त्रोंतों, नदी-नाला, झील-झरना का पानी लिफट ऐरिगेशन के तहत पाइप द्वारा किसानों के खेतों तक कृषि विकास के लिए पहुंचाया जाए। 

6-आॅनलाइन जमीन के दस्तावेजों का हो रहा ़क्षेड़-छाड़ एवं जमीन का हेरा-फेरी बंद किया जाए। 

नोट-धरना 11 बजे से शुरू होगा

स्थान-विधानसभा के पीछे, कुटे मैदान

दिनांक-28 फरवरी 2022

निवेदक-आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच

  मुंडारी खूंटकटी परिषद

आदिवासी एकता मंच




Tuesday, May 24, 2022

एक यात्रा कई अनुभवों के साथ

 एक सफर कई अनुभवों के साथ

 17, मई 2022 की सुबह, हल्की ठंड गुनगुनी हवा के स्पार्स से ताजगी चेतना, नई और सकारात्मक सोच के साथ यात्रा के लिए शुरुवात के लिए कदम बढ़ा। 

पक्का पपाया, खीरा और दो मंडुवा की थपड़ी रोटी, हरी पोई साग की  झोर के नाश्ता के बाद 7 बजे घर से बाहर । मेरे साथी तीन धुस्का और चाय की कुस्की से नस्ता का आनन्द पूरा किया।

सुबह का समय है। गांव की ओर से रांची शहर रेजा, कुली , दैनिक मजदूरी करने वाले गांव से निकले तो होंगे, लेकिन बिनगांव, लोधमा कर्रा रास्ता अभी खाली खाली है।


चलते चलते रोड़ से दूर दूर नजर जा रहा था। लाह लहलहाते हरियाली बिखेरे खेत,  धान की बालियों से झूमता खेत ,  अब बिकने के लिए तैयार हैं। एक नंबर का दोन, ऊंचा, मोटा आड़ अब समतल हो चूका है। दोन और टांड में फर्क नजर नही आ रहा है। प्राकृतिक आड़ तो बुलडोज हो गाया, अब कीमत के अनुसार जमीन का आकार, प्रकार ईट, सीमेंट , बालू के दीवारों ने ले लिया है।


आंखें उन खेतों को निहारते बढ़ रहा है, याद है इस खेत में पहली बारिश में खोंघी निलते थे। गांव वाले , महीला, बच्चे घोंघी चुनते थे। यंहा खेत था, खेत से धान काटने के बाद गांव के बच्चे मिलकर गुडु मूसा खोदते थे। आगे लम्बा चौड़ा टांड़ था। जंहा गांव के लोग गाय, बकरी, भैंस चराते थे। अब तो.. बड़े बड़े बिल्डिंग खड़ा हो गया है। कुछ जगह मे ऊंचा ऊंचा घेरा।


अब ये इलाका गांव जैसा नहीं लग रहा है। हां अब इसी क्षेत्र से फॉर लेन भारतमाला संडक योजना भी आने वाला है। ग्रीन प्रोजेक्ट। योजना के अनुसार फॉर लेन, कहीं कहीं सिक्स लेन रोड होगा, जो सिर्फ खेतों से होकर गुजरेगा। इसके लिए सकड़ों पेड़ काटेंगे, खेती की जमीन अधिग्रहित होगी, नदी, नाला, जलश्रोत का आस्तित्व मिट जायेगा। 


विकास की कहानी सब जानते हैं। विकास का दो रूप होता है, विकास और विनाश।, पर्यावरण प्रदूषण, अति वृष्टि, अना वृष्टि, सूखा और बाढ़, ग्लोबल वार्मिंग…और ना जाने क्या क्या इनके गवाह हैं। इस सचाई को इनकार। नहीं किया जा सकता।

मन में था, सुवारी के ग्रामीण बड़े पैमाने पर रोड़ किनारे नाले के पानी से सिंच कर तरबूज, ककड़ी, खीरा, झींगी, बोदी हर गर्मी में खेती करते हैं। इस बार भी तरबूज खाने को मिलेगा। जगह पर पहुंच भी ...। आंखें तरबूज खेत ढूंढने लगा। इस बार तरबूज नहीं… स्वीटकॉर्न /मीठा मकई की खेती किए हैं। शायद इसलिए..2020 और 2021 में कोरोना माहामारी के कारण लोकडाउन था। बाजार नहीं के कारण पुरी तरबूज बरबाद हो गई थी। इसलिए इस साल तरबूज का रिस्क नहीं लिए होंगे।


सोचते सोचते छोटा सा छायादार पेड़ नीचे बैठी बहन दिखी। नजदीक आते ही मन खुश हो गया। ताजा बोदी, भेंडी, झिंगी, ककड़ी, तरबूज साजा कर रखी है। पूछे तरबूज कैसन किलो..? 

15 रुपया किलो। बहन से बात कर ही रहे थे, तब तक उनके पति आ आए। बहन बोली… तोएं तो हमेशा आविस्ला। मैं उनके तरफ देख रही थी, तब तक उनका पति कटा हुआ लाल तरबूज का टुकड़ा मेरी और पढ़ाते हुए बोला लेवा खावा। मैं दाहिना हाथ बढ़ाकर तरबूज लेकर खाने लगी, ताजा  मीठा ,मेरे बाद मेरे साथी के हाथ में लाल लाल..तरबूज।

 हम दोनों तोता की तरह कुतर कुतर कर तरबूज का मजा ले रहे थे, तोरपा  की ओर से एक गाड़ी आकर सामने रुकी। गाड़ी से युवक उनके परिवार के साथ उत्तरा , तरबूज मालिक उस दंपति को भी तरबूज का लाल टुकड़ा देते हुए कहा लेवा लेवा तोहरो खावा, बेस लगी।


 दोनों दंपति तरबूज खाने लगे ।खाते-खाते युवक ने पूछा कैसन किलो देवा था? उत्तर मिला ₹15 किलो । तरबूज खाते खाते युवक ने बोला, ₹10 में सब बाजार में मिलाते थे। तरबूज वाली बहन बोली बाजार में मिला थे  ₹10 में , हमारे तो या ₹15 किलो में बेचा थी , आवे ना रांची लाली से, और कीन के ले लेजायना। जेके खाए कर मन करेला,  से दूर दूर से आए ना और ₹15 में लेईजाए ना।


बात नहीं बनी 10 ₹ किलो में , तो युवक और उनके परिवार गाड़ी में बैठ कर रांची की ओर निकल गए । हम दोनों ने 5 किलो ₹15 रुपया किलो के भाव से खरीद कर अपने साथ लेकर चल दिए। नाला के उस पार टांड़ में तरबूज का खेती किया गया है लेकिन पानी नहीं मिलने के कारण नारंग सुख दे रहा है, पत्ती सूख गया है, छोटा-छोटा तरबूज जमीन पर पड़ा हुआ है । खेत में तरबूज खेती की स्थिति देख .. सोचने लगे एक तरबूज का फसल लगाने, तैयार करने और उसमें फूल , फल लगने , तैयार करने तक 3 महीना तक मेहनत लगता है पानी खाद मेहनत..।


इस मेहनत का कीमत हम लोग को 1 किलो में ₹15 नहीं दे सकते हैं , तब अपने किसान भाई बहनों  विकास के रास्ते हम लोग किस तरह आगे बढ़ने में मदद करेंगे?  ऐसे किसानों से जुड़ा कई सवाल  मन में उठने लगा।

तोरपा मेन रोड पहुंचने के पहले बाजार के पास कुछ किसान सफेद चित काबरा तरबूज बेचने के लिए दूकान लगाकर  रखे, ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं।


कुलड़ा जंगल पहुंचते ही हाथियों का झुंड की आने जाने की यादें मन को ताजा करने लगा। कारो नदी का पानी बह तो नहीं रहा है लेकिन अभी भी तोरपा शहर के लोगों को इंटेक्स वेल द्वारा बड़ा पाइप से पानी पहुंचा रहा है । नदी में जहां पानी जमा हुआ है,  बच्चे किलकारियां  भरते 10:12 बच्चे खेल रहे हैं । एक तरफ गांव वाले अपने कड़ा और भैंस को नहला रहे हैं।


कोरको टोली पूरा गांव, अंबाटोली पूरा गांव ,कारो नदी से बालू निकाल कर, पानी एकत्र करके पाईप से करीब एक किलोमीटर दूर खेतों में , सब्जी, गेंहू, खीरा, ककड़ी सिंचते थे। गर्मा धान भी बूते थे। पूरा गर्मी खेत हरा भरा रहता था। इस साल सभी खेत खाली पड़ा हुआ है ,हरियाली दूर-दूर तक नजर नहीं आया। हां नाला में अभी भी भरपूर पानी है लोग अपने भैस धो रहे है। कहीं-कहीं महिलाएं बच्चों के साथ कपड़े धो रहे हैं,  नहा रहे हैं। कहीं कहीं बतख पानी में किलकारियां भर रहे हैं। ऊपर से गर्मी का ताप है, लेकिन नाला का साफ पानी, बतख, बच्चों का किलकारी... मन , तन को शितलता से भींगो दीया….।


इमली पेड़ की छांव में कई पुरुष साथी बैठे हैं हम लोगों के वहां पहुंचने पर कई महिलाएं भी आई ।अपने साथ लोटा में पानी और ग्लास,  पहले हाथ मुंह धोने के लिए लोटा में पानी दी, उसके बाद सातू पानी पीने के लिए  दी। साथियों । बताया, इस साल आम। नहीं फला है, इस कारण आम का शर्बत पीने को नहीं मिल रहा है।

पानी पीते पीते मैंने पूछा,  जब भी मैं आई हूं गांव में आप लोग घर में ककड़ी ,खीरा ,तरबूज ,खूब खिलाएं जाते समय बोदी,  भिंडी ,मकई  तोड़कर साथ में भेज देते थे। पहली बार मैं खेत में। कुछ नहीं देख रही हूं, सब्जी, गरमा धान कुछ नहीं..अभी तक खेत में गरमा धान पाक रहा होता था इन साल क्या हुआ ? कहीं पर भी ना सब्जी दिखा, ना धान।


सभी साथी एक साथ बोले एक , दो साल से हम लोग खेती नहीं कर पा रहे हैं, दिन को तो हम लोग गाय बैल बकरी से खेती को बचा लेते हैं । लेकिन रोज रात को बड़का लोग आते हैं (याने हाथी ) कई बार 10 ,12 एक साथ आते हैं । कई बार एक, तो कभी-कभी,  भटक के अकेले चलाता है । सब तरबूज ,खीरा, कादू को जाता है,  सब्जी  बोदी, भेंडि सबको पैर से रौंद के बर्बाद कर देता है । यहां तक की गांव का कई कटहल पेड़ का फल को खा कर खत्म कर दिया।


 साथियों ने बताया, पालक साग ढंडा है, इसलिए इसको छोटा छोटा पति को भी एक एक कर तोड़ कर खा लेता है।

हाथियों का झुंड कुल्डा, केनक्लोया, , उलिहतु, बानबीरा, उड़ी केल, गांवों में हमेशा आते रहता है। बच्चा छोटा रहता है तो 5,6, दिनों तक एक ही स्थान पर जमे रहते हैं। एक बार एक युवा हाथी झुंड से भटक कर बनाबिरा गांव आ गया। करिस्थान के पास 3 दिन तक डाकू पेड़ के नीचे ही खड़ा रहा। कई गांव के लोग देखने के लिए आइए ,चारों तरफ से घेर के लोग खड़े रहे। कई लोग  पत्थर उठाकर हाथी के ऊपर फैंकने लगे।  एक साथी कहते हैं , ऐसे में हाथी भागेगा और वह गुस्सा होकर लोगों पर हमला तो करेगा ही।  लेकिन किसी पर हमला नहीं किया।


जल जंगल जमीन, नदी झरना, गांव समाज, पर्यावरण बचाने की लड़ाई इस इलाके में 2006 से शुरू होकर आज तक जारी है ।इस इलाके के आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय ने जल जंगल जमीन की रक्षा की लड़ाई का इतिहास पूरे विश्व में परचम लहराया है।

 मित्तल कंपनी 2008 में खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड ,कर्रा प्रखंड, गुमला जिला के कामदारा प्रखंड के करीब चालीसा गांव को हटाकर 50,000 करोड़ की लागत से स्टील प्लांट लगाने के लिए तत्कालीन झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के साथ एमओयू किया था ।इसके साथ ही अर्जुन मुंडा की सरकार आर्सेलर मित्तल कंपनी को जमीन देने की कवायद शुरू कर दी थी ।लेकिन ग्रामीण आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय सहित इलाके के हर जाति समुदाय और वर्ग ने विस्थापन के खिलाफ आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर तले एक मंच में आए और अपने पूर्वजों की 1 इंच भी जमीन नहीं , देंगे के नारा के साथ मैदान में डटे रहे।

 200 8 से 2010 तक के संघर्ष के बीच लक्ष्मी निवास मित्तल ने लक्जमबर्ग जो आर्सेलरमित्तल का हेड क्वार्टर है से घोषणा किया की खूंटी कामडारा क्षेत्र में जमीन लेना कंपनी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वहां का स्थानीय संगठन बहुत मजबूत है। इसलिए कंपनी बोकारो जिला में अपना प्रोजेक्ट सिफ्ट कर रहा है।

यदि कंपनी जमीन लेने में सफल हो जाता तो, 40 गांवों को विस्थापित होना पड़ता। संघर्ष के 12 सालों में भी  संघर्ष का ऊर्जा कमजोर नहीं हुआ है । आज भी वही जोश ,वही तलाक ...हम अपने पूर्वजों का 1 इंच जमीन नहीं देंगे,  लड़ेंगे और जीतेंगे ,यही संकल्प के साथ सरकार, कंपनी, रीयल एस्टेट, माफिया, दादलों के मनसूबों में पानी फेरता रहा है।


सरकार की विकास योजनाओं पर चर्चा करते हुए साथी कहते हैं सरकार ₹1 किलो का चावल देकर लोगों को भूख से तो निजाद दे रही है, लेकिन इस ₹1 किलो का चावल हम ग्रामीण,  समुदाय के लिए घातक भी सिद्ध हो रहा है । ग्रामीण आदिवासी समुदाय हम लोग मेहनत करने वाले हैं , खेत में परिश्रम करने वाले हैं और परिश्रम करके ही बंजर भूमि में अनाज पैदा करते हैं , लेकिन ₹1 किलो का चावल हमारे लोगों को परिश्रम करने से अपने मेहनती परंपरा थी , जो समाज का पहचान था उससे अलग कर दे रहा है । यही कारण है कि आज गांव में खेतों में मजदूरी करने के लिए रूपा डोभा करने के लिए लोग नहीं मिलते हैं।  क्योंकि काम करें या ना करें महीना में ₹1 किलो वाला चावल तो मिल ही रहा है।  इससे हमारा समाज मेहनत से दूर भाग रहा है, कोढिया हो जा रहा है । 

एक बुजुर्ग साथी कहते हैं , हमको तो लगता है सरकार को इस ₹1 किलो वाला चावल का स्कीम को बंद कर देना चाहिए , यह सुनते ही यहां बैठे कई बुजुर्ग साथी एक साथ करते हैं हमको भी लगता है कि इस योजना को बंद करना चाहिए, नहीं तो हमारा समाज बर्बाद हो जाएगा। 


सभी साथियों ने इस मामले में चिंतित.. छन भर सर नीचे.. एक ने कहा.. हम सोचते हैं.. एक बार 1रुपया किलो राशन चावल को बंद करना चाहिए..। दुसरे ने कहा.. नहीं बंद न हो.. हम ही लोगों में सुधार लाने की जरुरत है.. दुसरे लोग इस चावल से फायदा उठा रहे हैं। हम लोगों को भी फायदा उठाना सीखना चाहिए। जब खाने के लिए मिल ही रहा है, तब, अपने काम को और सही तरीके से, पूरी लगन से करना होगा, चाहे खेती किसानी का काम हो, या दूसरा काम।

एक साथी.. हां देखिए न, हम लोग हर चीज में परभरोसा/ सरकार के उपर निर्भर हो जा रहें हैं। बच्चों का पढ़ाई/ लिखाई, मकान, राशन, चावल/ गेंहू, सब में, ये ठीक नहीं है। बाकी साथियों ने हमीं भरते.. सही में हम अपनी क्षमता को भूल जा रहें हैं, हमारे पास सबकुछ है, हम सबकुछ कर सकते हैं, अपनी क्षमता पर लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया है। इसीलिए हमारा समाज कमजोरी की दिशा….


थोड़ी देर के लिए सब शांत... रहे सभी। शानाट्टा तोड़ते.. एक दूसरे की ओर देखते, मुस्कुराते...अपना ताकत हमें पहचाना जरूरी है, खेती किसानी को और मजबूत करेगें, ग्राम सभा को मजबूत करेंगे, जंगल, झाड़, नदी, नालों को हर हाल में सुरक्षित रखेंगे... इसके लिए सामूहिक प्रयास करेगें.. लड़े हैं, जीते हैं, आगे भी लड़ेंगे और जीतेंगे...


एक सफर कई अनुभवों के साथ 17, मई 2022 की सुबह, हल्की ठंड गुनगुनी हवा के स्पार्स से ताजगी चेतना, नई और सकारात्मक सोच के साथ यात्रा के लिए शुरुवात के लिए कदम बढ़ा। पक्का पपाया, खीरा और दो मंडुवा की थपड़ी रोटी, हरी पोई साग की झोर के नाश्ता के बाद 7 बजे घर से बाहर । मेरे साथी तीन धुस्का और चाय की कुस्की से नस्ता का आनन्द पूरा किया। सुबह का समय है। गांव की ओर से रांची शहर रेजा, कुली , दैनिक मजदूरी करने वाले गांव से निकले तो होंगे, लेकिन बिनगांव, लोधमा कर्रा रास्ता अभी खाली खाली है। चलते चलते रोड़ से दूर दूर नजर जा रहा था। लाह लहलहाते हरियाली बिखेरे खेत, धान की बालियों से झूमता खेत , अब बिकने के लिए तैयार हैं। एक नंबर का दोन, ऊंचा, मोटा आड़ अब समतल हो चूका है। दोन और टांड में फर्क नजर नही आ रहा है। प्राकृतिक आड़ तो बुलडोज हो गाया, अब कीमत के अनुसार जमीन का आकार, प्रकार ईट, सीमेंट , बालू के दीवारों ने ले लिया है। आंखें उन खेतों को निहारते बढ़ रहा है, याद है इस खेत में पहली बारिश में खोंघी निलते थे। गांव वाले , महीला, बच्चे घोंघी चुनते थे। यंहा खेत था, खेत से धान काटने के बाद गांव के बच्चे मिलकर गुडु मूसा खोदते थे। आगे लम्बा चौड़ा टांड़ था। जंहा गांव के लोग गाय, बकरी, भैंस चराते थे। अब तो.. बड़े बड़े बिल्डिंग खड़ा हो गया है। कुछ जगह मे ऊंचा ऊंचा घेरा। अब ये इलाका गांव जैसा नहीं लग रहा है। हां अब इसी क्षेत्र से फॉर लेन भारतमाला संडक योजना भी आने वाला है। ग्रीन प्रोजेक्ट। योजना के अनुसार फॉर लेन, कहीं कहीं सिक्स लेन रोड होगा, जो सिर्फ खेतों से होकर गुजरेगा। इसके लिए सकड़ों पेड़ काटेंगे, खेती की जमीन अधिग्रहित होगी, नदी, नाला, जलश्रोत का आस्तित्व मिट जायेगा। विकास की कहानी सब जानते हैं। विकास का दो रूप होता है, विकास और विनाश।, पर्यावरण प्रदूषण, अति वृष्टि, अना वृष्टि, सूखा और बाढ़, ग्लोबल वार्मिंग…और ना जाने क्या क्या इनके गवाह हैं। इस सचाई को इनकार। नहीं किया जा सकता। मन में था, सुवारी के ग्रामीण बड़े पैमाने पर रोड़ किनारे नाले के पानी से सिंच कर तरबूज, ककड़ी, खीरा, झींगी, बोदी हर गर्मी में खेती करते हैं। इस बार भी तरबूज खाने को मिलेगा। जगह पर पहुंच भी ...। आंखें तरबूज खेत ढूंढने लगा। इस बार तरबूज नहीं… स्वीटकॉर्न /मीठा मकई की खेती किए हैं। शायद इसलिए..2020 और 2021 में कोरोना माहामारी के कारण लोकडाउन था। बाजार नहीं के कारण पुरी तरबूज बरबाद हो गई थी। इसलिए इस साल तरबूज का रिस्क नहीं लिए होंगे। सोचते सोचते छोटा सा छायादार पेड़ नीचे बैठी बहन दिखी। नजदीक आते ही मन खुश हो गया। ताजा बोदी, भेंडी, झिंगी, ककड़ी, तरबूज साजा कर रखी है। पूछे तरबूज कैसन किलो..? 15 रुपया किलो। बहन से बात कर ही रहे थे, तब तक उनके पति आ आए। बहन बोली… तोएं तो हमेशा आविस्ला। मैं उनके तरफ देख रही थी, तब तक उनका पति कटा हुआ लाल तरबूज का टुकड़ा मेरी और पढ़ाते हुए बोला लेवा खावा। मैं दाहिना हाथ बढ़ाकर तरबूज लेकर खाने लगी, ताजा मीठा ,मेरे बाद मेरे साथी के हाथ में लाल लाल..तरबूज। हम दोनों तोता की तरह कुतर कुतर कर तरबूज का मजा ले रहे थे, तोरपा की ओर से एक गाड़ी आकर सामने रुकी। गाड़ी से युवक उनके परिवार के साथ उत्तरा , तरबूज मालिक उस दंपति को भी तरबूज का लाल टुकड़ा देते हुए कहा लेवा लेवा तोहरो खावा, बेस लगी। दोनों दंपति तरबूज खाने लगे ।खाते-खाते युवक ने पूछा कैसन किलो देवा था? उत्तर मिला ₹15 किलो । तरबूज खाते खाते युवक ने बोला, ₹10 में सब बाजार में मिलाते थे। तरबूज वाली बहन बोली बाजार में मिला थे ₹10 में , हमारे तो या ₹15 किलो में बेचा थी , आवे ना रांची लाली से, और कीन के ले लेजायना। जेके खाए कर मन करेला, से दूर दूर से आए ना और ₹15 में लेईजाए ना। बात नहीं बनी 10 ₹ किलो में , तो युवक और उनके परिवार गाड़ी में बैठ कर रांची की ओर निकल गए । हम दोनों ने 5 किलो ₹15 रुपया किलो के भाव से खरीद कर अपने साथ लेकर चल दिए। नाला के उस पार टांड़ में तरबूज का खेती किया गया है लेकिन पानी नहीं मिलने के कारण नारंग सुख दे रहा है, पत्ती सूख गया है, छोटा-छोटा तरबूज जमीन पर पड़ा हुआ है । खेत में तरबूज खेती की स्थिति देख .. सोचने लगे एक तरबूज का फसल लगाने, तैयार करने और उसमें फूल , फल लगने , तैयार करने तक 3 महीना तक मेहनत लगता है पानी खाद मेहनत..। इस मेहनत का कीमत हम लोग को 1 किलो में ₹15 नहीं दे सकते हैं , तब अपने किसान भाई बहनों विकास के रास्ते हम लोग किस तरह आगे बढ़ने में मदद करेंगे? ऐसे किसानों से जुड़ा कई सवाल मन में उठने लगा। तोरपा मेन रोड पहुंचने के पहले बाजार के पास कुछ किसान सफेद चित काबरा तरबूज बेचने के लिए दूकान लगाकर रखे, ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं। कुलड़ा जंगल पहुंचते ही हाथियों का झुंड की आने जाने की यादें मन को ताजा करने लगा। कारो नदी का पानी बह तो नहीं रहा है लेकिन अभी भी तोरपा शहर के लोगों को इंटेक्स वेल द्वारा बड़ा पाइप से पानी पहुंचा रहा है । नदी में जहां पानी जमा हुआ है, बच्चे किलकारियां भरते 10:12 बच्चे खेल रहे हैं । एक तरफ गांव वाले अपने कड़ा और भैंस को नहला रहे हैं। कोरको टोली पूरा गांव, अंबाटोली पूरा गांव ,कारो नदी से बालू निकाल कर, पानी एकत्र करके पाईप से करीब एक किलोमीटर दूर खेतों में , सब्जी, गेंहू, खीरा, ककड़ी सिंचते थे। गर्मा धान भी बूते थे। पूरा गर्मी खेत हरा भरा रहता था। इस साल सभी खेत खाली पड़ा हुआ है ,हरियाली दूर-दूर तक नजर नहीं आया। हां नाला में अभी भी भरपूर पानी है लोग अपने भैस धो रहे है। कहीं-कहीं महिलाएं बच्चों के साथ कपड़े धो रहे हैं, नहा रहे हैं। कहीं कहीं बतख पानी में किलकारियां भर रहे हैं। ऊपर से गर्मी का ताप है, लेकिन नाला का साफ पानी, बतख, बच्चों का किलकारी... मन , तन को शितलता से भींगो दीया….। इमली पेड़ की छांव में कई पुरुष साथी बैठे हैं हम लोगों के वहां पहुंचने पर कई महिलाएं भी आई ।अपने साथ लोटा में पानी और ग्लास, पहले हाथ मुंह धोने के लिए लोटा में पानी दी, उसके बाद सातू पानी पीने के लिए दी। साथियों । बताया, इस साल आम। नहीं फला है, इस कारण आम का शर्बत पीने को नहीं मिल रहा है। पानी पीते पीते मैंने पूछा, जब भी मैं आई हूं गांव में आप लोग घर में ककड़ी ,खीरा ,तरबूज ,खूब खिलाएं जाते समय बोदी, भिंडी ,मकई तोड़कर साथ में भेज देते थे। पहली बार मैं खेत में। कुछ नहीं देख रही हूं, सब्जी, गरमा धान कुछ नहीं..अभी तक खेत में गरमा धान पाक रहा होता था इन साल क्या हुआ ? कहीं पर भी ना सब्जी दिखा, ना धान। सभी साथी एक साथ बोले एक , दो साल से हम लोग खेती नहीं कर पा रहे हैं, दिन को तो हम लोग गाय बैल बकरी से खेती को बचा लेते हैं । लेकिन रोज रात को बड़का लोग आते हैं (याने हाथी ) कई बार 10 ,12 एक साथ आते हैं । कई बार एक, तो कभी-कभी, भटक के अकेले चलाता है । सब तरबूज ,खीरा, कादू को जाता है, सब्जी बोदी, भेंडि सबको पैर से रौंद के बर्बाद कर देता है । यहां तक की गांव का कई कटहल पेड़ का फल को खा कर खत्म कर दिया। साथियों ने बताया, पालक साग ढंडा है, इसलिए इसको छोटा छोटा पति को भी एक एक कर तोड़ कर खा लेता है। हाथियों का झुंड कुल्डा, केनक्लोया, , उलिहतु, बानबीरा, उड़ी केल, गांवों में हमेशा आते रहता है। बच्चा छोटा रहता है तो 5,6, दिनों तक एक ही स्थान पर जमे रहते हैं। एक बार एक युवा हाथी झुंड से भटक कर बनाबिरा गांव आ गया। करिस्थान के पास 3 दिन तक डाकू पेड़ के नीचे ही खड़ा रहा। कई गांव के लोग देखने के लिए आइए ,चारों तरफ से घेर के लोग खड़े रहे। कई लोग पत्थर उठाकर हाथी के ऊपर फैंकने लगे। एक साथी कहते हैं , ऐसे में हाथी भागेगा और वह गुस्सा होकर लोगों पर हमला तो करेगा ही। लेकिन किसी पर हमला नहीं किया। जल जंगल जमीन, नदी झरना, गांव समाज, पर्यावरण बचाने की लड़ाई इस इलाके में 2006 से शुरू होकर आज तक जारी है ।इस इलाके के आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय ने जल जंगल जमीन की रक्षा की लड़ाई का इतिहास पूरे विश्व में परचम लहराया है। मित्तल कंपनी 2008 में खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड ,कर्रा प्रखंड, गुमला जिला के कामदारा प्रखंड के करीब चालीसा गांव को हटाकर 50,000 करोड़ की लागत से स्टील प्लांट लगाने के लिए तत्कालीन झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के साथ एमओयू किया था ।इसके साथ ही अर्जुन मुंडा की सरकार आर्सेलर मित्तल कंपनी को जमीन देने की कवायद शुरू कर दी थी ।लेकिन ग्रामीण आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय सहित इलाके के हर जाति समुदाय और वर्ग ने विस्थापन के खिलाफ आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर तले एक मंच में आए और अपने पूर्वजों की 1 इंच भी जमीन नहीं , देंगे के नारा के साथ मैदान में डटे रहे। 200 8 से 2010 तक के संघर्ष के बीच लक्ष्मी निवास मित्तल ने लक्जमबर्ग जो आर्सेलरमित्तल का हेड क्वार्टर है से घोषणा किया की खूंटी कामडारा क्षेत्र में जमीन लेना कंपनी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वहां का स्थानीय संगठन बहुत मजबूत है। इसलिए कंपनी बोकारो जिला में अपना प्रोजेक्ट सिफ्ट कर रहा है। यदि कंपनी जमीन लेने में सफल हो जाता तो, 40 गांवों को विस्थापित होना पड़ता। संघर्ष के 12 सालों में भी संघर्ष का ऊर्जा कमजोर नहीं हुआ है । आज भी वही जोश ,वही तलाक ...हम अपने पूर्वजों का 1 इंच जमीन नहीं देंगे, लड़ेंगे और जीतेंगे ,यही संकल्प के साथ सरकार, कंपनी, रीयल एस्टेट, माफिया, दादलों के मनसूबों में पानी फेरता रहा है। सरकार की विकास योजनाओं पर चर्चा करते हुए साथी कहते हैं सरकार ₹1 किलो का चावल देकर लोगों को भूख से तो निजाद दे रही है, लेकिन इस ₹1 किलो का चावल हम ग्रामीण, समुदाय के लिए घातक भी सिद्ध हो रहा है । ग्रामीण आदिवासी समुदाय हम लोग मेहनत करने वाले हैं , खेत में परिश्रम करने वाले हैं और परिश्रम करके ही बंजर भूमि में अनाज पैदा करते हैं , लेकिन ₹1 किलो का चावल हमारे लोगों को परिश्रम करने से अपने मेहनती परंपरा थी , जो समाज का पहचान था उससे अलग कर दे रहा है । यही कारण है कि आज गांव में खेतों में मजदूरी करने के लिए रूपा डोभा करने के लिए लोग नहीं मिलते हैं। क्योंकि काम करें या ना करें महीना में ₹1 किलो वाला चावल तो मिल ही रहा है। इससे हमारा समाज मेहनत से दूर भाग रहा है, कोढिया हो जा रहा है । एक बुजुर्ग साथी कहते हैं , हमको तो लगता है सरकार को इस ₹1 किलो वाला चावल का स्कीम को बंद कर देना चाहिए , यह सुनते ही यहां बैठे कई बुजुर्ग साथी एक साथ करते हैं हमको भी लगता है कि इस योजना को बंद करना चाहिए, नहीं तो हमारा समाज बर्बाद हो जाएगा। सभी साथियों ने इस मामले में चिंतित.. छन भर सर नीचे.. एक ने कहा.. हम सोचते हैं.. एक बार 1रुपया किलो राशन चावल को बंद करना चाहिए..। दुसरे ने कहा.. नहीं बंद न हो.. हम ही लोगों में सुधार लाने की जरुरत है.. दुसरे लोग इस चावल से फायदा उठा रहे हैं। हम लोगों को भी फायदा उठाना सीखना चाहिए। जब खाने के लिए मिल ही रहा है, तब, अपने काम को और सही तरीके से, पूरी लगन से करना होगा, चाहे खेती किसानी का काम हो, या दूसरा काम। एक साथी.. हां देखिए न, हम लोग हर चीज में परभरोसा/ सरकार के उपर निर्भर हो जा रहें हैं। बच्चों का पढ़ाई/ लिखाई, मकान, राशन, चावल/ गेंहू, सब में, ये ठीक नहीं है। बाकी साथियों ने हमीं भरते.. सही में हम अपनी क्षमता को भूल जा रहें हैं, हमारे पास सबकुछ है, हम सबकुछ कर सकते हैं, अपनी क्षमता पर लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया है। इसीलिए हमारा समाज कमजोरी की दिशा…. थोड़ी देर के लिए सब शांत... रहे सभी। शानाट्टा तोड़ते.. एक दूसरे की ओर देखते, मुस्कुराते...अपना ताकत हमें पहचाना जरूरी है, खेती किसानी को और मजबूत करेगें, ग्राम सभा को मजबूत करेंगे, जंगल, झाड़, नदी, नालों को हर हाल में सुरक्षित रखेंगे... इसके लिए सामूहिक प्रयास करेगें.. लड़े हैं, जीते हैं, आगे भी लड़ेंगे और जीतेंगे...

Sunday, May 8, 2022

जबकि रात भर की यात्रा के लिए एक सीट रिजर्व करने वाले अपना रिजर्व सीट नहीं छोड़ सकते हैं। तब हम अपने विरासत हमेशा के लिए दूसरों के विकास के लिए ,दूसरों की उन्नति के लिए, दूसरों के फायदे के लिए क्यों छोड़े?

 जिंदगी में हर कदम यह एहसास दिलाता है ,की बाघ ,भालू ,सांप ,बिच्छू जैसे जंगली जानवरों से लडकर जंगल को साफ किया, झाड़ी को साफ किया, और जमीन बनाया, खेत बनाया, गांव बसाया,  उस जंगल जमीन को आखिर आदिवासी समुदाय छोड़ेंगे?


जबकि  रात भर की यात्रा के लिए एक सीट रिजर्व

 करने वाले अपना रिजर्व सीट नहीं छोड़ सकते हैं। तब हम अपने विरासत हमेशा के लिए दूसरों के विकास के लिए ,दूसरों की उन्नति के लिए, दूसरों के फायदे के लिए क्यों छोड़े? जिन्दगी की घटनाओं से ही हम बहुत कुछ सीखते है। 


कल 19 अप्रैल 2022 की रात 8.53 बजे साहेबगंज रेलवे स्टेशन पर भगलपुर वनांचल एक्सप्रेस के बोगी no.एस 3 में रांची आने के लिए चढ़े। हम दो लोग थे । टिकट मेरे साथी के पास था । उन्होंने  बोला हम दोनों का बर्थ 32और 33 है। मैं अपने साथी के बताइए नंबर के अनुसार बर्थ नंबर 32 में बैठ गई । थोड़ी देर के बाद मैं लेट गई । करीब आधा घंटा के बाद एक लड़की आयी और तेज आवाज में बोली ,यह मेरा जगह है खाली करो ! मैं उठ कर बैठ गई और अपने साथी से बोली, एक बार टिकट देखिए 32 नंबर हम लोगों का हैं या नहीं ? मैं यह बात पूरी भी नहीं की थी तब तक फिर से जोर से चिल्लाकर बोलने लगी सुनते नहीं हैं जल्दी से खाली करो।

  मेरे साथी ने अपने पॉकेट से टिकट है निकाल कर फिर से देखा तो हम दोनों का सीट नंबर 22 और 33 था। मैं तुरंत अपना सिरहाना में रखा बैग और बाकी सामान उठाई और बगल वाले बर्थ नंबर 22 में चली गई ।तब मुझे भीतर यह एहसास होने लगा की जब हम किसी के बुक किए गए सीट पर थोड़ी देर भी बैठ नहीं सकते हैं हमें यह आधिकार नहीं है,  तब हम आदिवासी समुदाय से हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद  किया गया जंगल, जमीन ,नदी ,पहाड़ ,गांव ,खेत, खलिहान से विकास के नाम पर बेदखल किया जाता है ।  हमें बेदखल करने का आधिकार आखिर किसने दिया है। 

एक सीट क्या? हमारा तो पूरा झारखंड ही लूटा जा रहा है। मैं सोचती हूं इसके लिए शायद हम और हमारा समाज ही जिम्मेवार है, हम अपने हक, आधिकार को नहीं समझ पाते हैं, इसकी रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।