Friday, August 16, 2019

आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच ने राजनीति, जाति, धर्म से उपर उठर कर इस ईलाके के सभी जाति-धर्म, समुदाय की रक्षा की है। हजारों सरना-ससनदीरी, मसना, कब्रिस्थान, मंदिर, मषजिद, गिरजा घर की रक्षा की है।

अर्सेलर मित्तल कंपनी द्वारा जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच का संर्घष
्र मित्तल कंपनी-अर्सेलर मित्तल कंपनी परियोजना
झारखंड सरकार के साथ अर्सेलर मित्तल कंपनी ने 8 अक्टोबर 2005 को एमओयू किया। एमओयू के तहत कंपनी सालाना 1.2 करोड़ टन स्टील निर्माण कारखाना बनाना चाहता था। परियोजना में कैप्टिव पावर प्लांट, आयर ओर खदान, कोयला खदान, टाउनशिप, जलापूर्ति के लिए जलस्त्रोत सहित बुनियादी ढांचा, माल ढोने के लिए रोड़, एवं रेलवे ट्रेक्स आदि के लिए जमीन लेने का प्रावधान था। इस परियोजना में कंपनी 40,000 करोड रूपये निवेश करने जा रही है।
कंपनी 5000 हेक्टेयर कारखाना स्टील निर्माण के लिए, 3000 हेक्टेयर कैप्टिव पावर प्लांट के लिए, 2000 हेक्टेयर टाउनशीप के लिए, एंसिलरी इकाइयों के लिए भी जमीन चाहिए । इसके आलावे बिजली की पारेषण लाइनों, संडकों, रेलवे लिंक, जल और अन्य सेवाओं की जरूरतों के लिए भी जमीन चाहिए।
लौह अयस्क की खदानें-एक अरब टन लौह अयस्क के भंडार जो 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
कोयले की खदानें-1.28 अरब टन कोयले के भंडार जो 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
मैंगनीज अयस्क--6 करोड़ टन मैंगनीज अयस्क 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
पानी--10,000 घन मीटर प्रति घंटा 60 लाख टन सालाना क्षमता के लिए। पूर्ण क्षमता पर 20,000 घन मीटर प्रति घंटे की आवश्यकता होगी।
कैप्टिव पावर प्लांट--2500 मेगावाट उत्पादन की योजना है।
उद्योग जगत में अर्सेलर मित्तल कंपनी को विश्व का स्टील जाएंट माना जाता है। इसके साथ झारखंड सरकार के  एमओयू के साथ ही सरकार ने कंपनी के लिए जमीन तलाशना शुरू कर दिया। सबसे पहले कंपनी ने स्टील निर्माण के लिए मनोहरुपुर के आदिवासी ईलाके को चयन करने की कोशिश की। लेकिन ग्रामीणों को इसका आहट लगते ही विरोध करना शुरू कर दिया। इसके बाद सरकार ने कंपनी के लिए रांची जिला के कर्रा प्रखंड, तोरपा प्रखंड एवं रनिया प्रखंड  के कई गांवों, एवं गुमला जिला के कमडारा प्रखंड के कई गांवों के जमीन को चिन्हित करके प्लांट स्थापित करने के लिए नक्सा तैयार किया। इसके साथ ही जमीन पर उतरने की तैयारी करने लगा था।
इस दौरान नरेगा योजना को लेकर बसिया क्षेत्र में इंसाफ टीम के साथी मजदूरों के साथ हो रहे अन्याय को लेकर दलालों और सरकार अधिकारियों के विरोध लड़ रहे थे। इसी बीच पता चला कि अर्सेलर मित्तल कंपनी खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड, तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड और गुमला जिला के कमडारा प्रखंड के  50-60 गांवों को हटा कर स्टील निर्माण कारखाना बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण करने जा रही है। इसकी जानकारी कंपनी द्वारा चिन्हित गांवों को दी गयी। सभी ग्रामीणों ने एक स्वर में इसका विरोध करना शुरू किया। सबके सहमति से संभावित विस्थापन के विरोध जनगोबंदी आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर से शुरू हुआ। मंच ने एक बड़ी रैली-सभा 29 मई 2008 को राजभवन के पास किया। ग्रामीणों की बड़ी संख्या इस रैली में पहुंची थी।
इस रैली के समीक्षा बैठक जो कुलडा में हुआ था, हमलोगों ने यह महसूस करते हुए कि -इस ईलाके के सभी जाति-समुदाय, सभी वर्ग के लोग इस परियोजना से विस्थापित होगें। इसलिए आंदोलन का बैनर आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का नाम को  आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच किया जाए, ताकि सभी समुदाय की भागीदारी हो सके। इस निर्माय के साथ ही मित्तल कंपनी के विरोध जनआंदोलन 2006 से लगातार 2010 तक जोरदार चलता रहा। 2010 के फरवरी माह में श्री लक्ष्मी निवास मित्तल के अपने मुख्य  कार्यालय लग्लजमवार्ग से बयान दिया-खूंटी-गुमला ईलाके में जनआंदोलन  बहंुत मजबूत है, वहां जमीन अधिग्रहण करना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं अपना परियोजना का साईड बदलूंगा।
लेकिन आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच अपने संघर्ष के साथ मैदान में डटा हुआ है। कोयल कारो परियाजना के विरोध संघषर््ारत कोयलकारो जनसंगठन के आधार पर ही आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच का मनना है-कि हम अपने पूर्वजों का एक इंच जमीन नहीं देगें, हम विकास विरोधी नहीं हैं-लेकिन हमारे इतिहास मिटा कर, गांव उजाडकर, विस्थापित कर, जंगल-पर्यावारण नष्ट कर, भाषा-संस्कृति नष्ट कर किसी तरह का विकास स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हमारा अस्तित्व, पहचान,  भासा-संस्कृति, जंगल-पर्यावारण को किसी मुआवजा राषि से भरा नहीं जा सकता है, और न ही पूवर्नवासित किया जा सकता है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच जाति-धर्म एवं राजनीति से उपर उठकर हिन्दु-मुसलिम, सरना-ईसाई के सामुहिक ताकत ही लाखों लोगों को विस्थापित होने से समाज को बचा पाया है।




आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच ने राजनीति, जाति, धर्म से उपर उठर कर इस ईलाके के सभी जाति-धर्म, समुदाय की रक्षा की है। हजारों सरना-ससनदीरी, मसना, कब्रिस्थान, मंदिर, मषजिद, गिरजा घर की रक्षा की है। आंदोलन के दौरन भी हमारी समुदायिक एकता तोड़ने की पूरजोर कोशिश  कंपनी समर्थकों ने की थी, लेकिन अपने जल-जंगल-जमीन, भाषा, संस्कृति की रक्षा के प्रति गोलबंद एकता को तोड नहीं सका।
आदिवासी -मूलवासी अस्तितवा रक्षा  मंच का गठन २००६ में , झारखण्ड में देलीमिटेशन लागु करने का केँद्र ने प्रस्ताव लाया था, इस प्रस्ताव के तहत झारखंड के बिधान सभा में आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित २८ सीट  में सात सीट , लोकसभा  -५ आरक्षित सीट में एक सीट घटने का प्रस्ताव था. आरक्षित आदिवासी सीटों को कम करने का मतलब आदिवासी राजनितिक ताकत  को कमजोर करना था, इस खतरे को देखते सामाजिक संगठनों के साथ हम लोगों ने आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का गठन किये. और डेमिलिटेशन के बिरोध संघर्ष तेज किये. जब केंद्रीय चुनाव  आयोग के चेयरमेन ने घोषणा किया , बर्तमान ब्यवस्था २०१९ तक रहेगा , इसी ब्यवस्था के तहत बिधान सभा और लोकसभा का चुनाव २०१९ तक सम्पन किया जायेगा।  इस घोषणा तक आदिवासी  अस्तित्वा रक्षा मंच भी मैदान में रहा।




२००५ में झारखण्ड सरकार ने आर्सेलर मित्तल कंपनी के साथ जमीन देने का mou  साइन किया , तब जम्में बचने के लिए आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच फिर से मैदान में सक्रिय हो गया. मित्तल कंपनी जिन बर्तमान खूंटी जिला के तोरपा , रनिया  एवं कर्रा प्रखंड के गांव तथा गुमला जिला के कामडारा प्रखंड के करीब ३८  गाओं को बिस्थपित कर  १२ मिलियन टन का स्टील प्लांट स्थापित करने की योजना थी. मूलबसि बिदित हो की इस इलाके में आदिवासी,  दलित सभी समुदाल रहते हैं. यही नहीं सभी खेती-बरी , जंगल , जमीन से जुड़े  हुए हैं।  आंदोलन में सबकी भागीदारी सुनुश्चित करने के लिए आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का नाम आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच किया। मंच आज भी किसानो के बिभिन्न सवालों को लेकर लगातार संघर्षरत

भूमि बैंक में शामिल गाव् की सामुदायिक जमीन गैर मजरुआ आम,खास ,नदी नाला , झाड़-भूमि को भूमि  मुक्त करने की मांग को लेकर राजयपाल भवन के पास धरना।  मांग पत्र राजयपाल को दिया गया.     

Tuesday, August 13, 2019

Sona raa Chanwar teko Hire Laija ...Haire Birsa Munda ke...

 
Adivasi Mulvasi Astitava Rakcha Manch--Arceller Mittal Company Dawara Khunti, Gumla Gila ke karib 35 Gaon Ko Hata-Displace Kar 50,000 Karod (Milion) Niwes ka Stell Plant Banana Chahta Tha,,,Is Bisthapan ke Khilaph Manch ne 2006 se 2010 Tak Jordar Sangharsh Chala, Is Daouran Birsa Munda Jayanti Celebret karte  Sathi  

Har Morcha Me Sanghash Jari Hai,,KALAM KE SATH MAIDAN BHI

Ajadi ke Bad Bikas ke Nam Per Jin Kisanon Ne Apna Jangal Jameen, Ghar-Dawar, Sab Kuch Sarkar Ko De Diya - In Logon Ki Jindagi ko Samjhne Gayi Thi- Tenughat Bisthapiton ke pass--Tab Maine Yah Report Likhi thi,,,,Aaj Bhi  pristhiti  me Badlaw Nahi huwa hai,,

Jal Jangal Jameen Ki Ladai Tab Bhi Thi....Ab Bhi  Jari  hai

Krishi  Bhumi ki   Bhumi   Ab City-Sahar me teji se Tabdil hota ja raha hai

2006 Me Bharat Me Manrega Kanun Lagu Kiya Gaya---Kam to Mila Lekin  Majduron  ka  Shoshan Bhi  charam per tha


 Jameen Jangal, nadi, Pahad, Paryawarn, Samajik Mulyon, awam Bhasha, Sanshkriti ka Punarwas  Sambhaw Nahi.....

Monday, August 5, 2019

अलग राज्य का नींव अबुआ हातुरे-अबुआ राईज, हमर गांव में-हमर राईज छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंगे्रज हुकूमत द्वारा थोपी जा रही भूमि बंदोस्ती कानून या लैंण्ड सेटेलमेंट के खिलाफ संघर्ष के साथ डाला गया

15 नवंबर 2000 में झारख्ंाड अलग राज्य का पूर्नगठन हुआ। यह सर्वविदित है कि झारखंड अलग राज्य की मांग, झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान समुदाय ने अपने जल-जंगल-जमीन, भाषा-सास्कृति, पहचान को विकसित और संगक्षित करने के लिए की थी। अलग राज्य का नींव अबुआ हातुरे-अबुआ राईज, हमर गांव में-हमर राईज छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंगे्रज हुकूमत द्वारा थोपी जा रही भूमि बंदोस्ती कानून या लैंण्ड सेटेलमेंट के खिलाफ संघर्ष के साथ डाला गया। इस, हमारे गांव में हमारा राज के संघर्ष को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संताल हूल 1856, 1788-90 में पहाडिया विद्रोह, 1798 में चुआड विद्रोह, 1800 में चेरो विद्रोह, 1820-21 में हो विद्रोह, 1831-33 में कोल विद्रोह, सरदारी विद्रोह और 1895-1900 में बिरसा मुंडा उलगुलान के नाम से इतिहास में अंकित किया गया है।
इस अलग राज्य की लड़ाई ने आजादी के बाद छोटानागपुर एवं सताल परगना के इलाके में आजादी के बाद संपन्न हुए राजनीतिक चुनाव को भी प्रभावित किया, और आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने 1952 के पहला चुनाव में अलग राज्य के नाम पर 33 जनप्रतिनिधियों को चुन कर बिहार विधान सभा में भेजा। अलग राज्य की इस लड़ाई को राजनीतिक तौर पर जयपाल सिंह मुंडा, निरल ऐनेम होरो सहित हजारों आदिवासी मूलवासी अगुओं ने आगे बढ़ाया। इसके बाद का0 ऐके राय, बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने भी नया दिशा दिया। समय के साथ आंदोलन ने हर तरह के उतार-चढ़ाव देखा। अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासियों के संगठित ताकत का अहसास भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार था, कि अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासी संगठित हैं। यदि आदिवासी समाज के बीच अपना जगह बनाना है-तो अलग राज्य पुर्नगठन के सवाल को पार्टी अजेंडा बनाना होगा।
विदित हो कि 1996-57 में बीजेपी ने झारखंड अलग राज्य के नाम पर एक 32 पेज की पुस्तिका प्रकाशित किया-वनांचल ही क्यों?। इस पुरे पुस्तिका का एक ही सार था-राज्य में इसाई समुदाय और अल्पसंख्याक समुदाय ने अपनी गहरी पैठ बनायी है, इस पैठ को कौसे उखाडा जाए और स्वंय उस जगह को अपने अजेंडा के साथ पाटा जाए। इस पुस्तिका में आदिवासी समाज को वनवासी के नाम से संबोधित किया गया। आदिवासी समुदाय को वनवासी संबोधन किया गया-इसको लेकर सामाजिक संगठनों सहित लोकतंत्रिक राजनीतिक पार्टियों ने भी विरोध किया। आदिवासी-मूलवासी समुदाय तथा तमाम जनसंगठनों ने सवाल उठाया कि-आदिवासी समुदाय को वनवासी करार कर, आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन के परंपरागत अधिकारों से अलग करने की बड़ी साशिज रची गयी है। साथ ही झारखंड के जंगल-जमीन-पानी और खनिज को पूंजिपतियों के हाथों बेचने की तैयारी है। इस विरोध और सर्मथन के बीच आदिवासी समुदाय ने स्पस्ट नारा दिया था-कि भाजपा द्वारा झारखंड को वनांचल का दर्जा देने का मतलब-झारखंड को व्योपारियों/व्यवसायिक / पूजिंपतियों का अखाडा बनाना है। इस तर्क के साथ आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने वनांचल शब्द का कड़ा विरोध किया। विरोध के परिणामस्वरूप भाजपा ने एक कदम पीछे हटा और वनांचल शब्द को छोडकर झारखंड के नाम पर ही अलग राज्य को पुर्नगठन करने इस अजेंडा के साथ बीजेपी ने अलग राज्य पूर्नगठन का काम को आगे बढ़ाया। क्योंकि इस समय केंन्द्र की सत्ता पर भाजपा थी। सत्ता की राजनीतिक गणित का जोड़-घटाव के बाद भाजपा ने देखा कि यही मौका है आदिवासी बहुल, खानिज संपदा से परिपूर्ण धरती पर अपना साम्रज्य स्थापित करने का। इस मौका को हाथ से जाने नहीं दिया, और अजेंडा को अमलीजामा पहनाने में बीजेपी सफल रहा।, और देश में एक साथ तीन आदिवासी बहुल राज्यों को अलग राज्य का दर्जा दिया गया।
इस बात को नहीं भूलना चाहिए भाजपा को कि-झारखंड अलग राज्य के पुर्नगठन की तारीख 15 नवंबर को इसलिए चुना गया कि-झारंखड आदिवासियों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान से जुड़ा है। इसके आदिवासी समुदाय ने लंबी लड़ाई लड़ी है। बिरसा मुडा आदिवासी समाज का पहचान है-इतिहास का हिस्सा हैं। भाजपा आदिवासी समाज को जताने चाहा-कि झारखंड आदिवासी समाज के सम्मान में बन रहा है। इसी उद्वेश्य से 15 नवंबर 2000 को राज्य को जन्म दिया गया।
लेकिन राज्य बनने के बाद राज्य ने 16 साल की उम्र देखी। इस 16वें साल में 12 साल तक तो राज्य में भाजपा के नेतृत्व में राज्य का शासन व्यवस्था चला। इन 16वें साल में पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत में आकर अकेले झारखंड का शासन व्यवस्था पर कब्जा जमा ली है। कोई रोकने वाला नहीं-आज बीजेपी अपने असली ऐजेंडा को राज्य में लागू कर रही है। इसी अजेंडा के तहत फरवरी 2016 में स्थानीयता नीति लागू किया गया, जो पूरी तरह आदिवासी, मूलवासी, किसान, सहित राज्य के मेहनतकश आज जनता के विरोध में स्थानीयता नीति का रूपरेखा खींचा गया और कानून का रूप दिया गया। जबकि मूल आदिवासी-मूलवासी झारखंडी समुदाय ने, अपने भाषा-संकृति, रिति-रिवाज, खान-पान, जीवनशैली एवं 1932 के खतियान का आधार बना कर, स्थानीयता नीति बनाने की मांग की थी। लेकिन राज्य सरकार ने इसको खारिज कर, जो 30 सालों से झारखंड में रह रहा हो-सभी झारखंडी हैं, इसी के आधार पर स्थानीयता नीति को पास किया। जो पूरी तरह से आदिवासी-मूलवासी विरोधी है। इसका विरोध हुआ, लेकिन बहुमत का नाजायज लाभ उठाते हुए, अपना अजेंडा को कानून रूप दिया। यहां से शुरू होता है-झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकशों के संवैधानिक अधिकारों पर धारदार हमला। जनविरोधी स्थानीयता नीति के साथ ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट जो आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज का सुराक्षा कवच है, को तोडना का प्रयास किया गया।
जून 2016 के कैबिनेट में रघुवर सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश लाया, और संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ता़क्षर के लिए भेज दिया। जब इस अध्यादेश का राज्य की जनता ने विरोध की, तब राष्ट्रपति भी उसे वापस का दिये। जबकि कैबिनेट के तीन-चार दिन बाद झारखंड विधानसभा सत्र शुरू होने वाला था, इसका भी रघुवर सरकार ने इंतजार नहीं किया कि, संशोधन पर विधान सभा में चर्चा के लिए रखा जाता।
जब जुलाई में विधानसभा सत्र शुरू हुआ-विपक्षी पर्टी ने विधान सभा के भतीर तथा जनआंदोलनों, सामाजिक संगठनों ने मैदान में विरोध करना शुरू किये। परिणामस्वरूप विधान सभा सत्र स्थागित हो गया। 22 अगस्त को रांची के थेलोजिकल हाॅल में दो दिनों से हो रहे भारी बारिश के बावजूद 600 लोग एकत्र होकर संशोधन अध्यादेश पर चर्चा कर बाद एक स्वर में विरोध किया। इसके साथ ही पूरे राज्य में विरोध का स्वर गूंजने लगा। 23 अगस्त को विपक्षी पार्टियों ने संयुक्त घोषणा किया-कि किसी भी हाल में संशोधन अध्यादेश को पास करने नहीं देगें। 24 अगस्त को राज्य के 24 आदिवासी संगठनों ने राजभवन मार्च के साथ राजभवन के पास सभा के संशोधन के विरोध आवाज बुलंद किये। तथा 22 अक्टोबर को रांची के मोराबादी मैदान में विशाल रैली एवं सभा की घोषणा की।
पूर्व तय कार्यक्रम के अनुसार 22 अक्टोबर को पूरे राज्य के आदिवासी-मूलवासी किसान सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश के विरोध में मोराबादी में जमा होने के लिए गांवों से निकले। लेकिन रघुवर सरकार ने भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान में प्रदत अभिव्यक्ति के अधिकार को हनन करते हुए गांव-गांव में पुलिस प्रशासन द्वारा बे्रेकेटिंग लगवा दिया गया, गांव के लोग रांची मोराबादी मैदान आ रहे थे, सबकी गाडी रोक दी गयी। यहां तक कि लोगों को पैदल भी नहीं आने दिया गया। रांची शहर को चारे ओर ब्रेकेटिंग से घेरा गया। ताकि जनता सभा तक न जा सके। इसी क्रम में खूंटी के सोयको में ग्रामीणों को रांची आने से रोका गया सोयको में। रैली में आने वालों तथा पुलिस प्रशासन के बीच विवाद बढ़ा, तक पुलिस ने फयरिंग की। इस फायरिंग में अब्रहम मुंडू मारा गया,  7 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गये। जिनका इलाज रिम्स में हुआ। इस घटना में 10 लोगों पर नेमड एफआईआर किया गया, यहां तक कि मृतक अब्रहम मुडू सहित घायलों पर भी किया।
केंन्द्र तथा राज्य की रघंुवर सरकार पूरी तरह आदिवासी-मूलवासी, किसानों के जल-जंगल-जमीन और खानिज को लूटने के लिए कई हथकंडे अपना ली है। याद दिलाना चाहती हुॅ कि 2014 में मोदी सरकार ने जिस जमीन अधिग्रहण अध्यादेश को लाया था-वह पूरी तरह से देश के किसानों को उखाड़ फेंकने की नीति थी। ताकि देश-विदेश के कारपोरेट घरानों को आसानी से जमीन हस्तांत्रित किया जा सके। इस अध्यादेश में 9 संशोधन तथा 2 उपनियम लाया गया था। रघुवर सरकार इसी संशोधन के आधार पर सीएनटी एक्ट के धारा-71(2) जिसमें आदिवासियों का जमीन यदि कोई गैर आदिवासी छल-बल से कब्जा किया है, और उस जमीन पर कोई निर्माण कार्य किया गया है-तो इस जमीन का मुआवजा देकर, उसे सेटेल करने का प्रावधान है-को समाप्त करने की बात कही गयी। इस तरह के केस को देखने के लिए हर जिला में जिला उपायुक्त को अधिकृत किया गया है-एसआरए कोर्ट (शिडूयल एरिया रेगुलेशन एक्ट) एैसे मामलों पर न्याय करे। लेकिन दुभग्य की बात है कि-इस तरह के जितने भी मामले आये हैं-सिर्फ 1-2 प्रतिशत में ही रैयतों-आदिवासी समाज को न्याय मिला है।
विदित हो कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के मामले में सामाजिक संगठनों ने पहले भी आवाज उठाया कि-जो छेद है इस एक्ट में, जैसे मुआवजा देकर मामले को रफा-दफा किया जाता है, इसको बंद किया जाए। लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं किया। आज भी सरकार के कार्रवाई पर संदेह है।
धारा-49 -इसमें पहले जनकल्याकारी कार्यों के लिए जमीन हस्तांत्रित करने का प्रावधान था। इसके तहत उद्योग और मांइस के लिए ही जमीन लेना था, लेकिन अब  इसमे संशोधन करके किसी तरह के काम के लिए जमीन लेने का प्रावधान कर दिया गया। याने यह कहा जाए-अब जमीन लेने के लिए पूरी तरह से बड़ा गेट को खोल दिया गया। धारा-21-में प्रावधान है कि-कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदला नहीं जा सकता है। लेकिन रघुवर सरकार ने इस कवच को तोड कर -कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदलने का कानून बनया। याने अब -कृर्षि भूमि में भी व्यवसायिक संस्थान खडा कर सकते है। यह सबसे खतरनाक साबित होने वाला है। एसपीटी एक्ट -का धारा 13 तथा सीएनटी एक्ट को धारा 21 दोनों एक है। इस कानून के पास होने के एक समय आएगा-झारखंड एक भी किसान नहीं बच पायेगें।
विकास के मकडजाल में आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदाय फंसते जा रहा है। विकास का यह मकडजाल काॅरपोरेट घरानों, देश-विदेश के पूंजिपतियों के लिए जमीन की लूट के लिए केंन्द्र तथा राज्य के रघुवर सरकार द्वारा तैयार नीतियों का जाल है। जो आदिवासी-मूलवासी, किसान सामाज के उपर एक फेंका  जाल की तरह  है। इस जाल के सहारे आदिवासी-मूलवासी, किसान एवं मेनतकश समुदाय को राज्यकीय व्यवस्था के सहारे काबू में ला कर इनके हाथ से जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण को छीण कर काॅरपोरेट घरानों कों सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। एक ओर भाजपानीत केंन्द्र एवं राज्य सरकार आदिवासी, किसानों के हक-अधिकारों के संगरक्षण की ढोल पीटती है, और दूसरी ओर इनके सुरक्षा कवच के रूप में भारतीय संविधान में प्रावधान अधिकारों को ध्वस्त करते हुए काॅरपोरेटी सम्राज्य स्थापित करने जा रही है। जिंदगी के तमाम पहलूओं-भोजन, पानी, स्वस्थ्य, शिक्षा, सहित हवा सभी को व्यवसायिक वस्तु के रूप में मुनाफा कमाने के लिए ग्लोबल पूंजि बाजार में सौदा करने के लिए डिस्पले-सजा कर के रख दिया है।
देश जब अेग्रेज सम्रज्यवाद के गुलामी जंजीर से जकड़ा हुआ था -तब देश को अंग्रेज हुकूमत से आजाद करने के लिए झारखंड के आदिवासी -जनजाति व अनुसूचित जाति समुदाय ने शहादती संघर्ष कर स्वतत्रता संग्राम को मुकाम तक पहुंचाने का काम किया। शहीद सिद्वू-कान्हू, ंिसदराय-बिंदराय, जतरा टाना  भगत, बीर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हमारे गांव में हमारा राज-याने जल-जंगल-जमीन पर अपना परंपरागत अधिकार बरकरार रखने, गांव-समाज को पर्यावरणीय मूल्यों के साथ विकसित करनेे, अपने क्षेत्र में में अपना प्रशासनिक व्यवस्था पुर्नस्थापित करने, कर अपना भाषा-संस्कृति के साथ संचालित-नियंत्रित एवं विकसित करने का सपना था।
आजाद देश के राजनीतिज्ञों, बुधीजीवियों, एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि-देश का विकास, शांति-व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं-इसीलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये। एक सामान्य कानून जो सामान्य क्षेत्र के लिए दूसरा विशेष कानून जो विशेष क्षेत्र के लिए बनाया गया। प्रकृतिकमूलक आदिवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र में रखा गया। इन क्षेत्रों पांचवी अनुसूचि तथा छठी अनुसूचि में बांटा गया।
इसी अनुसूचि क्षेत्र में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना अधिनियम 1949, पेसा कानून 1996, वन अधिकार अधिनियम 2006 भी है। ये सभी कानून आदिवासी, मूलवासी, दलित, मच्छूवरा सहित 33 आदिम जनजाति समुदायों के अधिकारों रक्षा के लिए है।
लेकिन- हर स्तर पर इन कानूनों को वयलेशन-हनन किया जा रहा है।
देश के विकास का इतिहास गवाह है-जबतक आदिवासी समाज अपना जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा रहता है-तबतक ही वह आदिवासी अस्तित्व के साथ जिंदा रह सकता है। आदिवासी सामाज को अपने धरोहर जल-जंगल-जमीन से जैसे ही अलग करेगें-पानी से मच्छली को बाहर निकालते ही तड़प तड़पकर दम तोड़ देता है-आदिवासी सामाज भी इसी तरह अपनी धरोहर से अलग होते ही स्वतः दम तोड़ देता है।
अपनी मिटटी के सुगंध तथा अपने झाड-जंगल के पुटुस, कोरेया, पलाश,  सराई, महुआ, आम मंजरी के खुशबू से सनी जीवनशैली के साथ विकास के रास्ते बढने के लिए संक्लपित परंपरागत आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के उपर थोपी गयी विकास का मकडजाल स्थानीयता नीति 2016, सीएनटी, एसपीटी एक्ट संशोधन बिल 2017, महुआ नीति 2017, जनआंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया-क्षति पूर्ति कानून 2016, गो रक्षा कानून 2017, भूमि बैंक, डिजिटल झारखंड, लैंण्ड रिकार्ड आॅनलाइन करना, सिंगल विण्डोसिस्टम से आॅनलाइन जमीन हस्तांत्रण एवं म्यूटेशन जैसे नीति-कानूनों को लागू होना, निश्चित रूप से आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदायों के समझ के परे की व्यवस्था है। यह व्यवस्था राज्य के एक-एक इंच जमीन, एक-एक पेड-पौधों, एक-एक बूंद पानी को राज्य के ग्रामीण जनता के हाथ से छीनने का धारदार हथियार है।
 गांव-आदिवासी गांव का मतलब -गांव सीमाना के भीतर एक-एक इंच जमीन, मिटी, गिटी, बालू, पत्थर, घांस-फूस, झाड- जंगल  मिलाकर  गांव बनता है-
इसी के आधार पर राज्य के आदिवासी बहुल गांवों का अपना परंपरिक मान्यता है। गांव घर को आबाद करने वाले आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने सामाजिक-पर्यावरणीय जीवनशैली के ताना बाना के आधार पर गांव बसाये हैं।
सामाज के बुजूगों ने अपने गांव सीमा को खेती-किसानी सामाजिक व्यवस्था के आधार पर व्यवस्थित किये हैं-क-घरो को एक तरफ बासाया गया-जहां हर जाति-धर्म समुदाय बास करता हैंै। ख-खेत-टांड एक तरफ गंाव सीमा भीतर के कुछ खेत-टांड को गैराही रखा, कुछ को परती रखे-ताकि गा्रमीण सामुदायिक उपयोग करे। जिसमें नदी-नाला, तालाब, कुंआ-आहर, सरना-मसना, खेल मैदान, खलिहान, अखड़ा बाजार, जतरा, मेला, चरागाह आदि के लिए।
इसी के आधार पर राज्य में आदिवासी सामाज का जमीन को आबाद करने का अपना परंपरिक व्यास्था है यही नहीं इसका अपना विशिष्ट इतिहास भी है। आदिवासी परंपरागत व्यवस्था में जमीन को अपने तरह से परिभाषित किया गया है-रैयती जमीन, खूंटकटीदार मालिकाना, विलकिंगसन रूल क्षेत्र, गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, परती, जंगल-झाड़ी भूंमि।
नोट-1932 में जो सर्वे सेटेलमेंट हुआ-इस रिकोर्ड के आधार पर जमीन को उपरोक्त वर्गों में बांटा गया। उस समय लोगों की आबादी कम थी। कम परिवार था। 84 साल पहले जमीन को चिन्हित किया गया था-कि ये परती है, जंगल-झाडी भूमिं है। 84 वर्ष में जो भी परती-झारती था, अब वो आबाद हो चूका है। अब उस जमीन पर बढ़ी आबादी खेती-बारी कर रही है।
गैर मजरूआ आम भूंमि पर तो गांव के किसानों को पूरा अधिकार है ही, गैर मजरूआ खास जमीन पर भी ग्रामीणों का ही हक है।
आज सरकार विकास के नाम पर लैंड बैंक---बना कर आदिवासी समुदाय के हाथ से उनका जमीन-जंगल छीन कर उद्योपतियों को देने का योजना बना रही हैं। केंन्द्र की मोदी सरकार तथा राज्य की रघुवर सरकार झारखंड से बाहर एवं देश के बाहर कई देशों में पूजिपतियों को झारखंड की धरती पर पूंजि निवेश के लिए आमंत्रित करने में व्यस्त हैं। 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची में ग्लोबल इनवेस्टर समिट को आयोजन कर 11 हजार देशी-विदेशी पूंजिपतियों को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान 210 कंपनियों के साथ एमओयू किया गया। इस एमओयू में 121 उद्वोगों के लिए किया गया, जबकि कृर्षि के लिए सिर्फ एक एमओयू किया गया। इसके पहले 2000 से 2006 के बीच 104 बड़े बडे कंपनियों के साथ एमओयू किया गया हे। यदि सभी कंपनियों को अपने जरूरत के हिसाब से जमीन, जंगल, पानी, खनीज उपलब्ध किया जाए-तो आने वाले दस सालों के अंदर झारख्ंाड में एक इंज भी जमीन नहीं बचेगी, एक बूंद पानी नहीं बचेगा।  इसे सिर्फ आदिवासी मूलवासी, किसान ,मेहनतकश समुदाय केवल नहीं उजडेगें, परन्तु प्रकृति पर निर्भर सभी समुदाय स्वता ही उजड़ जाऐगें। जिनका कल का कोई भविष्य नहीं होगा।
अपने इतिहास को याद करन का समय आया है। हमारा संघर्ष का इतिहास है-घुटना नहीं टेक सकते। जब आप के विरोधी ताकतें एक साथ खड़ा हैं-तब परिस्थिति की मांग है कि-राज्य और देश के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित-बंचित सबकों एक मंच में आना होगा, अपने इमानदारी  जनसंघार्षों को संगठित करके अपने धरोहर की सुरक्षा की गारंटी करनी होगीं

SANGHARS JARI HAI KHUNTI



Sunday, July 28, 2019

विकास के आंकडे गिनाते नहीं थकती है------राज्य में इंजिनियारिंग डिग्री प्राप्त 72 प्रतिशत युवक बेरोजगार हैं।

झारखंड सरकार प्रतिदिन देश और राज्य के विकास के आंकडे गिनाते नहीं थकती है। रोजगार में तेजी से हो रही बृद्धि  के आंकडे परोसते रहती है। लेकिन जमीनी हकीकत तो हकीकत ही होती है, जो ढंकने से ढक नहीं सकती है। क्योंकि यह जिंदगी से जुड़ा सवाल है। तीन जून 2019 को दैनिक प्रभात खबर में एक रिर्पोट छपी थी, जो सभी तरह के इंजीनियारिंग व मैनेजमेंट काॅलेजों से डिग्री लेकर रोजगार का इंतिजार कर रहे युवकों की नियुक्ति की स्थिाति पर फोकस की गयी थी। इस रिपोर्ट के आधार पर राज्य में इंजिनियारिंग डिग्री प्राप्त 72 प्रतिशत युवक बेरोजगार हैं।  यह आंकडा राज्य के विभिन्न सरकारी एवं प्राइवेट इंजीरियरिंग, मैंनेजमेंट तथा पाॅलेटेनिक काॅलेजो की ओर से उच्च तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास विभाग को दिया गया।  
इन आंकड़ो के अनुसार इस साल राज्य के कुल 14,691 डिग्रीधारियों में से  4108 को ही नौकरी मिली, बाकी 10,583 अभी भी जोब पाने की उम्मीद में हैं। 
जानकारी के अनुसार उच्च तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास विभाग की ओर से तकनीकी काॅलेजों से जानकारी मांगी गयी थी किं कुल सीटों के अलावा कितने विद्यार्थियों का प्लेसमेंट हो चुका है। सभी सरकारी व प्राइवेट काॅलेजों की ओर से तीन जनवरी तक इससे संबंधित आंकड़ा भेज दिया गया। सभी काॅलेजों को विभाग के जाॅब पोर्टल पर भी आंकड़ा अपलोड़ करने का आदेश दिया गया था। 
उच्च, तकनीकी शिक्षा एवं कौशल विकास विभाग को राज्य के काॅलेजों ने सौंपा आंकड़ा-
स्रकारी पाॅलिटेकिनक काॅलेज में कुल 2590 सीटें हैं, जिसमें 1412 विद्यार्थियों को नौकरी मिल चुकी हैं, यानी 54.51 प्रतिशत विद्यार्थियों को नौकरी मिली है। 45.49 प्रतिशत इंतजार में हैं। 
राज्य में कुल नौ प्राइवेट मैनेजमेंट काॅलेज चलते हैं, इनमें कुल 1035 सीटें है। लेकिन कुल 103 विद्यार्थियों का ही प्लेसमेंट जनवरी माह तक हो पाया है।  नौकरी की आश में 932 डिग्रीधारी लाईन में खडे हैं। 
2009-2010  तक इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने करीब 60 फीसदी विद्यार्थियों को नौकरी मिलती थी। पर अब केवल 30-35 फीसदी इंजीनियरों का ही प्लेसमेंट हो पा रहा है। पहले की तुलना में 25 प्रशित घटा।  
जनकारों के अनुसार इसके पीछे रिक्रुटमेंट के पैटर्न में बदलाव मुख्य कारण है, कंपनी प्रबंधकों द्वारा अब बीइ के स्थान पर बीएससी पास युवाओं को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। 
किस केटेगरी की क्या है स्थिति
केटेगरी --------------------     --------विद्यार्थी ---------मिली नौकरी---------- रोजगार प्रतिशत
सरकारी इंजीनियरिंग काॅलेज              920 ------------325------------------- 35.32
पीपीपी मोड इंजीनियरिंग काॅलेज ----900 ------------219 ------------------24.33
प्राइवेट इंजीनियरिंग काॅलेज ----------3471 ------------732------------------- 21.80
सरकारी पाॅलेटेकनिक -----------------2590 ------------1412---------------- 54.51
प्राईवेट पाॅलेटेनिक -----------------------5175 ------------1207------------- 23.32
स्किेल पाॅलिटेनिक -----------------------420 ------------110----------------- 26.19
प्राइवेट मैनेजमेंट काॅलेज-------------------1035 ------------103----------------- 9.95

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Wednesday, July 17, 2019

संविधान ने भी अनुसूचित जन जाति, अनुसूचित जाति को अधिकार दिया है--

संविधान ने भी अनुसूचित जन जाति, अनुसूचित जाति को  अधिकार दिया है--
भारतीय संविधान के धारा-366 के (25) हमारी मान्यता
संविधान के धारा-341 -राष्ट्रपति किसी राज्य के संबंध में और जहां वह राज्य है वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा, उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों, अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उनमें के यूथों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए उस राज्य के संबंध में अधिसूचित जातियां समझा जाएगा।
संविधान के धारा-342(प) राष्ट्रपति किसी राज्य के संबंध में और जहां वह राज्य है, वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के युथों को विनिदिष्ट कर सकेगा जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए उस राज्य के संबंध में अनुसूचित जनजाति समझा जाएगा।
भाग 16
स्ंाविधान -धारा 330 लोक सभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का प्रावधान
स्ंविधान के धारा-332 राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का प्रावधान
स्ंविधान के धारा-335-सेवाओं और पदो ंके लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावे-संघ या किसी राज्य के कार्यकलाप से संबंधित सेवाओं और पदो ंके लिए नियुक्तियां करने में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।

Thursday, June 6, 2019

सेवा में, अध्यक्ष महोदय अनुसुचित जनजाति आयोग केंन्द्र सरकार ---विषय- पांचवी अनुसूचि में प्रावधान अधिकारों की रक्षा करने एवं इससे शत्कि से लागू करने की मांग के संबंध में।

सेवा में, 
अध्यक्ष महोदय
अनुसुचित जनजाति आयोग केंन्द्र सरकार                            
महोदय ,                                                                                        पत्रांक.....01..
                                                                                                   दिनांक.....18 दिसंबर 2018
विषय- पांचवी अनुसूचि में प्रावधान अधिकारों की रक्षा करने एवं इससे शत्कि से लागू करने की मांग के संबंध में। 
महाशय,
सविनयपूर्वक कहना है कि- भारती संविधान में हमारा झारखंड राज्य पांचवी अनुसूचि के अतंर्गत है। इस विषेश प्रावधान के तहत महामहिम राज्यपाल इस राज्य के आदिवासी -मूलवासी किसानों का विशेष संरक्षक हैं। 
आप को बताना चाहते हैं कि-हमारे पूर्वजों ने सांप-बिच्छू, बाघ-भालू जैसे खतरनाक जानवरों से लड़कर इस झारखंड राज्य की धरती को आबाद किया है। इतिहास गवाह है-कि जब अंग्रेजों के हुकूमत में देश गुलाम था, और आजादी के लिए देश छटपटा रहा था, तब आदिवासी समुदाय के वीर नायकों ने, सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, सिंदराय-बिंदराय, तिलका मांझी से लेकर वीर बिरसा मुंडा के अगुवाई में देश के मुक्ति संग्राम में अपनी शहादत दी। इन्हीं वीर नायकों के खून से आदिवासी-मूलवासियों के धरोहर जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियक 1908 और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 लिखा गया। जो राज्य के आदिवासी-मूलवासी समुदाय के परंपरागत धरोहर जल-जंगल-जमीन का सुरक्षा कवच है। 
हम आप को यह भी बताना चाहते हैं-हमारा झारखंड पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत है। इस कारण यहां के आदिवासी, मूलवासी, किसान सहित हम 32 तरह के आदिवासी समुदाय को जल, जंगल,जमीन की रक्षा, सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक, भाषा-संस्कृति की रक्षा, शैक्षणिक विकास, स्वस्थ्य की रक्षा, सरकारी सेवाओं सहित अन्य सेवाकार्यों में भी हमें विशेष आरक्षण का अधिकार प्राप्त है। ताकि यहां के 32 आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्तर पर भी सक्षम हों। इसके लिए विषेश अधिकारों का प्रावधान किया गया है। 
भारतीय संविधान ने हम आदिवासी-मूलवासी ग्रामीण किसान समुदाय को पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में गांव के सीमा के भीतर एवं गांव के बाहर जंगल-झाड़, बालू-गिटी, तथा एक -एक इंच जमीन पर, ग्रामीणों को मालिकाना हक दिया है। यहां के माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरस्ट प्रोडक्ट पर ही ग्राम सभा का अधिकार है। इसी पांचवी अनुसूचि में पेसा कानून 1996, वन अधिकार कानून 2006, का भी प्रावधान हैं। यहीं मानकी-मुंडा, पडहा व्यवस्था, मांझी-परगना, खूंटकटी आधिकार भी है।  
 जंगल-जमीन, पर समुदाय का परंपारिक मलिकाना हक से संबंधित जमीन का अभिलेख खतियान भाग दो में गैर मजरूआ आम एवं गैरमजरूआ खास, जंगल-झाडी, नदी-नाला सहित सभी तरह के समूदायिक जमीन पर समुदाय का हक दर्ज है। ग्रामीणों का यह अधिकार विलेज नोट में ही दर्ज है।  इस कानून के आधार पर सरकार इस तरह के जमीन का सिर्फ संरक्षक है ;बनेजवकपंदद्ध  सरकार इस जमीन का देख-रेख करती है, लेकिन मालिक नहीं है, न ही सरकार इस तरह के जमीन को बेच सकती है। 
आप को कहना चाहते हैं कि-पांचवी अनुसूचि में प्रावधान तमाम  अधिकारों की रक्षा करना, अधिकारों को बहाल करनवाना राज्यपाल की जिम्मेदारी है। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। यह झारखंड के लिए दुखद है।   
सरकार ने अभी तक कुल चार मोमेंटम झारखंड का आयोजन कर हजारों कारपोट कंपनियों तथा पूंजि-पतियों के साथ झारखंड के आदिवासी-मूलवासी किसानों के जल-जंगल-जमीन को उनके हाथ देने का समझौता कर लिया है। जो पूरी तरह से पांचवी अनुसूचि तथा पेसा कानून में प्रावधान ग्रामीणों के अधिकारों पर हमला ही माना जाएगा। वर्तमान में चल रहे रिविजन सर्वे, जिसके पूर्ण होते ही, जिसके आधार पर नया खतियान बनेगा, इसके साथ ही 1932 का खतियान स्वतः निरस्त हो जाएगा। जिससे यहां के आदिवासी-मूलवासी किसानों सभी समुदाय के परंपरागत अधिकार समात्म होगें। 
भूमि अधिग्रहण कानून 2017 के लागू होने तथा उपरोक्त तमाम कानूनों के लागू होने से राज्य की कृर्षि भूमि को गैर कृर्षि उपयोग के लिए तेजी से हस्तंत्रित किया जाएगा, फलस्वरूप राज्य की कृर्षि भूमि तेजी से घटगी तथा खद्यान संकट बढेगा। बीते एक साल में राज्य में भूख से 8 लोगों की मौत हो चुकी है, तब आने वाले समय में राज्य में भूखमरी और मौत भी अपना विक्रांत रूप लेकर आएगा। 
आज विस्थापन के खतरों से पूरा राज्य भयभीत है। पलामू-लातेहार, गुमला जिला के ग्रामीण प्रस्तावित नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज से होने विस्थापन, व्यघ्र परियोजना, वाईल्ड लाईफ कोरिडोर, से होने वाले विस्थापन के खिलाफ जूझ रहा है। हजारीबाग के बड़गांव में कोयला परियोजना से होने विस्थापन के खिलाफ किसान संघर्षरत हैं। गोडडा में अडडानी पावर प्लांट द्वारा जबरन किसानों से जमीन छीन रही है। किसान विरोध कर रहे हैं उन्हें कहा जा रहा है-जमीन नहीं दोगे, तो इसी जमीन में गाड देगें, किसानों का लहलहाता धान खेत को बुलडोजर से रौंद दिया गया। राज्य के हर ईलाका में लोग विस्थापन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। खूंटी-गुमला जिला के ग्रामीण पहले से ही मित्तल स्टील प्लांट, पूर्वी सिंहभूम के पोटका क्षेत्र में जिंदल स्टील प्लांट, भूषण स्टील प्लांट से होने वाले विस्थापन के खिलाफ संघर्षरत हैं। खूटी क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के सामूहिक एकता को तोड़ने के कई सडयंत्र चलाया जा रहा है। जाति-धर्म के नाम पर सामाज को एक दूसरे से लड़ाया जा रहा है। जो जनता के अधिकारों के रक्षा की बात करते हैं, उन पर देशद्रोह के केस में फंसा दिया जा रहा है। धर्म मानने की आजादी, बोलने की आजादी भी खत्म किया जा रहा है। झारखंडी सामाज पर चारों तरफ से हमला हो रहा है।  इन जनसंधर्षों के बीच रघुवर सरकार उपरोक्त जनविरोधी कानूनों को झारखंडी जनता के उपर थोपने का काम कर रही है। 
भूमि बैंक-दुखद बात है कि-सरकार हम आदिवासी-मूलवासी किसानों के परंपरागत हक-अधिकार को छीन के गैर मजरूआ आम एवं खास जमीन का भूमिं बैंक बना कर, पूजिंपतियों को आॅनलाईन हस्तांत्रण कर रही है। सरकार ने ग्रामीणों के सामूदायिक भूमिं को 21 लाख एकड से अधिक जमीन भूमि बैंक में शामिल कर चुका है। यदि एैसा होता है-तो ग्रामीण आदिवासी-मूलवासी सहित प्रकृति एवं पर्यावरण पर निर्भर समुदाय पूरी तरह समाप्त हो जाएगें। समुदाय की सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, जीविका एवं पहचान अपने आप खत्म हो जाएगा। 
हम यह भी बताना चाहते हैं-कि राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था यहां के जंगल-झाड़, पेड़-पैधों, नदी-नाला, झरनों में आधारित है, इसी पर पूरी ग्रामीण अथव्यवस्था टिकी हुई है, जिसका मूल स्त्रोत किसानों के जोत के अलावे गैर मजरूआ आम और गैर मजरूआ खास जमीन ही है। राज्य की जनता को इन्हीं प्रकृतिक स्त्रोतों से शुद्व भोजन, शुद्व पानी और शुद्व हवा मिल रहा है। 
सिंगल वींण्डों सिस्टम आदिवासी समुदाय को भूमिहीन बनाने के नया हथियार-आप सभी जानते हैं कि-गांव के 98 प्रतिषत किसान न तो कम्पुटर चलाने जानते हैं, और न ही इंटरनेट की जानकारी है। आज आदिवासी-मूलवासी समुदाय के समूदायिक धरोहर तमाम तरह के जमीन को भूमिं बैंक में शमिल कर बाहरी लोगों को आॅनलाइन हस्तंत्रित किया जा रहा हेेे-जो आदिवासी-मूलवासी, किसान समुदाय को समूल उखाड़ फेंकने की तैयारी ही माना जाएगा। आॅनलाइन जमीन का रसीद काटा जा रहा है, इसमें भारी गलतियां हो रही हैं। किसानों का जमीन भारी मात्रा में गायब किया जा रहा है। इस कारण किसान अपना जमीन मलगुजारी भूगतान नहीं कर पा रहे हैं। इससे आदिवासी -मूलवासी समुदाय खासे चिंतित हैं। 
आप को यह भी बताना चाहते है कि 98 प्रतिषत ग्रामीण आबादी न तो कमप्युटर देखी है, न ही इंटरनेट ओपरेट कर सकती है। एैसे में जमीन संबंधी सभी तरह के कार्यों को आॅनलाईन संचालित होने से ग्रामीणों की परेशानी बढ़ी है। 
वर्तमान सरकार द्वारा लाये गये स्थानीयता नीति में प्रावधान कानूून के लागू होने से-एक ओर दूसरे राज्यों से आयी आबादी सहित बड़े बड़े पूजिंपतियों को राज्य में आबाद करने एवं विकसित होने का बड़ा अवसर दे रहा है। दूसरी ओर राज्य के आदिवासी-मूलवासियों को अपने परंपरागत बसाहाट, धरोहर से उजाड़ने के लिए बड़ा हथियार के रूप में भूमि बैक को नइस्तेमाल करने जा रहा है।
वर्तमान स्थानीयता नीति आदिवासियों को केवल-चपरासी ही बनाएगा। क्योंकि इस नीति में आॅफसर ग्रेड में अवसर देने के लिए कोई कानून व्यवस्था नहीं है। 
पांचवी अनुसूचि में टीएसी के प्रावधान को लागू नहीं किया जा रहा है-इसमें प्रावधान अधिकारों के तहत टीएसी का अध्यक्ष आदिवासी होना चाहिए-लेकिन वर्तमान में इसका उल्लंघन किया गया है। साथ ही राज्य के आदिवासियों क ेजल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए किसी तरह का नीतिगत फैसला नहीं है। 
पेसा कानून 1996 को -कानूनी रूप आज तक नहीं दिया गया। 
वर्तमान राज्य सरकार के भूमि बैंक से होन वाले खतरों की ओर आप का ध्यान खिचना चाहता है- 
भूमि बैंक एवं के लागू होने से आदिवासी-मूलवासी समुदाय के परंपरागत एवं संवैधानिक अधिकारो पर निम्नलिखित खतरा मंडरा रहा है- 
राज्य का पर्यावरणीय परंपरागत जंगल-झाड, नदी-झील-झरनों के ताना-बाना के साथ जिंदा है, वो पूरी तरह नष्ट हो जाएगा 
भूमि बैंक के लागू होना सीएनटी एक्ट एवं एसपीटी एक्ट पर हमला होगा
भूमि बैंक के लागू होने से पांचवी अनुसूचित के प्रावधान अधिकार खत्म हो जाएगा
भूमि बैंक के लागू होने से खूटकटी अधिकार एवं विलकिंषन रूल, मांझी-परगना व्यवस्था खत्म हो जाएगा। जिसका प्रभाव निम्नलिखित स्तर पर पडेगा।
1-परंपारिक आदिवासी-मूलवासी गांवों का परंपरागत स्वाशासन गांव व्यवस्था तहस-नहस हो जाएगा।
2-आदिवासी-मूलवासी किसानों के गांवों की भौगोलिक तथा जियोलोजिकल या भूमिंतत्वीय, भूगर्भीय अवस्था जो यहां के परंारिक कृर्षि, पर्यावरणीय ताना-बाना, पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।
3-परंपारिक आदिवासी इलाके में भारी संख्या में बाहरी आबादी के प्रवेष से आदिवासी परंपरागत सामाजिक मूल्य, सामूहिकता पूरी तरह बिखर जाएगा।
4-जंगल-जमीन, जलस्त्रोंतों, जंगली-झाड़, भूमिं पर आधारित परंपरागत अर्थव्यस्था पूरी तरह नष्ट हो जाएगें।
5-स्थानीय आदिवासी-मूलवासी समुदाय पर बाहर से आने वाली जनसंख्या पूरी तरह हावी हो जाएगी, तथा आदिवासी जनसंख्या तेजी से विलोपित हो जाएगा।
6-सामाजिक, आर्थिक आधार के नष्ट होने से भारी संख्या में आदिवासी-मूलवासी समुदाय दूसरे राज्यों में पलायन के लिए विवश होगी। 
7-आदिवासी-मूलवासी समूदाय की सामूहिक एकता को विखंडित किया जा रहा है 
उपरोक्त तमाम खतरों एवं बिंन्दुओं को आप के ध्यान में लाते हुए-जनआंदोलनों का संयुक्त मोर्चा,  आप के सामने निम्नलिखित मांग रखते हैं-

1-5वीं अनुसूचि को कडाई्र से लागू किया जाए
2-सीएनटी एक्ट एसपीटी एक्ट को कडाई से लागू किया जाए।
3-गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, जंगल-झाडी, सरना-मसना, अखड़ा , हडगड़ी, नदी-नाला, पाईन-झरना, चरागाह, परंपारिक-खेत जैसे भूत खेता, पहनाई, डाली कतारी, चरागाह, जतरा टांड, इंद-टांड, मांडा--टांड सहित सभी तरह के सामुदायिक  जमीन को भूमिं बैंक में शमिल किया गया है, को उसे भूमिं बैंक से मुक्त किया जाए तथा किसी भी बाहरी पूजिं-पतियों को हस्तंत्रित नही किया जाए
 4- भूमिं सुधार/भूदान कानून के तहत जिन किसानों को गैर मजरूआ खास जमीन का हिस्सा बंदोबस्त कर दिया गया है-उसे रदद नहीं किया जाए
5-जमीन अधिग्रहण कानून 2013 को लागू किया जाए
6-किसी तरह का भी जमीन अधिग्रहण के पहले ग्रांव सभा के इजाजत के बिना जमीन अधिग्रहण किसी भी कीमत में नहीं किया जाए।
7-ग्रामीण किसानों का जमीन संबंधित आॅनलाइन रसीद काटने की व्यवस्था को रोका जाए तथा इसकी पुरानी मेनुवली व्यवस्था को पुना लागू किया जाए।
8-भूमि अधिग्रहण कानून 2017 को रदद किया जाए 
9-ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन रोकने के लिए मनरेगा मजदूरों का मजदूरी दर 159 रू से बढ़ा कर 500 रू किया जाए
10-आदिवासी-मूलवासी विरोधी वर्तमान स्थानीयता नीति को खारिज किया जाए तथा सदियों से जल-जंगल-जमीन के साथ रचे-बसे आदिवासी-मूलवासियों के सामाजिक मूल्यों, संस्कृतिक मूल्यों, भाषा-संस्कृति इनके इतिहास को आधार बना कर 1932 के खतियान को आधार बना कर स्थानीय नीति को पूर्नभाषित करके स्थानीय नीति बनाया जाए।
11-गोडडा में अडाणी कंपनी द्वारा जबरन किसानों को जमीन अधिग्रहण किया जा रहा है-को रोका जाए। 
12-पंचायत मुख्यालयों, प्रखंड मुख्यलयों, स्कूलों, अस्पतालों, जिला मुख्यलयों में स्थानीय बेरोजगार युवाओं को सभी तरह के नौकरियों में बहाली की जाए। 
13-ट्राइबल सबप्लान के तहत आबंटित राशि का दूसरे मदद में खर्च नहीं किया जाए।

15-आॅनलाईन जमीन का रसीद काटा जा रहा है, इसमें जमीन हेराफेरी भारी मात्रा में हो रही है। इसलिए आॅनलाइन रसीद काटना का व्यवस्था बंद किया जाए, और पुराना व्यवस्था लागु किया जाए। 
16-आदिवासी समाज के परंपरागत व्यवस्था, पहचान की रक्षा के लिए सरना कोड़ लागू किया जाए।
                                 निवेदक
                              दयामनी बरला
                               संयोजिका
                          आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
                           मो0 9431104386

Saturday, June 1, 2019

भूमि बैंक के नाम पैर किसानों की जमीन लूट के बिरोध में लम्बे समय से संघर्ष जारी है , आगे भी जारी रहेगा


Bhumi Bank Ke Nam Per Kisano Ki Jmeen Lut ke Birodh Lagatar Sanghas Jari Hai aur Rahega


विषय-खूंटी जिला आदिवासी बहुल जिला है, लेकिन जिला की आदिवासी आबादी की संख्या को गलत तरीके से हाईकोर्ट में कम दिखाकर, जिला को ननश्डियूल एरिया बताया जा रहा है, पर हस्तक्षेप किया जाए।---- आज भी न्याय नहीं मिले है संघर्ष करने की जरुरत है

सेवा में,
उपायुक्त महोदय                               दिनांक-23/9/2014
जिला-खूंटी                                    पत्रांक-01

विषय-खूंटी जिला आदिवासी बहुल जिला है, लेकिन जिला की आदिवासी आबादी की संख्या को गलत तरीके से हाईकोर्ट में कम दिखाकर, जिला को ननश्डियूल एरिया बताया जा रहा है, पर हस्तक्षेप किया जाए।
12 सितंबर 2014 के प्रभात खबर में प्रकाश्ति समाचार से जानकारी मिली है कि प्राथी मो आश्कि अहमद, उपेंन्द्र नाथ महतो व कर्नल लाल ज्योतिंद्र देव व अन्य ने हाईकोर्ट में श्डियूल एरिया निर्धारण के मामले में सवाल उठाया है कि जिलों में आदिवासी आबादी 50 प्रतिषत से कम है, एैसे जिलों को भी किस आधार पर शिडयूल एरिया घोषित किया गया है। इसमें खूंटी जिला को भी शामिल किया गया है, जिसमें रांची और खूंटी जिला दोनों को मिलाकर आदिवासी आबादी 41.81 दिखाया गया है। जिसकी अगली सुनवाई 25 सिंतबर को होने वाला है। 
12 सिंतबर 2007 को खूंटी को जिला बनाया गया। खूंटी जिला में 6 प्रखंड हैं। ये सभी प्रखंड़ों में आदिवासी बहुल है। अब खूंटी जिला का अपना अस्तित्व है। 2001 की जनगणा कें आधार पर खूंटी जिला की आबादी 5,30,299 है।
2001 के आधार -जिले में प्रखंडवार आदिवासी आबादी का प्रतिषत है-
1-आड़की प्रखंड--------------79.36
2-खूंटी प्रखंड---------------65.91
3-मुरहू प्रखंड---------------80.64
4-कर्रा प्रखंड---------------73.08
5-तोरपा प्रखंड--------------69.26
6-रनिया प्रखंड--------------70.71
भारत सरकार का 2011 का सेंस्स के आधार पर खूंटी जिला की आदिवासी आबादी 73 प्रतिश्त है।
केंन्द्र सरकार के नियम के अनुसार जिन क्षेत्रों में आदिवासी आबादी 50 प्रतिषत यह 50 प्रतिश्त से अधिक है, एैसे क्षेत्रों को श्डियूल एरिया के अतंर्गत रखा है। उपरोक्त आंकड़े बताते हैं-कि खूंटी जिला पूरी तरह आदिवासी बहुल है, और श्डियूल एरिया के अतंर्गत आता है। 
हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि झारखंड में खूंटी जिला ही एक मात्र मुंडा आदिवासी बहुल क्षेत्र है। राजनीति में खूंटी जिला से खूंटी विधानसभा और तोरपा विधानसभा में मुंडा आदिवासी समुदाय हमेशा से नेतृत्व देते आ रहे हैं। यही नहीं खूंटी जिला के आदिवासी समुदाय ने भारत के स्वतं़त्रता संग्राम में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजो के खिलाफ उलगुलान कर देश के इतिहास में अपना परचम हलराया है। 
परंपरागत से खूंटी जिला आदिवासी बहुल ़क्षेत्र रहा है। इ़स क्षेत्र के आदिवासी समुदाय के जल-लंगल-जमीन पर परंपरागत हक-अधिकार को खूंटकटी अधिकार और सीएनटी एक्ट में प्रावधान किया गया है। यहां के आदिवासी समुदाय के परंपरागत अधिकार  के आधार पर ही इस क्षेत्र को पंाचवी अनुसूची क्षेत्र में रखा गया है। 
हम खूंटी जिला के आदिवासी-मूलवासी आप से अग्राह करते हैं-कि आदिवासी समुदाय को अपने सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक राजनीतिक और ऐतिहासिक अधिकारों से बंचित करने की कोशिश की जा रही है, इस पर जिला प्रषासन हत्सक्षेप करे, ताकि आदिवासी समुदाय का हम-अधिकारों की रक्षा की जा सके। 
                                                 निवेदक-
 संयोजक
दयामनी बरला                       आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
                                    अध्यक्ष-तुरतन तोपनो
                                  उपाध्यक्ष-राजू लोहरा
                                 महासचिव- हादू तोपनो
                                    सचिव--दयाल कोनगाडी 
                                  कोषाध्यक्ष-ज्वालन तोपनो
                                         

काॅपी किया गया है-
१ -राज्यपाल महोदय
२-क्श्मिनर महोदय
३ -मुख्य सचिव
नॉट -----  आज  भी न्याय नहीं मिले है संघर्ष करने की जरुरत है 

-पांचवी अनुसूचित में माइनर मिनिरलस पर ग्राम सभा को नियंत्रित-संचालित करने का अधिकार है-

आदिवासी सामाज ने सांप, बिच्छू, बाघ, भालू से लडकर धरती को आबाद किया है-
देश जब अेग्रेज सम्रज्यवाद के गुलामी जंजीर से जकड़ा हुआ था -तब देश को अंग्रेज हुकूमत से आजाद करने के लिए झारखंड के आदिवासी -जनजाति व अनुसूचित जाति समुदाय ने शहादती संघर्ष कर स्वतत्रता संग्राम को मुकाम तक पहुंचाने का काम किया। शहीद सिद्वू-कान्हू, ंिसदराय-बिंदराय, जतरा टाना  भगत, बीर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हमारे गांव में हमारा राज-याने जल-जंगल-जमीन पर अपना परंपरागत अधिकार बरकरार रखने, गांव-समाज को पर्यावरणीय मूल्यों के साथ विकसित करनेे, अपने क्षेत्र में में अपना प्रशासनिक व्यवस्था पुर्नस्थापित करने, कर अपना भाषा-संस्कृति के साथ संचालित-नियंत्रित एवं विकसित करने का सपना था।
आजाद देश के राजनीतिज्ञों, बुधीजीवियों, एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि-देश का विकास, शांति-व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं-इसीलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये। एक सामान्य कानून जो सामान्य क्षेत्र के लिए दूसरा विशेष कानून जो विशेष क्षेत्र के लिए बनाया गया। प्रकृतिकमूलक आदिवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र में रखा गया। इन क्षेत्रों पांचवी अनुसूचि तथा छठी अनुसूचि में बांटा गया।
इसी अनुसूचि क्षेत्र में छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियम, संताल परगना अधिनियम और पेसा कानून भी है। ये सभी कानून आदिवासी, मूलवासी, दलित, मच्छूवरा सहित 33 आदिम जनजाति समुदायों के अधिकारों रक्षा के लिए है।
लेकिन- हर स्तर पर इन कानूनों को वयलेषन-हनन किया गया
देश के विकास का इतिहास गवाह है-जबतक आदिवासी समाज अपना जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा रहता है-तबतक ही वह आदिवासी अस्तित्व के साथ जिंदा रह सकता है। आदिवासी सामाज को अपने धरोहर जल-जंगल-जमीन से जैसे ही अलग करेगें-पानी से मच्छली को बाहर निकालते ही तड़प तड़पकर दम तोड़ देता है-आदिवासी सामाज भी इसी तरह अपनी धरोहर से अलग होते ही स्वतः दम तोड़ देता है।
विकास वनाम विस्थापन
अधिग्रहीत जमीन-एकड़ में---
1-एचईसी हटिया-9500 एकड़
2-बोकारो स्टील प्लांट-34227 एकड़
3-दमोदर घाटी निगम-2,88,874
4-आदित्यपुर औधोकि क्षेत्र-34,432
5-सुर्वणरेखा परियोजना-85,000
6-खनन के कारण--लाखों एकड़
7-शहरीकरण के द्वारा-लाखों एकड़-कोई हिसाब नहींl 
विस्थापित आबादी-80 लाख से ज्यादा

1967 में   हटिया के ३० गांव को  बिस्थपित कर हैवी इंजनेयरिंग  कार्पोरेशन {एच ० ई ० सी ० } की इस्थापना  की गयी थी , आज  बिस्थपितिओं की यह हल है , न इनका घर है ,न  रोजगार ही य 
यह है एच ० ई  सी ० बिस्थपितों को बसाया गया नायसराय कॉलोनी {पुनर्वासित कॉलोनी } यह तस्बीर २०१७ को खींची गयी है

आदिवासी -मूलवासी किसान, जनजाति, अनुसूचित जाति- समुदाय का सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक, एतिहासिक मूल्य प्रकृति-जल-जंगल-जमीन-नदी-पहाड पर ही टिका हुआ है। इसे उजड़ते ही सबकुछ नष्ट हो जाता है।
विस्थापितों पर सामाजिक, राजनीतिक, संस्कृतिक, आर्थिक  प्रतिकुल प्रभाव--सामुहिकता टुटा
सामाजिक मूल्य खत्म हुआ
भाषा-संस्कृति खत्म हुआ
इतिहास खत्म हुआ
पहचान खत्म हुआ
आर्थिक स्त्रोत/आधार खत्म हुआ
जैविक संपदा खत्म हुआ
जलस्त्रोत प्रदूषित हो गया
जमीन मालिक जमीन विहीन हो गये
बंधुआ मजदूर बन गये
महिलाएं -रेजा, और जूठन धोने वाली आया बन गयीं
युवातियां यौन शोषन और हर स्तर पर हिंसा का शिकार बनी
भारी संख्या में विस्थापित राज्य से

आदिवासी आबादी अल्पसंख्यक होता जा रहा है-बहरी आबादी आदिवासी समुदाय पर हावी होता जा रहा है।
राजनीतिक चेतना कमजोर हुआ
आज -राजनीति दिशा, विकास योजनाओं का नीति, के साथ अन्य अधिकारों को निर्धारित करने का आधार समुदाय के जनसंख्या को ही पैमाना माना जा रहा है।
उदा0-डीलिमिटेशन-1- मांग उठ रहा है-81 विधानसभा सीट में से 28 सीट आदिवासी समुदाय के लिए अरक्षित है-लेकिन 28 सीट को घटाकर 21 सीट कियी जा रहा है-दलील दिया जा रहा है-राज्य में सिर्फ आदिवासी आबादी मात्र 26 प्रतिशत ही रह गया है, इसलिए छोटी आबादी के लिए 28 सीट रिर्जब रखना सही नहीं है।
2-14 लोक सभा सीट में से 4 सीट आदिवासी सामाज के लिए अरक्षित है-इसमें से 2 सीटी घटाने की वाकालत की जा रही है-
3-आदिवासी बहुल क्षेत्र में आदिवासी सामाज अपने धरोहर के साथ, अपने परंपारिक सामाजिक मूल्यों और अधिकारों के साथ ही आदिवासी सामाज को विकास हो, इसके लिए भारतीय संविधान ने झारखंड के आदिवासी सामाज को 5वीं अनूसूची के तहत-सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक , ग्राम सभा को विशेष अधिकार मिला है-इसको खत्म करने के लिए झारखंड़ हाई कोर्ट में पीआईएल किया गया है-तर्क दिया जा रहा है कि-राज्य के कई जिलों में आदिवासी आबादी 50 प्रतिशत से कम है-एैसे में उन जिलों को अनुसूचि क्षेत्र का दर्जा नहीं दिया जाए।
अगर 5वीं अनूसूचि को खत्म कर दिया जाएगा-तो उपरोक्त तमाम प्रतिकुल प्रभाव आदिवासी -मूलवासी समुदाय पर पडेगा, परिणमता-आने वाले समय में आदिवासी समुदाय के अस्तित्व बचे रहने की कल्पना नहीं की जा सकती है-
एसएआर कोर्ट-झारखंड में आदिवासी समुदाय के जमीन-जंगल को गैर कनूनी तरीके से छिने जाने को रोकने के लिए एसएआर कोर्ट है, जो आज सीएनटी एक्ट के तहत आदिवासी समुदाय के मालिकाना अधिकार को बनाये रखने का न्यूनतम व्यवस्था है, इससे भी यदि खत्म किया जाए-तब झारखंड के आदिवासी समुदाय के अधिकारों को संरक्षित करने का दावा बेईमानी होगा।
एसएआर कोर्ट को खत्म करने की जगह-जरूरत है, इस व्यवस्था या संस्थान में जिस भ्रष्टचार यह भ्रष्टव्यवस्था, लचर व्यवस्था के कारण आदिवासी ठके जा रहे हैं-इस भ्रष्टव्यवस्था को खत्म करने के साथ लचर व्यवस्था को न्यायपूर्ण बनाने की।
विस्थापितों को नौकरी-मुआवजा, घर अन्य सुविधाएं उपलब्ध करने का सरकारी वादा-
नौकरी में लेने की पद्वती-
क-जमीन लेने के पहले-सरकारी वादा-हर विस्थापित परिवार से एक व्यत्कि को
ख-विस्थापितों को पीढ़ी दर पीढ़ी नौकरी देने का वादा.......
वस्तविकता--
क-जो व्यत्कि सत्क्षार में योग्य साबित होता है उसको नौकरी, पदों की संख्यानुसार
ख-मुश्किल से परिवार के एक व्यत्कि को सिंर्फ एक बार.....इसके बाद सिर्फ माफिया या अफसरों के नाते-रिस्तदारों को ही ..........नौकरी
जमीन रहने के लिए----राज्य में जिस भी विकास योजनाओं से ग्रामीण विस्थापित हुए हैं---उन विस्थापितों को प्रत्येक परिवार को रहने के लिए सिर्फ --10 डिसमिल, 15 डिसमिल अधिकतम 20 डिसमिल जमीन दिया गया-
नोट-आज तक इस उक्त जमीन का कानूनी मलिकाना हक विस्थापितों को नहीं मिला--जमीन उनके नाम से रजिस्र्ट नहीं किया गया
परिणामता---विस्थापितों के जमीन का दबांग लोग उनके हाथ से छीन कर अपने कब्जा में ले रहे हैं, यह दूसरे को बेच रहे हैं।
विस्थापित परिवार--दूसरी बार सरकार के गैर जिम्मेदराना रवैया के कारण उनकी बची-खूची जिंदगी छिना जा रहा है
पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में सरकार द्वारा-विभिन्न विकास योजनाओें के लिए एमओयू करना--आदिवासियों के अधिकार, ग्राम सभा के अधिकारों का वायलेशन-हनन है-
पांचवीं अनुसूचि क्षेत्र में भारतीय संविधान के ग्राम सभा को अधिकार दिया है-कि कहीं भी किसी भी विकास योजना के लिए उत्क ग्राम सभा क्षेत्र यह आदिवासी क्षेत्र में जमीन दिया जाए या ना दिया जाए ...यह तय करने का अधिकार ग्राम सभा को है-

लेकिन- जमीन अधिग्रण के संबंध में ग्राम सभा से न तो पूछा जाता है और न ही उनकी राय को मानी जाती है--
सरकार ग्राम सभा बुलाती भी है-तो रैयतो की राय नहीे मानी जाती है, सरकारी पक्ष उसी निर्णय को रैयतों को थोपते हैं-जो अधिकारी चाहते हैं-सिर्फ नाम के लिए ही बैठक होता है।
माइनर-मिनिरलस-पांचवी अनुसूचित में माइनर मिनिरलस पर ग्राम सभा को नियंत्रित-संचालित करने का अधिकार है-
लेकिन-अनुसूचि क्षेत्र के सभी बालू घाटों की निलामी की गयी
पत्थर-खदान यह के्रशर--सभी पत्थर के्रशरों या खदानों को लीजधारको को दी गयी


शहरीकारण का विकास के लिए अनुसूचि क्षेत्र के कृर्षि भूमिं को-गैर कृर्षि कार्य के लिए--
कृर्षि भूमिं का प्रकृति बदल कर हस्तंत्रित कर -भारी संख्या में आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय को विस्थापित किया जा रहा है
यह सीधे तौर पर आदिवासी मूलवासी, दलित, किसानों के अधिकारों का हनन है



कंपनियों के परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण की छूट
अब सरकार कंपनियों को स्वंय ही जमीन मालिकों से जमीन खरीदने के लिए छूट दे दी है-साम, दाम, दंड भेद अपना कर कंपनी के लठैत, बिचैलिया रैयतों से जमीन औने पौन कीमत पर जमीन जबरन हड़प रहे हैं।
ख-जो रैयत जमीन नहीं बेचना चाहता है, या नहीं छोड़ना चाहता है-उसके पुलिस बल प्रयोग कर, आतंक पैदाकर, छूठे मुकदमों में फंसा दिया जा रहा है
सभी तरफ से सरकार, प्रशासन कंपनीवाले मिलकर जमीन मालिकों के उपर दमन के कंपनी के लिए जमीन कब्जा दिला रहे हैं
इसका उदाहरण-बोकारो के चंदनकियारी प्रखंड में एल्केट्रो स्टील द्वारा जबरन जमीन अधिग्रण का विरोध करने वाले गांव भागाबांध को जा कर देखा जा सकता है
इस तरह के सौकड़ों उदाहरण राज्य भर में मिलेगा
गांव-आदिवासी गांव का मतलब -गांव सीमाना के भीतर एक-एक इंच जमीन, मिटी, गिटी, बालू, पत्थर, घांस-फूस, झाड- जंगल  मिलाकर  गांव बनता है-
इसी के आधार पर राज्य के आदिवासी बहुल गांवों का अपना परंपरिक मान्यता है। गांव घर को आबाद करने वाले आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने सामाजिक-पर्यावरणीय जीवनशैली के ताना बाना के आधार पर गांव बसाये हैं।
सामाज के बुजूगों ने अपने गांव सीमा को खेती-किसानी सामाजिक व्यवस्था के आधार पर व्यवस्थित किये हैं-
क-घरो को एक तरफ बासाया गया-
जहां हर जाति-धर्म समुदाय बास करता है
ख-खेत-टांड एक तरफ
गंाव सीमा भीतर के कुछ खेत-टांड को गैराही रखा, कुछ को परती रखे-ताकि गा्रमीण सामुदायिक उपयोग करे। जिसमें नदी-नाला, तालाब, कुंआ-आहर, सरना-मसना, खेल मैदान, खलिहान, अखड़ा बाजार, जतरा, मेला, चरागाह आदि के लिए।
इसी के आधार पर राज्य में आदिवासी सामाज का जमीन को आबाद करने का अपना परंपरिक व्यास्था है यही नहीं इसका अपना विशिष्ट इतिहास भी है।
रैयती जमीन
खूंटकटीदार मालिकाना
विलकिंगसन रूल क्षेत्र
गैर मजरूआ आम
गैर मजरूआ खास
परती
जंगल-झाड़ी भूंमि-सामुदाय की समूहिक धरोहर
नोट-1932 में जो सर्वे सेटेलमेंट हुआ-इस रिकोर्ड के आधार पर जमीन को उपरोक्त वर्गों में बांटा गया। उस समय लोगों की आबादी कम थी। कम परिवार था। 84 साल पहले जमीन को चिन्हित किया गया था-कि ये परती है, जंगल-झाडी भूमिं है।
84 वर्ष में जो भी परती-झारती था, अब वो आबाद हो चूका है। अब उस जमीन पर बढ़ी आबादी खेती-बारी कर रही है।
गैर मजरूआ आम भूंमि पर तो गांव के किसानों को पूरा अधिकार है ही, गैर मजरूआ खास जमीन पर भी ग्रामीणों का ही हक है।
आज सरकार विकास के नाम पर लैंड बैंक---बना कर आदिवासी समुदाय के हाथ से उनका जमीन-जंगल छीन कर उद्योपतियों को देने का योजना बना रही हैं-इसे आदिवासी समाज पूरी तरह कमजोर हो जाएगा
षिक्षा की स्थिति-
ग्रामीण इलाकों के स्कूल चाहे प्राइमरी हो, प्रथमिक हो, उच्चविद्यालय हो -सभी का पठन-पाठन स्थिति दयनीय है-गुणवता बिलकूल कमजोर है
सरकार का आदेश-8वी क्लास तो किसी फेल नहीं करना-सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को पंगु बनाने की साजिश है                                 
3-काॅलेजों की स्थिति-खूंटि काॅलेज
खूंटि बिरसा काॅलेज -8000 विद्यिर्थी हैं-इसमें 70 प्रतिशत महिलाएं हैं-इनके लिए 300 बेड का हाॅस्टल बना है क्लयाण विभाग से
ल्ेकिन इस हाॅस्टल में सीआरपीएफ को रखा गया--होस्टल के लिए -जरूरी उपस्कर विभाग आज तक नही दे सकी
स्वस्थ्य की स्थिति-25 हजार की आबदी में हर प्रखं डमें रेफरल अस्पताल है-लेकिन वहां न तो डाक्टर, न नर्स कोई नहीं रहता-
अस्पताल में-मलेरिया टेस्ट करने का मशीन नहीं
यहां तक कि हडी टुटने पर एक्स्रे मशीन भी नहीं

स्ूाचना अधिकार कानून---
सूचना कभी भी समय पर नहीं दिया जाता है
विकास योजनाओं पर आधिकारी फर्जी सूचना उपलब्ध कराते हैं

मनरेगा कानून का पालन नहीं--

100 दिनों का रोजगार मजदूरों को कभी नहीं मिलता
किये गये काम का मजदूरी-भी नहीं मिला, मजदूरों का पैसा-ठेकेदार-दलाल हडप लेते हैं
50 दिनों को -बेरोजगार कहीं लागू नहीं किया गया

आदिवासी उपयोजना--
1975-80 के दौरान अनुसूचित जाति उप योजना व आदिवासी उप-योजना आरंभ की गयी। इसका उद्वेश्य-अनुसूचित जातियो व जनजातियों की जनसंख्या में प्रतिशत के अनुपात में बजट का न्यायसंगत हिस्सा इन समुदयों की भलाई व विकास के सही प्राथमिकता के कार्यों के लिए उपलब्ध हो।
लेकिन-हर वर्ष इस राशि का 40-50 प्रतिशत ही खर्च होता है-बाकी सरेडर हो जाता है
इस राशि का उपयोग-दूसरे मदों-फलाई ओवर व हाईवे
जेल, बड़े पैमाने का मिठाई वितरण, पशुओं के  इंजैक्शन और कामनवैल्थ खेलों में खर्च होते रहे।



आज किसी भी योजना को सरकार मनमनी ढ़ग से लागू करती है-
चाहे परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण का मामला हो
यह कोई भी विकास योजनाओं को लागू करने मामला हो,
सरकार हमेशा आम जनता को उत्पीडीत करने वाले तत्वों को संरक्षण देने का काम करते रही है
अगर आज जनता सरकार की मनमनी के खिलाफ, भष्ट व्यवस्था, या भ्रष्ट नेता, मंत्रियों के खिलाफ आवाज बुलंद करती है-तब उसे फोल्स केस में फंसा कर जेल भेज देती है
आज कल-तो आवाज उठाने वालों को नक्सली करार दिया जा रहा है-
आज-राज्य के जेलों में 600 बेकसुर आदिवासी जेल में बंद हैं

अनुसूचित क्षेत्रों में शांति-व्यवस्था और सुशासन को सुद्वढ़ करने का उपाय---
1-पांचवी अनूसूचि में प्रदत अधिकारों को अनुसूचि क्षेत्र में अक्षरशा पालन किया जाए
2-सीएनटी एक्ट के धारा 46 को कड़ाई से लागू किया जाए
3-पेसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को प्रदत अधिकारों का अक्षरशा पालन हो
4-एसपीटी एक्ट का पालन हो
5-वन अधिकारी कानून के तहत ग्रामीणों को समुदायिक पटा तथा खेती के लिए मिनिमम 2 हेक्टेयर जमीन का पटा दिया जाए
6-आदिवासी उप-योजना का राशि -पूरी राशि हर बजट एलोकेशन का सही लाभकारी कार्यो में खर्च किया जाए
7-जनसूचना आयूक्त आदिवासी समुदाय से ही नियुक्त किया जाए
8-लगत या फर्जी सूचना देने वाले अधिकारियों पर कड़ाई से कार्रवाई की जाए
9-प्रत्येक प्रखंड स्तर पर अस्पतालों, प्रखडों, पंचायतों में स्थानीय कर्मचारियों का नियुक्ति किया जाए
10-भाषा-सस्कृति के आधार पर स्थाीनयता निति लागू किया जाए
11-भूमिं अधिग्रहण कानून-2013 को लागू किया जाए
12-भूमिं अधिग्रहण कानून-2013 के सेक्शन-24 के तहत-नगड़ी में गलत तरीके से अधिग्रहीत 150 एकड़ किसानों की जमीन-रैयतों को वापस किया जाए
13-नगड़ी में लाॅ यूनिवरसिटी के लिए जबरन किसानों ली गयी जमीन का कीमत वर्तमान बाजार मूल्य एक लाख प्रति डिसमिल के दर से भूगतान किया जाए-तथा विस्थापित रैयतों के परिवार को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी दिया जाए
14-राज्य में-सभी परियोजनाओं से , पूर्व में हुए तमाम विस्थापितों को -पुर्नवासित तथा नौकरी दिया जाए। जब तब पूर्व के विस्थापितों को नौकरी और पुर्नवासित नहीं किया जाएगा-दूसरा विस्थापन नहीं किया जाए
15-सरकारी जमीन, परती जमीन, जंगल-झाड़ी जमीन, गैर मजरूआ आम, खास जमीन को स्थानीय ग्राम सभा, बेघर वालों, गरीबों, बीपलएल परिवार तथा विस्थापित परिवारों को आबंटित किया जाए--किसी बड़े पूजिंपति, कारपोरेट या सक्षम को नहीं
16-मुंडारी खूंटकटी व्यवस्था के साथ छेड-छाड़ नहीं किया जाए
17-हो आदिवासी ईलाके में विलकिंशन रूल सक्षम है-के साथ छेड-छाड नहीं हो
18-ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन रोकने तथा रोजगार व्यवस्था के लिए-नदी-नालों में छोटे छोटे चेक डैम बना कर पानी किसानों के खेतो तक पहुचाया जाए
19-शिाक्ष तथा स्वस्थ्य का नीजिकरण नहीं किया जाए

                         दयामनी बरला
                         न्यू गार्डेन सिरोम टोली
                          क्लब रोड़ रांची-1
                        मे0 9431104386

Friday, May 31, 2019

अपने इमानदारी मेहनत से जनाधिकारों के लिए संघर्षरत शक्तियों को संगठित करके अपने धरोहर की सुरक्षा की गारंटी करनी होगीं

15 नवंबर 2000 में झारख्ंाड अलग राज्य का पूर्नगठन हुआ। यह सर्वविदित है कि झारखंड अलग राज्य की मांग, झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान समुदाय ने अपने जल-जंगल-जमीन, भाषा-सास्कृति, पहचान को विकसित और संगक्षित करने के लिए की थी। अलग राज्य का नींव अबुआ हातुरे-अबुआ राईज, हमर गांव में-हमर राईज छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंगे्रज हुकूमत द्वारा थोपी जा रही भूमि बंदोस्ती कानून या लैंण्ड सेटेलमेंट के खिलाफ संघर्ष के साथ डाला गया। इस, हमारे गांव में हमारा राज के संघर्ष को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संताल हूल 1856, 1788-90 में पहाडिया विद्रोह, 1798 में चुआड विद्रोह, 1800 में चेरो विद्रोह, 1820-21 में हो विद्रोह, 1831-33 में कोल विद्रोह, सरदारी विद्रोह और 1895-1900 में बिरसा मुंडा उलगुलान के नाम से इतिहास में अंकित किया गया है। 
इस अलग राज्य की लड़ाई ने आजादी के बाद छोटानागपुर एवं सताल परगना के इलाके में आजादी के बाद संपन्न हुए राजनीतिक चुनाव को भी प्रभावित किया, और आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने 1952 के पहला चुनाव में अलग राज्य के नाम पर 33 जनप्रतिनिधियों को चुन कर बिहार विधान सभा में भेजा। अलग राज्य की इस लड़ाई को राजनीतिक तौर पर जयपाल सिंह मुंडा, निरल ऐनेम होरो सहित हजारों आदिवासी मूलवासी अगुओं ने आगे बढ़ाया। इसके बाद का0 ऐके राय, बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने भी नया दिशा दिया। समय के साथ आंदोलन ने हर तरह के उतार-चढ़ाव देखा। अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासियों के संगठित ताकत का अहसास भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार था, कि अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासी संगठित हैं। यदि आदिवासी समाज के बीच अपना जगह बनाना है-तो अलग राज्य पुर्नगठन के सवाल को पार्टी अजेंडा बनाना होगा। 
विदित हो कि 1996-57 में बीजेपी ने झारखंड अलग राज्य के नाम पर एक 32 पेज की पुस्तिका प्रकाशित किया-वनांचल ही क्यों?। इस पुरे पुस्तिका का एक ही सार था-राज्य में इसाई समुदाय और अल्पसंख्याक समुदाय ने अपनी गहरी पैठ बनायी है, इस पैठ को कौसे उखाडा जाए और स्वंय उस जगह को अपने अजेंडा के साथ पाटा जाए। इस पुस्तिका में आदिवासी समाज को वनवासी के नाम से संबोधित किया गया। आदिवासी समुदाय को वनवासी संबोधन किया गया-इसको लेकर सामाजिक संगठनों सहित लोकतंत्रिक राजनीतिक पार्टियों ने भी विरोध किया। आदिवासी-मूलवासी समुदाय तथा तमाम जनसंगठनों ने सवाल उठाया कि-आदिवासी समुदाय को वनवासी करार कर, आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन के परंपरागत अधिकारों से अलग करने की बड़ी साशिज रची गयी है। साथ ही झारखंड के जंगल-जमीन-पानी और खनिज को पूंजिपतियों के हाथों बेचने की तैयारी है। इस विरोध और सर्मथन के बीच आदिवासी समुदाय ने स्पस्ट नारा दिया था-कि भाजपा द्वारा झारखंड को वनांचल का दर्जा देने का मतलब-झारखंड को व्योपारियों/व्यवसायिक / पूजिंपतियों का अखाडा बनाना है। इस तर्क के साथ आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने वनांचल शब्द का कड़ा विरोध किया। विरोध के परिणामस्वरूप भाजपा ने एक कदम पीछे हटा और वनांचल शब्द को छोडकर झारखंड के नाम पर ही अलग राज्य को पुर्नगठन करने इस अजेंडा के साथ बीजेपी ने अलग राज्य पूर्नगठन का काम को आगे बढ़ाया। क्योंकि इस समय केंन्द्र की सत्ता पर भाजपा थी। सत्ता की राजनीतिक गणित का जोड़-घटाव के बाद भाजपा ने देखा कि यही मौका है आदिवासी बहुल, खानिज संपदा से परिपूर्ण धरती पर अपना साम्रज्य स्थापित करने का। इस मौका को हाथ से जाने नहीं दिया, और अजेंडा को अमलीजामा पहनाने में बीजेपी सफल रहा।, और देश में एक साथ तीन आदिवासी बहुल राज्यों को अलग राज्य का दर्जा दिया गया। 
इस बात को नहीं भूलना चाहिए भाजपा को कि-झारखंड अलग राज्य के पुर्नगठन की तारीख 15 नवंबर को इसलिए चुना गया कि-झारंखड आदिवासियों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान से जुड़ा है। इसके आदिवासी समुदाय ने लंबी लड़ाई लड़ी है। बिरसा मुडा आदिवासी समाज का पहचान है-इतिहास का हिस्सा हैं। भाजपा आदिवासी समाज को जताने चाहा-कि झारखंड आदिवासी समाज के सम्मान में बन रहा है। इसी उद्वेश्य से 15 नवंबर 2000 को राज्य को जन्म दिया गया। 
लेकिन राज्य बनने के बाद राज्य ने 16 साल की उम्र देखी। इस 16वें साल में 12 साल तक तो राज्य में भाजपा के नेतृत्व में राज्य का शासन व्यवस्था चला। इन 16वें साल में पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत में आकर अकेले झारखंड का शासन व्यवस्था पर कब्जा जमा ली है। कोई रोकने वाला नहीं-आज बीजेपी अपने असली ऐजेंडा को राज्य में लागू कर रही है। इसी अजेंडा के तहत फरवरी 2016 में स्थानीयता नीति लागू किया गया, जो पूरी तरह आदिवासी, मूलवासी, किसान, सहित राज्य के मेहनतकश आज जनता के विरोध में स्थानीयता नीति का रूपरेखा खींचा गया और कानून का रूप दिया गया। जबकि मूल आदिवासी-मूलवासी झारखंडी समुदाय ने, अपने भाषा-संकृति, रिति-रिवाज, खान-पान, जीवनशैली एवं 1932 के खतियान का आधार बना कर, स्थानीयता नीति बनाने की मांग की थी। लेकिन राज्य सरकार ने इसको खारिज कर, जो 30 सालों से झारखंड में रह रहा हो-सभी झारखंडी हैं, इसी के आधार पर स्थानीयता नीति को पास किया। जो पूरी तरह से आदिवासी-मूलवासी विरोधी है। इसका विरोध हुआ, लेकिन बहुमत का नाजायज लाभ उठाते हुए, अपना अजेंडा को कानून रूप दिया। यहां से शुरू होता है-झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकशों के संवैधानिक अधिकारों पर धारदार हमला। जनविरोधी स्थानीयता नीति के साथ ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट जो आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज का सुराक्षा कवच है, को तोडना का प्रयास किया गया। 
जून 2016 के कैबिनेट में रघुवर सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश लाया, और संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ता़क्षर के लिए भेज दिया। जब इस अध्यादेश का राज्य की जनता ने विरोध की, तब राष्ट्रपति भी उसे वापस का दिये। जबकि कैबिनेट के तीन-चार दिन बाद झारखंड विधानसभा सत्र शुरू होने वाला था, इसका भी रघुवर सरकार ने इंतजार नहीं किया कि, संशोधन पर विधान सभा में चर्चा के लिए रखा जाता। 
जब जुलाई में विधानसभा सत्र शुरू हुआ-विपक्षी पर्टी ने विधान सभा के भतीर तथा जनआंदोलनों, सामाजिक संगठनों ने मैदान में विरोध करना शुरू किये। परिणामस्वरूप विधान सभा सत्र स्थागित हो गया। 22 अगस्त को रांची के थेलोजिकल हाॅल में दो दिनों से हो रहे भारी बारिश के बावजूद 600 लोग एकत्र होकर संशोधन अध्यादेश पर चर्चा कर बाद एक स्वर में विरोध किया। इसके साथ ही पूरे राज्य में विरोध का स्वर गूंजने लगा। 23 अगस्त को विपक्षी पार्टियों ने संयुक्त घोषणा किया-कि किसी भी हाल में संशोधन अध्यादेश को पास करने नहीं देगें। 24 अगस्त को राज्य के 24 आदिवासी संगठनों ने राजभवन मार्च के साथ राजभवन के पास सभा के संशोधन के विरोध आवाज बुलंद किये। तथा 22 अक्टोबर को रांची के मोराबादी मैदान में विशाल रैली एवं सभा की घोषणा की। 
पूर्व तय कार्यक्रम के अनुसार 22 अक्टोबर को पूरे राज्य के आदिवासी-मूलवासी किसान सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश के विरोध में मोराबादी में जमा होने के लिए गांवों से निकले। लेकिन रघुवर सरकार ने भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान में प्रदत अभिव्यक्ति के अधिकार को हनन करते हुए गांव-गांव में पुलिस प्रशासन द्वारा बे्रेकेटिंग लगवा दिया गया, गांव के लोग रांची मोराबादी मैदान आ रहे थे, सबकी गाडी रोक दी गयी। यहां तक कि लोगों को पैदल भी नहीं आने दिया गया। रांची शहर को चारे ओर ब्रेकेटिंग से घेरा गया। ताकि जनता सभा तक न जा सके। इसी क्रम में खूंटी के सोयको में ग्रामीणों को रांची आने से रोका गया सोयको में। रैली में आने वालों तथा पुलिस प्रशासन के बीच विवाद बढ़ा, तक पुलिस ने फयरिंग की। इस फायरिंग में अब्रहम मुंडू मारा गया,  7 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गये। जिनका इलाज रिम्स में हुआ। इस घटना में 10 लोगों पर नेमड एफआईआर किया गया, यहां तक कि मृतक अब्रहम मुडू सहित घायलों पर भी किया। 
केंन्द्र तथा राज्य की रघंुवर सरकार पूरी तरह आदिवासी-मूलवासी, किसानों के जल-जंगल-जमीन और खानिज को लूटने के लिए कई हथकंडे अपना ली है। याद दिलाना चाहती हुॅ कि 2014 में मोदी सरकार ने जिस जमीन अधिग्रहण अध्यादेश को लाया था-वह पूरी तरह से देश के किसानों को उखाड़ फेंकने की नीति थी। ताकि देश-विदेश के कारपोरेट घरानों को आसानी से जमीन हस्तांत्रित किया जा सके। इस अध्यादेश में 9 संशोधन तथा 2 उपनियम लाया गया था। रघुवर सरकार इसी संशोधन के आधार पर सीएनटी एक्ट के धारा-71(2) जिसमें आदिवासियों का जमीन यदि कोई गैर आदिवासी छल-बल से कब्जा किया है, और उस जमीन पर कोई निर्माण कार्य किया गया है-तो इस जमीन का मुआवजा देकर, उसे सेटेल करने का प्रावधान है-को समाप्त करने की बात कही गयी। इस तरह के केस को देखने के लिए हर जिला में जिला उपायुक्त को अधिकृत किया गया है-एसआरए कोर्ट (शिडूयल एरिया रेगुलेशन एक्ट) एैसे मामलों पर न्याय करे। लेकिन दुभग्य की बात है कि-इस तरह के जितने भी मामले आये हैं-सिर्फ 1-2 प्रतिशत में ही रैयतों-आदिवासी समाज को न्याय मिला है। 
विदित हो कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के मामले में सामाजिक संगठनों ने पहले भी आवाज उठाया कि-जो छेद है इस एक्ट में, जैसे मुआवजा देकर मामले को रफा-दफा किया जाता है, इसको बंद किया जाए। लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं किया। आज भी सरकार के कार्रवाई पर संदेह है। 
धारा-49 -इसमें पहले जनकल्याकारी कार्यों के लिए जमीन हस्तांत्रित करने का प्रावधान था। इसके तहत उद्योग और मांइस के लिए ही जमीन लेना था, लेकिन अब  इसमे संशोधन करके किसी तरह के काम के लिए जमीन लेने का प्रावधान कर दिया गया। याने यह कहा जाए-अब जमीन लेने के लिए पूरी तरह से बड़ा गेट को खोल दिया गया। धारा-21-में प्रावधान है कि-कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदला नहीं जा सकता है। लेकिन रघुवर सरकार ने इस कवच को तोड कर -कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदलने का कानून बनया। याने अब -कृर्षि भूमि में भी व्यवसायिक संस्थान खडा कर सकते है। यह सबसे खतरनाक साबित होने वाला है। एसपीटी एक्ट -का धारा 13 तथा सीएनटी एक्ट को धारा 21 दोनों एक है। इस कानून के पास होने के एक समय आएगा-झारखंड एक भी किसान नहीं बच पायेगें। 
विकास के मकडजाल में आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदाय फंसते जा रहा है। विकास का यह मकडजाल काॅरपोरेट घरानों, देश-विदेश के पूंजिपतियों के लिए जमीन की लूट के लिए केंन्द्र तथा राज्य के रघुवर सरकार द्वारा तैयार नीतियों का जाल है। जो आदिवासी-मूलवासी, किसान सामाज के उपर एक ष्ष्फेंका जालष्ष् की तरह  है। इस जाल के सहारे आदिवासी-मूलवासी, किसान एवं मेनतकश समुदाय को राज्यकीय व्यवस्था के सहारे काबू में ला कर इनके हाथ से जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण को छीण कर काॅरपोरेट घरानों कों सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। एक ओर भाजपानीत केंन्द्र एवं राज्य सरकार आदिवासी, किसानों के हक-अधिकारों के संगरक्षण की ढोल पीटती है, और दूसरी ओर इनके सुरक्षा कवच के रूप में भारतीय संविधान में प्रावधान अधिकारों को ध्वस्त करते हुए काॅरपोरेटी सम्राज्य स्थापित करने जा रही है। जिंदगी के तमाम पहलूओं-भोजन, पानी, स्वस्थ्य, शिक्षा, सहित हवा सभी को व्यवसायिक वस्तु के रूप में मुनाफा कमाने के लिए ग्लोबल पूंजि बाजार में सौदा करने के लिए डिस्पले-सजा कर के रख दिया है। 
देश जब अेग्रेज सम्रज्यवाद के गुलामी जंजीर से जकड़ा हुआ था -तब देश को अंग्रेज हुकूमत से आजाद करने के लिए झारखंड के आदिवासी -जनजाति व अनुसूचित जाति समुदाय ने शहादती संघर्ष कर स्वतत्रता संग्राम को मुकाम तक पहुंचाने का काम किया। शहीद सिद्वू-कान्हू, ंिसदराय-बिंदराय, जतरा टाना  भगत, बीर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हमारे गांव में हमारा राज-याने जल-जंगल-जमीन पर अपना परंपरागत अधिकार बरकरार रखने, गांव-समाज को पर्यावरणीय मूल्यों के साथ विकसित करनेे, अपने क्षेत्र में में अपना प्रशासनिक व्यवस्था पुर्नस्थापित करने, कर अपना भाषा-संस्कृति के साथ संचालित-नियंत्रित एवं विकसित करने का सपना था। 
आजाद देश के राजनीतिज्ञों, बुधीजीवियों, एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि-देश का विकास, शांति-व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं-इसीलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये। एक सामान्य कानून जो सामान्य क्षेत्र के लिए दूसरा विशेष कानून जो विशेष क्षेत्र के लिए बनाया गया। प्रकृतिकमूलक आदिवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र में रखा गया। इन क्षेत्रों पांचवी अनुसूचि तथा छठी अनुसूचि में बांटा गया। 
इसी अनुसूचि क्षेत्र में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना अधिनियम 1949, पेसा कानून 1996, वन अधिकार अधिनियम 2006 भी है। ये सभी कानून आदिवासी, मूलवासी, दलित, मच्छूवरा सहित 33 आदिम जनजाति समुदायों के अधिकारों रक्षा के लिए है। 
लेकिन- हर स्तर पर इन कानूनों को वयलेशन-हनन किया जा रहा है।
देश के विकास का इतिहास गवाह है-जबतक आदिवासी समाज अपना जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा रहता है-तबतक ही वह आदिवासी अस्तित्व के साथ जिंदा रह सकता है। आदिवासी सामाज को अपने धरोहर जल-जंगल-जमीन से जैसे ही अलग करेगें-पानी से मच्छली को बाहर निकालते ही तड़प तड़पकर दम तोड़ देता है-आदिवासी सामाज भी इसी तरह अपनी धरोहर से अलग होते ही स्वतः दम तोड़ देता है। 
अपनी मिटटी के सुगंध तथा अपने झाड-जंगल के पुटुस, कोरेया, पलाश,  सराई, महुआ, आम मंजरी के खुशबू से सनी जीवनशैली के साथ विकास के रास्ते बढने के लिए संक्लपित परंपरागत आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के उपर थोपी गयी विकास का मकडजाल स्थानीयता नीति 2016, सीएनटी, एसपीटी एक्ट संशोधन बिल 2017, महुआ नीति 2017, जनआंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया-क्षति पूर्ति कानून 2016, गो रक्षा कानून 2017, भूमि बैंक, डिजिटल झारखंड, लैंण्ड रिकार्ड आॅनलाइन करना, सिंगल विण्डोसिस्टम से आॅनलाइन जमीन हस्तांत्रण एवं म्यूटेशन जैसे नीति-कानूनों को लागू होना, निश्चित रूप से आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदायों के समझ के परे की व्यवस्था है। यह व्यवस्था राज्य के एक-एक इंच जमीन, एक-एक पेड-पौधों, एक-एक बूंद पानी को राज्य के ग्रामीण जनता के हाथ से छीनने का धारदार हथियार है। 
 गांव-आदिवासी गांव का मतलब -गांव सीमाना के भीतर एक-एक इंच जमीन, मिटी, गिटी, बालू, पत्थर, घांस-फूस, झाड- जंगल  मिलाकर  गांव बनता है-
इसी के आधार पर राज्य के आदिवासी बहुल गांवों का अपना परंपरिक मान्यता है। गांव घर को आबाद करने वाले आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने सामाजिक-पर्यावरणीय जीवनशैली के ताना बाना के आधार पर गांव बसाये हैं। 
सामाज के बुजूगों ने अपने गांव सीमा को खेती-किसानी सामाजिक व्यवस्था के आधार पर व्यवस्थित किये हैं-क-घरो को एक तरफ बासाया गया-जहां हर जाति-धर्म समुदाय बास करता हैंै। ख-खेत-टांड एक तरफ गंाव सीमा भीतर के कुछ खेत-टांड को गैराही रखा, कुछ को परती रखे-ताकि गा्रमीण सामुदायिक उपयोग करे। जिसमें नदी-नाला, तालाब, कुंआ-आहर, सरना-मसना, खेल मैदान, खलिहान, अखड़ा बाजार, जतरा, मेला, चरागाह आदि के लिए। 
इसी के आधार पर राज्य में आदिवासी सामाज का जमीन को आबाद करने का अपना परंपरिक व्यास्था है यही नहीं इसका अपना विशिष्ट इतिहास भी है। आदिवासी परंपरागत व्यवस्था में जमीन को अपने तरह से परिभाषित किया गया है-रैयती जमीन, खूंटकटीदार मालिकाना, विलकिंगसन रूल क्षेत्र, गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, परती, जंगल-झाड़ी भूंमि। 
नोट-1932 में जो सर्वे सेटेलमेंट हुआ-इस रिकोर्ड के आधार पर जमीन को उपरोक्त वर्गों में बांटा गया। उस समय लोगों की आबादी कम थी। कम परिवार था। 84 साल पहले जमीन को चिन्हित किया गया था-कि ये परती है, जंगल-झाडी भूमिं है। 84 वर्ष में जो भी परती-झारती था, अब वो आबाद हो चूका है। अब उस जमीन पर बढ़ी आबादी खेती-बारी कर रही है। 
गैर मजरूआ आम भूंमि पर तो गांव के किसानों को पूरा अधिकार है ही, गैर मजरूआ खास जमीन पर भी ग्रामीणों का ही हक है। 
आज सरकार विकास के नाम पर लैंड बैंक---बना कर आदिवासी समुदाय के हाथ से उनका जमीन-जंगल छीन कर उद्योपतियों को देने का योजना बना रही हैं। केंन्द्र की मोदी सरकार तथा राज्य की रघुवर सरकार झारखंड से बाहर एवं देश के बाहर कई देशों में पूजिपतियों को झारखंड की धरती पर पूंजि निवेश के लिए आमंत्रित करने में व्यस्त हैं। 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची में ग्लोबल इनवेस्टर समिट को आयोजन कर 11 हजार देशी-विदेशी पूंजिपतियों को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान 210 कंपनियों के साथ एमओयू किया गया। इस एमओयू में 121 उद्वोगों के लिए किया गया, जबकि कृर्षि के लिए सिर्फ एक एमओयू किया गया। इसके पहले 2000 से 2006 के बीच 104 बड़े बडे कंपनियों के साथ एमओयू किया गया हे। यदि सभी कंपनियों को अपने जरूरत के हिसाब से जमीन, जंगल, पानी, खनीज उपलब्ध किया जाए आने वाले दस सालों के अंदर झारख्ंाड में एक इंज भी जमीन नहीं बचेगी, एक बूंद पानी नहीं बचेगा।  इसे सिर्फ आदिवासी मूलवासी, किसान ,मेहनतकश समुदाय केवल नहीं उजडेगें, परन्तु प्रकृति पर निर्भर सभी समुदाय स्वता ही उजड़ जाऐगें। जिनका कल का कोई भविष्य नहीं होगा। 
अपने इतिहास को याद करन का समय आया है। हमारा संघर्ष का इतिहास है-घुटना नहीं टेक सकते। जब आप के विरोधी ताकतें एक साथ खड़ा हैं-तब परिस्थिति की मांग है कि-राज्य और देश के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित-बंचित सबकों एक मंच में आना होगा, अपने इमानदारी मेहनत   से  जनाधिकारों के  लिए संघर्षरत शक्तियों  को संगठित करके अपने धरोहर की सुरक्षा की गारंटी करनी होगीं