दयामनी बरला
रांची-झारखंड
मांदर के मधुर गूंज के बीच -
गीत -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले
आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2
भाले...भाले के गीत के साथ युवक-युवातियां करमा राजा का गांव के अखड़ा में स्वागत किये। प्रकृति के जीवनचक्र में बसंत की नई किरण के बाद जेठ की तपती धूप से झुलसे प्रकृति को रिम झिम बारिस ने ’शीतलता प्रदान किया है। आकाश के काले धने बादल किसानों के जीवन में नयी उम्मीदें भर दी है। लेवा-लुंडा, रोपा-डोभा, में व्यस्त प्रकृतिकमूलक आदिवासी-मूलवासी समाज अपने प्रकृति प्रेम तथा इनके साथ अपने सहचार्य जीवन की जीवंतता को करम त्योहर में इजहार कर रहे हैं। करम त्योहार, मात्र एक त्योहार ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासी मूलवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, इतिहासिक तथा पर्यावरणीय जीवन ’शैली का ताना बाना है। भादो के एकादशी के दिन पूरे राज्य में आदिवासी मूलवासी समाज राईज करमा मना रहा हैं। झारखंड के सभी आदिवासी समूदाय करमा त्योहार मनाते हैं। करमा त्योहार मनाने के पीछे मुंडा, उरांव, खडिया, हो-संताल, आदिमजाति, मूलवासियों का अपना मन्याता है। कालेंडर के आधार पर राईज करमा 18 अगस्ता को मनाया गया। इसके साथ ही अपनी सुविधानुसार सभी गांव करमा त्योहार मनाएंगे। सभी गांव अपने हिसाब से कहीं बुढ़ी करम, कहीं ईन्द करमा, कहीं जितिया करमा, कहीं ढेढिरा करम मनाते है। इन सभी करमा त्योहार मनाने के पीछे अपनी अपनी मन्याताएं हैं।
मित्तल कंपनी खूंटी जिला और गुमला जिला के कमडारा प्रखंड और तोरपा, कर्रा, रनिया प्रखंड के करीब 38 गांवों को उजाड़ कर 40,000 करोड़ का निवेश कर 12 मिलियन टन का स्टील कारखाना लगाना चाहती है। इसके खिलाफ कर्रा प्रखंड, तोरपा प्रखंड, कमडारा प्रखंड 2005 से आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच -हमअपने पूर्वजों की एक इंच जमीन नहीं देगें का संकल्प के साथ संर्घषरत है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच सिर्फ जमीन बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहा है लेकिन इसके साथ सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, इतिहास-पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। पूरे झारखंड में जब आदिवासी मूलवासी समाज मंदर की थाप पर करमा अखड़ा में झुम रहा है- तब आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच भी 26 अगस्ता 2010 को तोरपा प्रखंड के कुलड़ा गांव में सामूहिक रूप में करमा मनाने का निर्णय लिया।
आठ दिन पहले गांव की उपासिनों ने नहा-धोवा कर नदी से बालू ला कर मकाई का जावा, उरद, गोंदली आदि अनाज का जावा उठा दी हैं। जावा उठाने के बाद उसको सारू पता से ढंक देती हैं। जावा का सेवा करती हैं, इसको हल्दी पानी से सिंचती हैं। करमा के दिन सुबह नहा-धोवा कर उपवास किये युवक-युवातियां अरवा सूता लेकर करमा लाने जाते हैं। जहां जंगल नजदीक है-वहां के लोग जंगल से लाते हैं और जहां जंगल दूर है, वहां के लोग अगल बगल गांवों से या अपने गांव में हो, तो वहीं से लाते हैं। अखडा में गाड़ने के लिए भूंईफूट करमा याने जो करमा पेड जमीन से उगा होता है, उसी को काटते हैं। लेकिन अब जंगल खत्म होते जा रहा है, इस कारण करमा पेड भी कम होता जा रहा है।यंहा यह बताने की जरुरत है, आज सभी चीजें बाजार से प्रभावित होते जा रही है, इस करना शहरी इलाकों में करमा डाली अब बाजार में बिकता है, चौक चरहोंओं में. जगल भी कट कर समाप्त होता जा रहा है. इस कारण जो भी पेड मिलता है उसी से काट लेते हैं। उपवास किया युवक अरवा धागा लापेट कर करम डाली काटता है, नीचे उपासिन युवातियां डालियां सम्भाती हैं। करमा डाली को नीचे जमीन पर गिरने नहीं दिया जाता है।
करम के दिन पूरा गांव के लोग अखडा में जमा होते हैं, पाहन पूजा करते हैं, उपवास किये युवक-युवातियां करमा के पास बैठते हैं, सभी अपने साथ जावा फूल और खीरा बेटा लेकर आते हैं। पाहन के पूजा के बाद सभी महिलाएं एक दुसरे के कमर में हाथ डाले जोडाती है, पुरूष मांदर के साथ अखडा में प्रेवश करते हैं-गीतशुरू होता है-
लगे बाबू मंदिरिया-मंदेराबाजय रे,
लगे बाबू मंदिरिया मंदेराबाजय,
लगे माईया खेला जामकाय..
ओ रे लगे माईया खेला जामकाय
करमा पेड का समाज हमेशा से आदर करता आया है। इस पेड का लकड़ी जलावन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, न ही इसका पीडहा -बैठने के लिए बनाते हैं। करमा त्योहार और आदिवासी मूलवासी समाज पर्यावरण बचाने का संदेश दे रहा है। रात भर करम खुशियाली मनाने के बाद दूसरे दिन करमा को घर-घर बुलाया जाता है। सभी परिवार करमा का पैर धोते हैं, उसे करमा को भेंट देते हैं। पूरां गांव घुमने के बाद इसे नजदीक के नदी में जा कर बहा देते हैं।
किसान करम पर्व के पहले दिन जंगल से भेवला डाली लाकर घर के छत में रखे रहता है, इस डाली को दुसरे दिन किसान खेतों में लेजाकर गाड़ते हैं। इसके पीछे कृर्षि सुरक्षा का वैज्ञानिक महत्व हैं। धान के लहलहाते खेत हैं कुछ कीडे पौधों को खाते हैं-जो धान के पौधों में चिपके होते हैं। इन किड़ों को ठेंचुवा चिंडिया खाता है। जो भेलवा डाली धान खेत में गाड़ा जाता है-उसी में चिंडिया बैठकर किड़ों को खाता है। इसके साथ ही भेलवा पेड़ के और कई महत्व है। कृर्षि सुरक्षा के साथ साथ यह प्रकृतिक एवं पर्यावरण की परम्परागत पद्वति है।
मानसून की पहली बारिस के साथ ही धान बुनी, गोडा, गोंदली, मंडुआ, लेवा, बिंडा, कादो-धान रोपनी, के बाद खेती बारी में प्रकृति के योगदान की खुशियाली जाती है-जो करमा पर्व के रूप में जाना जाता है। एसे तो असार, सावन, भादो, कुवार, कातिक और अघन महीना तक करमा का मौसम होता है। इस मौसम में करमा का ही गीत गाते हैं। करमा के एक-एक गीत आदिवासी, मूलवासी सामाजिक जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सास्कृतिक, पर्यावरणीय जीवन मूल्यों का विलेषण करता है। जो प्रकृति-पर्यापरण और मानव सभ्यता का वैज्ञानिक जीवन पद्वति पर आधारित है।
आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही। दिन को खेत-खलिहान, नदी-नाला, जंगल-पहाडों में काम करते हैं और रात को थकान मिटाने के लिए गांव के बीच तीन-चार ईमली पेड़ो से घिरे अखड़ा में पूरा गांव नाचता गाता है। आदिवासी समाज के पुरखों ने पूरी वैज्ञानिकता के साथ परंपारिक धरोहरों को संयोने का काम किये हैं। मनोरंजन के दौरान वहां उपस्थित लोगों के बैठने के लिए अखड़ा के किराने बडे+ बडे+ पत्थरों का पीढ़हा-बैठक बनाये है, साथ ही ईमली की शीतल छाया मिलती है। 98 प्रतिशत आदिवासी गांवों में अखड़ा ईमली पेड़ के पास ही है। प्रकृति जीवन शैली -को करम गीत में गाते हैं-ईमली पेड़ के नीचे अखड़ा में करमा नाचते गा रहे हैं-
1-रिमी-छिमी तेतारी छाईयां
ना हारे धीरे चालू
रासे चलू मादोना
न हारे धीरे चाल
2 - एंडी का पोंयरी झलाकाते-मलाकाते आवै
न हारे धीरे चालू-रासे
धामिका चंदोवा झलाकाते-मलाकाते आवै
2-जेठे में तोराय कोयनार साग रे
सावन भादो रोपा-डोफा कराय रे-2
3-बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे-2
बोन में झाईल मिंजुर सोभाय-2
4-चंकोड़ा जे जनामलै-हरियार रे
से चंकोड़ा फूला बिनू सोभाय-रे
चंकोड़ा जे फरालैं-रूणुरे झुणु
हलुमान हिरी जोहे जाए
करम त्योहार मनुष्य और प्रकृति से संबेध को मजबूत करता है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी। एक गांव में करम गड़ाता है, इसमें अगल-बगल कई गांवों के लोग शामिल होते हैं। पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बंसुरी के सुरीली तान से गूज उठता था। अखड़ा में मांदर के गुंज के बीच महिलाओं के जुड़ों में सफेद बगुला के पंख से बना-कलगा के साथ जावा फूल पूरे महौल को खुशियों में सराबोर कर देता था। लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोस में सामेटता जा रहा है। आज जब हम करमा मना रहे हैं-तब हमे यह चिंतन करना होगा कि औधोगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए। नही तो एक ऐसा समय आएगा-जब न जंगल-झाड़, नदी-नाला, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा-तब हमारा यह करमा त्योहार लोक गीतो-कथाओ में ही जीवित रहेगा।
Mann Mohit ho gaya didi...ye 3-4 mahine me aane wala hai
ReplyDeleteDayamani Didi,
ReplyDeleteThank you for sharing .....
SB
BAHUT SUNDAR LEKH HAI.ADIVASI SAMAJ KE PAWAN PARV KARMA KA VARNAN BAHUT SUNDAR JAB YE PADHNE ME ITNA KHUBSURAT HAI TO DEKHNE ME KITNA KHUBSURAT LAGEGA.
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