Wednesday, April 29, 2020

ताकि आने वाले समय में शुद्व हवा, पानी, भोजन, पर्यावरण के साथ भविष्य में आने वाले प्रकृतिक आपदा, भूख, बीमारी, गरीबी, विस्थापन, जलप्रदूषण, प्रदूषित जलवायु जैसे महामारी के खिलाफ जंग जीत सकें।

आज हम विकास की जिन उंचाई पर खड़े है, एक आम आदमी के लिए समझना कठिन है। हां उनके परिणामों को महसूस कर रहा है।  बैश्विक  विकास के प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हम जिंदगी के अस्तित्व के ताना बाना को भी रौंद डाल रहें है। हम भूल जा रहे हैं कि, हम चांद के साथ कई और उपग्रहों पर भी अधिपत्य जमा लें , लेकिन जिंदा रहने के लिए आक्सीजन तो चाहिए ही।  भूख मिटाने के लिए कुछ समय तक भोजन के कृत्रिम सबसीटीयूट से भूख शांत  कर सकते हैं, पानी के प्यास को किसी कृत्रिम पेय पदार्थ से प्यास बुझा सकते हैं। लेकिन सवाल है इससे कब तक स्वस्थ्य  और जीवित रह सकते हैं। 

आज विकास के जिस मोडल को अपना कर हम प्रकृति-पर्यावरण, का सेहत बिगाड़ कर, विगड़े मौसम, बिगड़े पर्यावरण और सेहत को फिर से ठीक करने के लिए चिंतित हैं। इस बिगड़े पर्यावरण की सेहत के साथ अपनी सेहत को सुधारने के लिए हम अपने जीवन शैली  को बदलने का राह तलाशने में जुटें है। अब सब चाहते हैं सस्टेनेबल डवलपमेंट के साथ ओरगेनिक भोजन वस्तु और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण। 

 आज जब पुरी दुनिया कोविड-19 के महामारी से तबाह है। विश्व  के ताकातवर देश , अमेरिका, स्पेन, इटली, इग्लैंण्ड, फ्रांस, चीन, जर्मर्नी, रूस, बेलजियम, ईरान, तुर्की सबको कोरोना महामारी ने घुटनों में ला दिया है। विश्व  को आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक तौर पर नियंत्रित करने वाले देशो  के राजसत्ता की ताकत, अरबपतियों, पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के बैश्विक  आर्थिक ताकत तथा वैज्ञानिकों की बैद्विक ताकत भी कोरोना महामारी के सामने अपने को लाचार महसूह कर रहा है। 

महामारी ताकतवर बिश्वा  के सत्ता संचालकों, अरबपती, करोड़पति, अमीर, पूंजिपति और गरीब वर्ग किसी को नहीं छोड़ा़। सबको एक ही कतार में लाकर खड़ा कर दियां।  विकास की बैश्विक  ताकत भी महामारी को रोकने में कमजोर ही दिख रहा है। महामारी के कारणों का भी पता लगाने में बैश्विक ज्ञान-विज्ञान भी महामारी से पिछे दिख रहा है। 

 आज सभी ग्लोबल है। देश  की अर्थव्यस्था, बाजार व्यवस्था, पूंजी व्यवस्था, शिक्षा, स्वस्थ्य व्यवस्था सभी ग्लोबल है। हमारी सोच और जीवन शैली भी ग्लोबल हो चुकी है। कोरोना महामारी भी बैश्विक ग्लोबल व्यवस्था का ही एक हिस्सा बन गया है। हैरानी की बात तो यह है कि-कोरोना महामारी के पहले हमेशा   पूरा विश्व  दावा करता था कि, आज कोई भी बीमारी लालईलाज नहीं है। दावा किया जाता था-जितना तरह का बीमारी, उतने तरह के दवाओं और इलाजों को इजाद किया जा रहा है। लेकिन कोरोना महामारी से इलाज के लिए किसी भी देश के पास न दवा, न वैक्सीन  ही है। अब खबरें मिल रही है-कि लोग रिसार्च में जुट गये हैं, लेकिन दो-तीन माह या तो दो साल लगेगा दवा उपलब्ध कराने में। जबकि इस महामारी से प्रतिदिन हजारों लोग शिकार हो रहे हैं और हजारों लोगों की मौत हो रही है।  हां इस वैश्विक  महामारी से राहत के लिए मलेरिया से बचाव के लिए उपयोग होने वाले दवाई हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन और पारासिटामोल की मांग भारत से वैश्विक  देश  भी कर रहे हैं। जिस मलेरिया से इलाज के लिए गांवों में पहले भूईनीम, चिराईता, चमगर पौधा, हरसिंगार और चराईगोडवा जैसे जंगली पौधों के पत्तों को उबालकर लोग सेवन करते थे। प्रकृतिक इलाज का या परंपरा आज भी ग्रामीण इलाके में  किया जाता है। 

आज हम विकास के जितने भी उंचाई पर पहंच जाएं, फिर भी मनुष्य को जीवित रहने के लिए मानव सभ्यता और विकास के पषाण युग के अर्थव्यस्था मे जीने का जो परिभाषा था रोटी, कपड़ा और मकान, आज के विकसित अर्थव्यस्था में भी मनुष्य को जिंदा रहने के लिए इसकी निहायत आवशयकता  है। पूरे जीव मंडल के लिए भोजन, हवा, पानी जरूरी है। इसके लिए जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, झील, झरना, पेड़, पौधों के संरक्षण के बिना संभव नहीं है। संजीवनी बूटी जंगल-पहाड़ो में ही उपलब्ध होता है। हमें इतिहास के उन तथ्यों एवं घटनाक्रम को नहीं भुलना चाहिए, जहां से हमने चलना शुरू  किया था। आज आदिवासी सामूदाय के जंगल-जमीन को आबाद करने और इसे बचाये रखने के संघर्ष के इतिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। जंल-जंगल-जमीन -पर्यावरण के साथ समाज का ताना-बाना आधारित जीवनशैली  ही विश्व  को दिशा  दे सकता है। चाहे हम उसे पषाण युग का दंतकथा ही क्यों न मान लें। प्रकृति का अपना जीवन शैली , ज्ञान-विज्ञान है।  उसे हम रोकेगें, छेड़ेगे, दबायेगें, तो वह अपना प्रतिक्रिया देगा ही चाहे वह जिस भी रूप में हो। चाहे वह प्रकृतिक अपदा हो या महामारी हो।

प्रकृति की गोद में रचे-बसे गांव की जिंदगी को भले ही हम पिछडा समाज के तौर पर देखतें हैं, लेकिन आज जब ग्लोबल वार्मिंग के ताप से राहत कें लिए एसी, कुलर, पंखे ही हमारा सहारा होता है। यदि बिजली लोकसेडिंग हो जाए तो इससे भी बंचित हो जाते हैं। दूसरी ओर गांव के लोग घर आंगन के इमली पेड़, नीम पेड़, जीतिया पेड़, बरगद पेड़ का छांव ही, कुसूम पेड़, जामुन पेड़ पूरा गांव के  लिए एसी और कुलर का काम करता है। लू लगने पर इमली का लेप, पलाश  फूल का शरबत, मटा साग, इमली पलवा, कंदा साग, बेंग साग का मांडडबका पीकर दुरूस्त रहते हैं। हम तपती गर्मी में प्यास बुझाने के लिए फ्रीज में बंद बोलत का पानी ढुडते है। ग्रामीणों के लिए कुम्हार के चाक के मिटटी से बने नया घड़ा का षीतल पानी ही अमृत की तरह है। इस परंपरागत कुलर के लिए बिजली के वोलटेज की भी जरूरत नहीं हैं। विकास की दौड़ में, आगे निकलने की होड़ में अपने प्रकृतिमूलक जीवन शैली  से हम दूर चले जा रहे है उस वैश्विक रास्ते से, आगे जाकर वो रास्ता किस वैश्विक महासमुद्र में मिलेगा, शयद हमें उसी वक्त पत्ता चलेगा, कि हम कहां पहुंच जाएगें। जैसे अमेरिका का मैनहाटन, जहां से पूरे विश्वबाजार , की अर्थव्यवस्था नियंत्रित एवं संचालित होती है। लेकिन वहां कोई जंगल नहीं होगा, मलेरिया के लिए चिरौता, भूईनीम नहीं होगा, इमली छांव, पीपल या जीतिया पेड़ का छांव नहीं होगा। जहां अनाज पैदा करने वाला कोई खेत-टांड नहीं होगा।
  
हम हर तरह से धनी हैं। झारखंड का क्षेत्रफल 79,714 वर्गकिमी हैं, यानी 7971400 हेक्टेयर है। इसमें लगभग 23 लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग जंगल  के लिए हो रहा है।  जहां सैकड़ों तरह के वनोपज का पैदवार होता है। हजारों किस्म के जड़ी-बूटी, कंद-मूल से पटा हुआ है। हजारों किस्म के पेड़-पौधे मिलेगें। यही जंगल-पहाड़ हजारों जीवमंडल का असियाना और जीविका का आधार है। 6 लाख हेक्टेयर भूमिं खाली है। 27 लाख हेक्टेयर भूमिं कृषि योग्य है लेकिन खेती नहीं किया जाता, परती, और चरागाह आदि के लिए है। 41 लाख हेक्टेयर भूमिं कृर्षि योग्य है, इसमें 3.12 लाख हेक्टेयर बेकार पड़ी है। परती भूमि 19.58 लाख हेक्टेयर है तथा कुल 18.30 लाख हेक्टेयर भूमि बोई गयी भूमि है जिसमें लगातार फसल बोयी जाती है। यहां यह स्पस्ट है कि झारखंड के क्षेत्रफल का आधा से अधिक याने 51.44 प्रतिषत भूभाग  कृर्षि के योग्य है। किंन्तु संसाधन के आभाव में इसका संपुर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है,। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आता है। इसके तहत गांवो के सीमा के भीतर सभी परती भूमि का बड़ा हिस्सा ग्रामीणों के अधिकार में है। 

आज राज्य में उपलब्ध प्रकिृतिक धरोहर की समीक्षा करने की जरूरत है। जंगल और कृषि भूमि तेजी से घटते जा रही है। पर्यावरण का संकट बढ़ते जा रहा है। राज्य के जलस्त्रोत अंतिम स्वांस ले रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और प्रदूषित पर्रावरण ने मनुष्य सहित प्राणीमंडल और प्रकृति पर हमला बोल दिया है। पर्यावरण को सपोर्ट करने वाले जीव-जन्तु खत्म हो रहे हैं। हमें विकास का माॅडल तय करना होगा कि जमीन, जंगल, नदी, पहाड, जंगल, झाडी का कितना हिस्सा कृषि कार्य के लिए, जंगल, पर्यावरण के लिए, जलस्त्रोतों को जीवित रखने के लिए सुरक्षित रखना होगा।  कितना हिस्सा भूमि औद्योगिकीकरण के लिए, कितना हिस्सा विकास के अन्य बुनियादी ढंचों के लिए सुरक्षित करें, इसका रोडमैप बनाने की जरूरत है।  

यह भी समीक्षा करना है कि राज्य की आबादी के लिए अनाज का पैदवार कितना होता है? यदि खाद्यान का उत्पादन प्रयाप्त नहीं है राज्य की आबादी के लिए, तो उत्पदान बढ़ाने के प्रयास होना चाहिए। जब हमारे पास जमीन है, पानी है साथ में मैनपावर भी है। दूध, मच्छली, मघु, सहित सभी तरह कृषि उत्पादन का मोडल पेस कर सकते हैं। अपने राज्य को खाद्यान निर्यातक राज्य के रूप में वैश्विक मार्केट में अपना स्थान बना सकते हैं। 
औद्योगिक विकास के क्षेत्र में भी राज्य पिछे नहीं रहा। देश  के खनिज का 46 प्रतिषत भाग राज्य से देश  को जाता है। केवल कोयला उद्योग द्वारा कोयला कंपनियां 67,218 हेक्टेयर जमीन से कोयला निकाल रहे हैं। सारांडा जंगल 82,000 हेक्टेयर पर फैला है, जहां से करोड़ो का लौह अयस्क का खनन होता है। शह कमिशन के अनुसार 22,000 करोड़ लौह अयस्क गैर कानूनी तरीके से निकला जाता है। अनुमान के अनुसार झारखंड में 40 हजार से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चल रहे हैं। राज्य में  अयरन ओर माइंस, बाॅक्ससाइट मांइस, अबरख, डोलोमाइट, चूना पत्थर, माइगनेट, यूरेनियम जैसे सैकड़ों तरह के खान-खनिजों के उद्योग खोले गये हैं। 
, आजादी के बाद विभिन्न औद्योगों द्वारा 20 लाख से अधिक जमीन ले लिया गया। विस्थापन की बात करें तो 80 लाख से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है। इन विस्थापितों में से 10-15 प्रतिषत को ही नौकरी मिल पायी है, या तो पूनर्वासित किया गया है। विस्थापित-प्रभावित रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जमीन-जंगल के मालिक बंधुवा मजदूर, कुली, रेजा, जुठन थाली धोने वाली आया, रिक्सा चालक बन कर जिंदगी काट रहे हैं। न रहने के लिए घर है न दो जून की रोटी। बड़ी संख्या में राज्य से बाहर जाकर गुजर बसर कर रहे है।

 औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी  हो गये, प्रवासी मजदूर बन गये। लाॅकडाउन में आज दस-बारह लाख से अधिक प्रवासी मजदूर राज्य से बाहर फंसे हैं। ये सभी हर तरह की कठिनाईयां झेल रहे है। राज्य में बनी स्थानीयता नीति के तहत राज्य सरकार की जिम्मवारी है कि इन सभी प्रवासी मजदूरों के अपनी धरती में रोजगार उपलब्ध कराने की नीति बनायें। राज्य में चलाये जा रहे विकास योजनाओं के साथ इमानदारी पूर्वक इन्हें भी जोड़ा जाए। खान-खनिजों को रोयल्टी, डिस्ट्रीक मिनिरल फंड सहित सभी उत्पादों के लभाशो  का हिस्सा राज्य के विस्थापितों और बेराजागरों को रोजगार उपलब्ध कराने में उपयोग होना चाहिए। मनरेगा जैसे रोजगार से ग्राम सभा को सीधे तौर पर जोड़ना चाहिए, वही तय करे कि गांव में कौन सा काम किया जाए। माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरेस्ट उत्पाद, बालू-गिटटी खान ग्राम सभा को संचालित और नियंत्रित करने की जिम्मेवारी दी जानी चाहिए, ताकि पर्यावरण का ध्यान में रखा जा सके। 

औद्योगिकीकरण की वजह से राज्य का भूखंड बंजर भूमि में तब्दील हो चुका है। राज्य  का कृर्षि प्रभावित हो रहा है। जलस्त्रोत प्रदूषित हो गये, नदी-झील, झरना सहित सभी तरह के जलस्त्रोत सुखता जा रहा है। वायु प्रदूषण से हर साल बच्चे से लेकर हर उम्र के लोग कैंसर आदि से हजारों बेमौत मर रहे हैं। आज पूरा विश्व  पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वामिंग का मार झेल रहा है। गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी और सूखा। ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण को लेकर आम जनता से लेकर देश  के नीति निर्देषक, सत्तासंचालक सभी समय समय पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। पर्यावरण मेले में सेमिनार का उदघाटन करते मेघालय के राज्यपाल श्री गंगा प्रसाद ने कहा था-पर्यावरण सिर्फ शहरों में सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह गांव और जंगलों तक पहुंच गया है। जीवों की संख्या में लगातार कमी आ रही है तथा कुछ जीव विलुप्त भी हो चुके है। औद्योगिक विकास के लिए देश  की जीडीपी अहम है-परंन्तु प्रदूषण जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। 

आज कोरोना महामारी से सभी ताकतवर देश  लड़ रहे हैं। हमारा देश  आर्थिक रूप से कमजोर है, साथ ही कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था के सहारे इस जंग को जीतना आसान नहीं था। जंग जीतने के लिए शोशल  डिस्टेसिंग बड़ा इलाज है। इसके लिए लाॅकडाउन ही एकमात्र उपाय है।  महामारी के खिलाफ जंग के मैदान में देश  के नौवजवान, प्रषासन, डाक्टरस, नर्सें, मेडिकल टीम, स्वास्थ्य कर्मचारी जान हाथेली में रख कर देश  को कोरोना से विजय दिलाने में लगे हैं। लाॅकडाउन के दौरान देश  भर के कलकारखाने, छोटे-बड़े सभी व्यसायिक प्रतिष्ठान एवं सभी सरकारी कार्यालय, ट्रांसपोट, रेलयात्रा,हवाई यात्रा सहित सभी तरह के परिवाहन बंद थे। इस कारण देश  भर में वायु प्रदूषण, ध्वानी प्रदूषण, जलप्रदूषण सहित सभी स्तर के प्रदूषण में कमी आयी है। आकाश  साफ नीला, शाम होते ही चांद और तारे आकाश  में चमकने लगे। सुबह होते ही विभिन्न तरह के पंक्षियो का निर्भयता पूर्वक  चहचहाट से वातावरण गुंजने लगा। रंग-बिरांगे तितलियां आकाश  में उड़ान भर रहे हैं।  कई तरह के फूल-पौधों में तितलियों और मधुमक्यिों का रस चुसने के लिए मंडराना पर्यावरणीय जीवंतता का असहास दिलाने लगा हेै। प्रदूषित नालों और नदियों का पानी साफ हो गया।  प्रदूषण में आयी कमी को आने वाले समय में क्या और कम किया जा सकता है ताकि प्रदूषण मुक्त पर्यावरण हम अपने अगले पीढ़ी को दे सकें।

देश  के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंदजी ने अपने एक आलेख “प्रकृति से हमें सिखने की जरूरत है” में, प्रकृति-पर्यावरण और भविष्य पर चिंतन करते हुए कई अहम सवाल उठाये और इसका हल के तैार पर अपने सोच भी साझा किये हैं। लिखते हैं-2047 में जब भारत की आजादी के 100 वर्ष पूरे होगें,  उस समय का भारत कैसा होगा? जब 2069 में हम गांधी जी की 200वां जयंती मना रहे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा?  हमारे पास आज इन प्रश्नों  के बहुत स्पष्ट उतर नहीं हैं। लेकिन सामजिक, बौद्विक, नैतिक और प्रकृति एवं पर्यावरण के क्षेत्रों में जो कुछ भी निवेश  आज की पीढ़ी कर रही है, उसी पर हमारे इन सवालों का जवाब निर्भर है। जो जंगल हमें इस प्रकृति ने अपनी पूरी भव्यता में उपलब्ध कराएं हैं, वही नदियां, वही पहाड़ और जंगल क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसी भव्य रूप में उपलब्ध करा पाऐगें? 

सच्चाई को स्वीकारने में हमारी महानता होगी। आज हम विकास के तेज रफतार की दौड में प्रकृति से दूर चले गये हैं। थोड़ी धीमी गति ही सही, लेकिन अपने धरोहर, प्रकृति, पर्यावरण और जलस्त्रोंतों के साथ विकास का रास्ता तय कर सकते हैं, जहां से हम सस्टेनेबल डवलपमेंन्ट का नया मोडल देश  को देकर दुनिया के सामने विकास का नयामोडल पेस कर सकतें हैं। ताकि आने वाले समय में शुद्व हवा, पानी, भोजन, पर्यावरण के साथ भविष्य में आने वाले प्रकृतिक आपदा, भूख, बीमारी, गरीबी, विस्थापन, जलप्रदूषण, प्रदूषित जलवायु जैसे महामारी के खिलाफ जंग जीत सकें। 

Sunday, April 26, 2020

current pattern of Lokdown to continue iin state

26.4.2020
current pattern of Lokdown to continue in state. Orson
While the Union Government wernment on Friday night allowed the reopening of standalone shops through out the country. Jharkhand will continue with the.curent pattern of Lokdown until a review is done. 

Friday, April 24, 2020

भाग-7 - सुझाव- -- झारखण्ड स्टाटॉप की नयी शुरुवात ---ग्रामसभा के साथ

                                                     भाग-7

                                                      सुझाव-
-jharkhand राज्य  संबिधान के  पांचवी अनुसूचि छेत्र  में  आता है।  इसके तहत  स्थानीय ग्राम सभा एवं स्थानीय जनता के लिए प्रावधान अधिकारों को लागू करते हुए सरकार राज्य के लघुवनोउपज और लघु उद्वोगों  ग्राम सभा के अधिकार में देना होगा।

   झारखण्ड स्टाटॉप    की  नयी   शुरुवात ---ग्रामसभा के साथ                                        

१ -राज्य के गेर मजरूआ आम, खास, परती, जंगल-भूमि, जमीन को सरकार लेंड बेंक के दायरे में आयी हे, इन सभी नेचर के भूमि को  भूमि बैंक से मुकत किया जा, तभी राज्य का पर्यावरण ओैर कृषि को बाचया जा सकता हैें

२-राज्य में पांचवी अनुसूचि के अर्तंग्रत आता हें अनुसूचित इलाके में स्थानीय ग्राम सभा एवं स्थानीय जनता के लिए प्रावधान अधिकारों को लागू करते हुए सरकार राज्य के लघुवनोउपज और लघु उद्वोगों को स्थापित एवं संचालित करने की जिम्मेदारी स्थानीय नागरिकों को दे। इसके लिए राज्य सरकार ग्राम सभा समितियों को काॅपरेटिव लाइसेंस दे। गिटटी, बालू, पत्थर खदान का लीज स्थानीय गांव समितियों को दे। क्योंकि यह ग्रामीणों को कानूनी अधिकार है, जो आज तक किसी भी सरकार ने ग्रामीणों को नहीं दिया।

३- इसके लिए ग्रामीणों को प्रशिक्छत  करने का अभिायान चलाये।

४ -राज्य के खनिज का रोयल्टी स्थानीय ग्राम सभा को देना सुनिशचित  किया जाए

५ -स्थानीय बेरोजगारों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार का अवसर दिये जाने का प्रावधान किया जाए। इसके तहत राज्य के सभी जिला मुख्यालयों में एवं प्रखंड मुख्यालयों, स्कूलों, अस्पतालों एवं पंचायत मुख्यलयों मेै स्थानीय पीयोन, चपरासी, क्र्लाक से लेकर कम्पुयटर ओपरेटर तक की नियुक्ति की नीति बने। इन सेवाओं के लिए आउटसोरसिंग बहाल बंद किया जाए।

६-किसानों को स्थानीय प्रकृतिक संपदा से जुड़े व्यवसाय के साथ जोड़ने का काम नहीं किया, आज इसकी शुरूआत करने की जरूरत है।

७ -राज्य में कृषि विकास को प्रथमिकता देते हुए कृषि विष्वविद्यालय को सषत्क किया जाए, और यह जिम्मेवारी दी जाए की राज्य में कृषि के परंपरागत तकनीकी को सुद्धीढ किया जाए।

८ --कृषि विभाग स्वेतपत्र जारी कर कि, राज्य में कितना कृषि भूमि पिछले 50 वर्षों में घट गया है। यह भी जारी करे कि राज्य में आबादी के अनुपात खाद्यान की क्या स्थिति है?

९--वन विभाग को जिम्मेवारी दी जाए कि राज्य में कितना जंगल क्षेत्र घट गया है, वनोउपज की क्या स्थिति है, राज्य बनने के बाद कितने पेड़ घट गये हैं?

१०-कृषि विष्वविद्यालय में राज्य के अधिक से अधिक कृषि बेरोजगार युवाओं को प्रषिक्षित करने की जरूरत है, ताकि राज्य में खाद्य सुरक्षा को सुनिष्चित किया जा सके.

११-राज्य में जहां भी बड़े डैम बनाये गये हैं, डैम का पानी को पाईप लाईन द्वारा उन ईलके के किसानों के खेतों तक पहुंचाना सुनिष्चित किया जाए। इसे राज्य में  खेती का विस्तार संभव होगा।

१२-राज्य के पानी पुरूष पदमश्री श्री सिमोन उरांव के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी जाए जो बरसात का पानी को तलाब, आहर, नालों, कुओं, पोखर, सीरीज डैम द्वारा संचय संचय करने की परंपारिक तकनीकी को बढाने का काम को दिशा  दे
१३--औद्योगिकीकरण के कारण जितने जलस्त्रोत प्रदूषित हो चुके हैं, उनको प्रदूषन मुत्कि किया जाए। ताकि राज्य में पानी का अभाव दूर किया जा सके।

१४ --राज्य में जंल-जमीन सीमित है, आवागमन के लिए रेलमार्ग, संडक मार्ग, हवाई मार्ग के लिए कुल कितना जमीन उपयोग करना है, यह रोड मैप तय होनी चाहिए।

१५ --शिक्षण संस्थानों, अस्पताल, मेडिकल आदि की स्थापना के लिए भी जमीन उपयोग  करना है , का रोड मैप तय हो

१६-राज्य सरकार को विकास का सस्टेनेबल मोडल तैयार करने की नीति बनाने की जरूरत-इसके तहत तय करना होगा कि राज्य की आबादी के लिए खाद्यान की जरूरत है। राज्य को कितना पानी की जरूरत है, ( कृषि के लिए, प्र्यावरण के लिए, षहरी तथा ग्रामीण घरेलू उपयोग के लिए एवं लघु उद्योगों के लिए)

१७--बड़े उद्योगों के लिए कितना पानी की जरूत है, यह तय होना चाहिए। एैसा न हो कि सारा पानी सिर्फ बड़े औद्योगिकों को ही प्रथमिकता में रखा जाता है।

१८--मनरेगा योजना के तहत -गांव सभा तय करे के गांव में क्या चाहिए, कृषि, जलसंसाधन और पर्यावरण को विकसित करना है, ना कि राजमार्ग ही बनाये

१९--राज्य में सिर्फ 13 राजकीय टेकनिकल सेंटर हैं, उससे बढाया जाये, ताकि राज्य के अधिक छात्राओं को ट्रैंगिंग  दिया  जा सके
२०--किसानों के उत्पादों को बिक्री करने के लिए बाजार का उचित व्यवस्था हो, जहां किसान अपना उत्पाद उचित मूल्यों में बेच सके।

२१--राज्य में उपलब्ध वनोपज तथा कृषि उत्पाद की उपलब्धता के अनुसार राज्य के सभी जिला मुख्यालायों में एक फूड प्राशेशिंग  यूनिट बनाया जाए

२२-राज्य के अधिकांष जिलों में कुसुम, पलाष, बैर के पेड अधिकाई से मिलेगें, जिसमें किसान पहले से हि लाह खेती करते आया है, इसको और बेहत कैसे किया जाए, इसकी पोलेसी बनाने की जरूरत है

२३-राज्य के अधिकांष जिलों में बांस होती है, आदिवासी गांवों में बहुत अधिक पैमाने पर बांस मिलेगा, इसको बांस उद्योग से जोड़ने की जरूरत है।

२४--राज्य के कृषि योग्य जलवायु खनिज और मानव संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोंग से राज्य को स्टेटेनेबल डेपलपमेंन्ट की दिशा  दी जा सकती है।

------समाप्त ----





भाग-6-- कब तक हम एक रुपये किलो वाले चावल पर हमारे लोगों को परजीवी बना कर रखेंगे। कब तक लाल कार्ड , पीला कार्ड के सहारे राज्य को छोड़ेंगे। हम अपने राज्य को आत्मनिर्भर बनायें


                                                              भाग-6
आज राज्य की इस्थिति  का समीक्षा होनी चाहिए, साथ ही आने वाले समय के लिए  हमें तैयारी भी  करनी चाहिए
2011 के जनगणना के अनुसार राज्य की कुल आबादी 3,29,88,134 है।
राज्य का भौगालिक क्षेत्रफल-79,741 वर्ग किमी
झारखंड का क्षेत्रफल 79,714 वर्गकिमी हैं, यानी 7971400 हेक्टेयर है
इसमें लगभग 23 लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग जंगल  के लिए हो रहा है
6 लाख हेक्टेयर भूमिं खाली हैं
पहाड, पर्वतों के कारण 7 लाख हेक्टेयर भूमि में गैर कृर्षि कार्य हो रहे हैं अर्थात चरागाह, मकान, संडक, रेल, नदी, कारखाना, खान आदि हैं
27 लाख हेक्टेयर भूमिं बेकार, परती, चरागाह आदि के लिए है
41 लाख हेक्टेयर भूमिं कृर्षि योग्य है, इसमें 3.12 लाख हेक्टेयर बेकार पड़ी है
परती भूमि 19.58 लाख हेक्टेयर है तथा कुल 18.30 लाख हेक्टेयर भूमि बोई गयी भूमि है जिसमें लगातार फसल बोयी जाती है.
यहां यह स्पस्ट है कि झारखंड के क्षेत्रफल का आधा से अधिक याने 51.44 प्रतिशत
भूभाग  कृर्षि के योग्य है। किंन्तु संसाधन के आभाव में इसका संपुर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है, केवल 45 प्रतिश त याने 18.30 लाख हेक्टेयर में ही फसल बोयी जा रही है। षेश  55 प्रतिषत  कृर्षि के योग्य बेकार याने परती पड़ी है।
यहां समीक्षा करना है कि राज्य की आबादी के लिए अनाज का पैदवार कितना है? यदि खाद्यान का उत्पादन प्रयाप्त नहीं है, तो उत्पदान बढ़ाने का प्रयास होना चाहिए। जब हमारे पास जमीन है, पानी है साथ में मैनपावर भी है। तब कृषि योगय 19.58 लाख हेक्टेयर जमीन पर जो खली है पर भी खेती करने की जरूरत हें रज्य  में केवल 8 प्रतिशत सिंचित जमीन हे, तब सवाल है  कि बाकी असिंचित ़़क्षेत्र को सिंचित क्षेत्र में केसे बदल सकते हें यदि ऐसे संभव  होता है  तो राज्य  कृषि हब बन जायेगा , और  आनाज का बड़ा निर्यातक  भी  बन जायेगा।  जंहा तक सिंचाई सुबिधा का सवाल है , जब उद्योगों  के लिए १०० किलोमीटर दूर से पाईप लेने बिछा कर पानी का सेवास्था कर सकते है , तब किसानों के खेतों के लिए क्यों बेवस्था नहीं को  सकता है,. . कब तक हम एक रुपये किलो वाले चावल पर हमारे लोगों को परजीवी बना कर रखेंगे।  कब तक लाल कार्ड , पीला कार्ड के सहारे राज्य को छोड़ेंगे।  हम अपने राज्य को आत्मनिर्भर बनायें , ये दुखद बात है की राज्य की आधी आबादी बीपीएल (बिलो पॉवर्टी लाइन ) के रूप में पहचान दे रही है। 
शिक्चा , स्वास्त्य , और रोजगार के अस्तर को ऊपर उठाना होगा. राज्य में करोड़ों खनिज से रॉयल्टी आ रहा है।  पचासों विकास योजना केंद्र और राज्य सरकार की चल रही है, फिर भी राज्य आगे नहीं भाड़ रहा है, क्यों इसका जवाब शायद सबके पास है., राज्य में विकास का सबसे बड़ा बाधक भ्रस्टाचार है, भ्रस्टाचार जड़ जमा लिया है , इसको जब तक उखड नहीं फेकेंगे , राज्य और पीछा चला जायेगा।  
शेष भाग --७ में पढ़ें 

भाग-5--रोजगार की तलाश में पलायन करने वाले मेनपावर को अपने राज्य में सशत्क बना कर राज्य हित में उपयोग करने के लिए, आज तक कोई पोलिसि नहीं बना पाया है।


                                                                      भाग-5
अभी तो हमे सबक लेने का समय हे,--
 जो काम राज्य बनने के तुरंत बाद कर लेना चाहिए था। हमने नहीं किया, रोजगार की तलाश  में पलायन करने वाले मेनपावर को अपने  राज्य में सशत्क बना कर राज्य हित में उपयोग करने के लिए, आज तक कोई पोलिसि नहीं बना पाया है। लाॅकडाउन के कारण देश  के विभिन्न इलाकेां में फसे प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या , जो आज चैतरफा संकटों से घिरा हुआ है। एक तरफ महामारी से स्वंय को बचाने की चिंता, रोटो की चिंता, अपने परिवार वालों की चिुता, पैसे का अभाव। जहां काम कर रहे थे, लाॅकडाउन में सब खत्म हो गया। घर का किराया देने के लिए पैसा नही, आखिर एक ही रास्ता दिखा, पैदल ही चलकर किसी तरह अपने परिवार वालों के पास पहुंचना। पैदल ही निकल पड़े, कोई 200 किलो मीटर, कोई 600 किलो मीटर, कोई 1000 किलो मीटर तो कोई 2000 किलो मीटर, ...चलते चलते कई लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिये। रास्ते भूखे-प्यासे एक -एक कदम बढ़ाते रहे। कहीं पुलिस वाले प्यार से रोके, समझाये कि यहां रूक जाओ, तो कहीं उन लोगों को मार खाना पड़ा, मारा’-पीटा भी गया। पैरो में छले पड़े, कई लाख इसी हालात में घर पहुंच गये है, करीब दस लाख तक अभी भी राज्य से बाहर फंसे हुए हैं। शयद पहली बार हम सभों ने प्रवासी मजदूरों के बारे गहराई सोचा-समझा होगा।

राज्य से प्रवासी मजदूरों पलायन करना सिर्फ रोजगार का तलाश  करना नहीं है, बलिक झारखंड का मैनपावर पलायन कर रहा है। ये प्रवासी मजदूर, सिर्फ मजदूर नहीं हैं, यह हमारे राज्य को सजाने-संवारने वाले कस्तकार, और राज्य के निमार्ण करने वाले मजबूत पिलर हैं। ये अपनी क्षमता-दक्षता अनुसार विभिनन क्षेत्रों में अपनी सेवायें दे रहे हैं। याद है एक गीत-जब मैं छोटी थी तो, सुनती थी-रांची शाहर को कौन? कौन बनाया? सरकार नहीं बनाया, रेजा-कुली बनाया,.... सरकार नहीं बनाया...रेजा-कुली बनाया। प्ंजाब-हरियाणा के खेतो में दिन-रात सोना उपजाने वाले हमारे ही राज्य के बेटे-बेटियां, भाई-बहन हैं। जो रोटी की तलाश  में प्रवासी मजदूर बन कर गये हैं। विकास के नाम पर विकसित रियलस्टेट का व्यवसाय का रीढ हमारे ही प्रवासी भाई-बहन जो देश  भर के ईंट भठों में उनके खून-पसीना से सने ईटों से रियलस्टेट की इमारातें उंची की जाती हैं। जिंन्हें निर्माण मजदूर का दर्जा दिया गया है। देश  के हर इलाके में लघु उद्योग, कुटीर उद्योर, जुट मिल, कपड़ा मिल, से लेकर ईट भठा, पत्थर खदान, सहित सौंकड़ो छोटे-मझोले उद्योग, व्योपार इन्हीं मेनपावर के बदौलत देश  को अपनी सेवाये दे रहा है। प्रवासी मजदूर भले ये नीति निर्धारक नहीं हो सकते, लेकिन इस राज्य की तकदीर बदलने में अहम भूमिका निभा सकते  हैं। 

कोरोना से जंग लड़ने के लिए देश  की कमजोर  आर्थिक व्यवस्था, कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था के सहारे कोरोना हराना संभंव नहीं था। इसलिए इस जंग को जीतने के लिए देश  में लाॅकडाउन ही एम मात्र दवा है। लाॅकडाउन अचानक ही घोषित किया गया, इस कारण जो प्रवासी मजदूर बाहर जहां भी रोजगार करने गये हैं, उन्हें अपने राज्य तथा गांव-घरों में वापस आना संभव नहीं हो पाया। लाॅकडाउन को सफल करने के लिए सरकार ने सभी लोगों से अपील किया कि, जो जहां पर है, वो वहीं रूक जाये। लाॅकडाउन से बनी स्थिति में प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए राज्य सरकार, मीडिया, सामाजिक संगठन, गैर सरकारी संस्थाएं, प्रषासन, सहित सभी वर्ग आगे आये हैं। कोई इनकी खोज में हैं कि कौन कहां, किस हाल में है। काई लोग उन तक जरूरी सुविधाऐं पहुंचाने में लगा है। प्रशासन के साथ पूरी मेडिकल टीम भी इनके दुख-दर्द बांट रहे हैं। अमीर से लेकर गरीब सभी अपने भोजन का कुछ हिस्सा उन गों तक पहुंचाने में लगे हैं। इस संकट की घड़ी में जाति, धर्म, साप्रदाय और राजनीति से उपर उठकर मदद में हाथ बढ़ाये हैं। आज सच में मानव और मानवता के बीच मजबूत संबंध दिख रहा है। लेकिन क्या यह संबंध आगे तक इसी तरह रहेगी, अगर ऐसा होता तो निश्चित तौर  पर हमारा देश  और राज्य सामाजिक न्याय का नया बुनियाद खड़ा कर सकता है।
शेष भाग --६ में पढ़ें 

भाग-4 --अपनी धरती में कंगाल क्यों? रिच लैंण्ड़ पुवर पीपुल्स




                                        भाग-4
                          अपनी धरती में कंगाल क्यों?
जब अपनी ही धरती के सोना, हिरा, चांदी, लोहा, लौह अयस्क, अबरख जैसे खनिज से  पुजिपतियों और कारपोरेट घरानों का मुनाफा चैगुणा बढ रहा है, माफिया, दलाल मालेमाल हैं। दूसरी ओर खनिज सम्पदा के गर्भ से पैदा हुए आदिवासी मुलवासी किसान सबसे गरीब हैं। सेंटर  फाॅर साइंस ने अपने किताब में इनकी स्थिति को रिच लैंण्ड़ पुवर पीपुल्स की संग्या दी है। मानिंग कंपनियां विस्थापित प्रभावित आबादी के विकास के नाम पर डिस्ट्रीक मिनिरल फंण्ड में हर साल करोड़ो धनराशी  देती है, लेकिन इसका कितना लाभ उनलोगों तक पहुंच रही है, यह बड़ा सवाल है। साथ तमाम तरह के खनिजों का करोड़ों रोल्यटी मिलता है, सवाल है इसमें कितना प्रति त विस्थापितों को मिलता है, यह जांच का विषय है।

यदि प्रवासी मजदूरों के समस्याओं को स्थायी तौर हल करना है, तो वर्तमान सरकार को अग्राह है कि-राज्य को मिलने वाले डिस्ट्रीक मिनिरल फंण्ड, खनिज से प्रप्त लभांष/ रोल्यटी की राशी , आदिवासी सबप्लान की आबंटित राशि  जो मिला था, और इनका खर्च कहां-कहां किया गया, इसका स्वेतपत्र जारी करे। इसका एनालिशीश  हो, ताकि इसका लाभ, यहां के विस्थापित, पलायित प्रवासी मजदूरों को भी मिले।

प्रवासी मजदूरों की खोजखबर लेने का काम हर स्तर पर हो रहा है। सरकार ने 10 फोन नंबर दिये हैं, जिसमे बाहर फंसे मजदूरों से संपर्क करके अपनी पीड़ा साझा करने का अग्राह किया गया है। सरकार और जो लोग इस काम में लगें हैं वे हैरान और चिंचित भी हैं कि पलायन का आंकड़ा आदिवासी समुदाय का सबसे अधिक होता है। आदिवासी सबसे अधिक देश  भर के ईट भठों में पलायन किये है। पंजाब-हरियाणा में खेत मजदूर के रूप में झारखंड के आदिवासी भरे पडें है। पंजाब-हरियाया की खेती इन्हीं पर टिकी हुई है। गोवा, गुतरात, सूरत, बोम्बे, कर्नाटक, दिल्ली, उत्तरप्रदेश , हिमालय प्रदेश  जैसे राज्यों में हमेश  लोग पलायन कर जाते हैं। इन मजदुरों की पीड़ा का दस्तां हमेश  सामाजिक संगठन, मानव अधिकार संगठन उठाते रहे। लेकिन सत्ता के गलियारे में आवाज दबते रही है।

झारखंड अलग राज्य बनने के पहले से महिला संगठन, लेखक, राज्य के षुभ चिंतक राज्य से होने वाले महिलाओं का पलायन, आदिवासी लड़कियों को ट्राफिकिंग और उनके शोषण , दमन रोकने की मांग सभी सरकार चाहे राज्य सरकार या केंन्द्र सबसे किया गया। साथ में यह भी उठता रहा कि पंचायत स्तर पर तथा प्रखंड स्तर पर गांव से कहीं भी पलायन करने वालों की रजिस्टर बने, कहां, किसके साथ जा रहा है, रजिस्टर में दर्ज हो। एैसी व्यवस्था सरकारी स्तर पर होना चाहिए। ताकि प्रवासी लोग मानसिक, आर्थिक तथा शरीरिक शो षण-दमन का शिकार  नहीं हों। लेकिन यह मांग सामाजिक संगठनों का आंदोलन केवल बन कर रह गया। लिखित मांग कुड़ो के ढेर के साथ जला दिया गया। अलग राज्य बनने के तुरंत बाद मैं और वासवी जी एक वरिष्ठ राजनीतिक नेता के पास गये, चर्चा में था कि वही मुख्यमत्रीं बनेगे, हमदोनों पूछने के लिए गये थे-आप मुख्यमंत्री बनेगें तो राज्य से पलायन कर गयी है लड़कियां जिनका चैतरफा शोषण  होता है, उनको राज्य में क्या वापस लाने का काम करेगें, और उन्हें राज्य में ही रोजगार देने का व्यवस्था करेगें? इसके जवाब में माननीय ने जवाब दिये-यदि कोयलकारो डैम बांधने दोगे, तभी उन्हें वापस ला सकते हैं। आगे कहा-आप लोग तो डैम बनने ही नहीं देते हैं।
शेष भाग --५ में पढ़ें 

भाग-3-- जो जंगल हमें इस प्रकृति ने अपनी पूरी भव्यता में उपलब्ध कराएं हैं, वही नदियां, वही पहाड़ और जंगल क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसी भव्य रूप में उपलब्ध रह पाऐगें?

                                                                           भाग-3
औद्योगिकीकरण और पर्यावरण-
ग्लोबल वार्मिंग और paryawaran को लेकर आम जनता से लेकर देश  के नीति निर्देषक, सत्तासंचालक सभी समय समय पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। पर्यावरण  मेले में सेमिनार का उदघाटन करते मेघालय के राज्यपाल महामहिम गंगा प्रसाद ने कहा था-प्र्यावरण सिर्फ शहरों में सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह गांव और जंगलों तक पहुंच गया है। जीवों की संख्या में लगातार कमी आ रही है तथा कुछ जीव विलुप्त भी हो चुके है। औद्योगिक विकास के लिए देश  की जीडीपी अहम है-परंन्तु प्रदूषण जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

लाॅकडाउन के दौरान देश  भर के कलकारखाने, उद्वोग-धंधे, छोटे-बड़े सभी व्यसायिक प्रतिष्ठान एवं सभी सरकारी कार्यालय, ट्रांसपोट, रेलयात्रा सहित सभी तरह के परिवाहन बंद थे। इस कारण देश भर में वायु प्रदूषण, ध्वानी प्रदूषण, जलप्रदूषण सहित सभी स्तर के प्रदूषण कम हो गया। आकश  साफ नीला, शाम होते ही चांद और तारे आकाश  में चमकने लगे। सुबह होते ही निर्भयता पूर्वक चिडिंयों को चहचहाट से वातावरण गुंजने लगा। कई लोगों इस दौरान के वातावरण पर अपनी भावनाऐं अखबारों के माध्यम से, शोशल  मिडिया में साझा कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को पर्यावरणीय बदलाव के अपने अनुभव वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही सुनवाई के दौरान वकील से साझा  किए। उन्होंने कहा- लाॅकडाउन से पहले आमतौर पर वातावरण काफी प्रदूषित था। मगर अब ये बदल गया है। इतने सालों से दिल्ली में रहते हुए ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने रात में आसमान में बहुत सारे तारे देखे। घर के सामने गार्डन में मोरों  का झुंड भी चहकते देखा। यह सब दिल को छू लेने वाला अनुभव है।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंदजी ने अपने आलेख प्रकृति से हमें सिखने की जरूरत शीर्सक  में कई सवाल उठाये और इसका हल के तैार पर अपने सोच भी साझा किये-आगामी 2 अक्टूबर के दिन हम सब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाजे जा रहे हैं। यह एक राष्ट्रीय पर्व है। 2022 में हमारी आजादी की 75वीं वर्षगांठ भी एक राष्र्टीय पर्व के रूप में मनाई जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन महत्वपूर्ण अवसरों पर देश में अनेक सार्थक योजनाएं आरंभ की जाएंगी। 2047 में जब भारत की आजादी के 100 वर्ष पूरे होगें,  उस समय का भारत कैसा होगा? जब 2069 में हम गांधी जी की 200वां जयंती मना रहे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा?

हम लोग ही यह तय करेगें कि हजारो हजार वर्षों से जो नदियां, जो पहाड़ और हमारे पास आज इन प्रश्नो  के बहुत स्पष्ट उतर नहीं हैं। लेकिन सामजिक, बौद्विक, नैतिक और प्रकृति एवं पर्यावरण के क्षेत्रों में जो कुछ भी निवेश आज की पीढ़ी कर रही है, उसी पर हमारे इन सवालों का जवाब निर्भर है। हम लोग ही यह तय करेगें कि अगले 25 से 50 वर्षो में इस भारत का निर्माण करने वाले लोगों के पास कैसी  ताकत होगी, कैसी क्षमता होगी। जो भाग-3
औद्योगिकीकरण और पर्यावरण-ग्लोबल वार्मिंग और प्र्यावरण को लेकर आम जनता से लेकर देष के नीति निर्देषक, सत्तासंचालक सभी समय समय पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। प्र्यावरण मेले में सेमिनार का उदघाटन करते मेघालय के राज्यपाल महामहिम गंगा प्रसाद ने कहा था-प्र्यावरण सिर्फ षहरों में सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह गांव और जंगलों तक पहुंच गया है। जीवों की संख्या में लगातार कमी आ रही है तथा कुछ जीव विलुप्त भी हो चुके है। औद्योगिक विकास के लिए देष की जीडीपी अहम है-परंन्तु प्रदूषण जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

लाॅकडाउन के दौरान देष भर के कलकारखाने, उद्वोग-धंधे, छोटे-बड़े सभी व्यसायिक प्रतिष्ठान एवं सभी सरकारी कार्यालय, ट्रांसपोट, रेलयात्रा सहित सभी तरह के परिवाहन बंद थे। इस कारण देष भर में वायु प्रदूषण, ध्वानी प्रदूषण, जलप्रदूषण सहित सभी स्तर के प्रदूषण कम हो गया। आकाष साफ नीला, षाम होते ही चांद और तारे आकाष में चमकने लगे। सुबह होते ही निर्भयता पूर्वक चिडिंयों को चहचहाट से वातावरण गुंजने लगा। कई लोगों इस दौरान के वातावरण पर अपनी भावनाऐं अखबारों के माध्यम से, षोषल मिडिया में साझा कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सोमवार को पर्यावरणीय बदलाव के अपने अनुभव वीडियो काॅन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही सुनवाई के दौरान वकील से साझ किए। उन्होंने कहा- लाॅकडाउन से पहले आमतौर पर वातावरण काफी प्रदूषित था। मगर अब ये बदल गया है। इतने सालों से दिल्ली में रहते हुए ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने रात में आसमान में बहुत सारे तारे देखे। घर के सामने गार्डन में मोरों  का झुंड भी चहकते देखा। यह सब दिल को छू लेने वाला अनुभव है।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंदजी ने अपने आलेख प्रकृति से हमें सिखने की जरूरत षिरसक में कई सवाल उठाये और इसका हल के तैार पर अपने सोच भी साझा किये-आगामी 2 अक्टूबर के दिन हमस ब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाजे जा रहे हैं। यह एक राष्ट्रीय पर्व है। 2022 में हमारी आजादी की 75वीं वर्षगांठ भी एक राष्र्टीय पर्व के रूप में मनाई जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन महत्वपूर्ण अवसरों पर देश में अनेक सार्थक योजनाएं आरंभ की जाएंगी। 2047 में जब भारत की आजादी के 100 वर्ष पूरे होगें,  उस समय का भारत कैसा होगा? जब 2069 में हम गांधी जी की 200वां जयंती मना रहे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा?
हम लोग ही यह तय करेगें कि हजारो हजार वर्षों से जो नदियां, जो पहाड़ और हमारे पास आज इन प्रष्नों के बहुत स्पष्ट उतर नहीं हैं। लेकिन सामजिक, बौद्विक, नैतिक और प्रकृति एवं पर्यावरण के क्षेत्रों में जो कुछ भी निवेष आज की पीढ़ी कर रही है, उसी पर हमारे इन सवालों का जवाब निर्भर है। हम लोग ही यह तय करेगें कि अगले 25 से 50 वर्षो में इस भारत का निर्माण करने वाले लोगों के पास सैसी ताकत होगी, कैसी क्षमता होगी। जो जंगल हमें इस प्रकृति ने अपनी पूरी भव्यता में उपलब्ध कराएं हैं, वही नदियां, वही पहाड़ और जंगल क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसी भव्य रूप में उपलब्ध रह पाऐगें?

यह वन बिल्कुल उसी तरह हमारी देख -भाल करता है जैसे कोई मां अपनी संतान की भरण-पोषण करती है। प्रकृति हमें प्यार करती है और हम उसे प्यार करते हैं।

कभी कभी एैसा भी होता है कि किसी साधारण सी यात्रा में भी कोई बड़ा विचार पनप जाता है। यहां आकर अनेकों विचार मेरे मन में आए। मैंने सोचा कि यह धरती मां कितनी अच्छी तरह से हमारा पोषण करती है। लेकिन हम इसके पोषण के लिए क्या करते हैं? हम इसके लिए क्या कर सकते हैं? अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि यह प्रकृति एक संसाधन के रूप में, स्त्रोत के रूप में, मित्र के रूप में हमारी आने वाली पीढ़ियों को उपलब्ध रहे, तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या आने वाली पीढ़ियों के प्रति, अपनी संतति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का एकसास है या नहीं?

यह वन बिल्कुल उसी तरह हमारी देख -भाल करता है जैसे कोई मां अपनी संतान की भरण-पोषण करती है। प्रकृति हमें प्यार करती है और हम उसे प्यार करते हैं।

कभी कभी एैसा भी होता है कि किसी साधारण सी यात्रा में भी कोई बड़ा विचार पनप जाता है। यहां आकर अनेकों विचार मेरे मन में आए। मैंने सोचा कि यह धरती मां कितनी अच्छी तरह से हमारा पोषण करती है। लेकिन हम इसके पोषण के लिए क्या करते हैं? हम इसके लिए क्या कर सकते हैं? अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि यह प्रकृति एक संसाधन के रूप में, स्त्रोत के रूप में, मित्र के रूप में हमारी आने वाली पीढ़ियों को उपलब्ध रहे, तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? क्या आने वाली पीढ़ियों के प्रति, अपनी संतति के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का एकसास है या नहीं?
शेष भाग --४ में पढ़ें 

भाग-2-- औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी हो गये

                                                             भाग-2
 हम विकास के जितने भी उंचाई पर पहंच जाएं, फिर भी मनुष्य को जीवित रहने के लिए मानव सभ्यता और विकास के पाषण युग के अर्थव्यस्था मे जीने का जो परिभाषा था रोटी, कपड़ा और मकान, आज के विकसित अर्थव्यस्था में भी मनुष्य को जिंदा रहने के लिए इसकी निहायत आवशयकता  है। पूरे जीव मंडल के लिए भोजन, हवा, पानी जरूरी है। हमें इतिहास के उन तथ्यों एवं घटनाक्रम को नहीं भुलना चाहिए, जहां से हमने चलना शुरू किया था। आज आदिवासी सामूदाय के जंगल-जमीन को आबाद करने और इसे बचाये रखने के संघर्ष के इतिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। जंल-जंगल-जमीन -पर्यावरण के साथ समाज का ताना-बाना आधारित जीवनशैली  ही  बिश्वा  को दिशा  दे सकता है। चाहे हम उसे पाषाण युग का दंतकथा ही क्यों न मान लें। प्रकृति का अपना जीवन शैली, ज्ञान-विज्ञान है।  उसे हम रोकेगें, छेड़ेगे, दबायेगें, तो वह अपना प्रतिक्रिया देगा ही चाहे वह जिस भी रूप में हो। चाहे वह प्रकृतिक अपदा हो या महामारी हो।

आदिवासी-मूलवासी किसान सामूदाय के पूर्वजों ने सांप-बिच्छू, बाघ-भालू जैसे खतरनाक जानवरों से लड़कर इस झारखंड राज्य की धरती को आबाद किया है। इतिहास गवाह है-कि जब अंग्रेजों के हुकूमत में देश  गुलाम था और आजादी के लिए देश  छटपटा रहा था, तब आदिवासी समुदाय के वीर नायकों तिलका मांझी सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, सिंदराय-बिंदराय, से लेकर वीर बिरसा मुंडा के अगुवाई में देश  के मुक्ति संग्राम में अपनी शहादत दी। इन्हीं वीर नायकों के खून से आदिवासी-मूलवासियों के धरोहर जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए ‘‘ छोटानागपुर  कास्तकारी  अधिनियम 1908’’ और ‘‘संताल परगना कास्तकारी  अधिनियम 1949’’ लागू किया गया। जो राज्य के आदिवासी-मूलवासी समुदाय के परंपरागत धरोहर जल-जंगल-जमीन का सुरक्षा कवच है।

झारखंड राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आता है।  यहां के 32 अनुसूचित जनजाति समूह और 22 अनूसूचित जाति समूह हैं। इस आदिवासी-मूलवासी समुदाय को जल, जंगल,जमीन की रक्षा, सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक, भाषा-संस्कृति की रक्षा, शैक्षणिक विकास, स्वस्थ्य की रक्षा एव विकास, सरकारी सेवाओं सहित अन्य सेवाकार्यों में भी  विशेष आरक्षण का अधिकार प्राप्त है। ताकि यहां के 32 आदिवासी एवं 22 मूलवासी किसान समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्तर पर भी सक्षम हों।
 
भारतीय संविधान ने हम आदिवासी-मूलवासी ग्रामीण किसान समुदाय को पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में गांव के सीमा के भीतर एवं गांव के बाहर जंगल-झाड़, बालू-गिटी, तथा एक -एक इंच जमीन पर, ग्रामीणों को मालिकाना हक दिया है। यहां के माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरस्ट प्रोडक्ट पर भी ग्राम सभा का अधिकार है।

आजादी के पहले से ही देश  विकास के नाम पर यहां के स्थानीय भूमि मालिकों से जगल, जमीन जबरन छीनने का काम शुरू हुआ है। कई जगहों में स्थानीय लोगों ने विकास के लिए जमीन देने में कोई दिक्कत नहीं किया। 1907 में देश  के स्टील की जरूरत की पूर्ति करना था, तो टाटा कंपनी को जमशेदपुर में आदिवासी-मूलवासी किसानों ने जमीन दी। इसके साथ ही राज्य में कई उद्योग शुरू किये गये। यहां से विकास वनाम विस्थापन   की  त्रास्दी का इतिहास शुरू होता है.  आजादी के बाद तो  झारखंड में उद्योगों का जाल विछा दिया गया। हटिया में एचईसी, बोकारो स्टील प्लांट, तेनुघाट डैम, ताप विद्युत तेनुघाट, चंन्द्रपुरा, बारूद करखाना, कोयला खदानें-सीसीएल, बीसीसीएल, ईसीएल, अयर ओर माइंस, बाॅक्ससाइट मांइस, अबरख, डोलामाइट, चूना पत्थर, माइगनेट जैसे सैकड़ों तरह के खान-खनिजों के उद्योग खोले गये हैं।

 अनुमान के अनुसार झारखंड में 40 हजार से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चल रहे हैं। सोंकड़ों वृहद उदोग धंधे चल रहे हें देश  के खनिज का 46 प्रतिशत भाग राज्य से देश  को मिलता है। केवल कोयला उद्योग द्वारा कोयला कंपनियां 67,218 हेक्टेयर जमीन से कोयला निकाल रहे हैं। यह आंकड़ा सिर्फ खदानों में गयी जमीन की है , शहरीकरण, रोड , सहित अन्य बुनियादी बेवस्था की लिए गयी जमीन का कोई हिसाब नहीं है।  आजादी के बाद विभिन्न औद्योगों द्वारा 20 लाख से अधिक जमीन ले लिया गया। विस्थापन की बात करें तो 80 लाख से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है। इन विस्थापितों में से 10-15 प्रतिशत को ही नौकर मिल पायी है, या तो पूर्नासित किया गया है। बाकि दो जून की रोटी , रहने के लिए झोपडी के लिए दर दर भटक रहे हैं।

सारांडा जंगल 82,000 हेक्टेयर पर फैला है, जहां से करोड़ो का लौह अयस्क का खनन होता है। शह कमिशन के अनुसार 22,000 करोड़ लौह अयस्क का खान गैर कानूनी तरीके से चलता है। खनिज के उत्खनन की वजह से उस क्षेत्र का कृर्षि प्रभावित होता है। जलस्त्रोत प्रदूषित हो गये, नदी-झील, झरना सहित सभी तरह के जलस्त्रोत मर गये। वायु प्रदूषण के हर साल बच्चे से लेकर हर उम्र के लोग कैंसर आदि से हजारों बेमौत मर रहे हैं। विस्थापित-प्रभावित रोजी-रोटी के लिए दर-दर फटक रहे हैं। जमीन-जंगल के मालिक बंधुवा मजदूर, कुली, रेजा, जुठन धानी वाली आया, रिक्सा चालक बन कर जिंदगी काट रहे हैं। न रहने के लिए घर है न दो जून की रोटी। बड़ी संख्या में राज्य से बाहर जाकर गुजर बसर कर रहे है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी  हो गये

 झारखरण्ड के लिए बिडम्ना हैं की अनुसूचित जनजाति से  केवल 1206 लोग ही उद्यामी हैं
-राज्य के लिए दुभग्य की बात है कि प्रकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राज्य में आदिवासी, दलित, मजदूर और मेहनतकाश  आबादी को व्यवसाय के क्षेत्र में जोड़ नहीं पाये हैं।  ताकि आदिवासी, दलित सामूदाय का आर्थिक सशक्तिकरण करके बाजार में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित  किया जा सकता था। व्यवसाय के क्षेत्र में आदिवासी समुदाय की भागीदारी-झारखड में 3.29 करोड़ आबादी में अनुसूचित जाति और जनजाति के केवल 1,206 लोग ही उद्यामी हैं। ये लोग हैं जो जिला उद्योग केंन्द्रो में निबंधित है तथा प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के तहत लोग लोन लेकर अपना व्यवसाय या उद्योग (कुटीर उद्योग) चला रहे हैं। जब कि राज्य भर में 97,998 उद्यामी निबंधित हैं।
शेष भाग --३ में पढ़ें 

भाग --१-- हम भूल जा रहे है कि हम चांद के साथ कई और उपग्रहों पर भी अधिपत्य जमा लें, लेकिन जिंदा रहने के लिए आॅक्सीजन तो चाहिए , और ऑक्सीजन पेड़ -पौधों ,जंगल -झाड़ और प्रकृति से ही मिल सकता है ।

                                               भाग --१
आज हम विकास कि जिन उंचाई पर खड़े है, एक आम आदमी समझ भी नहीं सकता है। बैश्विक  विकास के प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हम जिंदगी के अस्तित्व के ताना को भी रैंद डाल रहे रहें है। हम भूल जा रहे है कि हम चांद के साथ कई और उपग्रहों पर भी अधिपत्य जमा लें, लेकिन जिंदा रहने के लिए आॅक्सीजन तो चाहिए , और ऑक्सीजन पेड़ -पौधों ,जंगल -झाड़ और प्रकृति से ही मिल सकता है । भूख मिटाने के लिए कुछ समय तक भोजन के सबसीटीयूट से भूख  शांत कर सकते हैं, पानी के प्यास को किसी कृत्रिम पेय पदार्थ से प्यास बुझा सकते हैं। लेकिन सवाल है इससे कब तक स्वस्थय और जीवित रह सकते हैं।

आज विकास के जो मोडल अपना कर हम प्रकृति-पर्यावरण, का सेहत बिगाड़ कर, विगड़े मौसम, बिगड़े पर्यावरण और सेहत को बिगाड़े ,अब इससे फिर से ठीक करने के लिए चिंतित हैं। इस बिगड़े पर्यावरण की सेहत के साथ अपनी सेहत को सुधारने के लिए हम अपने जीवन शेेली को बदलने का राह तलाशने में जुटें है। अब सब चाहते हैं सबस्टेनिबल डवलपमेंट के साथ ओरगेनिक भोजन वस्तु मिले। ऑर्गेनिक भोजन के साथ हम स्वास्थ्य रहें।

 आज जब पुरी दुनिया बैश्विक  कोवोट-19 के महामारी से तबाह है। बिश्वा  के ताकातवर देश , अमेरिका, स्पेन, इटली, इग्लैंण्ड, फ्रांच, चीन, जर्मर्नी, रूस, बेलजियम, ईरान, तुर्की सबको कोरोना महामारी ने घुटनों में ला दिया है। बिश्व  को आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक तौर पर नियंत्रित करने वाले देशों  के राजसत्ता की ताकत, पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के वैश्विक  आर्थिक ताकत तथा विज्ञानिकों की बैद्विक ताकत भी कोरोना महामारी के सामने अपने को लाचार महसूह कर रहा है।

महामारी ताकतवर देश  के प्रधानमंत्री आवास, भारत के राष्ट्रपति आवास से लेकर बिश्वा के अमीर, पूंजिपति और गरीब वर्ग किसी को नहीं छोड़ा। विकास की वैश्विक  ताकत भी महामारी को रोकने में कमजोर ही दिख रहा है। प्रतिदिन हजारों लोग महामारी का शिकार हो रहे हैु., महामारी का मौत प्रतिदिन हजारों लोगों को निगल जा रहा है। महामारी के कारणों का भी पता लगाने में वैश्विक  ताकत के भी पसीने छूट रहे हैं।

 आज सभी ग्लोबल है। देश  की आर्थव्यस्था ग्लोबल, देश  की बाजार व्यवस्था ग्लोबल, देश  की पूंजी व्यवस्था ग्लोबल, शिक्षा, स्वस्थ्य व्यवस्था सभी ग्लोबल है,हमारी सोच भी गलोबल हो चुकी हे। इसी से जुड़ा कोरोना महामारी भी ग्लोबल व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। हैरानी की बात तो यह है कि-कोरोना महामारी के पहले हमेशा  पूरा वबिश्वा  दावा करता था कि, आज कोई  भी बीमारी लालईलाज नहीं है। दावा था-जितना तरह का बीमारी, उतने तरह के दवाओं  और  इलाजों को इजाद किया जा रहा है। लेकिन कोरोना महामारी के लिए कोई भी देश  इलाज के लिए न दवा, न वैक्शीण  इजाद करने में अपनी लचारी जाहिर कर रहा है। खबरें मिलती है-इसके लिए बैक्सीन  तैयार करने में अभी  दो साल लग जाएगा।
शेष भाग -२ में पढ़ें 

Monday, April 6, 2020

मनुष्य और प्रकृति के बीच भी सामंजस्य था-यही प्रकृति और पर्यावरण का वयरस हमें सभी महामारियों से लड़ने की समार्थ देता था।

पहले हम प्रकृति के बहुत निकट थे तब क्या उस समय उन जंगली जीव-जंन्तु, कीडे मकोडों में वयरस नहीं था? निश्चित  तौर पर था, लेकिन प्रकृति ओर पर्यावरण के बीच सामंजस्य था, मनुष्य और प्रकृति के बीच भी सामंजस्य था-यही प्रकृति और पर्यावरण का वयरस हमें सभी महामारियों से लड़ने की समार्थ देता था। 

आज देश  ओर बिश्वा  विषेश  संकट के दौर  से गुजर रहा है। एक एैसा संकट जिनकी कल्पना कभी हम लोगों ने नहीं किया होगा। देश  विकास की जिन उंचाई पर पहुंचा है, ग्लोबल दुनिया, ग्लोबल बाजार, ग्लोबल पूंजी, ग्लोबल पूंजी बाजार,  ग्लोबल वारमिंग, ग्लोबल इकोनोमि, ग्लोबल पोलिसी, अब ग्लोबल महामरी याने कोरोना। इस ग्लोबल पूंजी बाजार ने मुनाफा से पूरी प्रकृति, पर्यांवरण ओर मानव सभ्यता को तौल रहा है।  ग्लोबल पुंजी बाजार में मुनाफा के सामने प्रकृति, पर्यांवरण ओर मानव जीवन कमजोर पड़ता जा रहा है।  परिणाम सामने हे-गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी। दुनिया में विकास की इतनी तेज रफतार हे कि प्रकृति ने अपनी गति और अपनी नीयती ही बदल दी। यही नहीं प्रकृति ने अपनी दिशा  और दशा   भी बदल दिया है । जहां पहले घनघोर, बीहड जंगल था, हरियाली से ढंके पहाड थे, इठलाती कलकल करती नदियां बहती थी। अगहन महिना में दूर-दूर तक खेतों में धान की बालियां झुमती थी, गेंहू, मटर, ज्वार, बजरा, सभी तरह के पत्तेदार साग-सबजियों से किसानों के खेत हरियाली से पटा होता था।ं, उस समय जंगल के बाघ, भालू, बंदर, हाथी, सियार, भेडी, आदि के साथ प्रकृतिकमूलक आदिवासी मूलवासी सामुदाय के साथ  के दोस्ताना रिस्ता था।


 जंगल के बीच, पहाड़ की ढ़लानों में, नदी के किनारेे, खेत-टांड के बीच रचे-बसे गांव को इन जंगली जनवसरों से खतरा नहीं था। प्रकृति और प्र्यावरण के साथ रचे-बसे आदिवासी किसानों के जीवनशैली के जंगली जानवर बाघ, भालू, बंदर, लंगूर यहां तक कि सांप, बिच्छुओं के साथ खास संबंध था। सामाज के लो जानते थे कि इनका निवास स्थान कहां है, उनका आने-जाने का रास्ता किधर है, उनके निकलने, आने-जाने का समय भी जानते थे। उसी हिसाब से लोग ने भी अपनी गतिविधयां तय करते थे। लोग जानते थे कि यदि आप उन्हें छेडेंगें नही तो वह आप को कोई हानि नहीं पहुंचायगा। यही कारण है कि आज भी बिश्वा  भर में आदिवासी -मूलवासी सामाज जंगलो में ही बास करता है। और भी वहीं सुरक्षित भी है, जहां आदिवासी-मूलवासी समुदाय रहता है। 
ये जानवर हमेशा  गांवों के किनारे खेतों खलिहान में चरने आते थे। गांव के मिटटी के घरों के दिवाल, खपरैले बांस- बली से छरे खैपरेले घरो  के छतों के बांस के फोंफी से छोटे भादूल शाम होते फूर फूर उड़ कर निकलते। तेजी से उड़ते हुए मच्छड़ों का शिकार करते, साथ ही उड़ते छोटे छोटे कीड़ों का शिकार करता है। घरों में चूहा,, मुसा, चुयिाटा  , उछल-कूद करते रहते।  मिटटी की दिवालों पर छिपकली चिपका अपने शिकार की तलाश  में निहारते रहता। छोटे छोटेे उड़ते किड़ों, मकड़ो को अपने जीभ से लपेट लेता,। 




प्रकृतिकमूलक आदिवासी मूलवासी समुदाय के पूर्वंजों ने प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए गांव बसाने का काम किया। अपना परंगरात तकनीकी था। गांव पेड़ पौधों के झुरमुट के बीच बसा होता है। अधिकांश  आदिवासी गांव में इमली के पेड़ अधिकांश  मिलता है। गांव का अखड़ा  के पास दो- तीन इमली पेड़ होता ही है, जो पूरी तरह छायादार होता है। जहां आदिवासी हर पर्व त्योहार का पूजा रस्म पूरा करते है। यहीं पूरा गांव के महिला, युवा वर्ग एवं बच्चा बुजूर्ग सामूहिक रूप से नाचते गाते है। पहले कोई गांव का बैठक होता था तो, लोग अखड़ा में ही बैठते थे। कई गांवों के इमली पेड़ में भादुल परमानेंट पचास-साठ वर्षों से रहते आ रहे हैं।  इमली पेड़ के सभी टहनीयों पर, पैर के नखून से लटके रहते है।ं दिन को नीचे सिर करके अपने मुलायम लाएलुन कपड़ानुमा पंख से अपने शरीर को ढंके  टहनी पर लटके सोते रहते हैं। शाम होेते ही भोजन की खोज पेड़ से उड़ कर दूर चले जाते हैं।, अहले सुबह भोर होने के पहले ही वापस पेड़ पर आ जाते है।, सुबह चार-पांच बजते जोर से चेंचेंचेचेंचें चें चें की सामूहिक आवाज देर तक करते हें। कभी कभी दिन को भी चेंचेंचेंचेंचें हला करते हें। गांव वाले भादूलों को गांव शोभा और शुभ मानते हें यही करण हे गांव वाले मारने नहीं देते है।ं भादूल फलाहारी  होते हें। फलों और पत्तों का रस चूसते है। फलों की खोज में दूर दूर चले जाते हें, आम, बेर, महुंआ, डोरो, कुसुम, बर, डूमर, पिपल, सिमिज हेसआ, केंउद, अमरूद, पपिता आदि खाता है। जब फल नहीं मिलता है-तब आम  पत्ता, जितिया पत्ता, आदि पेड़ों के पत्तों को खाते और उसका रस पीते हैं। ये रात के समय तालाब से या झील आदि से पानी पीते  हैं. जब भादुल किसानों के फलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हें तो गांव वाले उसे जाल डाल कर रोकने की कोशीश  करते हैं।  पेड़ के नजदिक पत्ला धागा का बना जाल पेंडों पर या उंचा उंचा बांस गाड कर जाल लगा देते हें जाल में फंस जाने पर भादुल को लोग मार कर खाते हैं। पका कोई फल पेड़ से गिरा हुआ है और वह कुतरा हुआ है तो यह अनुमान लगा लेते हें कि इसको भादुल या गिलहरी खाया है। उस कुदरा फल को लोग प्यार से खा लेते हैं, और कहते है-चिडिंया, भादुल ओर गिलहारी खाया , या कुतरा फल बहुत मीठा लगता है। आज भी गांव के लोग एैसा मानते और करते हें।
 गांव में मुसा तीन तरह का होता हैं, एक घर में रहने वाला, दूसरा टांड या झाडी में रहने वाला और तीसरा खेत में रहने वाला। ये सभी मुसा अनाज, फल आदि खाते हैं ये सडा-गला, मेला आदि भी खाते है। घर में रहने वाला किसानों के घरों में घरे आनाज आदि चोरी कर खाते हैं। खेत -टांड में रहने वाला मुसा खेत से ही धान, मंडुवा, उरद, मकाई, गंगाई, ज्वार, बजरा आदि फसलों की बालियां काट कर अपने बिल में घुसा लेते हैं। इन तीनों तरह के मुसा का जो खाना पंसद करते है, मार कर हमेशा  खाते है।  सियार प्रया सभी जगहों में रहते हे, चाहे वह जंगल इलाका हो या फिर जंगल विहीन इलाका। सियार शाम होते ही अपने गुफा से बाहर निकल कर हुंआए हुंआए हुंआए करने लगता हे। सियार रात के अंधेरे में भी अहार खोजने निकलता है और दिन को भी मोका देखकर चरते भेड़-बकरी, मुगी, चंगेना उठा कर भाग जाते हें। जब सियार बकरी को भगा लेता हे ,बकरी को मार खाता है। यदि सियार षिकार किये बकरी को खा कर खत्म नहीं कर पाता है, ओैर यदि किसी व्यक्ति को मरा बकरी मिल जाता है, तो उसको लोग पका कर खा जाते हें। 


आदिवासी गांव पेड़ों के झुड के बीच बसा होता हैं गांव के भीतर, बाहर चारों तरफ सोंकड़ों तरह के पेड़ होते हें। बांस बखोड, आम, लीची, इमली, कटहल, अमरूद, कोयनार, कचनार, बेर, बेल, गम्हर, डाहू, पपीता, गोलाईची, मुनगा, मुनगी, पुटकल, करंज, सरला, मठा, सरीफा आदि पेड़ भरे मिलेगें।  इन पेड़ो में उलू, बगुला, मेना, गेंरवां, पंडकी, फिकोड़, तोता, कटफोडवा, हुदहुद सभी चिडिंया बास करते हें। आदिवासी समाज इन जानवरों, चिडियों के बोलने, रोने की लाय-भाषा को संवाद मानते हैं।ं उलु अमुमन रोता हे तो...खेररररर....खेरररररररररर की आवाज करता हें। लेकिन जब वह कोगज...कोगज की आवाज करता है...तो गांव के लोग इसे गोज पेचा याने उलु का रोना कहते हैं जिससे अपसगून मानते हैं, कहते हैं..कहीं किसी के साथ बुरा हो सकता है। सियार रोता है तो हुंआए हुंआएए आवाज निकालाता है। लेकिन जब वह फेयोयो....फेयोयो...आवाज निकालता है...तो गांव के लोग कहते हैं-फेकाइर रो रहा है इसके रोना को गांव के लिए बुरा खबर माना जाता है
पहले जंगल इलाके में घनघोर जंगल था।ं जंगल में हर तरह के पेड़ पौधा, जंगली घांस, फूल-पत्ता मिलता था, जो जंगली जानवरों के वासस्थली के साथ इसी से भोजन उपलब्ध होता था। जंगली केला, बरगद, पिपल भी मिलता था। उस समय बारिष भी बहुत होती थीं। पहाडी इलाका या जंगली इलका हो पहले हाथी गांव में नहीं आता था। गांव का फसल भी आज की तुलना में कम ही नष्ट करता था। पहाडी और जंगली इलाके में टांड के गंगाई, मकाइ बोदी, गोंदली, बदाम, शकरकंदा को भालू, बंदर, लंगूर और हिरन खाते थे, फसल की रक्षा गांव वाले करते थे, साथ ही इनका शिकार भी करते थे।  जानवरों के नहाने, पीने के लिए झील, झरना, नदी, नाला में पानी उपलब्ध होता था।
जंगल-पहाड़ों के बीचं, नदी, झील, झरनों की तराईयों में प्रकृति साथ जीने वाले आदिवासी समुदाय जिंदगी खेती-बारी, जंगली फूल, पत्ता, फल, आम, इमली सहित तमाम तरह के फूल-फल पर ही टिका हुआ था और आज भी इसी पर निर्भर है। भोजन के रूप में जंगल के पत्ता, फूल-फलों को उपयोग करते हैं और जब बीमार होते हैं तो भी इससे ही दवा-दारू के रूप में उपयोग करते है। केवल सेवन विधि अलग होता है। ये अजीब सी बात है जिसको जंगली जानवर खाते-पीते हैं, उसे मनुष्य भी उपयोग करते थे और करते हैं। तब आज की तरह उसमें वयरस नहीे होता था क्या? 
आज सब बदल गयां, हरयाली ओढे जंगल पहाड़ अब कोयला माइंस, अबरख माइंस, यूरेनियम माइंस, बोक्साइड माइंस, अयरआरे माइंस में तबदील हो गयां। जंगल-झाड, हरियाली खेत टांड बडे बडे डैेम के पानी में जलमगन हो गया हजारों किस्म का आनाज दा करनी वाली धरती कलकारखानों, उद्योंगो, चकाचोंध षहरों और महानगरों में तब्दील हो गया। तलाब, नदी, झील, झरना, गायव हो गयें, पेड कट कर खत्म कर दिया गया। जंगल खत्म हो गया। विकास की संडकें जगलों को उजाडते, पहाड़ों को भेदते गांव गांव तक पहुंच गया।  अब गांव गांव से प्रकृतिक संषाधनों को इसी संडक से ढोया जा रहा हे। जंगल मरूभूमि में बदल गया। नदी, झील, झरना मर गया। अब जंगल में मोर भी नहीं नाचता। अब बारिष भी समय से नहीं, कभी अति वृष्टि तो कभी अनावृष्टि , गर्मी में 45 डिग्री तापमान, तो  बरसात में भी गर्मी पचास डिग्री तापमान। प्रकृति की बदली गति और नीति-नीयती को हम विकसित शब्दों में शायद ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। 






ग्लोबल वार्मिंग शब्द को अविकसित गांव के लोग नहीं समझ सकते हैं। हां पहले जनवरी -फरवरी माह आते लोग पेड-पौधों के पत्ते झड़ने लगते, जंगल के सभी पेड़ पुराने पत्तों को फरवरी-मार्चं के अंत तक गिरा देते हैं। सिर्फं खजूर का पेड़ से पत्ते झड़ते नहीं हैं ं। जंगल-झाड का दृष्य बदलने लगता। नये कोंपले निकलता, लाल, हरा, बैगनी, नीला, दुधिया सफेद, हल्का भूरा, हल्का पीला, परपल कोंपले और फूल -पत्ते मन को अनायास ही अपने कब्जे में कर लेता। पेड से पते झडने लगते तो, समझ जाते थे, यह पतझड ऋतु है। इसके बाद बसंत आयेगा, बंसंत के बाद गर्मी और गर्मी के बाद बरसात और जाड़ा।  र्प्रकृति के बदलते दृशय को देख समझ जाते  कि अब बसंत ऋतु आ गया है। आम के पेड़ में दुधिया सफेद मंजरी, हल्का भूरा मंजरियों में मंड़राते मधु मकखी, भोरें, आम के पत्तों में मंजरी के रसों में हनाया चमकती, चिपचिपाती पत्ते जिंदगी में हर पल जीवन रस का अहयसय कराता है। जंगल में कुसुम, जमुन पेड़ में लाल नये कोमल पत्ते, प्लास के लाल फूल, महुआ और चार के पेड़ों में हल्के भूर कोमल पत्ते, ढेलकंटा के झाड़ी में सफेद दुधिया फूल, साल के पेड़ो में हल्की लाल कोमल पत्तों के चादर से ढंका झारखंड का जंगल-पहाड़ बसंत के आगमन का अहसास कराते हैें। प्रकृति के इस नवजीबन के साथ ही आदिवासी समाज प्रकृतिक त्योहार सरहूल की तैयारी करते हें । गांव गांव में बा परब, खदी, सरहूल की तैयारी में हर रात अखड़ा में मंदर की थाप के साथ जादूर नाच- गीत से गांव सरहूलमय हो जाता हें । खूंटी से पूरव मुंण्डा गांवों में जादूर नाच और गीत ढोलक की थाप पर थिरकते हैं। 
सच्चाइ है पहले हमलोग प्रकृति के ज्यादा निकट थे, पर्यांवरण के साथ हमारा गहरा संबंध था। प्रकृति से हम उतना ही लेते थे जितना हमे जरूरत हे, और हम जितना प्रकृति से लिये, प्रकृति को उसे दूना देने की कोशीश  भी किये।, लेकिन आज केवल हम उनसे ले रहे हें, प्रकृति को कुछ भी नहीं दे रहे हैं।  प्रकृति और पर्यावरण के साथ हम मनुष्यों का यह बड़ा अपराध है।  

जैसे जैसे देश  का जीएसटी बढाने जा रहे हैंे, देश  की अर्थव्यवस्थ मजबूत करने के लिए आजादी के बाद देश  को संचालित करने के लिए भारतीय संविधान में पावधान देशी  कानून को तोड़ कर दुनिया के बाजार के हिसाब से कानून में संषोधन किया जा रहा हें। अब देश  के किसानों के लिए भारतीय संविधान में जो पावधान थे को अंतराष्टीय कानून के साथ जोड़ा जा रहा है। अब भारतीय कृषि  नीति नही्, राष्र्टीय कृषि नीति कहलाएगा। अब सभी कानून अंतराष्टीय बाजार के हिसाब से होगां शिक्षा नीति, स्वस्थय नीति, सहित जिंदगी की तमाम सेवाएं सरकार नहीं अब  नीजि उद्योग घरानों के हाथों होगां। नीजि उद्योग घरानों का पहला लक्ष्य-मुनाफा कामना होगा। मुनफा कमाने के होड़ में रोजगार ओर सामाजिक संबंध के बीच कोई मानवीयता संबंध नहीं रह गयां। उत्पादन और गुणवता बढ़ाना हे तो मशीनीकरण का इतेमाल  को प्रथमिकता दिया जा रहा है।






विकास के रास्ते आज हम यहां पहुंच गये हे, कि जंगली जानवरों के रहने के लिए जंगल सुरक्षित नहीं है, न ही जंगल में जानवरों के लिए भोजन, पानी मिल रहा है। हाथी  को मुलता पिपल पत्ता, उसका छाल, जंगली घांस, पत्ता, बरगद पत्ता, उसका छाल, केला पत्ता, केला आदि पसंद है। जंगल में अब न तो बरगद रह गया, न पिपल न, केला,ं अब बरगद है तो गांव में ही बचा है। पिपल और केला आदि भी गांव में हैं । जानवरों के लिए चरने के लिए जंगल भी नही बचा, यही कारण हे कि अब सभी जंगली जानवर गांव पहुंच जा रहे हैं। हाथी का भोजन अब गांव में किसान का फसल, किसानों के घरों का आनाज, कटहल है।ं अब हाथी गांव गांव पहंुच कर हडिंया पी रहा हे, शराब के लिए तैयार महुंआ से अपना पेट भारने को मजबूर है। अब गलती किसकी?
गांव पहले हाथी  अपने से नहीं था, जब महावत हाथी  लेकर आता था तो लोग हाथी देखने के लिए दौड पडते थे। लेकिन अब बिना महावत के दस -बारह की संख्या में हाथी गांव आकर किसानों के घर का आनाज खा जा रहे हैं, कटहल, केला, खेत का फसल रौंद रहे हें। लोगों को कुचल रहे हैं,ं  लोग कहते हैं, आज जो बिस्वा  में महामारी आया है -किसी वयरस से आया हैं, कोई कहता है, मनुष्य चमगदड खाया था वही वयरस दूसरे मनुष्य में फैलता जा रहा है। यह अचंभा सा लगता है कि चमगादड के वयरस से बिश्वा  परेषान है, न डाटर, न ज्ञान-विज्ञान की  समझ से परे है यह वयरस। गांव वाले समझ नहीं पर रहे है कि चमगादड के कारण कैसे एैसा हो गया। ..आज भी झारखंड के कई गांव के इमली पेड़ पर चमगादड सैकड़ों की संख्या में लटके हुए हैं। कई गांव में इमली पेड़ पर, कई गांव में आम पेड़ में अभी भी हैं। गांव वालों को मानना है कि भादूल के कारण गांव में बीमारी  में नहीं आता है, इसीलिएं गांव वाले भादूल को गुलेल या ढेला-पत्थर भी नहीं मारते हैं। छोटा भादूल घरों के छतों के आसपास ही रहता हे, वह उड़ते उड़ते मच्छड़ों को छपटता हैं ।
कोरोना को लेकर जब चर्चा होने लगा, कि यह महामारी चमगदड के सूप पीने के कारण मनुष्य  में आया हें अब वही वयरस एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैल रहा हे। इस समचार के बाद भादूल, हापूउ-(मुंण्डारी,) चमगादड आंख के सामने मंडराने लगे। अपने गांव के इमली पेड़ के भादूलों की चेंचेंचें की आवाज कान में गुंजने लगा। गांव के खरैल छतों के बांस, दिवाल के छिदरों से फूरर फूरर उड़ते छोटे छोटे काले भादूलों का उड़ान भरना, दिमाग में हलचल ला दियां। दो हजार पंदाह में में जब अमेरिका गयी थी तब मुझे भादूलों को देखने के लिए साथियों ने ले गये थे। मैं जगह भूल गयी हुं, जहां हर शाम को सेंकडों लोग उस वर्गाेकार घर से निकलने वाले छोटे भादूलों के निकलने और उड़ने को देखने के लिए जाते हैं। भादूलों के ठहरने के लिए वर्गांकार घर बनाया गया है, लोगों ने बताया कि वहां छह-सात हजार छोटा भादूल होगें जो हर षाम निकल कर बाहर जाते है।ं जब वे निकलते हैं तो भादूल का झुंण्ड से आकाश  को दो-तीन मिनट के लिए बादल की तरह ढंक लेता है। भादूल सूरज की रोशनी खत्म होते ही बाहर निकलते हैं और कहीं चले जाते हैं और सुबह होने से पहले वहीं वापस आ जाते हैं। 

Wednesday, April 1, 2020

BODY AGAISNT LAND SALE TO ARCELOR MITTAL MEETS INDUSTRY SECY---SANGHARS YATRA--2008


FIGHTING AGAINST DISPLACEMENT--SANGHARS YATRA--2008 AGAINST MITTAL


LADKIYON KO GARD KA PRASICHAN/ TRAINING ---SNAGHARS YATRA--2008


GAON NAHI JANE KI DHAMKI--SANGHARS YATRA--2008


JAN SE MARNE KI DHAMKI--SANGHARS YATRA--2008



SANGHARS JARI RAHEGA ---


FIGHTING AGNAST DICPLAEMENT --WE NEED FODD -PADD,Y NOT STEEL--SANGHAS YATRA 2008


FIGHTING AGAINST DISPLACEMENT IN 2008-10 --ADIVASI MULVASI ASTITVA RAKCHA MANCH


MITTA; GO BACK----SANGHAS YATRA ---2008


खूंटी गुमला में कंपनी पप्लान्ट लगाने को प्रतिबद्ध ---लड़ेंगे जीतेंगे -संघर्ष यात्रा --२००८


कंपनी को जमीन नहीं दी जाएगी ---संघर्ष यात्रा --२००८



जल जंगल जमीन की रक्चा है करेंगे ---संघर्ष यात्रा --२००८


किसी भी कीमत पैर जमीन नहीं छोड़ेंगे --संघर्ष यात्रा २००८

आदिवासी मूलवासी समुदाय का अस्तिव्ता जल जंगल जमीन ---सघर्ष यात्रा २००८

जारी रहेगा बिस्थापन के खिलाफ संघर्ष ---संघर्ष यात्रा २००८


जल जंगल जमीन पर्यावरण की रक्छा हम सबकी जिम्मेदरी --शंघर्ष यात्रा

पहले बसाओ , तब जमीन लो --संघर्ष यात्रा --जल जंगल जमीन के साथ


संघर्ष --पांचवी अनुसूची को कड़ाई से लागू करने की मांग

पांचवी अनुसूची को कड़ाई से लागू करने की मांग