Is ka Puranwash kaise sambhaw hai...pure Samajik-Sanskritik-Arthik System ko samajhne ki Jarurat hai
Puranwas our Punarasthapan niti ko puri tarah Jankari ke liye..blog posting..27 Feb. 2011 ke sabhi ..Mitha Jahar..ki posting dekhene..
नीति के र्डाफट कापी के 6.23 में विस्थापितों को पुनर्वास अनुदान की राशि के पचास प्रतिशत तक की राशि के अर्जनकारी निकाय के शेयर@डिवेंचर अथवा दोनों को लेने का विकल्प दिया जायेगा। 7.13.1 में कंपनी के शुद्व आय का एक प्रतिशत प्रभावित परिवारों को दिया जाएगा कहा गया है। लेकिन इसके तह में कई बुनियादी सवाल सामने उभर कर आते हैं और इन सवालों को इमानदारी से स्वीकार किये बिना, यह तर्क देना कि इस नीति से झारखंडियों का भविष्य उज्जवल होगा-विस्थापितों के साथ घोर अन्यय ही होगा। आज भी 95 प्रतिशत ग्रामीण किसान है जिनकी जीविका, सामाज व्यवस्था-अस्था, आर्थिक व्यवस्था, भाषा-सांस्कृति पहचान, अस्तित्व, यहा के नदी-पहाड़, जंगल-जमीन, पेड़-पौधा, घांस-फूस, फुल-फल के साथ प्रकृति के जीवन-चक्र के साथ इनका ताना-बाना है। छह माह खेतों से आनाज पैदा करना तथा बाकी छह माह हरियाली के बीच फूल-फल के साथ जीवन जीना ही इनका स्वार्ग है जो ससटेनेबल डबलपमेंट और पर्यावरण सुरक्षा का पाढ़ पढ़ाता है। कटहल, आम, जाम ईमली, पुटकल, कोयनार, महुंआ-डोरी, चार-पीयार, केंदु-सराई, करांज-लाह, कुसुम, चिरौंजी, दातुन-पताई, रूगडा-खुंखडी ग्रामीण जीवन का आर्थिक रीढ़ है। हर गांव कटहल, आम-जाम, ईमली, बांस, महुंआ पेंड़ से पटा हुआ है। हर साल किसान-ग्रामीण परिवार लाखों रूपया कमाता है। ज्ञात हो कि मौसम में करांज 10रू किलो, महुंआ 15 रू किलो, चिरौंजी 500रू किलो, आमसी 65रूकिलो, पुटकल साग सुखा 150रू किलो बिकता है। तब इसका मुआवजा कैसे आंका जा सकता है। यह सच है ग्रामीण क्षेत्रों में 5 प्रतिशत स्थानीय मूलवासी-सदान समाज व्यवसाय करता है जो 90 प्रतिशत व्यवसाय प्रकृतिक-वनोउपज पर केंन्द्रित है।
No comments:
Post a Comment