झारखंडी संस्कृति का मूल्यबोध
झारखंडी समाज एवं संस्कृति का इतिहास अति प्राचीन है पर प्राचीनता के साथ-साथ इस समाज व संस्कृति में निरंतरता भी देखने को मिलती है इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि झारखंडी समाज व संस्कृति में गतिशीलता का अभाव है। यदि इस समाज व संस्कृति में निरंतरता है तो परिवर्तनशीलता या गतिशीलता भी है। बावजूद यह समाज आज भी मानव मूल्यों सामुदायिक संसाधनों पर सामूहिक हक, स्त्री-पुरूष समानता पर आधारित है एवं इसकी गौरवमय सांस्कृतिक व्यवस्था आसमान के समान विस्तृत, सागर के समान गंभीर, पहाड़ी झरनों के समान स्वच्छ एवं इंद्रधनुष के समान रंगीन है।
पर विडंबना यह है कि पिछले कुछ दशकों से इस गौरवशाली विरासत की परिवर्तनशीलता में तीव्रता नजर आ रही है, फिर भी इसकी समरसता, सामुहिक अभिव्यक्ति का स्वर सांस्कृतिक विरासत को अब तक धरोहर की तरह बचाये हुए हैं, लेकिन अब यह प्रश्न उठने लगा है कि वर्तमान युवा पीढ़ी अपनी गौरवमय सांस्कृतिक विरासत, सामूहिकता को आगे बढ़ा पायेगी, इस पर संदेह करना वर्तमान स्थिति को देखते हुए स्वाभाविक है, अगर हम वर्तमान पीढ़ी या युवा समूह की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं तो यह स्वतः दर्शाता (झलकता) है कि वे अपनी संस्कृति, विरासत, सामूहिकता रहन-सहन, बोली-भाषा से खुद को दूर करते जा रहे हैं इसका कारण जो भी हो पर कुछ बातें स्पष्ट नजर आने लगी है कि युवा वर्ग जहां अंग्रेजी एवं हिन्दी को अपने संवाद का माध्यम बना रहे हैं वहीं अपनी मातृभाषा, मुंडारी, कुड़ुख, संथाली, खोरठा, हो, कुरमाली जैसी भाषा को हाशिये पर धकेलते जा रहे हैं एक अनुमान एवं अनुभव के आधार पर 60 प्रतिशत बोलना नहीं चाहते हैं। इसमें से शेष 30 प्रतिशत युवाओं को अपनी बोली-भाषा के प्रयोग में हीन-भावना महसूस होती है।
इसी तरह जब पर्व त्योहार का समय आता है तो उत्सवों में आयोजित नाचगान में सभी लोग समान रूप से भाग लेते थे। लेकिन वर्तमान समय में कुछ एक त्योहारों के छोड़कर शेष में व्यक्तिवाद की बू आने लगी है। विडंबना तो यह है कि इससे निरजातिय समूह (आदिवासी वर्ग) भी अछूता नहीं रहा। मैं और मेरा परिधि सिमटता जा रहा है। जहां तक नृत्य का प्रश्न है तो इसकी खास शैलियां होती है चाहे वह छऊ नृत्य हो या पाइका, नटुआ, चौकारा, जमदा, हाटबार, सोहराय, सायरोंलरी, जफर, ये सभी शैलियां छोटे समूहों में ही सिमटती जा रही है। युवा वर्ग तो इनका नाम भी नहीं जानते हैं। पहले नाच-गान खुले आसमान के नीचे अखड़ा में होते थे। आज अखड़ा की जगह स्टेज एवं आरकेस्ट्रा लेते जा रहे हैं। बंद कमरे में, अब जमदा, नटुआ, पइका के जगह युवा वर्ग डिस्को डांस करने एवं सीखने में ध्यान देता है, उसी प्रकार हमारे वाद्य यंत्रों के जगह अब ध्वनि यंत्र (डेक, कैसेट) बाजे में झूमते नजर आते हैं। ध्वनि यंत्रों में बजने वाले गीत-संगीत लोगों को कर्णप्रिय लगने लगी। उन गीतों में भाषा को तोड़-मरोड़ दिया जाता है। मांदर, नगाड़ा, बांसुरी, ढोलकी के जगह पर आज गिटार बजने लगे हैं, मांदर को गले में टांगने में इन्हें पीड़ा होती है तो नगाड़ा क्या बजायेंगे। उन्हें अगर गिटार बजाना न भी आये तो कंधे पर लटकाये घूमना अपनी शान समझते हैं क्योंकि उसे मॉडल जो कहा जायेगा। नगाड़ा लटका कर उन्हें ठेठ देहाती जो थोड़े ही खुद को कहलाना है। नगाड़ा कैसे बजायेंगे, साथ में डर जो है कि कहीं आधुनिकता के दौड़ में पिछड़ न जायें। अगर पिछड़ गये तो उन्हें प्राणत्याग जैसी स्थिति जो लगेगी। यह तो स्पष्ट है कि बाजारवादी संस्कृति वर्तमान युवापीढ़ी को सांप्रदायिक शक्तियों एवं साम्राज्यवादी ग्लोबलाइजेशन का हमकदम बनाकर चल रही है। इन शक्तियों का एक मकसद हैः झारखंडी गौरवशाली सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना।
अब प्रश्न उठता है कि क्या झारखंडी गौरवशाली सामाजिक व्यवस्था एवं संस्कृति को इसी तरह हाशिये में आने दिया जाये या फिर साम्राज्यवादी एवं सांप्रदायिक शक्तियों के विकल्प को पुनः जोरदार रूप में देशज गणतंत्र में निर्मित जन भावनाओं से सराबोर, सामूहिकता की परिचायक गौरवमय झारखंडी संस्कृति को पुनः स्थापित कर जनहित के लिए आगे लाया जाये।
pravin kumar
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