भारत बदल रहा है। भारत के शहर भी बदल रहे हैं। यू देखा जाए तो बदलाव अपने आप में कोई बुरी बात नहीं हैं। बड़े-बड़े darshnik कह गए हैं कि प्रकृति हो या मानव समाज-दोनों में हमेशा से बदलाव होते रहे हैं और आगे भी होते रहेगें। मगर सोचने की बात यह है कि परिवर्तन की दिशा क्या है। बदलाव की चाल, चरित्र ओर चेहरा कैसे है? क्या बदलाव समाज के आम लोगों की ज्यादा से ज्यादा भलाई की दिशा में हैं या कुछ खास लोगों की तिजोरियां भरने की दिशा में? क्या बदलाव ऐसा है जिससे व्यक्तियों, क्षेत्रों और सामाजिक समूहों के बीच की असमानता कम होती है या ऐसा जिससे विषमता की खाई और चैड़ी होती है? क्या बदलाव कीदिशा में व गति के बार में फैसला व्यापक समाज मिलकर लोकतांत्रिक तरीके से करता है, या कुछ ताकतवर लोग बंद कमरे में बैठकर इसका फैसला करते हैं?
भारत शहर पिछले कुछ वर्षों से बड़ी तेज रफतार से बदल रहे हैं। दिल्ली हो या मुम्बई, पटना हो या लखनउ, कलकत्ता हो या कोची, सभी शहर आज वल्र्ड -क्लास शहत बनने की अंधी दौड़ में शामिल है। वल्र्ड-क्लास की परिभाषा क्या होगी? इस पर कभी कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं की गई। परन्तु आर्थिक, राजनैतिक स सामाजिक सत्ता के मालिक -सभी इस विषय पर एकमत हैं कि दिशा के शहरों को वल्र्ड-क्लास बनाए बिना देख की तरक्की नहीं हो सकती है। उनका दावा है कि शहरों के आधारभूत ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर) एंव शासन प्रणाली (गवर्नेंस) में यदि सुधार नहीं होता है, तो वर्तमान में 8 फीसदी की दर से जो आर्थिक विकास का घोड़ा दौड़ रहा है वह भारत के एक विकसित राष्ट्र की मंजिल तक पहुंचने से पहले ही बीच में कहीं थक कर बैठ जाएगा। तो ये वल्र्ड-क्लास शहर आखिर है क्या जिसकी सड़कों पर दौडकर आर्थिक विकास का घोड़ा भारत को एक विकसित देश की मंजिल तक पहुंचाएगा ?
पिछले 10-15 वर्षों का अनुभव देखें तो साफ समझ में आता है कि वल्र्ड-क्लास माने ऐसा शहर जहां पैसे वालों को ऐशो -आराम के वे तमाम साधन उपलब्ध हों जिसके लिए उन्हें पहले अमरीका या यूरोप जाना पड़ता था। जगह-जगह शापिंग मॉल हो, चमचमाते सिनेमाघर हों, उपभाग की सभी वस्तुएं उपलब्ध हों। जब सड़क पर उनकी गाड़ी दौड़े तो बीच में कोई रूकावाट न आए इसके लिए हर चैराहे पर एक पलाईओवर हो। वल्र्ड-क्लास शहर माने ऐसा शहर जहां पर्यटक या बिदेशी निवेशक आएं तो उन्हें भीड़, गंदगी या गरीबी न दिखाई दे। जैसा अनुभव उन्हें लंदन या न्यूयार्क की सड़कों पर चलने में होता है वैसा ही अनुभव उन्हें दिल्ली और मुंम्बई में भी मिले।
लेकिन समस्या यह है कि हमारे शहर कोई वीरान बंजर भूमिं तो है नहीं कि उन्हें जो चाहे रूप दे दो और किसी को नुकसान भी न हो। जाहिर सी बात है जब मेट्रो या शापिंग मॉल बनाने होते हैं तो झुग्गियां उजाड़ी जाती हैं। फिर भल ही उससे लाखों लोग बेघर जो जाएं। जब प्रदूषण कम करने की बात होती है तो कारखानों पे ताले लगाए जाते हैं। फिर भले ही उससे लाखों मजदूर बेराजगार हों। जब पलाइओवर बनते हैं तो पैदल, रिक्सा या साइकिल पे चलने वालों के लिए सड़क पर कोई जगह नहीं रहती है। जब माडल बनते हैं तो छोटे दूकानदार अपनी रोजी-रोटी खो देते हैं। संक्षेप में कहें तो एक थर्ड-वल्र्ड देश में जब वल्र्ड-क्लासशहर बनते हैं तो बहुसंख्यक अवाम की जीवन स्थिति फोर्थ वल्र्ड में पहुंच जाती है।
यह किसी निराशावादी का राग विलाप नहीं बल्कि हमारे शहरों की जमीनी सच्चाई है। दिल्ली शहर को ही देखें तो पिछले 8 सालों में 8 लाख से ज्यादा झुग्गीवासियों को विस्थापित किया गया है। मुम्बई में भी लगभग इतने ही लोग पिछले एक दशक में विस्थापित किए गए हैं। झुग्गिवासी हों या कच्ची कोलोनो के निवासी, रिक्सा चालक हों यह रेहडी-पटरी वाले, कारखाना मजदूर हों या बेघर लोग, आज सभी परप्रशासन की मार पड़ रही है।
अभी तक चली प्रक्रियाएं तो यही दिखाती हैं कि आने वाले समय में यह मार बढ़ने वाली है। हमारी सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है गरीबों-मेहनतकशों को शहर से बाहर निकालकर शहर की जमीन व अन्य सभी संसाधनों को सम्पन्न वर्ग और देशी -बिदेशी निवेशकों के हवाले करने की। गरीबों के सर से छत और मुंह से निवाला छीनकर धन्नासेठों की तिजोरियां भरने के अपने निर्णय के बारे में सरकार कितनी गंभीर है इसकी मिसाल हमें हाल ही में लाए गए जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरणमिशन के रूप में देखने को मिल रही
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