Wednesday, July 20, 2011

अंधरिया रातिया पर्वत डगारिया के तोहोर संगे जाई रे--- अंधिरिया रातिया जुगनू जे चमके से हे....तोहोर संगे जाई रे...





अंधरिया रातिया पर्वत डगारिया
के तोहोर संगे जाई रे---
अंधिरिया रातिया जुगनू जे चमके
से हे....तोहोर संगे जाई रे...
प्रकृतिक मूलक जीवन शैली को समझना मुख्यधारा के जीवन के लिए कठिन है। खूला आशमान के नीचे, जंगल-झाड़, नदी-नाला, खेत-खलिहान, सांप-बिच्छु, सूरज-चाँद , तारे, छोटे-छोटे जीव-जंन्तु उड़ते फातिंगे, जुगनू सभी आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के एक दूसरे के जीवन में रचे-बसे हैं। सभी एक दूसरे के पूरक हैं। एक सिक्के के दो पहलू हैं। इसी का नाम है पर्यावरण। जब एक उजड़ता है तो इनसे जुड़ा पूरा हर जीव मंडल इसमें मानव भी शामिल है-पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दिन को सूरज की रोशनी में पूरा प्रकृति प्रकाशमय होता है। वहीं रात के अंधेरे में चांद -तारे इनका मार्ग दर्शक होते हैं। यही नहीं जुगनू भी अंधेरी रात में इनका अगवानी करता है। यही है प्रकृति-पर्यावरण, प्रकृतिक मूलक जीवनशैली ।
यहां मैं एक छोटे से जीव के बार आप को बताना चाह रही हुं। देखना चाहेगें तो आप देख भी नहीं पाऐंगे। तब आप देखे पाऐंगें जब आप रात के अंधियारे में घर से बाहर अपने आंगन, खेत-खलिहान, पेड़-झाडि़यों की ओर नजर करेगें। अंधेरे में कहीं आप जा रहे हैं-तब आप का साथी, सहचरी के रूप में आप के साथ होगा। जब कोई आप के साथ नहीं है-तब अंधकार में अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने का हौशला बुलंद करता है। आप को अकेलेपन का अहसास नहीं करता है।
तो आईये इसके बारे-आप भी जाने कि-अंधकार में हमारी अगुवाई करने वाला कौन है। आप जुगनू के बारे में तो सुने ही होगें, हो सकता है आप में से कोई देखे भी होगें। ये छोटे-छोटे कीट होते हैं जिनके शरीर से रात के अंधेरे में हल्की फुल्की रोशनी आती है। जुगनू के पेट की त्वचा के ठीक नीचे कुछ हिस्सों में प्रकाश पैदा करनेवाले अंग होते हैं। इन अंगों में खास रसायन बनता है जो आक्सीजन के सम्र्पक में आकर रोशनी पैदा करता हैं। ये किसी भी पेड़ में बैठते हैं। जब ये अधिक संख्या में इधर उधर उड़ते रहे हैं-तब इनकी लाईट आशमान के नीचे तारा मंडल की तरह लगता है। दूर से ही दिखाई देते हैं हां इनका शरीर नहीं दिखाई देता है।
जुगनू लगातार नहीं चकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल पर कुड समय के लिए चकते और बुझते रहते हैं। इस रोशनी का प्रयोग वे जुगनू अपने साथी को आकर्षित करने के लिए करते हैं। नर और मादा जुगनओं से निकलने वाले प्रकाश के रंग चमक और उनके जलने बुझने के समय में थोड़ा सा अंतर होता है। इन्हीं के आधार पर वे दूर से भी एक दूसरे को पहचान लेते हैं। इसके अलावा इनके शरीर का यह प्रकाश स्वंय को दूसरे की कीटभक्षियों से बचाने और अपना भोजन खोजने में भी इनकी मदद करता है। अब सवाल आता है कि आखिर ये जुगनु चमकते कैसे हैं? शुरू में तो यह माना जाता था कि ये जीव फास्फोरस की वजह से समकते हैं लेकिन आगे चलकर इस संबंध में हुए प्रयोगों में कुछ और नयी बाते आयी। 2794 में अतालवी वैज्ञानिक स्पेलेजानो ने यह साबित किया कि जीवों में प्रकाश उनके शरीर में होने वाली रासयनिक क्रियाओं के कारण पैदा होता हैं ये रासयनिक क्रियाएं मुख्य रूप से पाचन सम्बन्धित होती है। इन रासयनिक क्रियाओं की वजह से खासतौर पर ल्युसिफेरेस और ल्युसिफेरिन नामक प्रोटीन का निर्माण होता है लेकिन रोशनी तथी पैदा होती है जब इन पदार्थों का आक्सीजन के साथ मिलने से ल्यूसिफेरिन आक्सीजन होकर चमक पैदा करते लगता है। जुगनूओं का यह प्रकाश पीला, हरा, लाज, नीला व मिश्रित आदि भी होता है।
वैसे प्रकृति में जुगनूओं की तरह चमकने वाल कई और जीव भी मौजूद हैंa। रोशनी पैदा करने वाले जीवों की कराब एक जहार प्रजातिया। खोजी जा चुकी हैं। इनमें से कुछ प्रथ्वी के उपर पायी जाती हैं तो कुछ संमुद्र की गहराइयों में। कुछ वैक्टीरिया कुड प्रजाति की मछलियां, सय्वल शाली फिश केकडों में भी रोशनी पैदा करने का गुण होता है। कुछ फफुंद और कुकरमुते भी चमक ने की खास क्षमता रखते हैं। लेकिन इनमें जुगनू ही ऐसे जीव है जो आसानी से और बड़ी संख्या में पाये जाते हैं।
इसी वजह से इनमें से यही सबसे ज्यादा लोकप्रिया है। शरीर से रोशनी पैदा करने वाले ऐसे जीवों के प्रकाश को जीवदाति कहा जाता है इनका यह प्रकाश शीतल प्रकृति का होता है। जुगनूओं की कुछ प्रजातियों में तेज रोशनी होती है। पुराने समय में तो लोग रात को इनका प्रयोग लैंप की तरह किया करते थे। वे लोग छोटे छोटे छेग वाले मिटटी या धातु के वर्तनों में खूब सारे जुगनूओं को बन्द करके उनकी रोशनी का उपयोग अपने घरों में काम रकने या रास्ता देखने के लिए भी करते थे।


प्रकृतिक मूलक जीवन शैली को समझना मुख्यधारा के जीवन के लिए कठिन है। खूला आशमान के नीचे, जंगल-झाड़, नदी-नाला, खेत-खलिहान, सांप-बिच्छु, सूरज-चाँद , तारे, छोटे-छोटे जीव-जंन्तु उड़ते फातिंगे, जुगनू सभी आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के एक दूसरे के जीवन में रचे-बसे हैं। सभी एक दूसरे के पूरक हैं। एक सिक्के के दो पहलू हैं। इसी का नाम है पर्यावरण। जब एक उजड़ता है तो इनसे जुड़ा पूरा हर जीव मंडल इसमें मानव भी शामिल है-पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दिन को सूरज की रोशनी में पूरा प्रकृति प्रकाशमय होता है। वहीं रात के अंधेरे में चांद -तारे इनका मार्ग दर्शक होते हैं। यही नहीं जुगनू भी अंधेरी रात में इनका अगवानी करता है। यही है प्रकृति-पर्यावरण, प्रकृतिक मूलक जीवनशैली ।
यहां मैं एक छोटे से जीव के बार आप को बताना चाह रही हुं। देखना चाहेगें तो आप देख भी नहीं पाऐंगे। तब आप देखे पाऐंगें जब आप रात के अंधियारे में घर से बाहर अपने आंगन, खेत-खलिहान, पेड़-झाडि़यों की ओर नजर करेगें। अंधेरे में कहीं आप जा रहे हैं-तब आप का साथी, सहचरी के रूप में आप के साथ होगा। जब कोई आप के साथ नहीं है-तब अंधकार में अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने का हौशला बुलंद करता है। आप को अकेलेपन का अहसास नहीं करता है।
तो आईये इसके बारे-आप भी जाने कि-अंधकार में हमारी अगुवाई करने वाला कौन है। आप जुगनू के बारे में तो सुने ही होगें, हो सकता है आप में से कोई देखे भी होगें। ये छोटे-छोटे कीट होते हैं जिनके शरीर से रात के अंधेरे में हल्की फुल्की रोशनी आती है। जुगनू के पेट की त्वचा के ठीक नीचे कुछ हिस्सों में प्रकाश पैदा करनेवाले अंग होते हैं। इन अंगों में खास रसायन बनता है जो आक्सीजन के सम्र्पक में आकर रोशनी पैदा करता हैं। ये किसी भी पेड़ में बैठते हैं। जब ये अधिक संख्या में इधर उधर उड़ते रहे हैं-तब इनकी लाईट आशमान के नीचे तारा मंडल की तरह लगता है। दूर से ही दिखाई देते हैं हां इनका शरीर नहीं दिखाई देता है।
जुगनू लगातार नहीं चकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल पर कुड समय के लिए चकते और बुझते रहते हैं। इस रोशनी का प्रयोग वे जुगनू अपने साथी को आकर्षित करने के लिए करते हैं। नर और मादा जुगनओं से निकलने वाले प्रकाश के रंग चमक और उनके जलने बुझने के समय में थोड़ा सा अंतर होता है। इन्हीं के आधार पर वे दूर से भी एक दूसरे को पहचान लेते हैं। इसके अलावा इनके शरीर का यह प्रकाश स्वंय को दूसरे की कीटभक्षियों से बचाने और अपना भोजन खोजने में भी इनकी मदद करता है। अब सवाल आता है कि आखिर ये जुगनु चमकते कैसे हैं? शुरू में तो यह माना जाता था कि ये जीव फास्फोरस की वजह से समकते हैं लेकिन आगे चलकर इस संबंध में हुए प्रयोगों में कुछ और नयी बाते आयी। 2794 में अतालवी वैज्ञानिक स्पेलेजानो ने यह साबित किया कि जीवों में प्रकाश उनके शरीर में होने वाली रासयनिक क्रियाओं के कारण पैदा होता हैं ये रासयनिक क्रियाएं मुख्य रूप से पाचन सम्बन्धित होती है। इन रासयनिक क्रियाओं की वजह से खासतौर पर ल्युसिफेरेस और ल्युसिफेरिन नामक प्रोटीन का निर्माण होता है लेकिन रोशनी तथी पैदा होती है जब इन पदार्थों का आक्सीजन के साथ मिलने से ल्यूसिफेरिन आक्सीजन होकर चमक पैदा करते लगता है। जुगनूओं का यह प्रकाश पीला, हरा, लाज, नीला व मिश्रित आदि भी होता है।
वैसे प्रकृति में जुगनूओं की तरह चमकने वाल कई और जीव भी मौजूद हैंa। रोशनी पैदा करने वाले जीवों की कराब एक जहार प्रजातिया। खोजी जा चुकी हैं। इनमें से कुछ प्रथ्वी के उपर पायी जाती हैं तो कुछ संमुद्र की गहराइयों में। कुछ वैक्टीरिया कुड प्रजाति की मछलियां, सय्वल शाली फिश केकडों में भी रोशनी पैदा करने का गुण होता है। कुछ फफुंद और कुकरमुते भी चमक ने की खास क्षमता रखते हैं। लेकिन इनमें जुगनू ही ऐसे जीव है जो आसानी से और बड़ी संख्या में पाये जाते हैं।
इसी वजह से इनमें से यही सबसे ज्यादा लोकप्रिया है। शरीर से रोशनी पैदा करने वाले ऐसे जीवों के प्रकाश को जीवदाति कहा जाता है इनका यह प्रकाश शीतल प्रकृति का होता है। जुगनूओं की कुछ प्रजातियों में तेज रोशनी होती है। पुराने समय में तो लोग रात को इनका प्रयोग लैंप की तरह किया करते थे। वे लोग छोटे छोटे छेग वाले मिटटी या धातु के वर्तनों में खूब सारे जुगनूओं को बन्द करके उनकी रोशनी का उपयोग अपने घरों में काम रकने या रास्ता देखने के लिए भी करते थे।

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