आज हम विकास की जिन उंचाई पर खड़े है, एक आम आदमी के लिए समझना कठिन है। हां उनके परिणामों को महसूस कर रहा है। बैश्विक विकास के प्रतिस्पर्धा की दौड़ में हम जिंदगी के अस्तित्व के ताना बाना को भी रौंद डाल रहें है। हम भूल जा रहे हैं कि, हम चांद के साथ कई और उपग्रहों पर भी अधिपत्य जमा लें , लेकिन जिंदा रहने के लिए आक्सीजन तो चाहिए ही। भूख मिटाने के लिए कुछ समय तक भोजन के कृत्रिम सबसीटीयूट से भूख शांत कर सकते हैं, पानी के प्यास को किसी कृत्रिम पेय पदार्थ से प्यास बुझा सकते हैं। लेकिन सवाल है इससे कब तक स्वस्थ्य और जीवित रह सकते हैं।
आज विकास के जिस मोडल को अपना कर हम प्रकृति-पर्यावरण, का सेहत बिगाड़ कर, विगड़े मौसम, बिगड़े पर्यावरण और सेहत को फिर से ठीक करने के लिए चिंतित हैं। इस बिगड़े पर्यावरण की सेहत के साथ अपनी सेहत को सुधारने के लिए हम अपने जीवन शैली को बदलने का राह तलाशने में जुटें है। अब सब चाहते हैं सस्टेनेबल डवलपमेंट के साथ ओरगेनिक भोजन वस्तु और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण।
आज जब पुरी दुनिया कोविड-19 के महामारी से तबाह है। विश्व के ताकातवर देश , अमेरिका, स्पेन, इटली, इग्लैंण्ड, फ्रांस, चीन, जर्मर्नी, रूस, बेलजियम, ईरान, तुर्की सबको कोरोना महामारी ने घुटनों में ला दिया है। विश्व को आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक तौर पर नियंत्रित करने वाले देशो के राजसत्ता की ताकत, अरबपतियों, पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के बैश्विक आर्थिक ताकत तथा वैज्ञानिकों की बैद्विक ताकत भी कोरोना महामारी के सामने अपने को लाचार महसूह कर रहा है।
महामारी ताकतवर बिश्वा के सत्ता संचालकों, अरबपती, करोड़पति, अमीर, पूंजिपति और गरीब वर्ग किसी को नहीं छोड़ा़। सबको एक ही कतार में लाकर खड़ा कर दियां। विकास की बैश्विक ताकत भी महामारी को रोकने में कमजोर ही दिख रहा है। महामारी के कारणों का भी पता लगाने में बैश्विक ज्ञान-विज्ञान भी महामारी से पिछे दिख रहा है।
आज सभी ग्लोबल है। देश की अर्थव्यस्था, बाजार व्यवस्था, पूंजी व्यवस्था, शिक्षा, स्वस्थ्य व्यवस्था सभी ग्लोबल है। हमारी सोच और जीवन शैली भी ग्लोबल हो चुकी है। कोरोना महामारी भी बैश्विक ग्लोबल व्यवस्था का ही एक हिस्सा बन गया है। हैरानी की बात तो यह है कि-कोरोना महामारी के पहले हमेशा पूरा विश्व दावा करता था कि, आज कोई भी बीमारी लालईलाज नहीं है। दावा किया जाता था-जितना तरह का बीमारी, उतने तरह के दवाओं और इलाजों को इजाद किया जा रहा है। लेकिन कोरोना महामारी से इलाज के लिए किसी भी देश के पास न दवा, न वैक्सीन ही है। अब खबरें मिल रही है-कि लोग रिसार्च में जुट गये हैं, लेकिन दो-तीन माह या तो दो साल लगेगा दवा उपलब्ध कराने में। जबकि इस महामारी से प्रतिदिन हजारों लोग शिकार हो रहे हैं और हजारों लोगों की मौत हो रही है। हां इस वैश्विक महामारी से राहत के लिए मलेरिया से बचाव के लिए उपयोग होने वाले दवाई हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन और पारासिटामोल की मांग भारत से वैश्विक देश भी कर रहे हैं। जिस मलेरिया से इलाज के लिए गांवों में पहले भूईनीम, चिराईता, चमगर पौधा, हरसिंगार और चराईगोडवा जैसे जंगली पौधों के पत्तों को उबालकर लोग सेवन करते थे। प्रकृतिक इलाज का या परंपरा आज भी ग्रामीण इलाके में किया जाता है।
आज हम विकास के जितने भी उंचाई पर पहंच जाएं, फिर भी मनुष्य को जीवित रहने के लिए मानव सभ्यता और विकास के पषाण युग के अर्थव्यस्था मे जीने का जो परिभाषा था रोटी, कपड़ा और मकान, आज के विकसित अर्थव्यस्था में भी मनुष्य को जिंदा रहने के लिए इसकी निहायत आवशयकता है। पूरे जीव मंडल के लिए भोजन, हवा, पानी जरूरी है। इसके लिए जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, झील, झरना, पेड़, पौधों के संरक्षण के बिना संभव नहीं है। संजीवनी बूटी जंगल-पहाड़ो में ही उपलब्ध होता है। हमें इतिहास के उन तथ्यों एवं घटनाक्रम को नहीं भुलना चाहिए, जहां से हमने चलना शुरू किया था। आज आदिवासी सामूदाय के जंगल-जमीन को आबाद करने और इसे बचाये रखने के संघर्ष के इतिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। जंल-जंगल-जमीन -पर्यावरण के साथ समाज का ताना-बाना आधारित जीवनशैली ही विश्व को दिशा दे सकता है। चाहे हम उसे पषाण युग का दंतकथा ही क्यों न मान लें। प्रकृति का अपना जीवन शैली , ज्ञान-विज्ञान है। उसे हम रोकेगें, छेड़ेगे, दबायेगें, तो वह अपना प्रतिक्रिया देगा ही चाहे वह जिस भी रूप में हो। चाहे वह प्रकृतिक अपदा हो या महामारी हो।
प्रकृति की गोद में रचे-बसे गांव की जिंदगी को भले ही हम पिछडा समाज के तौर पर देखतें हैं, लेकिन आज जब ग्लोबल वार्मिंग के ताप से राहत कें लिए एसी, कुलर, पंखे ही हमारा सहारा होता है। यदि बिजली लोकसेडिंग हो जाए तो इससे भी बंचित हो जाते हैं। दूसरी ओर गांव के लोग घर आंगन के इमली पेड़, नीम पेड़, जीतिया पेड़, बरगद पेड़ का छांव ही, कुसूम पेड़, जामुन पेड़ पूरा गांव के लिए एसी और कुलर का काम करता है। लू लगने पर इमली का लेप, पलाश फूल का शरबत, मटा साग, इमली पलवा, कंदा साग, बेंग साग का मांडडबका पीकर दुरूस्त रहते हैं। हम तपती गर्मी में प्यास बुझाने के लिए फ्रीज में बंद बोलत का पानी ढुडते है। ग्रामीणों के लिए कुम्हार के चाक के मिटटी से बने नया घड़ा का षीतल पानी ही अमृत की तरह है। इस परंपरागत कुलर के लिए बिजली के वोलटेज की भी जरूरत नहीं हैं। विकास की दौड़ में, आगे निकलने की होड़ में अपने प्रकृतिमूलक जीवन शैली से हम दूर चले जा रहे है उस वैश्विक रास्ते से, आगे जाकर वो रास्ता किस वैश्विक महासमुद्र में मिलेगा, शयद हमें उसी वक्त पत्ता चलेगा, कि हम कहां पहुंच जाएगें। जैसे अमेरिका का मैनहाटन, जहां से पूरे विश्वबाजार , की अर्थव्यवस्था नियंत्रित एवं संचालित होती है। लेकिन वहां कोई जंगल नहीं होगा, मलेरिया के लिए चिरौता, भूईनीम नहीं होगा, इमली छांव, पीपल या जीतिया पेड़ का छांव नहीं होगा। जहां अनाज पैदा करने वाला कोई खेत-टांड नहीं होगा।
हम हर तरह से धनी हैं। झारखंड का क्षेत्रफल 79,714 वर्गकिमी हैं, यानी 7971400 हेक्टेयर है। इसमें लगभग 23 लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग जंगल के लिए हो रहा है। जहां सैकड़ों तरह के वनोपज का पैदवार होता है। हजारों किस्म के जड़ी-बूटी, कंद-मूल से पटा हुआ है। हजारों किस्म के पेड़-पौधे मिलेगें। यही जंगल-पहाड़ हजारों जीवमंडल का असियाना और जीविका का आधार है। 6 लाख हेक्टेयर भूमिं खाली है। 27 लाख हेक्टेयर भूमिं कृषि योग्य है लेकिन खेती नहीं किया जाता, परती, और चरागाह आदि के लिए है। 41 लाख हेक्टेयर भूमिं कृर्षि योग्य है, इसमें 3.12 लाख हेक्टेयर बेकार पड़ी है। परती भूमि 19.58 लाख हेक्टेयर है तथा कुल 18.30 लाख हेक्टेयर भूमि बोई गयी भूमि है जिसमें लगातार फसल बोयी जाती है। यहां यह स्पस्ट है कि झारखंड के क्षेत्रफल का आधा से अधिक याने 51.44 प्रतिषत भूभाग कृर्षि के योग्य है। किंन्तु संसाधन के आभाव में इसका संपुर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है,। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आता है। इसके तहत गांवो के सीमा के भीतर सभी परती भूमि का बड़ा हिस्सा ग्रामीणों के अधिकार में है।
आज राज्य में उपलब्ध प्रकिृतिक धरोहर की समीक्षा करने की जरूरत है। जंगल और कृषि भूमि तेजी से घटते जा रही है। पर्यावरण का संकट बढ़ते जा रहा है। राज्य के जलस्त्रोत अंतिम स्वांस ले रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और प्रदूषित पर्रावरण ने मनुष्य सहित प्राणीमंडल और प्रकृति पर हमला बोल दिया है। पर्यावरण को सपोर्ट करने वाले जीव-जन्तु खत्म हो रहे हैं। हमें विकास का माॅडल तय करना होगा कि जमीन, जंगल, नदी, पहाड, जंगल, झाडी का कितना हिस्सा कृषि कार्य के लिए, जंगल, पर्यावरण के लिए, जलस्त्रोतों को जीवित रखने के लिए सुरक्षित रखना होगा। कितना हिस्सा भूमि औद्योगिकीकरण के लिए, कितना हिस्सा विकास के अन्य बुनियादी ढंचों के लिए सुरक्षित करें, इसका रोडमैप बनाने की जरूरत है।
यह भी समीक्षा करना है कि राज्य की आबादी के लिए अनाज का पैदवार कितना होता है? यदि खाद्यान का उत्पादन प्रयाप्त नहीं है राज्य की आबादी के लिए, तो उत्पदान बढ़ाने के प्रयास होना चाहिए। जब हमारे पास जमीन है, पानी है साथ में मैनपावर भी है। दूध, मच्छली, मघु, सहित सभी तरह कृषि उत्पादन का मोडल पेस कर सकते हैं। अपने राज्य को खाद्यान निर्यातक राज्य के रूप में वैश्विक मार्केट में अपना स्थान बना सकते हैं।
औद्योगिक विकास के क्षेत्र में भी राज्य पिछे नहीं रहा। देश के खनिज का 46 प्रतिषत भाग राज्य से देश को जाता है। केवल कोयला उद्योग द्वारा कोयला कंपनियां 67,218 हेक्टेयर जमीन से कोयला निकाल रहे हैं। सारांडा जंगल 82,000 हेक्टेयर पर फैला है, जहां से करोड़ो का लौह अयस्क का खनन होता है। शह कमिशन के अनुसार 22,000 करोड़ लौह अयस्क गैर कानूनी तरीके से निकला जाता है। अनुमान के अनुसार झारखंड में 40 हजार से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चल रहे हैं। राज्य में अयरन ओर माइंस, बाॅक्ससाइट मांइस, अबरख, डोलोमाइट, चूना पत्थर, माइगनेट, यूरेनियम जैसे सैकड़ों तरह के खान-खनिजों के उद्योग खोले गये हैं।
, आजादी के बाद विभिन्न औद्योगों द्वारा 20 लाख से अधिक जमीन ले लिया गया। विस्थापन की बात करें तो 80 लाख से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है। इन विस्थापितों में से 10-15 प्रतिषत को ही नौकरी मिल पायी है, या तो पूनर्वासित किया गया है। विस्थापित-प्रभावित रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जमीन-जंगल के मालिक बंधुवा मजदूर, कुली, रेजा, जुठन थाली धोने वाली आया, रिक्सा चालक बन कर जिंदगी काट रहे हैं। न रहने के लिए घर है न दो जून की रोटी। बड़ी संख्या में राज्य से बाहर जाकर गुजर बसर कर रहे है।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी हो गये, प्रवासी मजदूर बन गये। लाॅकडाउन में आज दस-बारह लाख से अधिक प्रवासी मजदूर राज्य से बाहर फंसे हैं। ये सभी हर तरह की कठिनाईयां झेल रहे है। राज्य में बनी स्थानीयता नीति के तहत राज्य सरकार की जिम्मवारी है कि इन सभी प्रवासी मजदूरों के अपनी धरती में रोजगार उपलब्ध कराने की नीति बनायें। राज्य में चलाये जा रहे विकास योजनाओं के साथ इमानदारी पूर्वक इन्हें भी जोड़ा जाए। खान-खनिजों को रोयल्टी, डिस्ट्रीक मिनिरल फंड सहित सभी उत्पादों के लभाशो का हिस्सा राज्य के विस्थापितों और बेराजागरों को रोजगार उपलब्ध कराने में उपयोग होना चाहिए। मनरेगा जैसे रोजगार से ग्राम सभा को सीधे तौर पर जोड़ना चाहिए, वही तय करे कि गांव में कौन सा काम किया जाए। माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरेस्ट उत्पाद, बालू-गिटटी खान ग्राम सभा को संचालित और नियंत्रित करने की जिम्मेवारी दी जानी चाहिए, ताकि पर्यावरण का ध्यान में रखा जा सके।
औद्योगिकीकरण की वजह से राज्य का भूखंड बंजर भूमि में तब्दील हो चुका है। राज्य का कृर्षि प्रभावित हो रहा है। जलस्त्रोत प्रदूषित हो गये, नदी-झील, झरना सहित सभी तरह के जलस्त्रोत सुखता जा रहा है। वायु प्रदूषण से हर साल बच्चे से लेकर हर उम्र के लोग कैंसर आदि से हजारों बेमौत मर रहे हैं। आज पूरा विश्व पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वामिंग का मार झेल रहा है। गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी और सूखा। ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण को लेकर आम जनता से लेकर देश के नीति निर्देषक, सत्तासंचालक सभी समय समय पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। पर्यावरण मेले में सेमिनार का उदघाटन करते मेघालय के राज्यपाल श्री गंगा प्रसाद ने कहा था-पर्यावरण सिर्फ शहरों में सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह गांव और जंगलों तक पहुंच गया है। जीवों की संख्या में लगातार कमी आ रही है तथा कुछ जीव विलुप्त भी हो चुके है। औद्योगिक विकास के लिए देश की जीडीपी अहम है-परंन्तु प्रदूषण जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
आज कोरोना महामारी से सभी ताकतवर देश लड़ रहे हैं। हमारा देश आर्थिक रूप से कमजोर है, साथ ही कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था के सहारे इस जंग को जीतना आसान नहीं था। जंग जीतने के लिए शोशल डिस्टेसिंग बड़ा इलाज है। इसके लिए लाॅकडाउन ही एकमात्र उपाय है। महामारी के खिलाफ जंग के मैदान में देश के नौवजवान, प्रषासन, डाक्टरस, नर्सें, मेडिकल टीम, स्वास्थ्य कर्मचारी जान हाथेली में रख कर देश को कोरोना से विजय दिलाने में लगे हैं। लाॅकडाउन के दौरान देश भर के कलकारखाने, छोटे-बड़े सभी व्यसायिक प्रतिष्ठान एवं सभी सरकारी कार्यालय, ट्रांसपोट, रेलयात्रा,हवाई यात्रा सहित सभी तरह के परिवाहन बंद थे। इस कारण देश भर में वायु प्रदूषण, ध्वानी प्रदूषण, जलप्रदूषण सहित सभी स्तर के प्रदूषण में कमी आयी है। आकाश साफ नीला, शाम होते ही चांद और तारे आकाश में चमकने लगे। सुबह होते ही विभिन्न तरह के पंक्षियो का निर्भयता पूर्वक चहचहाट से वातावरण गुंजने लगा। रंग-बिरांगे तितलियां आकाश में उड़ान भर रहे हैं। कई तरह के फूल-पौधों में तितलियों और मधुमक्यिों का रस चुसने के लिए मंडराना पर्यावरणीय जीवंतता का असहास दिलाने लगा हेै। प्रदूषित नालों और नदियों का पानी साफ हो गया। प्रदूषण में आयी कमी को आने वाले समय में क्या और कम किया जा सकता है ताकि प्रदूषण मुक्त पर्यावरण हम अपने अगले पीढ़ी को दे सकें।
देश के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंदजी ने अपने एक आलेख “प्रकृति से हमें सिखने की जरूरत है” में, प्रकृति-पर्यावरण और भविष्य पर चिंतन करते हुए कई अहम सवाल उठाये और इसका हल के तैार पर अपने सोच भी साझा किये हैं। लिखते हैं-2047 में जब भारत की आजादी के 100 वर्ष पूरे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा? जब 2069 में हम गांधी जी की 200वां जयंती मना रहे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा? हमारे पास आज इन प्रश्नों के बहुत स्पष्ट उतर नहीं हैं। लेकिन सामजिक, बौद्विक, नैतिक और प्रकृति एवं पर्यावरण के क्षेत्रों में जो कुछ भी निवेश आज की पीढ़ी कर रही है, उसी पर हमारे इन सवालों का जवाब निर्भर है। जो जंगल हमें इस प्रकृति ने अपनी पूरी भव्यता में उपलब्ध कराएं हैं, वही नदियां, वही पहाड़ और जंगल क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसी भव्य रूप में उपलब्ध करा पाऐगें?
सच्चाई को स्वीकारने में हमारी महानता होगी। आज हम विकास के तेज रफतार की दौड में प्रकृति से दूर चले गये हैं। थोड़ी धीमी गति ही सही, लेकिन अपने धरोहर, प्रकृति, पर्यावरण और जलस्त्रोंतों के साथ विकास का रास्ता तय कर सकते हैं, जहां से हम सस्टेनेबल डवलपमेंन्ट का नया मोडल देश को देकर दुनिया के सामने विकास का नयामोडल पेस कर सकतें हैं। ताकि आने वाले समय में शुद्व हवा, पानी, भोजन, पर्यावरण के साथ भविष्य में आने वाले प्रकृतिक आपदा, भूख, बीमारी, गरीबी, विस्थापन, जलप्रदूषण, प्रदूषित जलवायु जैसे महामारी के खिलाफ जंग जीत सकें।
आज विकास के जिस मोडल को अपना कर हम प्रकृति-पर्यावरण, का सेहत बिगाड़ कर, विगड़े मौसम, बिगड़े पर्यावरण और सेहत को फिर से ठीक करने के लिए चिंतित हैं। इस बिगड़े पर्यावरण की सेहत के साथ अपनी सेहत को सुधारने के लिए हम अपने जीवन शैली को बदलने का राह तलाशने में जुटें है। अब सब चाहते हैं सस्टेनेबल डवलपमेंट के साथ ओरगेनिक भोजन वस्तु और प्रदूषण मुक्त पर्यावरण।
आज जब पुरी दुनिया कोविड-19 के महामारी से तबाह है। विश्व के ताकातवर देश , अमेरिका, स्पेन, इटली, इग्लैंण्ड, फ्रांस, चीन, जर्मर्नी, रूस, बेलजियम, ईरान, तुर्की सबको कोरोना महामारी ने घुटनों में ला दिया है। विश्व को आर्थिक, तकनीकी और राजनीतिक तौर पर नियंत्रित करने वाले देशो के राजसत्ता की ताकत, अरबपतियों, पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के बैश्विक आर्थिक ताकत तथा वैज्ञानिकों की बैद्विक ताकत भी कोरोना महामारी के सामने अपने को लाचार महसूह कर रहा है।
महामारी ताकतवर बिश्वा के सत्ता संचालकों, अरबपती, करोड़पति, अमीर, पूंजिपति और गरीब वर्ग किसी को नहीं छोड़ा़। सबको एक ही कतार में लाकर खड़ा कर दियां। विकास की बैश्विक ताकत भी महामारी को रोकने में कमजोर ही दिख रहा है। महामारी के कारणों का भी पता लगाने में बैश्विक ज्ञान-विज्ञान भी महामारी से पिछे दिख रहा है।
आज सभी ग्लोबल है। देश की अर्थव्यस्था, बाजार व्यवस्था, पूंजी व्यवस्था, शिक्षा, स्वस्थ्य व्यवस्था सभी ग्लोबल है। हमारी सोच और जीवन शैली भी ग्लोबल हो चुकी है। कोरोना महामारी भी बैश्विक ग्लोबल व्यवस्था का ही एक हिस्सा बन गया है। हैरानी की बात तो यह है कि-कोरोना महामारी के पहले हमेशा पूरा विश्व दावा करता था कि, आज कोई भी बीमारी लालईलाज नहीं है। दावा किया जाता था-जितना तरह का बीमारी, उतने तरह के दवाओं और इलाजों को इजाद किया जा रहा है। लेकिन कोरोना महामारी से इलाज के लिए किसी भी देश के पास न दवा, न वैक्सीन ही है। अब खबरें मिल रही है-कि लोग रिसार्च में जुट गये हैं, लेकिन दो-तीन माह या तो दो साल लगेगा दवा उपलब्ध कराने में। जबकि इस महामारी से प्रतिदिन हजारों लोग शिकार हो रहे हैं और हजारों लोगों की मौत हो रही है। हां इस वैश्विक महामारी से राहत के लिए मलेरिया से बचाव के लिए उपयोग होने वाले दवाई हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन और पारासिटामोल की मांग भारत से वैश्विक देश भी कर रहे हैं। जिस मलेरिया से इलाज के लिए गांवों में पहले भूईनीम, चिराईता, चमगर पौधा, हरसिंगार और चराईगोडवा जैसे जंगली पौधों के पत्तों को उबालकर लोग सेवन करते थे। प्रकृतिक इलाज का या परंपरा आज भी ग्रामीण इलाके में किया जाता है।
आज हम विकास के जितने भी उंचाई पर पहंच जाएं, फिर भी मनुष्य को जीवित रहने के लिए मानव सभ्यता और विकास के पषाण युग के अर्थव्यस्था मे जीने का जो परिभाषा था रोटी, कपड़ा और मकान, आज के विकसित अर्थव्यस्था में भी मनुष्य को जिंदा रहने के लिए इसकी निहायत आवशयकता है। पूरे जीव मंडल के लिए भोजन, हवा, पानी जरूरी है। इसके लिए जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, झील, झरना, पेड़, पौधों के संरक्षण के बिना संभव नहीं है। संजीवनी बूटी जंगल-पहाड़ो में ही उपलब्ध होता है। हमें इतिहास के उन तथ्यों एवं घटनाक्रम को नहीं भुलना चाहिए, जहां से हमने चलना शुरू किया था। आज आदिवासी सामूदाय के जंगल-जमीन को आबाद करने और इसे बचाये रखने के संघर्ष के इतिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। जंल-जंगल-जमीन -पर्यावरण के साथ समाज का ताना-बाना आधारित जीवनशैली ही विश्व को दिशा दे सकता है। चाहे हम उसे पषाण युग का दंतकथा ही क्यों न मान लें। प्रकृति का अपना जीवन शैली , ज्ञान-विज्ञान है। उसे हम रोकेगें, छेड़ेगे, दबायेगें, तो वह अपना प्रतिक्रिया देगा ही चाहे वह जिस भी रूप में हो। चाहे वह प्रकृतिक अपदा हो या महामारी हो।
प्रकृति की गोद में रचे-बसे गांव की जिंदगी को भले ही हम पिछडा समाज के तौर पर देखतें हैं, लेकिन आज जब ग्लोबल वार्मिंग के ताप से राहत कें लिए एसी, कुलर, पंखे ही हमारा सहारा होता है। यदि बिजली लोकसेडिंग हो जाए तो इससे भी बंचित हो जाते हैं। दूसरी ओर गांव के लोग घर आंगन के इमली पेड़, नीम पेड़, जीतिया पेड़, बरगद पेड़ का छांव ही, कुसूम पेड़, जामुन पेड़ पूरा गांव के लिए एसी और कुलर का काम करता है। लू लगने पर इमली का लेप, पलाश फूल का शरबत, मटा साग, इमली पलवा, कंदा साग, बेंग साग का मांडडबका पीकर दुरूस्त रहते हैं। हम तपती गर्मी में प्यास बुझाने के लिए फ्रीज में बंद बोलत का पानी ढुडते है। ग्रामीणों के लिए कुम्हार के चाक के मिटटी से बने नया घड़ा का षीतल पानी ही अमृत की तरह है। इस परंपरागत कुलर के लिए बिजली के वोलटेज की भी जरूरत नहीं हैं। विकास की दौड़ में, आगे निकलने की होड़ में अपने प्रकृतिमूलक जीवन शैली से हम दूर चले जा रहे है उस वैश्विक रास्ते से, आगे जाकर वो रास्ता किस वैश्विक महासमुद्र में मिलेगा, शयद हमें उसी वक्त पत्ता चलेगा, कि हम कहां पहुंच जाएगें। जैसे अमेरिका का मैनहाटन, जहां से पूरे विश्वबाजार , की अर्थव्यवस्था नियंत्रित एवं संचालित होती है। लेकिन वहां कोई जंगल नहीं होगा, मलेरिया के लिए चिरौता, भूईनीम नहीं होगा, इमली छांव, पीपल या जीतिया पेड़ का छांव नहीं होगा। जहां अनाज पैदा करने वाला कोई खेत-टांड नहीं होगा।
हम हर तरह से धनी हैं। झारखंड का क्षेत्रफल 79,714 वर्गकिमी हैं, यानी 7971400 हेक्टेयर है। इसमें लगभग 23 लाख हेक्टेयर भूमि का उपयोग जंगल के लिए हो रहा है। जहां सैकड़ों तरह के वनोपज का पैदवार होता है। हजारों किस्म के जड़ी-बूटी, कंद-मूल से पटा हुआ है। हजारों किस्म के पेड़-पौधे मिलेगें। यही जंगल-पहाड़ हजारों जीवमंडल का असियाना और जीविका का आधार है। 6 लाख हेक्टेयर भूमिं खाली है। 27 लाख हेक्टेयर भूमिं कृषि योग्य है लेकिन खेती नहीं किया जाता, परती, और चरागाह आदि के लिए है। 41 लाख हेक्टेयर भूमिं कृर्षि योग्य है, इसमें 3.12 लाख हेक्टेयर बेकार पड़ी है। परती भूमि 19.58 लाख हेक्टेयर है तथा कुल 18.30 लाख हेक्टेयर भूमि बोई गयी भूमि है जिसमें लगातार फसल बोयी जाती है। यहां यह स्पस्ट है कि झारखंड के क्षेत्रफल का आधा से अधिक याने 51.44 प्रतिषत भूभाग कृर्षि के योग्य है। किंन्तु संसाधन के आभाव में इसका संपुर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है,। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आता है। इसके तहत गांवो के सीमा के भीतर सभी परती भूमि का बड़ा हिस्सा ग्रामीणों के अधिकार में है।
आज राज्य में उपलब्ध प्रकिृतिक धरोहर की समीक्षा करने की जरूरत है। जंगल और कृषि भूमि तेजी से घटते जा रही है। पर्यावरण का संकट बढ़ते जा रहा है। राज्य के जलस्त्रोत अंतिम स्वांस ले रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और प्रदूषित पर्रावरण ने मनुष्य सहित प्राणीमंडल और प्रकृति पर हमला बोल दिया है। पर्यावरण को सपोर्ट करने वाले जीव-जन्तु खत्म हो रहे हैं। हमें विकास का माॅडल तय करना होगा कि जमीन, जंगल, नदी, पहाड, जंगल, झाडी का कितना हिस्सा कृषि कार्य के लिए, जंगल, पर्यावरण के लिए, जलस्त्रोतों को जीवित रखने के लिए सुरक्षित रखना होगा। कितना हिस्सा भूमि औद्योगिकीकरण के लिए, कितना हिस्सा विकास के अन्य बुनियादी ढंचों के लिए सुरक्षित करें, इसका रोडमैप बनाने की जरूरत है।
यह भी समीक्षा करना है कि राज्य की आबादी के लिए अनाज का पैदवार कितना होता है? यदि खाद्यान का उत्पादन प्रयाप्त नहीं है राज्य की आबादी के लिए, तो उत्पदान बढ़ाने के प्रयास होना चाहिए। जब हमारे पास जमीन है, पानी है साथ में मैनपावर भी है। दूध, मच्छली, मघु, सहित सभी तरह कृषि उत्पादन का मोडल पेस कर सकते हैं। अपने राज्य को खाद्यान निर्यातक राज्य के रूप में वैश्विक मार्केट में अपना स्थान बना सकते हैं।
औद्योगिक विकास के क्षेत्र में भी राज्य पिछे नहीं रहा। देश के खनिज का 46 प्रतिषत भाग राज्य से देश को जाता है। केवल कोयला उद्योग द्वारा कोयला कंपनियां 67,218 हेक्टेयर जमीन से कोयला निकाल रहे हैं। सारांडा जंगल 82,000 हेक्टेयर पर फैला है, जहां से करोड़ो का लौह अयस्क का खनन होता है। शह कमिशन के अनुसार 22,000 करोड़ लौह अयस्क गैर कानूनी तरीके से निकला जाता है। अनुमान के अनुसार झारखंड में 40 हजार से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चल रहे हैं। राज्य में अयरन ओर माइंस, बाॅक्ससाइट मांइस, अबरख, डोलोमाइट, चूना पत्थर, माइगनेट, यूरेनियम जैसे सैकड़ों तरह के खान-खनिजों के उद्योग खोले गये हैं।
, आजादी के बाद विभिन्न औद्योगों द्वारा 20 लाख से अधिक जमीन ले लिया गया। विस्थापन की बात करें तो 80 लाख से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है। इन विस्थापितों में से 10-15 प्रतिषत को ही नौकरी मिल पायी है, या तो पूनर्वासित किया गया है। विस्थापित-प्रभावित रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। जमीन-जंगल के मालिक बंधुवा मजदूर, कुली, रेजा, जुठन थाली धोने वाली आया, रिक्सा चालक बन कर जिंदगी काट रहे हैं। न रहने के लिए घर है न दो जून की रोटी। बड़ी संख्या में राज्य से बाहर जाकर गुजर बसर कर रहे है।
औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी हो गये, प्रवासी मजदूर बन गये। लाॅकडाउन में आज दस-बारह लाख से अधिक प्रवासी मजदूर राज्य से बाहर फंसे हैं। ये सभी हर तरह की कठिनाईयां झेल रहे है। राज्य में बनी स्थानीयता नीति के तहत राज्य सरकार की जिम्मवारी है कि इन सभी प्रवासी मजदूरों के अपनी धरती में रोजगार उपलब्ध कराने की नीति बनायें। राज्य में चलाये जा रहे विकास योजनाओं के साथ इमानदारी पूर्वक इन्हें भी जोड़ा जाए। खान-खनिजों को रोयल्टी, डिस्ट्रीक मिनिरल फंड सहित सभी उत्पादों के लभाशो का हिस्सा राज्य के विस्थापितों और बेराजागरों को रोजगार उपलब्ध कराने में उपयोग होना चाहिए। मनरेगा जैसे रोजगार से ग्राम सभा को सीधे तौर पर जोड़ना चाहिए, वही तय करे कि गांव में कौन सा काम किया जाए। माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरेस्ट उत्पाद, बालू-गिटटी खान ग्राम सभा को संचालित और नियंत्रित करने की जिम्मेवारी दी जानी चाहिए, ताकि पर्यावरण का ध्यान में रखा जा सके।
औद्योगिकीकरण की वजह से राज्य का भूखंड बंजर भूमि में तब्दील हो चुका है। राज्य का कृर्षि प्रभावित हो रहा है। जलस्त्रोत प्रदूषित हो गये, नदी-झील, झरना सहित सभी तरह के जलस्त्रोत सुखता जा रहा है। वायु प्रदूषण से हर साल बच्चे से लेकर हर उम्र के लोग कैंसर आदि से हजारों बेमौत मर रहे हैं। आज पूरा विश्व पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वामिंग का मार झेल रहा है। गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी और सूखा। ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण को लेकर आम जनता से लेकर देश के नीति निर्देषक, सत्तासंचालक सभी समय समय पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं। पर्यावरण मेले में सेमिनार का उदघाटन करते मेघालय के राज्यपाल श्री गंगा प्रसाद ने कहा था-पर्यावरण सिर्फ शहरों में सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह गांव और जंगलों तक पहुंच गया है। जीवों की संख्या में लगातार कमी आ रही है तथा कुछ जीव विलुप्त भी हो चुके है। औद्योगिक विकास के लिए देश की जीडीपी अहम है-परंन्तु प्रदूषण जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
आज कोरोना महामारी से सभी ताकतवर देश लड़ रहे हैं। हमारा देश आर्थिक रूप से कमजोर है, साथ ही कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था के सहारे इस जंग को जीतना आसान नहीं था। जंग जीतने के लिए शोशल डिस्टेसिंग बड़ा इलाज है। इसके लिए लाॅकडाउन ही एकमात्र उपाय है। महामारी के खिलाफ जंग के मैदान में देश के नौवजवान, प्रषासन, डाक्टरस, नर्सें, मेडिकल टीम, स्वास्थ्य कर्मचारी जान हाथेली में रख कर देश को कोरोना से विजय दिलाने में लगे हैं। लाॅकडाउन के दौरान देश भर के कलकारखाने, छोटे-बड़े सभी व्यसायिक प्रतिष्ठान एवं सभी सरकारी कार्यालय, ट्रांसपोट, रेलयात्रा,हवाई यात्रा सहित सभी तरह के परिवाहन बंद थे। इस कारण देश भर में वायु प्रदूषण, ध्वानी प्रदूषण, जलप्रदूषण सहित सभी स्तर के प्रदूषण में कमी आयी है। आकाश साफ नीला, शाम होते ही चांद और तारे आकाश में चमकने लगे। सुबह होते ही विभिन्न तरह के पंक्षियो का निर्भयता पूर्वक चहचहाट से वातावरण गुंजने लगा। रंग-बिरांगे तितलियां आकाश में उड़ान भर रहे हैं। कई तरह के फूल-पौधों में तितलियों और मधुमक्यिों का रस चुसने के लिए मंडराना पर्यावरणीय जीवंतता का असहास दिलाने लगा हेै। प्रदूषित नालों और नदियों का पानी साफ हो गया। प्रदूषण में आयी कमी को आने वाले समय में क्या और कम किया जा सकता है ताकि प्रदूषण मुक्त पर्यावरण हम अपने अगले पीढ़ी को दे सकें।
देश के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंदजी ने अपने एक आलेख “प्रकृति से हमें सिखने की जरूरत है” में, प्रकृति-पर्यावरण और भविष्य पर चिंतन करते हुए कई अहम सवाल उठाये और इसका हल के तैार पर अपने सोच भी साझा किये हैं। लिखते हैं-2047 में जब भारत की आजादी के 100 वर्ष पूरे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा? जब 2069 में हम गांधी जी की 200वां जयंती मना रहे होगें, उस समय का भारत कैसा होगा? हमारे पास आज इन प्रश्नों के बहुत स्पष्ट उतर नहीं हैं। लेकिन सामजिक, बौद्विक, नैतिक और प्रकृति एवं पर्यावरण के क्षेत्रों में जो कुछ भी निवेश आज की पीढ़ी कर रही है, उसी पर हमारे इन सवालों का जवाब निर्भर है। जो जंगल हमें इस प्रकृति ने अपनी पूरी भव्यता में उपलब्ध कराएं हैं, वही नदियां, वही पहाड़ और जंगल क्या हमारी आने वाली पीढ़ियों को इसी भव्य रूप में उपलब्ध करा पाऐगें?
सच्चाई को स्वीकारने में हमारी महानता होगी। आज हम विकास के तेज रफतार की दौड में प्रकृति से दूर चले गये हैं। थोड़ी धीमी गति ही सही, लेकिन अपने धरोहर, प्रकृति, पर्यावरण और जलस्त्रोंतों के साथ विकास का रास्ता तय कर सकते हैं, जहां से हम सस्टेनेबल डवलपमेंन्ट का नया मोडल देश को देकर दुनिया के सामने विकास का नयामोडल पेस कर सकतें हैं। ताकि आने वाले समय में शुद्व हवा, पानी, भोजन, पर्यावरण के साथ भविष्य में आने वाले प्रकृतिक आपदा, भूख, बीमारी, गरीबी, विस्थापन, जलप्रदूषण, प्रदूषित जलवायु जैसे महामारी के खिलाफ जंग जीत सकें।
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