Friday, April 24, 2020

भाग-2-- औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी हो गये

                                                             भाग-2
 हम विकास के जितने भी उंचाई पर पहंच जाएं, फिर भी मनुष्य को जीवित रहने के लिए मानव सभ्यता और विकास के पाषण युग के अर्थव्यस्था मे जीने का जो परिभाषा था रोटी, कपड़ा और मकान, आज के विकसित अर्थव्यस्था में भी मनुष्य को जिंदा रहने के लिए इसकी निहायत आवशयकता  है। पूरे जीव मंडल के लिए भोजन, हवा, पानी जरूरी है। हमें इतिहास के उन तथ्यों एवं घटनाक्रम को नहीं भुलना चाहिए, जहां से हमने चलना शुरू किया था। आज आदिवासी सामूदाय के जंगल-जमीन को आबाद करने और इसे बचाये रखने के संघर्ष के इतिहास को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। जंल-जंगल-जमीन -पर्यावरण के साथ समाज का ताना-बाना आधारित जीवनशैली  ही  बिश्वा  को दिशा  दे सकता है। चाहे हम उसे पाषाण युग का दंतकथा ही क्यों न मान लें। प्रकृति का अपना जीवन शैली, ज्ञान-विज्ञान है।  उसे हम रोकेगें, छेड़ेगे, दबायेगें, तो वह अपना प्रतिक्रिया देगा ही चाहे वह जिस भी रूप में हो। चाहे वह प्रकृतिक अपदा हो या महामारी हो।

आदिवासी-मूलवासी किसान सामूदाय के पूर्वजों ने सांप-बिच्छू, बाघ-भालू जैसे खतरनाक जानवरों से लड़कर इस झारखंड राज्य की धरती को आबाद किया है। इतिहास गवाह है-कि जब अंग्रेजों के हुकूमत में देश  गुलाम था और आजादी के लिए देश  छटपटा रहा था, तब आदिवासी समुदाय के वीर नायकों तिलका मांझी सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, सिंदराय-बिंदराय, से लेकर वीर बिरसा मुंडा के अगुवाई में देश  के मुक्ति संग्राम में अपनी शहादत दी। इन्हीं वीर नायकों के खून से आदिवासी-मूलवासियों के धरोहर जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए ‘‘ छोटानागपुर  कास्तकारी  अधिनियम 1908’’ और ‘‘संताल परगना कास्तकारी  अधिनियम 1949’’ लागू किया गया। जो राज्य के आदिवासी-मूलवासी समुदाय के परंपरागत धरोहर जल-जंगल-जमीन का सुरक्षा कवच है।

झारखंड राज्य पांचवी अनुसूचि के अंतर्गत आता है।  यहां के 32 अनुसूचित जनजाति समूह और 22 अनूसूचित जाति समूह हैं। इस आदिवासी-मूलवासी समुदाय को जल, जंगल,जमीन की रक्षा, सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक, भाषा-संस्कृति की रक्षा, शैक्षणिक विकास, स्वस्थ्य की रक्षा एव विकास, सरकारी सेवाओं सहित अन्य सेवाकार्यों में भी  विशेष आरक्षण का अधिकार प्राप्त है। ताकि यहां के 32 आदिवासी एवं 22 मूलवासी किसान समुदाय सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्तर पर भी सक्षम हों।
 
भारतीय संविधान ने हम आदिवासी-मूलवासी ग्रामीण किसान समुदाय को पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में गांव के सीमा के भीतर एवं गांव के बाहर जंगल-झाड़, बालू-गिटी, तथा एक -एक इंच जमीन पर, ग्रामीणों को मालिकाना हक दिया है। यहां के माइनर मिनिरल्स, माइनर फोरस्ट प्रोडक्ट पर भी ग्राम सभा का अधिकार है।

आजादी के पहले से ही देश  विकास के नाम पर यहां के स्थानीय भूमि मालिकों से जगल, जमीन जबरन छीनने का काम शुरू हुआ है। कई जगहों में स्थानीय लोगों ने विकास के लिए जमीन देने में कोई दिक्कत नहीं किया। 1907 में देश  के स्टील की जरूरत की पूर्ति करना था, तो टाटा कंपनी को जमशेदपुर में आदिवासी-मूलवासी किसानों ने जमीन दी। इसके साथ ही राज्य में कई उद्योग शुरू किये गये। यहां से विकास वनाम विस्थापन   की  त्रास्दी का इतिहास शुरू होता है.  आजादी के बाद तो  झारखंड में उद्योगों का जाल विछा दिया गया। हटिया में एचईसी, बोकारो स्टील प्लांट, तेनुघाट डैम, ताप विद्युत तेनुघाट, चंन्द्रपुरा, बारूद करखाना, कोयला खदानें-सीसीएल, बीसीसीएल, ईसीएल, अयर ओर माइंस, बाॅक्ससाइट मांइस, अबरख, डोलामाइट, चूना पत्थर, माइगनेट जैसे सैकड़ों तरह के खान-खनिजों के उद्योग खोले गये हैं।

 अनुमान के अनुसार झारखंड में 40 हजार से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चल रहे हैं। सोंकड़ों वृहद उदोग धंधे चल रहे हें देश  के खनिज का 46 प्रतिशत भाग राज्य से देश  को मिलता है। केवल कोयला उद्योग द्वारा कोयला कंपनियां 67,218 हेक्टेयर जमीन से कोयला निकाल रहे हैं। यह आंकड़ा सिर्फ खदानों में गयी जमीन की है , शहरीकरण, रोड , सहित अन्य बुनियादी बेवस्था की लिए गयी जमीन का कोई हिसाब नहीं है।  आजादी के बाद विभिन्न औद्योगों द्वारा 20 लाख से अधिक जमीन ले लिया गया। विस्थापन की बात करें तो 80 लाख से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है। इन विस्थापितों में से 10-15 प्रतिशत को ही नौकर मिल पायी है, या तो पूर्नासित किया गया है। बाकि दो जून की रोटी , रहने के लिए झोपडी के लिए दर दर भटक रहे हैं।

सारांडा जंगल 82,000 हेक्टेयर पर फैला है, जहां से करोड़ो का लौह अयस्क का खनन होता है। शह कमिशन के अनुसार 22,000 करोड़ लौह अयस्क का खान गैर कानूनी तरीके से चलता है। खनिज के उत्खनन की वजह से उस क्षेत्र का कृर्षि प्रभावित होता है। जलस्त्रोत प्रदूषित हो गये, नदी-झील, झरना सहित सभी तरह के जलस्त्रोत मर गये। वायु प्रदूषण के हर साल बच्चे से लेकर हर उम्र के लोग कैंसर आदि से हजारों बेमौत मर रहे हैं। विस्थापित-प्रभावित रोजी-रोटी के लिए दर-दर फटक रहे हैं। जमीन-जंगल के मालिक बंधुवा मजदूर, कुली, रेजा, जुठन धानी वाली आया, रिक्सा चालक बन कर जिंदगी काट रहे हैं। न रहने के लिए घर है न दो जून की रोटी। बड़ी संख्या में राज्य से बाहर जाकर गुजर बसर कर रहे है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से उजडे लोग आज निज घरे परदेशी  हो गये

 झारखरण्ड के लिए बिडम्ना हैं की अनुसूचित जनजाति से  केवल 1206 लोग ही उद्यामी हैं
-राज्य के लिए दुभग्य की बात है कि प्रकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण राज्य में आदिवासी, दलित, मजदूर और मेहनतकाश  आबादी को व्यवसाय के क्षेत्र में जोड़ नहीं पाये हैं।  ताकि आदिवासी, दलित सामूदाय का आर्थिक सशक्तिकरण करके बाजार में भी उनकी भागीदारी सुनिश्चित  किया जा सकता था। व्यवसाय के क्षेत्र में आदिवासी समुदाय की भागीदारी-झारखड में 3.29 करोड़ आबादी में अनुसूचित जाति और जनजाति के केवल 1,206 लोग ही उद्यामी हैं। ये लोग हैं जो जिला उद्योग केंन्द्रो में निबंधित है तथा प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के तहत लोग लोन लेकर अपना व्यवसाय या उद्योग (कुटीर उद्योग) चला रहे हैं। जब कि राज्य भर में 97,998 उद्यामी निबंधित हैं।
शेष भाग --३ में पढ़ें 

No comments:

Post a Comment