Monday, April 6, 2020

मनुष्य और प्रकृति के बीच भी सामंजस्य था-यही प्रकृति और पर्यावरण का वयरस हमें सभी महामारियों से लड़ने की समार्थ देता था।

पहले हम प्रकृति के बहुत निकट थे तब क्या उस समय उन जंगली जीव-जंन्तु, कीडे मकोडों में वयरस नहीं था? निश्चित  तौर पर था, लेकिन प्रकृति ओर पर्यावरण के बीच सामंजस्य था, मनुष्य और प्रकृति के बीच भी सामंजस्य था-यही प्रकृति और पर्यावरण का वयरस हमें सभी महामारियों से लड़ने की समार्थ देता था। 

आज देश  ओर बिश्वा  विषेश  संकट के दौर  से गुजर रहा है। एक एैसा संकट जिनकी कल्पना कभी हम लोगों ने नहीं किया होगा। देश  विकास की जिन उंचाई पर पहुंचा है, ग्लोबल दुनिया, ग्लोबल बाजार, ग्लोबल पूंजी, ग्लोबल पूंजी बाजार,  ग्लोबल वारमिंग, ग्लोबल इकोनोमि, ग्लोबल पोलिसी, अब ग्लोबल महामरी याने कोरोना। इस ग्लोबल पूंजी बाजार ने मुनाफा से पूरी प्रकृति, पर्यांवरण ओर मानव सभ्यता को तौल रहा है।  ग्लोबल पुंजी बाजार में मुनाफा के सामने प्रकृति, पर्यांवरण ओर मानव जीवन कमजोर पड़ता जा रहा है।  परिणाम सामने हे-गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी। दुनिया में विकास की इतनी तेज रफतार हे कि प्रकृति ने अपनी गति और अपनी नीयती ही बदल दी। यही नहीं प्रकृति ने अपनी दिशा  और दशा   भी बदल दिया है । जहां पहले घनघोर, बीहड जंगल था, हरियाली से ढंके पहाड थे, इठलाती कलकल करती नदियां बहती थी। अगहन महिना में दूर-दूर तक खेतों में धान की बालियां झुमती थी, गेंहू, मटर, ज्वार, बजरा, सभी तरह के पत्तेदार साग-सबजियों से किसानों के खेत हरियाली से पटा होता था।ं, उस समय जंगल के बाघ, भालू, बंदर, हाथी, सियार, भेडी, आदि के साथ प्रकृतिकमूलक आदिवासी मूलवासी सामुदाय के साथ  के दोस्ताना रिस्ता था।


 जंगल के बीच, पहाड़ की ढ़लानों में, नदी के किनारेे, खेत-टांड के बीच रचे-बसे गांव को इन जंगली जनवसरों से खतरा नहीं था। प्रकृति और प्र्यावरण के साथ रचे-बसे आदिवासी किसानों के जीवनशैली के जंगली जानवर बाघ, भालू, बंदर, लंगूर यहां तक कि सांप, बिच्छुओं के साथ खास संबंध था। सामाज के लो जानते थे कि इनका निवास स्थान कहां है, उनका आने-जाने का रास्ता किधर है, उनके निकलने, आने-जाने का समय भी जानते थे। उसी हिसाब से लोग ने भी अपनी गतिविधयां तय करते थे। लोग जानते थे कि यदि आप उन्हें छेडेंगें नही तो वह आप को कोई हानि नहीं पहुंचायगा। यही कारण है कि आज भी बिश्वा  भर में आदिवासी -मूलवासी सामाज जंगलो में ही बास करता है। और भी वहीं सुरक्षित भी है, जहां आदिवासी-मूलवासी समुदाय रहता है। 
ये जानवर हमेशा  गांवों के किनारे खेतों खलिहान में चरने आते थे। गांव के मिटटी के घरों के दिवाल, खपरैले बांस- बली से छरे खैपरेले घरो  के छतों के बांस के फोंफी से छोटे भादूल शाम होते फूर फूर उड़ कर निकलते। तेजी से उड़ते हुए मच्छड़ों का शिकार करते, साथ ही उड़ते छोटे छोटे कीड़ों का शिकार करता है। घरों में चूहा,, मुसा, चुयिाटा  , उछल-कूद करते रहते।  मिटटी की दिवालों पर छिपकली चिपका अपने शिकार की तलाश  में निहारते रहता। छोटे छोटेे उड़ते किड़ों, मकड़ो को अपने जीभ से लपेट लेता,। 




प्रकृतिकमूलक आदिवासी मूलवासी समुदाय के पूर्वंजों ने प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए गांव बसाने का काम किया। अपना परंगरात तकनीकी था। गांव पेड़ पौधों के झुरमुट के बीच बसा होता है। अधिकांश  आदिवासी गांव में इमली के पेड़ अधिकांश  मिलता है। गांव का अखड़ा  के पास दो- तीन इमली पेड़ होता ही है, जो पूरी तरह छायादार होता है। जहां आदिवासी हर पर्व त्योहार का पूजा रस्म पूरा करते है। यहीं पूरा गांव के महिला, युवा वर्ग एवं बच्चा बुजूर्ग सामूहिक रूप से नाचते गाते है। पहले कोई गांव का बैठक होता था तो, लोग अखड़ा में ही बैठते थे। कई गांवों के इमली पेड़ में भादुल परमानेंट पचास-साठ वर्षों से रहते आ रहे हैं।  इमली पेड़ के सभी टहनीयों पर, पैर के नखून से लटके रहते है।ं दिन को नीचे सिर करके अपने मुलायम लाएलुन कपड़ानुमा पंख से अपने शरीर को ढंके  टहनी पर लटके सोते रहते हैं। शाम होेते ही भोजन की खोज पेड़ से उड़ कर दूर चले जाते हैं।, अहले सुबह भोर होने के पहले ही वापस पेड़ पर आ जाते है।, सुबह चार-पांच बजते जोर से चेंचेंचेचेंचें चें चें की सामूहिक आवाज देर तक करते हें। कभी कभी दिन को भी चेंचेंचेंचेंचें हला करते हें। गांव वाले भादूलों को गांव शोभा और शुभ मानते हें यही करण हे गांव वाले मारने नहीं देते है।ं भादूल फलाहारी  होते हें। फलों और पत्तों का रस चूसते है। फलों की खोज में दूर दूर चले जाते हें, आम, बेर, महुंआ, डोरो, कुसुम, बर, डूमर, पिपल, सिमिज हेसआ, केंउद, अमरूद, पपिता आदि खाता है। जब फल नहीं मिलता है-तब आम  पत्ता, जितिया पत्ता, आदि पेड़ों के पत्तों को खाते और उसका रस पीते हैं। ये रात के समय तालाब से या झील आदि से पानी पीते  हैं. जब भादुल किसानों के फलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हें तो गांव वाले उसे जाल डाल कर रोकने की कोशीश  करते हैं।  पेड़ के नजदिक पत्ला धागा का बना जाल पेंडों पर या उंचा उंचा बांस गाड कर जाल लगा देते हें जाल में फंस जाने पर भादुल को लोग मार कर खाते हैं। पका कोई फल पेड़ से गिरा हुआ है और वह कुतरा हुआ है तो यह अनुमान लगा लेते हें कि इसको भादुल या गिलहरी खाया है। उस कुदरा फल को लोग प्यार से खा लेते हैं, और कहते है-चिडिंया, भादुल ओर गिलहारी खाया , या कुतरा फल बहुत मीठा लगता है। आज भी गांव के लोग एैसा मानते और करते हें।
 गांव में मुसा तीन तरह का होता हैं, एक घर में रहने वाला, दूसरा टांड या झाडी में रहने वाला और तीसरा खेत में रहने वाला। ये सभी मुसा अनाज, फल आदि खाते हैं ये सडा-गला, मेला आदि भी खाते है। घर में रहने वाला किसानों के घरों में घरे आनाज आदि चोरी कर खाते हैं। खेत -टांड में रहने वाला मुसा खेत से ही धान, मंडुवा, उरद, मकाई, गंगाई, ज्वार, बजरा आदि फसलों की बालियां काट कर अपने बिल में घुसा लेते हैं। इन तीनों तरह के मुसा का जो खाना पंसद करते है, मार कर हमेशा  खाते है।  सियार प्रया सभी जगहों में रहते हे, चाहे वह जंगल इलाका हो या फिर जंगल विहीन इलाका। सियार शाम होते ही अपने गुफा से बाहर निकल कर हुंआए हुंआए हुंआए करने लगता हे। सियार रात के अंधेरे में भी अहार खोजने निकलता है और दिन को भी मोका देखकर चरते भेड़-बकरी, मुगी, चंगेना उठा कर भाग जाते हें। जब सियार बकरी को भगा लेता हे ,बकरी को मार खाता है। यदि सियार षिकार किये बकरी को खा कर खत्म नहीं कर पाता है, ओैर यदि किसी व्यक्ति को मरा बकरी मिल जाता है, तो उसको लोग पका कर खा जाते हें। 


आदिवासी गांव पेड़ों के झुड के बीच बसा होता हैं गांव के भीतर, बाहर चारों तरफ सोंकड़ों तरह के पेड़ होते हें। बांस बखोड, आम, लीची, इमली, कटहल, अमरूद, कोयनार, कचनार, बेर, बेल, गम्हर, डाहू, पपीता, गोलाईची, मुनगा, मुनगी, पुटकल, करंज, सरला, मठा, सरीफा आदि पेड़ भरे मिलेगें।  इन पेड़ो में उलू, बगुला, मेना, गेंरवां, पंडकी, फिकोड़, तोता, कटफोडवा, हुदहुद सभी चिडिंया बास करते हें। आदिवासी समाज इन जानवरों, चिडियों के बोलने, रोने की लाय-भाषा को संवाद मानते हैं।ं उलु अमुमन रोता हे तो...खेररररर....खेरररररररररर की आवाज करता हें। लेकिन जब वह कोगज...कोगज की आवाज करता है...तो गांव के लोग इसे गोज पेचा याने उलु का रोना कहते हैं जिससे अपसगून मानते हैं, कहते हैं..कहीं किसी के साथ बुरा हो सकता है। सियार रोता है तो हुंआए हुंआएए आवाज निकालाता है। लेकिन जब वह फेयोयो....फेयोयो...आवाज निकालता है...तो गांव के लोग कहते हैं-फेकाइर रो रहा है इसके रोना को गांव के लिए बुरा खबर माना जाता है
पहले जंगल इलाके में घनघोर जंगल था।ं जंगल में हर तरह के पेड़ पौधा, जंगली घांस, फूल-पत्ता मिलता था, जो जंगली जानवरों के वासस्थली के साथ इसी से भोजन उपलब्ध होता था। जंगली केला, बरगद, पिपल भी मिलता था। उस समय बारिष भी बहुत होती थीं। पहाडी इलाका या जंगली इलका हो पहले हाथी गांव में नहीं आता था। गांव का फसल भी आज की तुलना में कम ही नष्ट करता था। पहाडी और जंगली इलाके में टांड के गंगाई, मकाइ बोदी, गोंदली, बदाम, शकरकंदा को भालू, बंदर, लंगूर और हिरन खाते थे, फसल की रक्षा गांव वाले करते थे, साथ ही इनका शिकार भी करते थे।  जानवरों के नहाने, पीने के लिए झील, झरना, नदी, नाला में पानी उपलब्ध होता था।
जंगल-पहाड़ों के बीचं, नदी, झील, झरनों की तराईयों में प्रकृति साथ जीने वाले आदिवासी समुदाय जिंदगी खेती-बारी, जंगली फूल, पत्ता, फल, आम, इमली सहित तमाम तरह के फूल-फल पर ही टिका हुआ था और आज भी इसी पर निर्भर है। भोजन के रूप में जंगल के पत्ता, फूल-फलों को उपयोग करते हैं और जब बीमार होते हैं तो भी इससे ही दवा-दारू के रूप में उपयोग करते है। केवल सेवन विधि अलग होता है। ये अजीब सी बात है जिसको जंगली जानवर खाते-पीते हैं, उसे मनुष्य भी उपयोग करते थे और करते हैं। तब आज की तरह उसमें वयरस नहीे होता था क्या? 
आज सब बदल गयां, हरयाली ओढे जंगल पहाड़ अब कोयला माइंस, अबरख माइंस, यूरेनियम माइंस, बोक्साइड माइंस, अयरआरे माइंस में तबदील हो गयां। जंगल-झाड, हरियाली खेत टांड बडे बडे डैेम के पानी में जलमगन हो गया हजारों किस्म का आनाज दा करनी वाली धरती कलकारखानों, उद्योंगो, चकाचोंध षहरों और महानगरों में तब्दील हो गया। तलाब, नदी, झील, झरना, गायव हो गयें, पेड कट कर खत्म कर दिया गया। जंगल खत्म हो गया। विकास की संडकें जगलों को उजाडते, पहाड़ों को भेदते गांव गांव तक पहुंच गया।  अब गांव गांव से प्रकृतिक संषाधनों को इसी संडक से ढोया जा रहा हे। जंगल मरूभूमि में बदल गया। नदी, झील, झरना मर गया। अब जंगल में मोर भी नहीं नाचता। अब बारिष भी समय से नहीं, कभी अति वृष्टि तो कभी अनावृष्टि , गर्मी में 45 डिग्री तापमान, तो  बरसात में भी गर्मी पचास डिग्री तापमान। प्रकृति की बदली गति और नीति-नीयती को हम विकसित शब्दों में शायद ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। 






ग्लोबल वार्मिंग शब्द को अविकसित गांव के लोग नहीं समझ सकते हैं। हां पहले जनवरी -फरवरी माह आते लोग पेड-पौधों के पत्ते झड़ने लगते, जंगल के सभी पेड़ पुराने पत्तों को फरवरी-मार्चं के अंत तक गिरा देते हैं। सिर्फं खजूर का पेड़ से पत्ते झड़ते नहीं हैं ं। जंगल-झाड का दृष्य बदलने लगता। नये कोंपले निकलता, लाल, हरा, बैगनी, नीला, दुधिया सफेद, हल्का भूरा, हल्का पीला, परपल कोंपले और फूल -पत्ते मन को अनायास ही अपने कब्जे में कर लेता। पेड से पते झडने लगते तो, समझ जाते थे, यह पतझड ऋतु है। इसके बाद बसंत आयेगा, बंसंत के बाद गर्मी और गर्मी के बाद बरसात और जाड़ा।  र्प्रकृति के बदलते दृशय को देख समझ जाते  कि अब बसंत ऋतु आ गया है। आम के पेड़ में दुधिया सफेद मंजरी, हल्का भूरा मंजरियों में मंड़राते मधु मकखी, भोरें, आम के पत्तों में मंजरी के रसों में हनाया चमकती, चिपचिपाती पत्ते जिंदगी में हर पल जीवन रस का अहयसय कराता है। जंगल में कुसुम, जमुन पेड़ में लाल नये कोमल पत्ते, प्लास के लाल फूल, महुआ और चार के पेड़ों में हल्के भूर कोमल पत्ते, ढेलकंटा के झाड़ी में सफेद दुधिया फूल, साल के पेड़ो में हल्की लाल कोमल पत्तों के चादर से ढंका झारखंड का जंगल-पहाड़ बसंत के आगमन का अहसास कराते हैें। प्रकृति के इस नवजीबन के साथ ही आदिवासी समाज प्रकृतिक त्योहार सरहूल की तैयारी करते हें । गांव गांव में बा परब, खदी, सरहूल की तैयारी में हर रात अखड़ा में मंदर की थाप के साथ जादूर नाच- गीत से गांव सरहूलमय हो जाता हें । खूंटी से पूरव मुंण्डा गांवों में जादूर नाच और गीत ढोलक की थाप पर थिरकते हैं। 
सच्चाइ है पहले हमलोग प्रकृति के ज्यादा निकट थे, पर्यांवरण के साथ हमारा गहरा संबंध था। प्रकृति से हम उतना ही लेते थे जितना हमे जरूरत हे, और हम जितना प्रकृति से लिये, प्रकृति को उसे दूना देने की कोशीश  भी किये।, लेकिन आज केवल हम उनसे ले रहे हें, प्रकृति को कुछ भी नहीं दे रहे हैं।  प्रकृति और पर्यावरण के साथ हम मनुष्यों का यह बड़ा अपराध है।  

जैसे जैसे देश  का जीएसटी बढाने जा रहे हैंे, देश  की अर्थव्यवस्थ मजबूत करने के लिए आजादी के बाद देश  को संचालित करने के लिए भारतीय संविधान में पावधान देशी  कानून को तोड़ कर दुनिया के बाजार के हिसाब से कानून में संषोधन किया जा रहा हें। अब देश  के किसानों के लिए भारतीय संविधान में जो पावधान थे को अंतराष्टीय कानून के साथ जोड़ा जा रहा है। अब भारतीय कृषि  नीति नही्, राष्र्टीय कृषि नीति कहलाएगा। अब सभी कानून अंतराष्टीय बाजार के हिसाब से होगां शिक्षा नीति, स्वस्थय नीति, सहित जिंदगी की तमाम सेवाएं सरकार नहीं अब  नीजि उद्योग घरानों के हाथों होगां। नीजि उद्योग घरानों का पहला लक्ष्य-मुनाफा कामना होगा। मुनफा कमाने के होड़ में रोजगार ओर सामाजिक संबंध के बीच कोई मानवीयता संबंध नहीं रह गयां। उत्पादन और गुणवता बढ़ाना हे तो मशीनीकरण का इतेमाल  को प्रथमिकता दिया जा रहा है।






विकास के रास्ते आज हम यहां पहुंच गये हे, कि जंगली जानवरों के रहने के लिए जंगल सुरक्षित नहीं है, न ही जंगल में जानवरों के लिए भोजन, पानी मिल रहा है। हाथी  को मुलता पिपल पत्ता, उसका छाल, जंगली घांस, पत्ता, बरगद पत्ता, उसका छाल, केला पत्ता, केला आदि पसंद है। जंगल में अब न तो बरगद रह गया, न पिपल न, केला,ं अब बरगद है तो गांव में ही बचा है। पिपल और केला आदि भी गांव में हैं । जानवरों के लिए चरने के लिए जंगल भी नही बचा, यही कारण हे कि अब सभी जंगली जानवर गांव पहुंच जा रहे हैं। हाथी का भोजन अब गांव में किसान का फसल, किसानों के घरों का आनाज, कटहल है।ं अब हाथी गांव गांव पहंुच कर हडिंया पी रहा हे, शराब के लिए तैयार महुंआ से अपना पेट भारने को मजबूर है। अब गलती किसकी?
गांव पहले हाथी  अपने से नहीं था, जब महावत हाथी  लेकर आता था तो लोग हाथी देखने के लिए दौड पडते थे। लेकिन अब बिना महावत के दस -बारह की संख्या में हाथी गांव आकर किसानों के घर का आनाज खा जा रहे हैं, कटहल, केला, खेत का फसल रौंद रहे हें। लोगों को कुचल रहे हैं,ं  लोग कहते हैं, आज जो बिस्वा  में महामारी आया है -किसी वयरस से आया हैं, कोई कहता है, मनुष्य चमगदड खाया था वही वयरस दूसरे मनुष्य में फैलता जा रहा है। यह अचंभा सा लगता है कि चमगादड के वयरस से बिश्वा  परेषान है, न डाटर, न ज्ञान-विज्ञान की  समझ से परे है यह वयरस। गांव वाले समझ नहीं पर रहे है कि चमगादड के कारण कैसे एैसा हो गया। ..आज भी झारखंड के कई गांव के इमली पेड़ पर चमगादड सैकड़ों की संख्या में लटके हुए हैं। कई गांव में इमली पेड़ पर, कई गांव में आम पेड़ में अभी भी हैं। गांव वालों को मानना है कि भादूल के कारण गांव में बीमारी  में नहीं आता है, इसीलिएं गांव वाले भादूल को गुलेल या ढेला-पत्थर भी नहीं मारते हैं। छोटा भादूल घरों के छतों के आसपास ही रहता हे, वह उड़ते उड़ते मच्छड़ों को छपटता हैं ।
कोरोना को लेकर जब चर्चा होने लगा, कि यह महामारी चमगदड के सूप पीने के कारण मनुष्य  में आया हें अब वही वयरस एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैल रहा हे। इस समचार के बाद भादूल, हापूउ-(मुंण्डारी,) चमगादड आंख के सामने मंडराने लगे। अपने गांव के इमली पेड़ के भादूलों की चेंचेंचें की आवाज कान में गुंजने लगा। गांव के खरैल छतों के बांस, दिवाल के छिदरों से फूरर फूरर उड़ते छोटे छोटे काले भादूलों का उड़ान भरना, दिमाग में हलचल ला दियां। दो हजार पंदाह में में जब अमेरिका गयी थी तब मुझे भादूलों को देखने के लिए साथियों ने ले गये थे। मैं जगह भूल गयी हुं, जहां हर शाम को सेंकडों लोग उस वर्गाेकार घर से निकलने वाले छोटे भादूलों के निकलने और उड़ने को देखने के लिए जाते हैं। भादूलों के ठहरने के लिए वर्गांकार घर बनाया गया है, लोगों ने बताया कि वहां छह-सात हजार छोटा भादूल होगें जो हर षाम निकल कर बाहर जाते है।ं जब वे निकलते हैं तो भादूल का झुंण्ड से आकाश  को दो-तीन मिनट के लिए बादल की तरह ढंक लेता है। भादूल सूरज की रोशनी खत्म होते ही बाहर निकलते हैं और कहीं चले जाते हैं और सुबह होने से पहले वहीं वापस आ जाते हैं। 

No comments:

Post a Comment