Sunday, August 21, 2011

क्या करे मैडम, काम न करने से खायेंगे क्या? बीडी मजदूरों का दास्ताँ..-रिपोर्ट बिरसा वाणी

यहां दुख का जन्म होता है
तेंदूपत्ता छटाई और बंधाई का काम करने वाली 35 वर्षीय सीता तांडी को पिछले साल जुलाई के महीने में जब आठ महीने का मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसके साथ काम करने वाले अन्य श्रमिकों को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि उनके लिए यह एक रोजमर्रा जैसी बात थी. सीता के परिवार वाले दुखी थे. एक तो मरा हुआ बेटा पैदा हुआ था, दूसरा सीता की हालत इतनी खराब हो गई थी कि उसका बड़े अस्पताल में ऑपरेशन ...करना पड़ा था. जिसके लिए उन्हें काफी पैसा खर्च करना पड़ा था. उसके पति श्रीधर को अब ये चिंता खाये जा रही है कि उधार लिया हुआ दस हजार रुपया वो साहूकार को कैसे और कब चुकायेंगे?इस साल सीता तांडी फिर से तेंदूपत्ता छटाई और बंधाई के काम कर रही है. और गौर करने वाली बात ये है कि अब भी वो पांच महीने के गर्भ से है. सीता गहरी पीड़ा के साथ कहती हैं- '' क्या करे मैडम, काम न करने से खायेंगे क्या? पिछले साल जंगल विभाग के अधिकारियों से एडवांस पैसा मिला था, वो तो घर में ही खर्च हो गया था. ऊपर से ऑपरेशन में खर्च हुआ दस हजार रुपया साहूकार को चुकाना है. गांव में तो काम-धंधा न के बराबर है. यहां काम नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या? मुझे कष्ट तो बहुत हो रहा है. इस हालत में घंटों नीचे बैठकर छटाई का काम करने से पेट में भी दर्द होता है. पर क्या करूं, मजबूर हूं. पेट पालने के लिए हम जैसे गरीबों को इतना कष्ट तो उठाना ही पड़ता है.'' सीता की ही तरह 22 वर्षीय अल्हादीनी भी तीन महीने के पेट से है. वो खईरामाल गांव के तेंदूपत्ता बंधाई और छटाई केंद्र में काम करती है. आल्हादीनी का ये दूसरा बच्चा है.''घंटों बैठकर काम करने में मुझे कभी-कभी पेट में दर्द हो जाता है. थकान भी बहुत हो रही है. परसों ही यहां मेरी एक साथी महिला की तबीयत अचानक खराब हुई. उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है. आज ही ऑपरेशन से उसका बच्चा हुआ. मां-बेटी दोनों की हालत कुछ ठीक नहीं है, सुनने में आया है. ये सब देखकर बड़ा डर लगता है. पास में ढंग का कोई डाक्टर भी नहीं है. तबियत खराब होने से यहां से दस किलोमीटर दूर पदमपुर ही जाना पड़ता है. गाड़ी-वाड़ी कुछ उपलब्ध नहीं है यहां पर.'' ये बताते हुए मुझे आल्हादीनी सहमी हुई दिखाई दी.बरगड़ जिले के पदमपुर उपखंड के करीब 30 तेंदूपत्ता केंद्रों में मुझे करीब 18 गर्भवती महिलाएं मिली, जो घंटों नीचे बैठकर तेंदूपत्ता छटाई और बंधाई का काम कर रही थी. शरीर की पीड़ा उनके चेहरे की शिकन से साफ झलक रही थी. अधिकतर महिलाएं कभी न कभी इस काम की वजह से अपने बच्चे खोने के दर्द से गुजर चुकी थी. सब की अपनी एक अलग—अलग कहानी थी पर बुनियादी मुद्दा एक ही था- गरीबी. कलावती कहती हैं- ''हर साल हम 7 से 8 महीने इस केंद्र में इसी हालत में गुजारते हैं, अपने परिवार के साथ. काम करते हुए मेरा दो बार गर्भपात हुआ था. अभी मेरे तीन बच्चे हैं. मेरी बहू भी यहां काम करने आती है. वो भी अभी पेट से है. गांव में काम-धंधा नहीं मिलने की वजह से हम इनसे कुछ एडवांस लेते हैं और यहां सभी आकर काम करते हैं. अकेली मेरी बहू गांव में कैसे रहेगी, इसलिए यहां काम करने चली आई. हम लोग ऐसे ही माहौल में रहने के आदी हो चुके हैं. गांव से बाहर एक तंबू के नीचे जहां न साफ पीने का पानी है न और कोई सुविधा है. बारिश में बुखार, मलेरिया का खतरा भी बढ़ जाता है. जिसके पास पैसा है, वो तो अपना इलाज करवा लेते हैं पर जिसके पास पैसा नहीं वो क्या करें? भगवान भरोसे ही रहते हैं.'' उड़ीसा में तेंदूपत्ता विभाग के अंतर्गत लगभग 7000 तेंदूपत्ता छटाई और बंधाई केंद्र हैं. जिनमें लगभग 20000 छटाई और बंधाई के कुशल श्रमिक काम करते हैं. इनमें से 50 प्रतिशत यानी करीब 10000 महिला श्रमिक हैं.तेंदूपत्ता तोड़कर सूखने के बाद मई महीने से छटाई और बंधाई का काम शुरू किया जाता है. इसके लिए कुछ गांव में कुशल श्रमिक होते हैं, जो सालों से यही
काम करते हैं. वन विभाग के अधिकारी इन श्रमिकों को कुछ अग्रिम राशि देकर अपने अधिकार में रखते हैं


No comments:

Post a Comment