VOICE OF HULGULANLAND AGAINST GLOBLISATION AND COMMUNAL FACISM. OUR LAND SLOGAN BIRBURU OTE HASAA GARA BEAA ABUA ABUA. LAND'FORESTAND WATER IS OURS.
Friday, November 20, 2015
हाशिये पर आदिवासी आबादी
झारखंड की आबादी में पिछले एक दशक में 22.4 प्रतिशत की इजाफा हुआ, जबकि आदिवासियों की संख्या में 0.1 फीसदी की गिरावट आई है। वहीं नौ आदिम जनजातियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जंगल अािधरित आजीविका पर जीवनयापन करनेवाले इस आदिम जनजातियों तक सरकार की योजनाएं पहंच नहीं रही है। ये भूख, कुपोषण, गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याओं से घिरे हैं। संस्कृति विषेषज्ञों व भाषाविदों का कहना है कि वे जनजातियां लुप्त हुई तो इनकी बोलियां, संस्कृति, खानपान, और परंपराएं भी मिट जाएगी।
हाशिय पर आदिम जनजाति-
2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड की आबादी 3.3 करोड -32,988,134 पाई गयी है। कुल आबदी में आदिवासी 26.2 प्रतिशत ही है। जबकि, 2001 की जनगणना में यह आंकड़ा 26.3 प्रतिश त का था। खूंटी में सर्वाधक 73.3 प्रतिशत आदिवासी आबादी है। जबकि, कोडरमा में सबसे कम आदिवासी पाए गए। राज्य की 32 जनजातियों में 9 को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया। इनमें असूर, बिरहोर, बिरलिया, कोरवा, माल पहाडिया, सीरिया, पहाडिया, परहिया, पहाडी खरिया, सावर शामिल है। इनमें से ज्यादतर की साक्षरता दर पांच प्रतिशत से भी कम है। असुर को छोड़ अन्य आदिम जनजातियां जंगल आधारित आजीविका पर निर्भर हैं। वे भयंकर गरीबी से जूझ रहे हैं। इनके बच्चे अति कुपोषित पैदा हो रहे हैं।
स्रकार की ओर से इनके लिए अंत्योदय योजना चलाई गई। जिसके तहत इन्हें हर महीने 35 किलो अनाज मुक्त में देने का प्रावधान है लेकिन मात्र तीस किलो ही मिलता है । इसका फायदा विचैलिये उठा ले जाते हैं।
यही हाल इंदिरा आवास योजना का भी है। मैट्रीक पास करने पर भी सीधी नियुक्ति का लाभ भी इन तक कारगर तौर पर नहीं पहुंच रही है।
फैक्ट फाइल
कुल आबादी-32,988,134
पुरूष-16,930,315
महिला -16,057,819
क्ुल साक्षरता-66.41 प्रतिशत
पुरूष साक्षरता-78.84 प्रतिशत
महिला साक्षरता-52.04 प्रतिशत
आदिवासी आबादी-26.2 प्रतिशत
हाशिये पर आदिवासी आबादी
हाशिय पर आदिम जनजाति-
2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड की आबादी 3.3 करोड -32,988,134 पाई गयी है। कुल आबदी में आदिवासी 26.2 प्रतिशत ही है। जबकि, 2001 की जनगणना में यह आंकड़ा 26.3 प्रतिश त का था। खूंटी में सर्वाधक 73.3 प्रतिशत आदिवासी आबादी है। जबकि, कोडरमा में सबसे कम आदिवासी पाए गए। राज्य की 32 जनजातियों में 9 को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया। इनमें असूर, बिरहोर, बिरलिया, कोरवा, माल पहाडिया, सीरिया, पहाडिया, परहिया, पहाडी खरिया, सावर शामिल है। इनमें से ज्यादतर की साक्षरता दर पांच प्रतिशत से भी कम है। असुर को छोड़ अन्य आदिम जनजातियां जंगल आधारित आजीविका पर निर्भर हैं। वे भयंकर गरीबी से जूझ रहे हैं। इनके बच्चे अति कुपोषित पैदा हो रहे हैं।
स्रकार की ओर से इनके लिए अंत्योदय योजना चलाई गई। जिसके तहत इन्हें हर महीने 35 किलो अनाज मुक्त में देने का प्रावधान है लेकिन मात्र तीस किलो ही मिलता है । इसका फायदा विचैलिये उठा ले जाते हैं।
यही हाल इंदिरा आवास योजना का भी है। मैट्रीक पास करने पर भी सीधी नियुक्ति का लाभ भी इन तक कारगर तौर पर नहीं पहुंच रही है।
फैक्ट फाइल
कुल आबादी-32,988,134
पुरूष-16,930,315
महिला -16,057,819
क्ुल साक्षरता-66.41 प्रतिशत
पुरूष साक्षरता-78.84 प्रतिशत
महिला साक्षरता-52.04 प्रतिशत
आदिवासी आबादी-26.2 प्रतिशत
हाशिये पर आदिवासी आबादी
Monday, October 12, 2015
नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
बिरसा मुंडा के उलगुलान का सपना अबुआ हाते रे अबुआ राईज स्थापित करना था। उन्होने आंदोलनकारियों को अहवान किया था दिकु राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना। (दिकू राईज खत्म हो गया-हमलोगों का राज्य शुरू हुआ)। बिरसा उलगुलान का सपना था आदिवासियों के जल-जगल-जमीन पर अंग्रेजो के कब्जा से मुक्त कराना, अग्रेजों, जमीनदारों, इजारेदारों द्वारा उनके धरोहर जल-जंगल-जमीन पर किये जा रहे कब्जा को रोकना, बेटी, बहुओं पर हो रहे शोसन को खत्म करनंे तथा आदिवासी सामाज को तमाम तरह के शोषण दमन से मुक्त करना था। बिरसा मुंडा का उलगुलान सिर्फ झारखंड से अंग्रेज सम्राजवाद को रोकना नहीं था, बल्कि देश को अंग्रेज हुकूमत से मुक्त करना था। स्वतंत्रता संग्र्राम का इतिहास गवाह है कि जब देश के स्वतंत्रता संग्राम के मैदान में बिरसा मुडा, डोंका मुंडा, सहित सिद्वू-कान्हू, तिलका मांझी, सिंदराय-शिंदराय जैसे आदिवासी शहीद देश के इतिहास में पहला संग्रामी थे। (1856-1900 का दषक) । बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जननायक रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जल-जंगल-जमीन पर हमारा खूंटकटी अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जब जब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस धरोहर को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया तब-तब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस राज्य के जलन-जंगल-जमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्वू-कान्हू, फूलो-झाणो, सिंदराय-बिंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी शहादत दी। इन शहीदों के खून का कीमत है-छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 और संतालपरगना काष्तकारी अधिनियम । इन कानूनों में कहा गया है कि आदिवासी इलाके के जल-जंगल-जमीन पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेष नहीं कर सकता है। यहां के जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विषेष अधिकार मिला है-यह है पांचवी अनुसूचि क्षेत्र। इसे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में जंगल-जमीन-पानी, गांव-समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित एवं विकसित एंव नियंत्रित करने को अधिकार है।
झारखंड के इतिहास में आदिवासी शहीदों ने जून महिना को झारखंड में अबुअः हातु-अबुअः राईज स्थापित करने के हूलउलगुलान की तिथियों को रेखांकित किये हैं। .9 जून 1900 को बीर मुंडा की मौत जेल में अंग्रेजों के स्लो पोयजन से हुई। जबकि 30 जून 1856 को संताल परगना के भोगनाडीह में करीब 15 हजार संताल आदिवासी अंग्रेजों के गोलियों से भून दिये गये, इस दिन को भारत के इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है।
बिरसा मुंडा एक आंदोलनकारी तो थे ही साथ ही समाज सुधारक और विचारक भी थे। यही कारण है कि समाज की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन का रूप-रेखा बदलते रहे। समाज में व्यप्त बुराईयों के प्रति लोगों को सजग और दूर रहने का भी अहवान किया। उन्होंने सहला दिया-हडिंया दारू से दूर रहो । उन्होनंे कहा- सड़ा हुआ हडिंयां मत पीना, उससे शरीर सिथिल होता है, इससे सोचने-समझने की शक्ति कमजोर होती है। (हडिंया केवल नहीं लेकिन सभी तरह के शराब से परहेज करने का कहा था।)
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलनकारियों ने समझौताविहीन लड़ाई लड़े। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों के शोषन -दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहता था। कहा जाता है जब गांव का ही एक व्यक्ति की मृत्यू हुई थी, उस मृत शव के साथ चावल और कुछ पैसे गाड़ दिया गया था। (आदिवासी सामाज में शव के साथ कपड़ा थोडा चावल, पैसा डाला जाता है। ) भूखे पेट ने बच्चा बिरसा को उस दफनाये शव के कब्र से उस पैसा को निकालने को मजबूर किया था। उस पेसा से वह चावल खरीद कर माॅ को पकाने के लिये दिया । इस गरीबी के बवजूद भी बिरसा मुंडा को सामाज, राज्य और अबुअः हातु रे आबुअः राईज का उलगुलान ने अंग्रेज हुकुमत के सामने कभी घुटना टेकने नहीं दिया।
बिरसा मुंडा सामाज पर आने वाले खतरों के प्रति सामाज को पहले से ही अवगत कराते थे। जब अंग्रंजों का दमन बढ़ने वाला था-तब उन्होंन अपने लोगों से कहा-होयो दुदुगर हिजुतना, रहडी को छोपाएपे-(अंग्रेजो का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तौयार हो जाओ)।
9 जनवारी 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में खूंटी जिला स्थित डोमबारी बूरू आदिवासी शहीदों के खून से लाल हो गया था। उलगुलान नायकों को साईल रकम-डोमबारी पहाड़ में अंग्रेज सैनिकों ने रांची के डिप्टी कष्मिरन स्ट्रीटफील्ड के अगुवाई में घेर लिया था। स्ट्रीटफील्ड ने मुंडा आदिवासी आंदोलनकारियों से बार बार आत्मसामर्पण करने का आदेश दे रहा था। इतिहास गवाह है-उनगुलान के नायकों ने अंग्रेज सैनिकों के सामने घुटना नहीं टेका। सैनिक बार बार बिरसा मुंडा को उनके हवाले सौंपने का आदेश दे रहे थे-एैसा नहीं करने पर उनके सभी लोगों को गोलियों से भून देने की धमकी दे रहे थे-लेकिन आंदोलनकारियों ने बिरसा मुंडा को सरकार के हाथ सौंपने से साफ इनकार कर दिये।
जब बार बार आंदोलनकारियों से हथियार डालने को कहा जा रहा था-तब नरसिंह मुंडा ने सामने आया और ललकारते हुए बोला-अब राज हम लोगों का है-अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाह है तो मुंडाओं को नहीं, अंग्रेजों का हथियार रख देना चाहिए, और यदि लड़ाई की बात है तो-मुंडा समाज खून के आखिरि बुंद तक लड़ने को तैयार है।
स्ट्रीटफील्ड फिर से चेतैनी दिया कि-तुरंत आत्मसमार्पण करे-नही ंतो गांलियां चलाई जाएगी। लेकिन आंदोलनकारीे -निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों के गोलियों से छलनी-घायल एक -एक कर गिरते गये। डोमबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाषें बिछ गयीं। कहते हैं-खून से तजना नदी का पानी लाल हो गया।
डोमबारी पहाड़ के इस रत्कपात में बच्चे, जवान, वृद्व, महिला-पुरूष सभी षामिल थे। आदिवासी में पहले महिला-पुरूष लंमा बाल रखते थे। अंग्रेज सैनिकों को दूर पता नहीं चल रहा था कि जो लाष पड़ी हुई है-वह महिला का है या पुरूषों का है। इतिसाह में मिलता है-जब वहां नजदीक से लाश को देखा गया-तब कई लाश महिलाओं और बच्चों की थी।
इस समूहिक जनसंहार के बाद भी मुंडा समाज अंग्रेजो के सामने घुटना नहीं टेका। इतिहास बताता है-जब बिरसा को खोजने अंग्रेज सैनिक सामने आये-तब माकी मुंडा एक हाथ से बच्चा गोद में सम्भाले, दूसरे हाथ से टांकी थामें सामने आयी। जब उन से पूछा-तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए-बोली-तुम कौन होते हो, मेरे ही घर में हमको पूछने वाले की मैं कौन हुं?
बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेज शाषकों को सहसूस करा दिया कि-आदिवासियों का जंगल-जमीन की रक्षा जरूरी है। इतिहास गवाह है-बिरसा मुंडा सहित उलगुलान और हूल के नायकों के खून का कीमत ही छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 है। इसमें मूल धारा 46 को माना गया, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों की जमीन को कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता है।
इस गौरवशली इतिहास को आज के संर्दभ में देखने की जरूरत है। आज जब झारखंड का एक एक इंच जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खेत-टांड पर सौंकड़ों देशी -विदेषी कंपनियां कब्जा करने जा रहे हैं। बिरसा उलगुलान सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ था। आज तो हजारों कंपनियां हमारे जल-जंगल-जमीन सहित, भाषा-सस्कृति, और पहचान पर चैतरुा हमला कर रहे हैं। भोजन, पानी, षिक्षा, स्वस्थ्य, जो आम लोगों की बुनियादी आवष्यकताएं हैं-को जनता के साथ से छीन कर सरकार और कंपनियां इसे मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दे रहे हैं। सरकार आज सभी जनआंदोलनों का दमन कर स्थानीय जनता के परंपारिक और संवैधानिक अधिकारों को छीनने कर पूंजीपतियों के हाथों सौंपने में लगी हुई है। आज सीएनटी एक्ट की धज्जी उडायी जा रही है। परपरागत गांव सभा के अधिकार खत्म किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकारों चैतरफा हमला हो रहा है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश जो आदिवासी-किसान विरोधी है -जो कारपोरेट लूट को मजबूती देगा को जबरन थोपने की तैयारी चल रही है। आज बिरसा मुंडा के अबुअः राईज के समने आज चूरचूर होते जा रहे हैं। एैसे परिस्थिति में शहीदों के इतिहास को आगे बढ़ाने के तमाम आदिवासी -मूलवासी संगठनो, बुधिजीवियों, सामाजिक कार्याकताओं, जनआंदोलनों को अत्मसात करने की जरूरत है कि हम उलगुलान के शहीदों के सपनों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं।
बिरसा मुंडा के समय आज की तरह बुनियादी सुविधायें नहीं थीं। समाज अशिक्षित था, आने-जाने का कोई सुविधा नहीं था, आज की तरह सड़के नहीं थी, बिजली नहीं था, फोन नहीं था, गाड़ी की सुविधा नहीं था-फिर भी बिरसा मुंडा महसूस किया-कि मुंडा-आदिवासियों को अपना राज चाहिए, अपना समाज, गांव-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ चाहिए। बिरसा मुंडा ने-महसूस किया था-झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जल-जंगल-जमीन पर हमारा खूंटकटी अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जब जब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस धरोहर को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया तब-तब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस राज्य के जलन-जंगल-जमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्वू-कान्हू, फूलो-झाणो, सिंदराय-बिंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी शहादत दी। इन शहीदों के खून का कीमत है-छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 और संतालपरगना काष्तकारी अधिनियम । इन कानूनों में कहा गया है कि आदिवासी इलाके के जल-जंगल-जमीन पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेष नहीं कर सकता है। यहां के जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विषेष अधिकार मिला है-यह है पांचवी अनुसूचि क्षेत्र। इसे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में जंगल-जमीन-पानी, गांव-समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित एवं विकसित एंव नियंत्रित करने को अधिकार है।
झारखंड के इतिहास में आदिवासी शहीदों ने जून महिना को झारखंड में अबुअः हातु-अबुअः राईज स्थापित करने के हूलउलगुलान की तिथियों को रेखांकित किये हैं। .9 जून 1900 को बीर मुंडा की मौत जेल में अंग्रेजों के स्लो पोयजन से हुई। जबकि 30 जून 1856 को संताल परगना के भोगनाडीह में करीब 15 हजार संताल आदिवासी अंग्रेजों के गोलियों से भून दिये गये, इस दिन को भारत के इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है।
बिरसा मुंडा एक आंदोलनकारी तो थे ही साथ ही समाज सुधारक और विचारक भी थे। यही कारण है कि समाज की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन का रूप-रेखा बदलते रहे। समाज में व्यप्त बुराईयों के प्रति लोगों को सजग और दूर रहने का भी अहवान किया। उन्होंने सहला दिया-हडिंया दारू से दूर रहो । उन्होनंे कहा- सड़ा हुआ हडिंयां मत पीना, उससे शरीर सिथिल होता है, इससे सोचने-समझने की शक्ति कमजोर होती है। (हडिंया केवल नहीं लेकिन सभी तरह के शराब से परहेज करने का कहा था।)
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलनकारियों ने समझौताविहीन लड़ाई लड़े। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों के शोषन -दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहता था। कहा जाता है जब गांव का ही एक व्यक्ति की मृत्यू हुई थी, उस मृत शव के साथ चावल और कुछ पैसे गाड़ दिया गया था। (आदिवासी सामाज में शव के साथ कपड़ा थोडा चावल, पैसा डाला जाता है। ) भूखे पेट ने बच्चा बिरसा को उस दफनाये शव के कब्र से उस पैसा को निकालने को मजबूर किया था। उस पेसा से वह चावल खरीद कर माॅ को पकाने के लिये दिया । इस गरीबी के बवजूद भी बिरसा मुंडा को सामाज, राज्य और अबुअः हातु रे आबुअः राईज का उलगुलान ने अंग्रेज हुकुमत के सामने कभी घुटना टेकने नहीं दिया।
बिरसा मुंडा सामाज पर आने वाले खतरों के प्रति सामाज को पहले से ही अवगत कराते थे। जब अंग्रंजों का दमन बढ़ने वाला था-तब उन्होंन अपने लोगों से कहा-होयो दुदुगर हिजुतना, रहडी को छोपाएपे-(अंग्रेजो का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तौयार हो जाओ)।
9 जनवारी 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में खूंटी जिला स्थित डोमबारी बूरू आदिवासी शहीदों के खून से लाल हो गया था। उलगुलान नायकों को साईल रकम-डोमबारी पहाड़ में अंग्रेज सैनिकों ने रांची के डिप्टी कष्मिरन स्ट्रीटफील्ड के अगुवाई में घेर लिया था। स्ट्रीटफील्ड ने मुंडा आदिवासी आंदोलनकारियों से बार बार आत्मसामर्पण करने का आदेश दे रहा था। इतिहास गवाह है-उनगुलान के नायकों ने अंग्रेज सैनिकों के सामने घुटना नहीं टेका। सैनिक बार बार बिरसा मुंडा को उनके हवाले सौंपने का आदेश दे रहे थे-एैसा नहीं करने पर उनके सभी लोगों को गोलियों से भून देने की धमकी दे रहे थे-लेकिन आंदोलनकारियों ने बिरसा मुंडा को सरकार के हाथ सौंपने से साफ इनकार कर दिये।
जब बार बार आंदोलनकारियों से हथियार डालने को कहा जा रहा था-तब नरसिंह मुंडा ने सामने आया और ललकारते हुए बोला-अब राज हम लोगों का है-अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाह है तो मुंडाओं को नहीं, अंग्रेजों का हथियार रख देना चाहिए, और यदि लड़ाई की बात है तो-मुंडा समाज खून के आखिरि बुंद तक लड़ने को तैयार है।
स्ट्रीटफील्ड फिर से चेतैनी दिया कि-तुरंत आत्मसमार्पण करे-नही ंतो गांलियां चलाई जाएगी। लेकिन आंदोलनकारीे -निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों के गोलियों से छलनी-घायल एक -एक कर गिरते गये। डोमबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाषें बिछ गयीं। कहते हैं-खून से तजना नदी का पानी लाल हो गया।
डोमबारी पहाड़ के इस रत्कपात में बच्चे, जवान, वृद्व, महिला-पुरूष सभी षामिल थे। आदिवासी में पहले महिला-पुरूष लंमा बाल रखते थे। अंग्रेज सैनिकों को दूर पता नहीं चल रहा था कि जो लाष पड़ी हुई है-वह महिला का है या पुरूषों का है। इतिसाह में मिलता है-जब वहां नजदीक से लाश को देखा गया-तब कई लाश महिलाओं और बच्चों की थी।
इस समूहिक जनसंहार के बाद भी मुंडा समाज अंग्रेजो के सामने घुटना नहीं टेका। इतिहास बताता है-जब बिरसा को खोजने अंग्रेज सैनिक सामने आये-तब माकी मुंडा एक हाथ से बच्चा गोद में सम्भाले, दूसरे हाथ से टांकी थामें सामने आयी। जब उन से पूछा-तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए-बोली-तुम कौन होते हो, मेरे ही घर में हमको पूछने वाले की मैं कौन हुं?
बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेज शाषकों को सहसूस करा दिया कि-आदिवासियों का जंगल-जमीन की रक्षा जरूरी है। इतिहास गवाह है-बिरसा मुंडा सहित उलगुलान और हूल के नायकों के खून का कीमत ही छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 है। इसमें मूल धारा 46 को माना गया, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों की जमीन को कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता है।
इस गौरवशली इतिहास को आज के संर्दभ में देखने की जरूरत है। आज जब झारखंड का एक एक इंच जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खेत-टांड पर सौंकड़ों देशी -विदेषी कंपनियां कब्जा करने जा रहे हैं। बिरसा उलगुलान सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ था। आज तो हजारों कंपनियां हमारे जल-जंगल-जमीन सहित, भाषा-सस्कृति, और पहचान पर चैतरुा हमला कर रहे हैं। भोजन, पानी, षिक्षा, स्वस्थ्य, जो आम लोगों की बुनियादी आवष्यकताएं हैं-को जनता के साथ से छीन कर सरकार और कंपनियां इसे मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दे रहे हैं। सरकार आज सभी जनआंदोलनों का दमन कर स्थानीय जनता के परंपारिक और संवैधानिक अधिकारों को छीनने कर पूंजीपतियों के हाथों सौंपने में लगी हुई है। आज सीएनटी एक्ट की धज्जी उडायी जा रही है। परपरागत गांव सभा के अधिकार खत्म किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकारों चैतरफा हमला हो रहा है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश जो आदिवासी-किसान विरोधी है -जो कारपोरेट लूट को मजबूती देगा को जबरन थोपने की तैयारी चल रही है। आज बिरसा मुंडा के अबुअः राईज के समने आज चूरचूर होते जा रहे हैं। एैसे परिस्थिति में शहीदों के इतिहास को आगे बढ़ाने के तमाम आदिवासी -मूलवासी संगठनो, बुधिजीवियों, सामाजिक कार्याकताओं, जनआंदोलनों को अत्मसात करने की जरूरत है कि हम उलगुलान के शहीदों के सपनों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं।
बिरसा मुंडा के समय आज की तरह बुनियादी सुविधायें नहीं थीं। समाज अशिक्षित था, आने-जाने का कोई सुविधा नहीं था, आज की तरह सड़के नहीं थी, बिजली नहीं था, फोन नहीं था, गाड़ी की सुविधा नहीं था-फिर भी बिरसा मुंडा महसूस किया-कि मुंडा-आदिवासियों को अपना राज चाहिए, अपना समाज, गांव-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ चाहिए। बिरसा मुंडा ने-महसूस किया था-झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
Saturday, October 10, 2015
PAHLI NAZAR ME MUJHE LAGA KI UPAR BAITHA LADKA BIMAR HAI .........
TORPA BAZAR TOLI....KHUNTI
YE TINO DOST AAM TODNE JA RAHE HAIN
PAHLI NAZAR ME MUJHE LAGA KI UPAR BAITHA LADKA BIMAR HAI SAYAD..ISLIYE DO LADKE DHO KAR LE JA RAHE HAIN...
MAINE 20 MINET TAK INLOGON KO FOLLOUP KARTE RAHI
MAI SOCH RAHI THI...AGAR LADKA BIMAR HAI
TO YE LOG SHAHAR KI ORR JATE
LEKIN YE KHET--TAND KI ORR JA RAHE HAIN
DEKHTE DEKHTE YE TINO EK BADA AAM PED KE NICHE PAHUNCHE
DONO LADKE BAITH GAYE
UPAR BAITHA LADKA NICHE UTRA
TINO LADKE MILKAR SIDHI KO PED PER SAHARA DE KAR
KHADA KIYE....
TAB EK LADKA PED PAR CHADHNE GAYA...
PED PAR AAM BAHUT PHALA HUWA THA....
YE HAI ADIVASI BACHE...
ENJOY THE LIFE....ENJOY THE ENVIRONMENT....
आशार सावन पानी जे बारिशे बेंगोवा भले गीता गावै रे बेंगोवा भले गीता गावै।
आशार सावन पानी जे बारिशे
बेंगोवा भले गीता गावै रे
बेंगोवा भले गीता गावै।
मेंढ़क की टर टर और नदी का सोर -के साथ मन भी गुन गुना उठता है खेत-टांड में काम करने जाने के समय में रास्ता चलते चलते घोंघा घोंघी चुनेते जाते है। अब खेत का काम बढ़ता जा रहा है। लोग कादो खेतों में व्यस्त होते जा रहे हैं। थकान बढ़ रहा है। लेकिन बरसात का सुखद आंनद भी है। खेत-खलिहान बरसा पानी से लबालब है। जमीन में नमी आते ही अंदर से केंचुआ, जोंक और घांेगघा और मेंढ़क बाहर निकल रहे हैं। ये जैसे जैसे धरती का नमी कम होता जाता है, चिलचिलाती धुप से बचने के लिए नीचे मिटटी के अंदर घुस जाते है। दिन को खेत -टांड में लोगों के भागाम भाग के साथ प्रकृति स्वंय भी व्यस्त हो जाता है। लेकिन जैसंे ही सूरज की अंतिम किरणो के साथ ये भागम भाग की जिंदगी में सनाटा फैलता जाता हैं। अब इस सनाटा को मेंढक तोड़ रहे हैं। छोटे बड़े मेंढ़क सभी अपना अपना गीत गाने लगते हैं। कुछ टर टर करते हैं, तो कुछ बांट बांट करते हैं, कुछ रोटी रोटी रोटी रोटी......बोलते हैं। इनकेे मधुर गीत सबको गहरी नींद में सुला देते हैं।
गाय गोहाल ही शरणस्थल बना।
रांची पहुंच गयी आठवी पास का सरटिफिकेट लेकर
कहां रहना है, क्या खाना है, ये कुछ भी पता नहीं था
मां पीपी कम्पांउड में प्रीतम सिंह सरदार के घर आया का
काम करती थी
उनके खपरैल मकान के ठीक पिछवाडे रोड के उस पार
सुजान सिंह का जमीन चारों ओर से घेरा बंदी किया हुआ था
उसके भीतर एक एसबेटस की छत का घर था
जिसमें तीन-चार गायें थीं, उसी में एक तरफ मेरे गांव
के दो परिवार, और उनके दूसरे रिस्तेदार रहते थे
डिबू दादा याने बड़ा भाई भी यहीं रह कर कुली का काम करते थे
खाना कहीं भी झोपड़ी हाटल में खा लेते थे
मेरे लिए भी सुजान सिंह का गाय गोहाल ही
शरणस्थल बना।
कहां रहना है, क्या खाना है, ये कुछ भी पता नहीं था
मां पीपी कम्पांउड में प्रीतम सिंह सरदार के घर आया का
काम करती थी
उनके खपरैल मकान के ठीक पिछवाडे रोड के उस पार
सुजान सिंह का जमीन चारों ओर से घेरा बंदी किया हुआ था
उसके भीतर एक एसबेटस की छत का घर था
जिसमें तीन-चार गायें थीं, उसी में एक तरफ मेरे गांव
के दो परिवार, और उनके दूसरे रिस्तेदार रहते थे
डिबू दादा याने बड़ा भाई भी यहीं रह कर कुली का काम करते थे
खाना कहीं भी झोपड़ी हाटल में खा लेते थे
मेरे लिए भी सुजान सिंह का गाय गोहाल ही
शरणस्थल बना।
Thursday, October 8, 2015
(अगर वो महिलाएं डायन थी तो हम ग्रामीणों को बताते जब वे जिंदा थे, तब हमलोग पुछते कि क्या सही में आप लोग गलत हो? हम गांव वाले पूछते, लेकिन अब उनलोगों को हत्या कर दिया, अब किससे पूछेगें?) जांच का विषय
जान देना है कि जान लेना है कहा थैं -कइह के बोलाए लेई गेलाएं, और मोरल मुरदा के मारेक कहथै -तो मरबे उके? हमर माइंया कर बाप नी मराथे लाश के तो उकहेे मरलैं और चोट लाइगहे।(जान देना है कि जान लेना है-बोल कर लोगों को भी बुला कर लेगये, और लाश को हम लोगों को पिटवा रहे थे, मरल मुरदा को कौसे मारियेगा? हमलोगों को मांइया का बाप लाश को पिटने से इंकार किया तो, उसको भी मारे, चोट भी लगा। पीडिता के परिवार वालों ने बताया-जब उन लोगों( महिलाओं को) को मार दिया, इसके बाद कुछ लोग घर आये और सबको धडका-धुडका के अखड़ा ले गये। वहां सबको बोला गया कि गांव में रहना है तो इसमें साइन करो। हम लोग डर के मारे वहां से खिसक गये। एक नाबालिक बताती है-वहां पांच लाश था लेकिन किनका किनका है, यह समझ में नहीं आ रहा था। वहां सबको चेहरा देख देख कर रजिस्टर में साइन करवा रहे थे। एक साइन करने के बाद रजिस्टर को आगे बढ़ाते समय हाथ में रजिस्टर थमा कर, चेहरा देखकर बोल रहे थे-गांव में रहना है तो साइन करो। कहती है-मेरा भाई और हम को भी साइन करवाये।
निर्दोष परिवार के लोगों को भी हत्यारों ने लाठी-डंडटा, तथा अन्या हथियार थमा कर पांचों महिलाओं के शवों को पीटवाया। महिलाओं के लाश को जो पीटने से इंकार किया-उसको हत्यारों ने पीटा। यही नहीं अखरा में जबरन लाये गये निर्दोष लोगों को रजिस्टर में हत्साक्षर करवाकर यह साबित करने का प्रयास किया-कि हम पूरा गांव के लोग मिलकर इन डायन-विसाहियों का हत्या किये हैं। असली साजिशकर्ता इस शजिस में सफल भी हुए। जिन लोगों को हत्या के बाद पुरना अखड़ा में बुला कर ले जाया गया था-कहते हैं, जो हत्या करने में शा मिल नहीं थेे, उन लोगों को भी मुरदा को मरवा रहा था। सात अगस्त की रात कंजिया मराई टोली के लिए काली रात थी। रात को जब सो रहे थे-तब कुछ लोग शराब में डूबे गांव की पांच निदोश मां‘-बहनों को एक एक कर मौत के घाट उतारा। पांच महिलाओं की हत्या के बाद साजिशकर्ता तथा हत्यारों ने अपने को कानूनी कार्रवाई से बचाने के लिए अपने घरों में सो रहे लोगों को जगा कर हिदायत दिया-कि अगर तुमको समिति में रहना है तो -पुरना अखरा चलने का फरमान दिया। किसी से कहा कि यदि तुमको गांव में रहना है तो पुरना अखरा चलो और जो हमलोग कहेगें करो, और गांव में नहीं रहना है-तो तुम्हारे साथ भी वहीं किया जाएगा, जो उन महिलाओं के साथ हुआ।
निर्दोष परिवार के लोग जिनको डरा धमका कर उस हत्याकांड में शामिल किया गया है-पूरी तरह भयभीत हैं, जिनकी पीड़ा अब दबी जुबान में बाहर प्रकट हो रहा है। हमरे गोठिया थी-निदोष मन के मुंह खोलेक होवी। ये हे तो हडबडी में हमरे मन सोचेक नी परली। और नहीं कई के बोलक नही परली और फइंस जाएही। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं-अगर डायन रहैं तो हमरे गांवाइया-का ले अही? जिंदा रहैं सेखने गांवइया के बैठातैं-हमीन पूछती-कि तोहरे सही में गलत अहा कि, का हेका,? हमरे गांवाईया पूछती, अब मोराय देलैं केके पूछब?(अगर वो महिलाएं डायन थी तो हम ग्रामीणों को बताते जब वे जिंदा थे, तब हमलोग पुछते कि क्या सही में आप लोग गलत हो? हम गांव वाले पूछते, लेकिन अब उनलोगों को हत्या कर दिया, अब किससे पूछेगें?)
जांच का विषय
1-हत्या करने के पहले कुछ लोग बैठक किये-यहीं पर सभी नशापान किये। यहां यह जांच का विषय है कि-जो युवक नशा किये-वे दारू पीये, या हंडिया पीये या फिर अंग्रेजी शराब पीये। कौन था जो शराब पिलाया? इसका शजिसकर्ता कौन है, क्या गांव है या फिर गांव से बाहर का है।
2-जिस ओझा के पास गये थे विपिन के मौत का कारण जनने, वो ओझा कौन है? सवाल यह भी है कि-किसने उस ओझा के पास जाने के लिए सलहा दिया था?
3-साधारणता अंधविष्वास सामाज के बुजूर्ग वर्ग में मिलता है, इसलिए कि ये कम पढ़ेलिखे होते है, अधिकांश अनपढ़ होते हैं और सामाज की पुरानी परंपराओं या मान्यतों पर अस्था रखते हैं। लेकिन इस कांड को अंजाम देने में षिक्षित युवाक थे। तब इन षिक्षित युवको का अंधविष्वास में डूबा होना भी बड़ा सवाल खड़ा करता हैं।
4-अगर पूरा गांव हत्या करने में शामिल था-जिस तरह कि घटना के बाद लोग सिना तान कर बोल रहे थे-हम लोगों ने मिल कर डायन को मारा है तब-घटना के दिन बढ़ कर भूमिंका निभाने वाले युवक कार्रवाई के नाम पर डर से क्यों भागते-फिर रहे हैं?
5-अगर पूरा गांव हत्या में शामिल था-तब यहां बडा सवाल है कि-कंजिया मराई टोली में 80 परिवार है-क्या 80 परिवार अंधबिश्वाश में डूबा है, सभी डायन-विसाही पर विश्वश है? इसका जवाब तो कंजिया मराई टोली को ही आज नही ंतो कल देना ही पड़ेगा।
6-इस गांव में अंिधकांश घरों में लोग दारू बना कर बेचते थे-इस कांड के बाद दारू बनाना, बेचना अपने आप बंद हो गया-जबकि पहले कई बार इस गांव में भी शराब बंदी का अभियान चलाया गया महिलाओं द्वारा तब बंदी करने में विफल रहे थे।
अगर इन बिंदुओ पर गहराई से जांच किया जाएगा-तब याह साफ हो जाएगा कि असली साजिशकर्ता कौन है?
दयामनी बरला
7 अगस्त की रात गांव की पांच निर्दोष आदिवासी महिलाओं को डायन-विसाही बता कर सबके घर के दरवाजा का तोड़ तोड़ कर घर से खिंच खिंच कर मारते -पीटते अखडा में ला कर लाठी-डंडा, बलुआ, टांगी से पीट पीट कर हत्या कर दिये। इन महिलाओं के हत्या का गवाह खून से सना अखडा का बालू-माटी के साथ धुमकुडिया, कटहल पेड़ और पीपर पेड़ भी बने।
कंजिया मराई टोली गांव में दो दिन--
कंजिया मराई टोली में सात अगस्त की रात पांच आदिवासी महिलाओं की डायन-विसाही के अरोप में निर्मम हत्या की गयी। राज्य में डायन बताकर हत्या करने का यह सबसे बड़ा मामला है। इससे समझने के लिए सोषंतो मुखर्जी और मैं कंजिया मराई टोली 13 अगस्त को मोटरवाईक से पहुचे। राज्य की राजधानी से महज 25 किमी दूर है मांडर प्रखंड मूख्यालय। थाना से करीब दो किमी दूर है गांव कंजिया मराई टोली । जो उरांव आदिवासी बहुल गांव है। समतल भूमिं को मेंड ने टांडों और खेतों में विभाजित कर कई परिवारों को उस जमीन का मलिकाना हक दिया है। चारों तरफ हरियालीं ही हरियाली। खेत में लगे धान-मंडुआ के खेत भी हरियाली बिखेरा हुआ है। हरियाली खेतों के बीच महुंआ का पड़े भी दिखाई देता है। कई खेतों में किसान धान रोप रहे हैं। रोड़ से ही गांव दिखाई देता है। गांव के चारों ओर बड़े बड़े आम, बरगद, कटहल, महुंआ, जामून, बरहड, पीपल, इमली, बरगद आदि फलदार पेडों से पटा हुआ है। बांस का तो जंगल ही लगा हुआ है।
गांव में करीब 80 परिवार है। गांव पूरी तरह से परंपारिक तरीके से बसा हुआ है। एक घर से सटा दूसरा घर। पुरना अखड़ा के बाद कई घर चटटान बना हुआ है। टोली का गंदा पानी बहने के लिए कोई नली नहीं दिखता है। फैला चटटान में घर के आगे-पिछवाडे जिधर चटटान थोड़ा ढलान है-घरों को टोली का गंदा पानी उधर ही बह रहा है। एक घर के बाद अगला घर जाने के लिए किसी के आंगन से तो किसी घर के पिछवाडें से होकर ही जाना है। चटटानों पर बने घरों के बाद गांव के भीतर भी सभी घरों के आंगन में, पिछवाडें में, गली में आम, कटहल, बांस का बाखोड़, कोयनार, ईमली, डाहू आदि फलदार पेड़ हैं। अखड़ा में एक कटहल और पीपल का पेड़ है। अखड़ा के पास ही धुमकुडिया का टुटा मकान है।
7 अगस्त की रात गांव की पांच निर्दोष आदिवासी महिलाओं को डायन-विसाही बता कर सबके घर के दरवाजा का तोड़ तोड़ कर घर से खिंच खिंच कर मारते -पीटते अखडा में ला कर लाठी-डंडा, बलुआ, टांगी से पीट पीट कर हत्या कर दिये। इन महिलाओं के हत्या का गवाह खून से सना अखडा का बालू-माटी के साथ धुमकुडिया, कटहल पेड़ और पीपर पेड़ भी बने। 8 अगस्त के अहले सुबह खबर मिला कि कंजिया गांव में पांच आदिवासी महिलाओं को डायन-बिसाही करार कर उनकी हत्या कर दी गयी। यह भी खबर आ रहा था मीडिया -चैनल के माध्यम से कि जघन्य घटना को पूरे ग्रामीणों मिल कर दिया है। और इन्हें किसी तरह का अफसोस नहीं है कि हमने पांच लोगों की हत्या कर गलत किये हैं। इस खबर ने राज्य के साथ पूरे देश को झकझोरा दिया। कि आज जब समाज और देश विकास के रास्त्ेा चांद तक पहूंच गया वहीं दूसरी ओर आदिवासी समाज अधंविशस में डुबा हुआ है। अधंविशस आदिवासी समाज के लिए अभिषाप बना हुआ है।
जसिंता टोप्पो का परिवार तो शिक्षित है ही, साथ समाज को शिक्षित बनाना चाहते थे-शयद इसीलिए गांव में आंगनबाड़ी स्कूल के लिए जगह खोजने की बात आयी तो, जसिंता ने पहल कर अपने खनदान वालों को जमीन देने के लिए राजी करवायी। और आज स्कूल भवन इसी जमीन पर खड़ा है। जहां गांव के बच्चे पढ़ रहे हैं और उन्हें पोषाहार भी उब्लध कराया जाता है। जसिंता का एक बेटा अर्मी में रह कर देश सेवा कर रहा है, वहीं एक बेटी फरमेशी में काम करते लोगों का स्वास्थ्य लाभ पहुंचा रही है। छोटी बेटी अभी पढ़ ही रही है। अर्मी बेटा ने अपने कमाई से एसबेसटस का मकान बनया जहां जसिंता का परिवार रहता है।
स्व0 एतवा खलखो की विधवा थी रकिया खलखो। रकिया के चार बेटे हैं। रकिया की बेटी थी तेतरी। तेतरी के पति दस साल पहले गुजर चुके हैं। विवधा होने के बाद तेतरी अपनी मां घर वापस रहने आ गयी। रकिया का एक बेटा पुलिस विभाग में कार्यरत है जो चांडिल में पोस्टेट है। रकिया के परिवार वाले बताते हैं-मां अपने बहु और नाती के साथ करीब पांच साल से रांची में रहती थी। कभी-कभी गांव आते जाते रही थी। इस साल जून माह में घर आयी थी। बच्चों का छुटटी था इसलिए बहु भी घर आयी थी। रकिया की बहु सामने कुंआ की ओर इशारा करते बताती है-उस कुंआ को इसी गर्मी में फिर से खोदवाये हैं ताकि गांव वालों को पानी को दिक्कत न हो। कुंआ धंस गया था, पानी सूख गया था। इसलिए फिर से बनवाये हैं।
इन्होंने बतायी-रकिया का बेटा घटना के दो दिन पहले घर आया था, तब मां रांची जाने का इच्छा जतायाी थी नाती को देखने का मन कर रहा है बोली। लेकिन बेटा यह कहते हुए कि अभी दीदी धान लगा रही है-इसलिए बाद में ही ले जाने की बात बोल कर घर में छोड़ दिया। रकिया की बहु बतायी-दीदी तेतरी यहीं रहती थी इस साल हमारा हिस्सा का खेत में दीदी ही खेती का काम सम्भाली हुई थी।
पीडित परिवार स्व0 मदनी के पति बताते हैं-हम हर साल नोवेंबर में बंगाल जाते हैं और जून में वापस गांव खेती बारी करने के लिए आते हैं। एक दिन में 200 मिलता है। अकेले आते जाते हैं। वहां गर्मी बहुत ज्यादा रहता है। इसकारण लोग टिक नहीं पाते हैं। जो तकलीफ सह सकता है-वही वहां कमा सकता है। बंगाल का कमाई से डेढ एकड़ जमीन गांव में खरीदे हैं। उस खेत में हर साल 45 मन तक फसल होता है। घर का बाप का जमीन को अभी बखरा नहीं कियें हैं। एक भाई जया, और दूसरा प्रहलाद है। यही दोनों बाप का जमीन पर खेती बारी करते हैं। गांव वाले जिस जमीन को खेती नहीं कर सकते हैं- मेरा परिवार उस खेत को साझा में खेती करता है।
मदनी को बेटा -बताता है-बरसात के दिन आदी, खाीरा, भेंण्डी, अदरक , झींगी, बीन खेती करते हैं। गर्मी में खीरा, टमाटर, गेंहूं, प्याज, आलू लगाते हैं। बाजार में भी सब्जी बेचते हैं। माटी तेल जला कर खेत पटाते हैं। माटी तेल गर्मी में 45 रू लीटर रहता है। बिजली तो इस साल 2015 में आया है। सूना-कहते हैं-धान काट कर फिर हम चले जाएगें बंगाल काम करने। जो हो गया अब क्या करेगें।
पीडिती एतवारिया का पति 2012 में ही गुजर चुका है। बेटा सुकुमार, कहता है-पिताजी बीमारी से मर गये, गरीबी के कारण सही इजाल नहीं हो सका। एतवारिया को बेटा आशीष 8 संत जेवियर स्कूल में क्लास 8वीं में पढ रहा है। पिता का निधन के बाद बड़ा बेटा का पढ़ाई रूक गया । बेटा बताता है-मेरा बाबा बड़ा था। तीन चाचा थे। बीच का दो चाचा भी मर चुके हैं।
दयामनी बरला
Wednesday, September 30, 2015
Saturday, August 29, 2015
Wednesday, July 8, 2015
Tuesday, July 7, 2015
जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है।
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
खूंटी-गुमला-झारखंड
केंन्द्रीय कार्यालय कोरको टोली-तोरपा-खूंटी-झारंखड
सेवा में पत्रांक........01.............
उपायुक्त महोदय दिनांक.........26 मई 2015
.................
खूंटी
विषय-जल-जंगल-जमीन सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट को स्थापित करने वाले भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ को हर हाल में वापस लेना होगा, तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। साथ ही राज्य के सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने की मांग।
इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छुओं से लड़ कर झारखंड की धरती को आबाद किया है। झाड़-जंगल साफ कर खेती लायक जमीन बनाया। जंगल-झाड़ एवं पर्यावरण को सुरक्षित रक्षा। जंगल-जमीन-पहाड़-नदी-नाला आदिवासी-मूलवासी, किसानों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान है। यही हमारी भाषा-संस्कृति, गीत और संगीत भी है।
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है, तब तक ही आदिवासी-मूलवासी-किसान जीवित रह सकते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ हमारा सहअस्तित्व को अच्छुन रखने के लिए ही-छोटानागपुर काष्तकारी तथा संताल परगना काष्तकारी अधिनियम बनाया गया। आजाद भारत के संविधान ने भी पांचवी-छठवीं अनुसूचि के तहत हमारे समुदाय को प्रकृतिक संसाधनों के साथ विकसित तथा इसे संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार गांव सभा-ग्राम सभा को दिया है।
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 के जनविरोधी प्रावधानों को खत्म कर जनपक्षिये कानून लाने, देश के प्रकृतिक संसाधनों पर किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों तथा स्थानीय ग्राम सभा का नियंत्रण बरकरार रखने की मांग को लेकर लंबे संघर्ष के बाद, 2013 में ग्राम सभा के अधिकारों तथा आदिवासी-मूलवासी-किसानों के अधिकारों को मजबूदी देने के लिए भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 बनाया गया।
ल्ेकिन केंन्द्र की मोदी सरकार ने इन तमाम अधिकारों को सीरे से खारीज करते हुए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ लाया। जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है। यह कानून सिर्फ पूजिंपती और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन और तमाम प्रकृतिक संपदा को देने के लिए लाया गया है। यह सिर्फ जंगल-जमीन और प्रकृतिक संसाधनों की खूली लूट को ही बढ़वा देगा। इसे तेजी से झारंखडी जनता विस्थापित होंगें। परर्यावरण नष्ट होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। देश सहित राज्य में प्रकृतिक अपदा बढ़ेगा। आदिवासी-मूलवासी-किसानों सहित तमाम मजदूर-मेहनतकषों पर हर तरह के हिंसा और अत्याचार बढ़ेगा।
हमारी मांगें
1-उपरोक्त दुषपरिणामों को रोकने के लिए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ को हर हाल में वापस लेना होगा तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा।
2-झारखंडी आदिवासी-मूलवासियों की भवना के अनुरूप स्थानीययता नीति बना कर तुरंत लागू किया जाए।
3-शिक्षा एवं स्वास्थ्य का निजीकरण, पीपीपी माॅडल को नहीं सौंपा जाए। राज्य और देश के कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि राज्य के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा दे।
4-सरकारी स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून के तहत शिककों की नियुक्ती तुरंत किया जाए।
5-प्रत्येक पंचायत में स्वस्थ्य उपकेंन्द्र खोला जाए तथा उपकेंन्द्रो में स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ती की जाए।
6-मनरेगा योजना को पूर्ववत चलाया जाए तथा इस योजना में फलदार वृक्षारोपण को भी शामिल किया जाए।
7-प्रखंड कार्यालयों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंन्द्रों, अंचल कार्यालयों तथा पंचायतों में स्थानीय जनभावनाओं को देखते हुए स्थानों को भरा जाए।
8-विभिन्न विकास परियोजनाओं से पूर्व में विस्थापितों को पूनर्वासित-तथा जिन परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं-वहीं नौकरी-रोजगार दिया जाए।
निवेदक
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, डैम प्रभावित संघर्ष समिति -झारखंड
खूंटी-गुमला-झारखंड
केंन्द्रीय कार्यालय कोरको टोली-तोरपा-खूंटी-झारंखड
सेवा में पत्रांक........01.............
उपायुक्त महोदय दिनांक.........26 मई 2015
.................
खूंटी
विषय-जल-जंगल-जमीन सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट को स्थापित करने वाले भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ को हर हाल में वापस लेना होगा, तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। साथ ही राज्य के सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने की मांग।
इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छुओं से लड़ कर झारखंड की धरती को आबाद किया है। झाड़-जंगल साफ कर खेती लायक जमीन बनाया। जंगल-झाड़ एवं पर्यावरण को सुरक्षित रक्षा। जंगल-जमीन-पहाड़-नदी-नाला आदिवासी-मूलवासी, किसानों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान है। यही हमारी भाषा-संस्कृति, गीत और संगीत भी है।
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है, तब तक ही आदिवासी-मूलवासी-किसान जीवित रह सकते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ हमारा सहअस्तित्व को अच्छुन रखने के लिए ही-छोटानागपुर काष्तकारी तथा संताल परगना काष्तकारी अधिनियम बनाया गया। आजाद भारत के संविधान ने भी पांचवी-छठवीं अनुसूचि के तहत हमारे समुदाय को प्रकृतिक संसाधनों के साथ विकसित तथा इसे संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार गांव सभा-ग्राम सभा को दिया है।
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 के जनविरोधी प्रावधानों को खत्म कर जनपक्षिये कानून लाने, देश के प्रकृतिक संसाधनों पर किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों तथा स्थानीय ग्राम सभा का नियंत्रण बरकरार रखने की मांग को लेकर लंबे संघर्ष के बाद, 2013 में ग्राम सभा के अधिकारों तथा आदिवासी-मूलवासी-किसानों के अधिकारों को मजबूदी देने के लिए भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 बनाया गया।
ल्ेकिन केंन्द्र की मोदी सरकार ने इन तमाम अधिकारों को सीरे से खारीज करते हुए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ लाया। जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है। यह कानून सिर्फ पूजिंपती और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन और तमाम प्रकृतिक संपदा को देने के लिए लाया गया है। यह सिर्फ जंगल-जमीन और प्रकृतिक संसाधनों की खूली लूट को ही बढ़वा देगा। इसे तेजी से झारंखडी जनता विस्थापित होंगें। परर्यावरण नष्ट होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। देश सहित राज्य में प्रकृतिक अपदा बढ़ेगा। आदिवासी-मूलवासी-किसानों सहित तमाम मजदूर-मेहनतकषों पर हर तरह के हिंसा और अत्याचार बढ़ेगा।
हमारी मांगें
1-उपरोक्त दुषपरिणामों को रोकने के लिए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ को हर हाल में वापस लेना होगा तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा।
2-झारखंडी आदिवासी-मूलवासियों की भवना के अनुरूप स्थानीययता नीति बना कर तुरंत लागू किया जाए।
3-शिक्षा एवं स्वास्थ्य का निजीकरण, पीपीपी माॅडल को नहीं सौंपा जाए। राज्य और देश के कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि राज्य के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा दे।
4-सरकारी स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून के तहत शिककों की नियुक्ती तुरंत किया जाए।
5-प्रत्येक पंचायत में स्वस्थ्य उपकेंन्द्र खोला जाए तथा उपकेंन्द्रो में स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ती की जाए।
6-मनरेगा योजना को पूर्ववत चलाया जाए तथा इस योजना में फलदार वृक्षारोपण को भी शामिल किया जाए।
7-प्रखंड कार्यालयों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंन्द्रों, अंचल कार्यालयों तथा पंचायतों में स्थानीय जनभावनाओं को देखते हुए स्थानों को भरा जाए।
8-विभिन्न विकास परियोजनाओं से पूर्व में विस्थापितों को पूनर्वासित-तथा जिन परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं-वहीं नौकरी-रोजगार दिया जाए।
निवेदक
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, डैम प्रभावित संघर्ष समिति -झारखंड
झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
९ जून बिरसा मुंडा शहीद दिवस पर
बिरसा मुंडा के उलगुलान का सपना अबुआ हाते रे अबुआ राईज स्थापित करना था। उन्होनं आंदोलनकारियों को अहवान किया था दिकु राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना। (दिकू राईज खत्म हो गया-हमलोगों का राज्य शुरू हुआ)। बिरसा उलगुलान का सपना था आदिवासियों के जल-जगल-जमीन पर अंग्रेजो के कब्जा से मुक्त कराना, अग्रेजों, जमीनदारों, इजारेदारों द्वारा उनके धरोहर जल-जंगल-जमीन पर किये जा रहे कब्जा को रोकना, बेटी, बहुओं पर हो रहे शोषण को खत्म करने तथा आदिवासी सामाज को तमाम तरह के शोषण दमन से मुक्त करना था। बिरसा मुंडा का उलगुलान सिर्फ झारखंड से अंग्रेज सम्राजवाद को रोकना नहीं था, बल्कि देष को अंग्रेज हुकूमत से मुक्त करना था। स्वतंत्रता संग्र्राम का इतिहास गवाह है कि जब देश के स्वतंत्रता संग्राम के मैदान में बिरसा मुडा, डोंका मुंडा, सहित सिद्वू-कान्हू, तिलका मांझी, सिंदराय-ंिबदराय जैसे आदिवासी शहीद देश के इतिहास में पहला संग्रामी थे। (1856-1900 का दशक) । बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जननायक रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जल-जंगल-जमीन पर हमारा खूंटकटी अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जब जब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस धरोहर को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया तब-तब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस राज्य के जलन-जंगल-जमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्वू-कान्हू, फूलो-झाणो, सिंदराय-ंिबंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी हादत दी। इन शहीदों के खून का कीमत है-छोटानागपुर काशतकारी अधिनियक 1908 और संतालपरगना काशतकारी अधिनियम । इन कानूनों में कहा गया है कि आदिवासी इलाके के जल-जंगल-जमीन पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता है। यहां के जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विषश अधिकार मिला है-यह है पांचवी अनुसूचि क्षेत्र। इसे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में जंगल-जमीन-पानी, गांव-समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित एवं विकसित एंव नियंत्रित करने को अधिकार है।
झारखंड के इतिहास में आदिवासी शहीदों ने जून महिना को झारखंड में अबुअः हातु-अबुअः राईज स्थापित करने के हूलउलगुलान की तिथियों को रेखांकित किये हैं। .9 जून 1900 को बीर मुंडा की मौत जेल में अंग्रेजों के स्लो पोयजन से हुई। जबकि 30 जून 1856 को संताल परगना के भोगनाडीह में करीब 15 हजार संताल आदिवासी अंग्रेजों के गोलियों से भून दिये गये, इस दिन को भारत के इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है।
बिरसा मुंडा एक आंदोलनकारी तो थे ही साथ ही समाज सुधारक और विचारक भी थे। यही कारण है कि समाज की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन का रूप-रेखा बदलते रहे। समाज में व्यप्त बुराईयों के प्रति लोगों को सजग और दूर रहने का भी अहवान किया। उन्होंने सहला दिया-हडिंया दारू से दूर रहो । उन्होनंे कहा- सड़ा हुआ हडिंयां मत पीना, उससे षरीर सिथिल होता है, इससे सोचने-समझने की शक्ति कमजोर होती है। (हडिंया केवल नहीं लेकिन सभी तरह के शराब से परहेज करने का कहा था।)
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलनकारियों ने समझौताविहीन लड़ाई लड़े। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों के शोषण-दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहता था। कहा जाता है जब गांव का ही एक व्यक्ति की मृत्यू हुई थी, उस मृत षव के साथ चावल और कुछ पैसे गाड़ दिया गया था। (आदिवासी सामाज में शव के साथ कपड़ा थोडा चावल, पैसा डाला जाता है। ) भूखे पेट ने बच्चा बिरसा को उस दफनाये षव के कब्र से उस पैसा को निकालने को मजबूर किया था। उस पेसा से वह चावल खरीद कर माॅ को पकाने के लिये दिया । इस गरीबी के बवजूद भी बिरसा मुंडा को सामाज, राज्य और अबुअः हातु रे आबुअः राईज का उलगुलान ने अंग्रेज हुकुमत के सामने कभी घुटना टेकने नहीं दिया।
बिरसा मुंडा सामाज पर आने वाले खतरों के प्रति सामाज को पहले से ही अवगत कराते थे। जब अंग्रंजों का दमन बढ़ने वाला था-तब उन्होंन अपने लोगों से कहा-होयो दुदुगर हिजुतना, रहडी को छोपाएपे-(अंग्रेजो का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तौयार हो जाओ)।
9 जनवारी 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में खूंटी जिला स्थित डोमबारी बूरू आदिवासी शहीदों के खून से लाल हो गया था। उलगुलान नायकों को साईल रकम-डोमबारी पहाड़ में अंग्रेज सैनिकों ने रांची के डिप्टी कष्मिरन स्ट्रीटफील्ड के अगुवाई में घेर लिया था। स्ट्रीटफील्ड ने मुंडा आदिवासी आंदोलनकारियों से बार बार आत्मसामर्पण करने का आदेश दे रहा था। इतिहास गवाह है-उनगुलान के नायकों ने अंग्रेज सैनिकों के सामने घुटना नहीं टेका। सैनिक बार बार बिरसा मुंडा को उनके हवाले सौंपने का आदेश दे रहे थे-एैसा नहीं करने पर उनके सभी लोगों को गोलियों से भून देने की धमकी दे रहे थे-लेकिन आंदोलनकारियों ने बिरसा मुंडा को सरकार के हाथ सौंपने से साफ इनकार कर दिये।
जब बार बार आंदोलनकारियों से हथियार डालने को कहा जा रहा था-तब नरसिंह मुंडा ने सामने आया और ललकारते हुए बोला-अब राज हम लोगों का है-अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाह है तो मुंडाओं को नहीं, अंग्रेजों का हथियार रख देना चाहिए, और यदि लड़ाई की बात है तो-मुंडा समाज खून के आखिरि बुंद तक लड़ने को तैयार है।
स्ट्रीटफील्ड फिर से चेतैनी दिया कि-तुरंत आत्मसमार्पण करे-नही ंतो गांलियां चलाई जाएगी। लेकिन आंदोलनकारीे -निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों के गोलियों से छलनी-घायल एक -एक कर गिरते गये। डोमबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाषें बिछ गयीं। कहते हैं-खून से तजना नदी का पानी लाल हो गया।
डोमबारी पहाड़ के इस रत्कपात में बच्चे, जवान, बृध , महिला-पुरूष सभी शमिल थे। आदिवासी में पहले महिला-पुरूष लंमा बाल रखते थे। अंग्रेज सैनिकों को दूर पता नहीं चल रहा था कि जो लाश पड़ी हुई है-वह महिला का है या पुरूषों का है। इतिसाह में मिलता है-जब वहां नजदीक से लाश को देखा गया-तब कई लाश महिलाओं और बच्चों की थी।
इस समूहिक जनसंहार के बाद भी मुंडा समाज अंग्रेजो के सामने घुटना नहीं टेका। इतिहास बताता है-जब बिरसा को खोजने अंग्रेज सैनिक सामने आये-तब माकी मुंडा एक हाथ से बच्चा गोद में सम्भाले, दूसरे हाथ से टांकी थामें सामने आयी। जब उन से पूछा-तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए-बोली-तुम कौन होते हो, मेरे ही घर में हमको पूछने वाले की मैं कौन हुं?
बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेज कों को सहसूस करा दिया कि-आदिवासियों का जंगल-जमीन की रक्षा जरूरी है। इतिहास गवाह है-बिरसा मुंडा सहित उलगुलान और हूल के नायकों के खून का कीमत ही छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 है। इसमें मूल धारा 46 को माना गया, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों की जमीन को कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता है।
इस गौरवशली इतिहास को आज के संर्दभ में देखने की जरूरत है। आज जब झारखंड का एक एक इंच जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खेत-टांड पर सौंकड़ों देशी -विदेशी कंपनियां कब्जा करने जा रहे हैं। बिरसा उलगुलान सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ था। आज तो हजारों कंपनियां हमारे जल-जंगल-जमीन सहित, भाषा-सस्कृति, और पहचान पर चैतरुा हमला कर रहे हैं। भोजन, पानी, शिक्षा, स्वस्थ्य, जो आम लोगों की बुनियादी आवशकताएं हैं-को जनता के साथ से छीन कर सरकार और कंपनियां इसे मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दे रहे हैं। सरकार आज सभी जनआंदोलनों का दमन कर स्थानीय जनता के परंपारिक और संवैधानिक अधिकारों को छीनने कर पूंजीपतियों के हाथों सौंपने में लगी हुई है। आज सीएनटी एक्ट की धज्जी उडायी जा रही है। परपरागत गांव सभा के अधिकार खत्म किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकारों चैतरफा हमला हो रहा है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश जो आदिवासी-किसान विरोधी है -जो कारपोरेट लूट को मजबूती देगा को जबरन थोपने की तैयारी चल रही है। आज बिरसा मुंडा के अबुअः राईज के समने आज चूरचूर होते जा रहे हैं। एैसे परिस्थिति में शहीदों के इतिहास को आगे बढ़ाने के तमाम आदिवासी -मूलवासी संगठनो, बुधिजीवियों, सामाजिक कार्याकताओं, जनआंदोलनों को अत्मसात करने की जरूरत है कि हम उलगुलान के शहीदों के सपनों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं।
बिरसा मुंडा के समय आज की तरह बुनियादी सुविधायें नहीं थीं। समाज अषिक्षित था, आने-जाने का कोई सुविधा नहीं था, आज की तरह सड़के नहीं थी, बिजली नहीं था, फोन नहीं था, गाड़ी की सुविधा नहीं था-फिर भी बिरसा मुंडा महसूस किया-कि मुंडा-आदिवासियों को अपना राज चाहिए, अपना समाज, गांव-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ चाहिए। बिरसा मुंडा ने-महसूस किया था-झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है,
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
खूंटी-गुमला-झारखंड
केंन्द्रीय कार्यालय कोरको टोली-तोरपा-खूंटी-झारंखड
सेवा में पत्रांक.......o1..............
महामहिम राज्यपाल महोदय दिनांक...19 jan..2015.......................
झारखंड
विषय-जल-जंगल-जमीन सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट को स्थापित करने वाले भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 201५ को हर हाल में वापस लेना होगा, तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा। साथ ही राज्य के सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट को कड़ाई से लागू करने की मांग।
इतिहास गवाह है कि हमारे पूर्वजों ने बाघ-भालू, सांप-बिच्छुओं से लड़ कर झारखंड की धरती को आबाद किया है। झाड़-जंगल साफ कर खेती लायक जमीन बनाया। जंगल-झाड़ एवं पर्यावरण को सुरक्षित रक्षा। जंगल-जमीन-पहाड़-नदी-नाला आदिवासी-मूलवासी, किसानों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान है। यही हमारी भाषा-संस्कृति, गीत और संगीत भी है।
विकास का इतिहास गवाह है कि-जब तक आदिवासी-मूलवासी-किसान-मेहनतकश अपने खेत-खलिहान, जंगल-जमीन से जुड़ा रहता है, तब तक ही आदिवासी-मूलवासी-किसान जीवित रह सकते हैं। जल-जंगल-जमीन के साथ हमारा सहअस्तित्व को अच्छुन रखने के लिए ही-छोटानागपुर काशतकारी तथा संताल परगना कशतकारी अधिनियम बनाया गया। आजाद भारत के संविधान ने भी पांचवी-छठवीं अनुसूचि के तहत हमारे समुदाय को प्रकृतिक संसाधनों के साथ विकसित तथा इसे संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार गांव सभा-ग्राम सभा को दिया है।
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 के जनविरोधी प्रावधानों को खत्म कर जनपक्षिये कानून लाने, देश के प्रकृतिक संसाधनों पर किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों तथा स्थानीय ग्राम सभा का नियंत्रण बरकरार रखनंे की मांग को लेकर लंबे संघर्ष के बाद, 2013 में ग्राम सभा के अधिकारों तथा आदिवासी-मूलवासी-किसानों के अधिकारों को मजबूदी देने के लिए भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 बनाया गया।
ल्र्किन केंन्द्र की मोदी सरकार ने इन तमाम अधिकारों को सीरे से खारीज करते हुए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 2014 लाया। जो पूर्ण रूप से राज्य के आदिवासी-मूलवासी-किसान विरोधी है। यह कानून सिर्फ पूजिंपती और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन और तमाम प्रकृतिक संपदा को देने के लिए लाया गया है। यह सिर्फ जंगल-जमीन और प्रकृतिक संसाधनों की खूली लूट को ही बढ़वा देगा। इसे तेजी से झारंखडी जनता विस्थापित होंगें। परर्यावरण नष्ट होगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। देश सहित राज्य में प्रकृतिक अपदा बढ़ेगा। आदिवासी-मूलवासी-किसानों सहित तमाम मजदूर-मेहनतकशों पर हर तरह के हिंसा और अत्याचार बढ़ेगा।
हमारी मांगें
1-उपरोक्त दुशपरिणामों को रोकने के लिए भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 2014 को हर हाल में वापस लेना होगा तथा भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 को वापस लाना होगा।
2-झारखंडी आदिवासी-मूलवासियों की भवना के अनुरूप स्थानीययता नीति बना कर तुरंत लागू किया जाए।
3-शिक्षा एवं स्वास्थ्य का निजीकरण, पीपीपी माॅडल को नहीं सौंपा जाए। राज्य और देश के कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि राज्य के नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा दे।
4-सरकारी स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून के तहत क्षकों की नियुक्ती तुरंत किया जाए।
5-प्रत्येक पंचायत में स्वस्थ्य उपकेंन्द्र खोला जाए तथा उपकेंन्द्रो में स्वास्थ्य कर्मचारियों की नियुक्ती की जाए।
6-मनरेगा योजना को पूर्ववत चलाया जाए तथा इस योजना में फलदार वृक्षारोपण को भी शमिल किया जाए।
7-प्रखंड कार्यालयों, स्कूलों, स्वास्थ्य केंन्द्रों, अंचल कार्यालयों तथा पंचायतों में स्थानीय जनभावनाओं को देखते हुए स्थानों को भरा जाए।
8-विभिन्न विकास परियोजनाओं से पूर्व में विस्थापितों को पूनर्वासित-तथा जिन परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं-वहीं नौकरी-रोजगार दिया जाए।
निवेदक
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच, डैम प्रभावित संघर्ष समिति - झारखंड
वनोपज पर जान जातीय समाज
राज्य में इमली का उत्पादन दो लाख टन......
वनोपज पर जान जातीय समाज
महुआ का सालाना उल्पादन भी दो लाख टन
जनजातीय समुदाय का जीविकांपार्जन लघु वनोपज पर निर्भर है। राज्य की कुल 86.45 लाख जनजीतीय आबादी की एक बड़ा हिस्सा जंगलों से इन्हें इकठा करता है। गौरतलब है कि राज्य के लगभग 80 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 23605 वर्ग किमी( 29.6) फीसदी में जंगल है।
चतरा, कोडरमा और पलाूमू जिले का 40 फीसदी से अधिक भाग जंगल है। झारख्ंड स्टेट माइनर फारेस्ट प्रोडयूस को-आॅपरेटिव डेवलपमेंट एंड मार्केंटिंग (झामकोफेड) की रिपोट के मुताबिक लघु वनोपज के कुल टर्न ओवर में करीब 75 फीसदी योगदान अकेले केंन्दू पता का है।
हालांकि राज्य में केंन्दू पता का कुल उत्पादन कितना है, यह आंकड़ा झामकोफेड के पास नहीं है। यहां विभिन्न लघु वनोपज के सालाना उत्पादन का जिक्र किया जा रहा है।
विभिन्न वनोपज व उत्पादन(स्त्रोत झामकोफेड)
वनोपज सालाना उत्पादन उपयोग
इमली---- दो लाख टन----- बगैर बीज की पैकिंग व पेस्ट
महुआ---- दो लाख टन---- शराब (इसका उपयोग भोजन और दवा के रूप में आदिवासी मूलवासी समाज करता है , लेकिन सरकार इसे सिर्फ शराब के उपयोग में दिखती है जो गलत है )
साल बीज--- एक लाख टन--- तेल व साबुन(, हवाई जहाज ग्रीस)
डोरी ----20 हजार टन--- तेल व साबुन
कुसुम---- 10 हजार टन--- तेल व साबुन
करंज बीज --5 हजार टन-- एंटीबायोटिक तेल, मलहम स स्प्रे
जामुन---- 5 हजार टन ---- पल्प, सिरप, व पाउडर
चिरौंजी 2 हजार टन ड्राई फ्रुट
हर्रा--- 2 हजार-- दवा
आवंला---- 2 हजार टन--- पावडर, मुरब्बा, त्रिफला, अचार
बहेरा -----2 हजार टन --- त्रिफला
चिरैता---- 2 हजार टन----- एंटिबायोटिक पावडर
पलाश फूल, बीज---- 1 हजार टन---- जैविक रंग, दवा
नीम बीज, पता, फूल, छल ---500 टन--- तेल, साबुन, दवा
सर्पगंधा---- 500 टन--- दवा
अष्गंधा---- 500 टन--- दवा
सतावरी----- 200 टन--- दवा
शहद ------- 100 टन--- दवा,खाद्य
केंन्दू पता, फल,---- उपलब्ध नहीं--- बीड़ी(सरकार के अनुसार उपलब्ध न`ही है` , सभी जानते हैं की हर साल हजारो ट्रक केन्दु पता झारखण्ड के बिभिन् छेत्रो से निकलता है।
वनोपज पर जान जातीय समाज
महुआ का सालाना उल्पादन भी दो लाख टन
जनजातीय समुदाय का जीविकांपार्जन लघु वनोपज पर निर्भर है। राज्य की कुल 86.45 लाख जनजीतीय आबादी की एक बड़ा हिस्सा जंगलों से इन्हें इकठा करता है। गौरतलब है कि राज्य के लगभग 80 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 23605 वर्ग किमी( 29.6) फीसदी में जंगल है।
चतरा, कोडरमा और पलाूमू जिले का 40 फीसदी से अधिक भाग जंगल है। झारख्ंड स्टेट माइनर फारेस्ट प्रोडयूस को-आॅपरेटिव डेवलपमेंट एंड मार्केंटिंग (झामकोफेड) की रिपोट के मुताबिक लघु वनोपज के कुल टर्न ओवर में करीब 75 फीसदी योगदान अकेले केंन्दू पता का है।
हालांकि राज्य में केंन्दू पता का कुल उत्पादन कितना है, यह आंकड़ा झामकोफेड के पास नहीं है। यहां विभिन्न लघु वनोपज के सालाना उत्पादन का जिक्र किया जा रहा है।
विभिन्न वनोपज व उत्पादन(स्त्रोत झामकोफेड)
वनोपज सालाना उत्पादन उपयोग
इमली---- दो लाख टन----- बगैर बीज की पैकिंग व पेस्ट
महुआ---- दो लाख टन---- शराब (इसका उपयोग भोजन और दवा के रूप में आदिवासी मूलवासी समाज करता है , लेकिन सरकार इसे सिर्फ शराब के उपयोग में दिखती है जो गलत है )
साल बीज--- एक लाख टन--- तेल व साबुन(, हवाई जहाज ग्रीस)
डोरी ----20 हजार टन--- तेल व साबुन
कुसुम---- 10 हजार टन--- तेल व साबुन
करंज बीज --5 हजार टन-- एंटीबायोटिक तेल, मलहम स स्प्रे
जामुन---- 5 हजार टन ---- पल्प, सिरप, व पाउडर
चिरौंजी 2 हजार टन ड्राई फ्रुट
हर्रा--- 2 हजार-- दवा
आवंला---- 2 हजार टन--- पावडर, मुरब्बा, त्रिफला, अचार
बहेरा -----2 हजार टन --- त्रिफला
चिरैता---- 2 हजार टन----- एंटिबायोटिक पावडर
पलाश फूल, बीज---- 1 हजार टन---- जैविक रंग, दवा
नीम बीज, पता, फूल, छल ---500 टन--- तेल, साबुन, दवा
सर्पगंधा---- 500 टन--- दवा
अष्गंधा---- 500 टन--- दवा
सतावरी----- 200 टन--- दवा
शहद ------- 100 टन--- दवा,खाद्य
केंन्दू पता, फल,---- उपलब्ध नहीं--- बीड़ी(सरकार के अनुसार उपलब्ध न`ही है` , सभी जानते हैं की हर साल हजारो ट्रक केन्दु पता झारखण्ड के बिभिन् छेत्रो से निकलता है।
आदिवासियों के इतिहास-पहचान, भाषा-संस्कृति, जंल-जंगल-जमीन को किसी मुआवजा से नहीं भरा जा सकता है, न ही इसका पूर्नास्थापना या पुर्नास्थापित संभव है।
5 जुलाई 2015 को कोयलकारो जनसंठन जल-जंगल-जमीन, भाषा-संस्कृति अपने इतिहास और पहचान की रक्षा के लिए 20वां संक्लप दिवस तोरपा-तपकरा के शहीद स्थल पर मना रही है। तत्कालीन बिहार सरकार द्वारा प्रस्तावित 710 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए खूंटी जिला में बह रही कोयल नदी और गुमला जिला के बसिया क्षेत्र से बह रही कोयल नदी पर दो अलग अलग जगह पर डैम बनाने की योजना थी। के्रन्द्र सरकार और तत्कालीन राज्य सरकार ने 5 जुलाई 1995 को परियोजना का शिलान्यास करने की घोषणा की थी। कोयलकारो हाईडल पावर प्रोजेक्ट के बनने से खूंटी जिला, गुमला जिला और पष्चिमी सिंह भूंम के कुल 245 गांव प्रभावित होते। 55 हजार एकड़ खेती की जमीन जलमग्न हो जाती। 27 हजार एकड़ जंगल भूमिं पानी में डूब जाता। आदिवासी-मूलवासियों के सैकडों धर्मिक स्थल सरना-ससन दीरी भी जलमग्न हो जाता। प्रभावित क्षेत्र के ग्रामीण कोयलकारो जनसंगठन के बेनर तले 1966-67 से ही परियोजना का विरोध करते आ रहे हैं। कोयलकारो जनसंगठन का मनना है कि-आदिवासियों के इतिहास-पहचान, भाषा-संस्कृति, जंल-जंगल-जमीन को किसी मुआवजा से नहीं भरा जा सकता है, न ही इसका पूर्नास्थापना या पुर्नास्थापित संभव है। 5 जुलाई 1995 को कोयलकारो जनसंगठन ने संकल्प लिया-कि हम किसी भी कीमत में विस्थापन स्वीकार नहीं करेगें।
कोयलकारो जनसंगठन स्वर्गीय मोजेश गुडिया, स्वर्गीय राजा पौलुस गुडिया, सोमा मुंडा, सदर कंडुलना, धनिक गुडिया, रेजन गुडिया, अमृत गुडिया, बिजय गुडिया, कोयल क्षेत्र से बलकु खडिया, अलफ्रेद आइंद, पीसी बड़ाईक सहित सैकड़ों संर्घरत साथियों के सामूहिक नेतृत्व में संर्घष को जीत के मंजिल तक पहुंचाये। आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन कभी झुका नहीं, न ही टूटा। राज्य बनने के बाद पुलिस प्रशासन द्वारा साजिश के तहत कोयलकारो जनसंगठन द्वारा लगाया गया डेरांग स्थित बैरेकेटिंग को 1 फरवरी 2001 को तोड़ा गया। इसके विरोध में जनसंगठन ने 2 फरवरी को तपकरा ओपी के सामने शतिपूर्वक धरना दे रहा था-इस पर पुलिस ने गोली चलायी। जिसमें आठ साथी शहीद हो गये। शहीद समीर डहंगा-बण्डआजयपुर, सुंदर कन्डुलना-बनाय, सोमा जोसेफ गुडिया, लूकस गुडिया-दोनों गोंडरा, बोदा पाहन-चम्पाबहा, जमाल खाॅं-तपकरा, सुरसेन गुडिया-डेरांग इन शहिदों के खून से लाल इस धरती ने पूरे देश के जनआंदोलन को दिशा दिया है-हम षहिद हो सकते हें-लेकिन अपने धरोहर का सौदा नहीं कर सकते हैं।
कोयलकारो जनसंगठन के इतिहास में कई महत्वपूर्ण दिन और घटनाएं जनआंदोलनों को उर्जा देती हैं। इनमें से प्रमूख तौर पर 5 जुलाई 1995 को जनविरोध की ताकत के सामने केंन्द्र और तत्कालीन राज्य सरकार को झुकना पड़ा था-और परियोजना के शिलान्यास का कार्यक्रम स्थागित करना पड़ा था। 2 फरवरी 2001 को जनसंगठन पर पुलिस फायरिंग किया गया था। इन दोनों तिथि में जनसंगठन शहिदों के रास्ते चलने के लिए तथा कोयलकारो परियोजना से होने वाले विस्थापन को रोकने का संकल्प लेता है
कोयलकारो जनसंगठन स्वर्गीय मोजेश गुडिया, स्वर्गीय राजा पौलुस गुडिया, सोमा मुंडा, सदर कंडुलना, धनिक गुडिया, रेजन गुडिया, अमृत गुडिया, बिजय गुडिया, कोयल क्षेत्र से बलकु खडिया, अलफ्रेद आइंद, पीसी बड़ाईक सहित सैकड़ों संर्घरत साथियों के सामूहिक नेतृत्व में संर्घष को जीत के मंजिल तक पहुंचाये। आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन कभी झुका नहीं, न ही टूटा। राज्य बनने के बाद पुलिस प्रशासन द्वारा साजिश के तहत कोयलकारो जनसंगठन द्वारा लगाया गया डेरांग स्थित बैरेकेटिंग को 1 फरवरी 2001 को तोड़ा गया। इसके विरोध में जनसंगठन ने 2 फरवरी को तपकरा ओपी के सामने शतिपूर्वक धरना दे रहा था-इस पर पुलिस ने गोली चलायी। जिसमें आठ साथी शहीद हो गये। शहीद समीर डहंगा-बण्डआजयपुर, सुंदर कन्डुलना-बनाय, सोमा जोसेफ गुडिया, लूकस गुडिया-दोनों गोंडरा, बोदा पाहन-चम्पाबहा, जमाल खाॅं-तपकरा, सुरसेन गुडिया-डेरांग इन शहिदों के खून से लाल इस धरती ने पूरे देश के जनआंदोलन को दिशा दिया है-हम षहिद हो सकते हें-लेकिन अपने धरोहर का सौदा नहीं कर सकते हैं।
कोयलकारो जनसंगठन के इतिहास में कई महत्वपूर्ण दिन और घटनाएं जनआंदोलनों को उर्जा देती हैं। इनमें से प्रमूख तौर पर 5 जुलाई 1995 को जनविरोध की ताकत के सामने केंन्द्र और तत्कालीन राज्य सरकार को झुकना पड़ा था-और परियोजना के शिलान्यास का कार्यक्रम स्थागित करना पड़ा था। 2 फरवरी 2001 को जनसंगठन पर पुलिस फायरिंग किया गया था। इन दोनों तिथि में जनसंगठन शहिदों के रास्ते चलने के लिए तथा कोयलकारो परियोजना से होने वाले विस्थापन को रोकने का संकल्प लेता है
Saturday, July 4, 2015
Land Record Online karna...Corporets , Punjipatiyon, Udyog Gharano ke liye Jameen ..ki loot
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