Monday, October 12, 2015

नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।

बिरसा मुंडा के उलगुलान का सपना अबुआ हाते रे अबुआ राईज स्थापित करना था। उन्होने  आंदोलनकारियों को अहवान किया था दिकु राईज टुन्टू जना-अबुआ राईज एटे जना। (दिकू राईज खत्म हो गया-हमलोगों का राज्य शुरू हुआ)। बिरसा उलगुलान का सपना था आदिवासियों के जल-जगल-जमीन पर अंग्रेजो के कब्जा से मुक्त कराना, अग्रेजों, जमीनदारों, इजारेदारों द्वारा उनके धरोहर जल-जंगल-जमीन पर किये जा रहे कब्जा को रोकना, बेटी, बहुओं पर हो रहे शोसन को खत्म करनंे तथा आदिवासी सामाज को तमाम तरह के शोषण दमन से मुक्त करना था। बिरसा मुंडा का उलगुलान सिर्फ झारखंड से अंग्रेज सम्राजवाद को रोकना नहीं था, बल्कि देश  को अंग्रेज हुकूमत से मुक्त करना था। स्वतंत्रता संग्र्राम का इतिहास गवाह है कि जब देश  के स्वतंत्रता संग्राम के मैदान में बिरसा मुडा, डोंका मुंडा,  सहित सिद्वू-कान्हू, तिलका मांझी, सिंदराय-शिंदराय जैसे आदिवासी शहीद देश  के इतिहास में पहला संग्रामी थे। (1856-1900 का दषक) । बिरसा मुंडा सिर्फ झारखंड का ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय जननायक रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़ कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जल-जंगल-जमीन पर हमारा खूंटकटी अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जब जब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस धरोहर को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया तब-तब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस राज्य के जलन-जंगल-जमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्वू-कान्हू, फूलो-झाणो, सिंदराय-बिंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी शहादत दी। इन शहीदों के खून का कीमत है-छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 और संतालपरगना काष्तकारी अधिनियम । इन कानूनों में कहा गया है कि आदिवासी इलाके के जल-जंगल-जमीन पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेष नहीं कर सकता है। यहां के जमीन का मालिक नहीं बन सकता है। हम सभी जानते हैं कि भारतीय संविधान में हमारे इस क्षेत्र को विषेष अधिकार मिला है-यह है पांचवी अनुसूचि क्षेत्र। इसे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में जंगल-जमीन-पानी, गांव-समाज को अपने परंपरागत अधिकार के तहत संचालित एवं विकसित एंव नियंत्रित करने को अधिकार है।
झारखंड के इतिहास में आदिवासी शहीदों ने जून महिना को झारखंड में अबुअः हातु-अबुअः राईज स्थापित करने के हूलउलगुलान की तिथियों को रेखांकित किये हैं। .9 जून 1900 को बीर मुंडा की मौत जेल में अंग्रेजों के स्लो पोयजन से हुई। जबकि 30 जून 1856 को संताल परगना के भोगनाडीह में करीब 15 हजार संताल आदिवासी अंग्रेजों के गोलियों से भून दिये गये, इस दिन को भारत के इतिहास में संताल हूल के नाम से जाना जाता है।
बिरसा मुंडा एक आंदोलनकारी तो थे ही साथ ही समाज सुधारक और विचारक भी थे। यही कारण है कि समाज की परिस्थितियों को देखते हुए आंदोलन का रूप-रेखा बदलते रहे। समाज में व्यप्त बुराईयों के प्रति लोगों को सजग और दूर रहने का भी अहवान किया। उन्होंने सहला दिया-हडिंया दारू से दूर रहो । उन्होनंे कहा- सड़ा हुआ हडिंयां मत पीना, उससे शरीर सिथिल होता है, इससे सोचने-समझने की शक्ति  कमजोर होती है। (हडिंया केवल नहीं लेकिन सभी तरह के शराब से परहेज करने का कहा था।)
 बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलनकारियों ने समझौताविहीन लड़ाई लड़े। बिरसा मुंडा ने गरीबी का जीवन जीते हुए अंग्रेजों के शोषन -दमन से अपने लोगों को मुक्ति दिलाना चाहता था। कहा जाता है जब गांव का ही एक व्यक्ति की मृत्यू हुई थी, उस मृत शव के साथ चावल और कुछ पैसे गाड़ दिया गया था। (आदिवासी सामाज में शव के साथ कपड़ा थोडा चावल, पैसा डाला जाता है। ) भूखे पेट ने बच्चा बिरसा को उस दफनाये शव के कब्र से उस पैसा को निकालने को मजबूर किया था। उस पेसा से वह चावल खरीद कर माॅ को पकाने के लिये दिया । इस गरीबी के बवजूद भी बिरसा मुंडा को सामाज, राज्य और अबुअः हातु रे आबुअः राईज का उलगुलान ने अंग्रेज हुकुमत के सामने कभी घुटना टेकने नहीं दिया।
बिरसा मुंडा सामाज पर आने वाले खतरों के प्रति सामाज को पहले से ही अवगत कराते थे। जब अंग्रंजों का दमन बढ़ने वाला था-तब उन्होंन अपने लोगों से कहा-होयो दुदुगर हिजुतना, रहडी को छोपाएपे-(अंग्रेजो का दमन बढ़ने वाला है-संघर्ष के लिए तौयार हो जाओ)।
9 जनवारी 1900 को बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में खूंटी जिला स्थित डोमबारी बूरू आदिवासी शहीदों के खून से लाल हो गया था। उलगुलान नायकों को साईल रकम-डोमबारी पहाड़ में अंग्रेज सैनिकों ने रांची के डिप्टी कष्मिरन स्ट्रीटफील्ड के अगुवाई में घेर लिया था। स्ट्रीटफील्ड ने मुंडा आदिवासी आंदोलनकारियों से बार बार आत्मसामर्पण करने का आदेश  दे रहा था। इतिहास गवाह है-उनगुलान के नायकों ने अंग्रेज सैनिकों के सामने घुटना नहीं टेका। सैनिक बार बार बिरसा मुंडा को उनके हवाले सौंपने का आदेश  दे रहे थे-एैसा नहीं करने पर उनके सभी लोगों को गोलियों से भून देने की धमकी दे रहे थे-लेकिन आंदोलनकारियों ने बिरसा मुंडा को सरकार के हाथ सौंपने से साफ इनकार कर दिये।
जब बार बार आंदोलनकारियों से हथियार डालने को कहा जा रहा था-तब नरसिंह मुंडा ने सामने आया और ललकारते हुए बोला-अब राज हम लोगों का है-अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार रखने का सवाह है तो मुंडाओं को नहीं, अंग्रेजों का हथियार रख देना चाहिए, और यदि लड़ाई की बात है तो-मुंडा समाज खून के आखिरि बुंद तक लड़ने को तैयार है।
स्ट्रीटफील्ड फिर से चेतैनी दिया कि-तुरंत आत्मसमार्पण करे-नही ंतो गांलियां चलाई जाएगी। लेकिन आंदोलनकारीे -निर्भयता से डंटे रहे। सैनिकों के गोलियों से छलनी-घायल एक -एक कर गिरते गये। डोमबारी पहाड़ खून से नहा गया। लाषें बिछ गयीं। कहते हैं-खून से तजना नदी का पानी लाल हो गया।
डोमबारी पहाड़ के इस रत्कपात में बच्चे, जवान, वृद्व, महिला-पुरूष सभी षामिल थे। आदिवासी में पहले महिला-पुरूष लंमा बाल रखते थे। अंग्रेज सैनिकों को दूर पता नहीं चल रहा था कि जो लाष पड़ी हुई है-वह महिला का है या पुरूषों का है। इतिसाह में मिलता है-जब वहां नजदीक से लाश  को देखा गया-तब कई लाश  महिलाओं और बच्चों की थी।
 इस समूहिक जनसंहार के बाद भी मुंडा समाज अंग्रेजो के सामने घुटना नहीं टेका। इतिहास बताता है-जब बिरसा को खोजने अंग्रेज सैनिक सामने आये-तब माकी मुंडा एक हाथ से बच्चा गोद में सम्भाले, दूसरे हाथ से टांकी थामें सामने आयी। जब उन से पूछा-तुम कौन हो, तब माकी ने गरजते हुए-बोली-तुम कौन होते हो, मेरे ही घर में हमको पूछने वाले की मैं कौन हुं?
बिरसा मुंडा के आंदोलन ने अंग्रेज शाषकों को सहसूस करा दिया कि-आदिवासियों का जंगल-जमीन की रक्षा जरूरी है। इतिहास गवाह है-बिरसा मुंडा सहित उलगुलान और हूल के नायकों के खून का कीमत ही छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियक 1908 है। इसमें मूल धारा 46 को माना गया, जिसमें कहा गया कि आदिवासियों की जमीन को कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता है।
इस गौरवशली इतिहास को आज के संर्दभ में देखने की जरूरत है। आज जब झारखंड का एक एक इंच जमीन, जंगल, पानी, पहाड़, खेत-टांड पर सौंकड़ों देशी -विदेषी कंपनियां कब्जा करने जा रहे हैं। बिरसा उलगुलान सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ था। आज तो हजारों कंपनियां हमारे जल-जंगल-जमीन सहित, भाषा-सस्कृति, और पहचान पर चैतरुा हमला कर रहे हैं। भोजन, पानी, षिक्षा, स्वस्थ्य, जो आम लोगों की बुनियादी आवष्यकताएं हैं-को जनता के साथ से छीन कर सरकार और कंपनियां इसे मुनाफा कमाने वाली वस्तु बना दे रहे हैं। सरकार आज सभी जनआंदोलनों का दमन कर स्थानीय जनता के परंपारिक और संवैधानिक अधिकारों को छीनने कर पूंजीपतियों के हाथों सौंपने में लगी हुई है। आज सीएनटी एक्ट की धज्जी उडायी जा रही है। परपरागत गांव सभा के अधिकार खत्म किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकारों चैतरफा हमला हो रहा है। जमीन अधिग्रहण अध्यादेश  जो आदिवासी-किसान विरोधी है -जो कारपोरेट लूट को मजबूती देगा को जबरन थोपने  की तैयारी चल रही है। आज बिरसा मुंडा के अबुअः राईज के समने आज चूरचूर होते जा रहे हैं। एैसे परिस्थिति में शहीदों के इतिहास को आगे बढ़ाने के तमाम आदिवासी -मूलवासी संगठनो, बुधिजीवियों, सामाजिक कार्याकताओं, जनआंदोलनों को अत्मसात करने की जरूरत है कि हम उलगुलान के शहीदों के सपनों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं।

बिरसा मुंडा के समय आज की तरह बुनियादी सुविधायें नहीं थीं।  समाज अशिक्षित था, आने-जाने का कोई सुविधा नहीं था, आज की तरह सड़के नहीं थी, बिजली नहीं था, फोन नहीं था, गाड़ी की सुविधा नहीं था-फिर भी बिरसा मुंडा महसूस किया-कि मुंडा-आदिवासियों को अपना राज चाहिए, अपना समाज, गांव-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ चाहिए। बिरसा मुंडा ने-महसूस किया था-झारखंड की धरती जितनी दूर तक फैली है-यह उनका घर आंगन है। नदियां-जितनी दूर तक बह रहीं हैं-उतना लंबा इस समाज का इतिहास है, पहाड़ की उंचाई-के बराबर हमारा संस्कृति उंचा है। इसकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है।

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