Saturday, October 10, 2015

आशार सावन पानी जे बारिशे बेंगोवा भले गीता गावै रे बेंगोवा भले गीता गावै।


आशार सावन पानी जे बारिशे
बेंगोवा भले गीता गावै रे
बेंगोवा भले गीता गावै।
मेंढ़क की टर टर और नदी का सोर -के साथ मन भी गुन गुना उठता है खेत-टांड में काम करने जाने के समय में रास्ता  चलते चलते घोंघा घोंघी चुनेते जाते है। अब खेत का काम बढ़ता जा रहा है। लोग कादो खेतों में व्यस्त होते जा रहे हैं। थकान बढ़ रहा है। लेकिन बरसात का सुखद आंनद भी है। खेत-खलिहान बरसा पानी से लबालब है। जमीन में नमी आते ही अंदर से केंचुआ, जोंक और घांेगघा और मेंढ़क बाहर निकल रहे हैं। ये जैसे जैसे धरती का नमी कम होता जाता है, चिलचिलाती धुप से बचने के लिए नीचे मिटटी के अंदर घुस जाते है। दिन को खेत -टांड में लोगों के भागाम भाग के साथ प्रकृति स्वंय भी व्यस्त हो जाता है। लेकिन जैसंे ही सूरज की अंतिम किरणो के साथ ये भागम भाग की जिंदगी में सनाटा फैलता जाता हैं। अब इस सनाटा को मेंढक तोड़ रहे हैं। छोटे बड़े मेंढ़क सभी अपना अपना गीत गाने लगते हैं। कुछ टर टर करते हैं, तो कुछ बांट बांट करते हैं,  कुछ रोटी रोटी रोटी रोटी......बोलते हैं। इनकेे मधुर गीत सबको गहरी नींद में सुला देते हैं।

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