Monday, April 18, 2011

चिलचिलाती धूप में तपती धरती में 10-12 कोस रास्ता अकेले ही तय की प्यास लगी तब नदी का बहता पानी अंजुरी से उठा कर प्यास बुझायी नदी तट के जामुन पेड़ के नी

तुम समझने की कोशिश करो

जब तुम होस संभाल भी नहीं पायी थी
तभी तुम्हारे माता-पिता से सादा कागज
पर अंगुठा का निशान लगवाकर
सालेगुटू के साहू परिवार ने गुमला कोर्ट
में तुम्हारे पिता के जमीन अपने नाम से
करवा लिया।
केस लड़ते तुम्हारे मां-बाप भूमिंहीन हो गये
जब तुम चैथा क्लास में थी
तुम्हारा पिता लप्पा गांव में धांगर हो गया
तुम्हारा बड़ा भाई गांव के किसान के घर
धांगर हुआ
तुम्हारी मां और मझिला बड़ा भाई
रांची चले गये मजदूरी करने
तुम और तुम से बड़ा भाई घर में रह गये थे।
बाद में तुम्हारे दो भाईयों के साथ
तुम जींदगी की नयी शुरुवात की
मुसलाधार वारिष और कड़ती बिजली
से भी नहीं डरी
तुम डटी रही खेत-खलीहान में
किसानों के खेतों में मजदूरी करते
तुम डटी रही गोडा टांड में साग तोड़ते हुए
चिलचिलाती धूप में अकेले कभी करंज पेड़
के नीचे करंज चुनते रही
तो कभी लाह पेड़ के नीचे
दाना -दाना लाह चुनते रही
तो कभी पाकर, डुमर, आम, कटहल,
कोयनार पेड़ के नीचे भोजन तलाशते रही
तब भी अकेली रही
तुम डटे रही
गमछा में करंज, लाह पोटली में बांधे
5-6 कोस रायकेरा बाजार, तुरबुल बाजार
तो कभी बकसपुर बाजार बेचने गयी
बाजार से एक-दो पाव चावल खरीद कर
अकेली सूरज की अंतिम किरण के साथ
अकेली घर आती थी
तब भी तुम डटे रही
तब तुमने किसी से शिकायत नहीं की
कोटबो स्कूल, रामतोल्या स्कूल, कमडारा
स्कूल अकेली जाती थी
मुशलाधार पानी में उमड़ती नदी को अकेले
ही पार की
चिलचिलाती धूप में तपती धरती
में 10-12 कोस रास्ता अकेले ही तय की
प्यास लगी तब नदी का बहता पानी
अंजुरी से उठा कर प्यास बुझायी
नदी तट के जामुन पेड़ के नीचे
सुसतायी
तब भी तो तुम अकेले ही थी
ग्लोशोप मेमेरियल हाई स्कूल कमडारा
से 8वीं क्लास पास कर सर्टिफिकेट
निकाल कर रांची पढ़ने कबसपुर
से रेलगाड़ी में बैठक कर रांची आयी
याद करो तुम तब भी तो अकेले ही
आयी थी
शहर की जिंदगी, लोगों का भींड
बिजली का चका चौंध , रोड़ में सरपट
दौड़ती गाड़ियों की भीड़
कोई जनपहचान नहीं,
सभी अजनबी, इस भीड़ में भी
तब भी तुम अकेले ही थी
आगे पढ़ना था, लेकिन किस स्कूल
में नाम लिखाना है यह भी पत्ता नही था
कहां रहोगी, क्या खाओगी यह भी
पत्ता नहीं था, तुम इतना ही
जानती थी, तुमको पढ़ना है
सोचो.. तब भी तुम अकेले ही थी
गोशाला तुम्हारा आशियाना बना
खुला आकाश तुम्हारा छत बना
अनजाने लोग तुम्हारा पड़ोसी बने
पीपी कमपांड के पंजाबी, बंगाली,
बिहारी, धोबी, अमीरों के नौकर-चाकर
को तुम साथी बनायी
इस समय भी तुम अकेले ही थी
संत मार्गरेट बालिका हाई स्कूल में
तुम नाम लिखाई
पेट के लिए मेन रोड़ में पुलिसों
का वर्तन धोयी, उनका कैंप
में रोज सुबह सुबह झाडू लगाती थी
तब भी तो अकेले ही थी ना?
नवीं क्लास पास की, दसवीं क्लास
पास की, पैंसों की जरूरत बढ़ी
स्कूल जाने के पहले कई घरों का
वर्तन धोयी, कपड़े साफ की,
घर साफ की
कभी पेट भरा कभी खाली रहा
याद करो तब भी तुम अकेली थी
तुम्हारे अंगुलियों ने जिस कलम
और पेंशील को हमेशा थामे रहे
गांव से रांची शहर तक साथ आयी
आज भी वो तुम्हारे साथ हैं
वही कागज, वही कलम
जब तुम रोती थी आंख से
आंसू निकलते थे, यही दानों
हाथ तुम्हारे आंसू पोछते थे
यही आंख के आंसू तुम्हें
सांत्वना देते थे
सभी तो आज भी साथ हैं
फिर तुम को शिकायत क्यों
कि तुम अकेली हो?
मंगल के दिन जन्म हुआ था
कुछ मंगरी पुकारते थे
पूर्णिमा के दिन जन्म हुआ था
कुछ पूर्णिमा कहते थे
मां-पिताजी को खनदान में किसी
दादी का नाम देना था तो बंधनी रखे
जब गिरजा जाना था तब तुमको
दयामनी अच्छी लगी
अरे देखो...सब तो तुम साथ हो
फिर क्यों शिकायत है तुम को
कि तुम अकेली हो
आखिर तुम को क्यों ऐसा
लगता है...
देखो-मंगरी, पूर्णिमा, बंधनी और दयामनी
सभी साथ हो...और साथ रहोगे

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