1995 में 256 गांव को विस्थापित कर 710 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए केंन्द्र सरकार झारखंड के इतिहासिक दो बड़ी नदियां कोयल और कारो नदी पर डैम बनाने के खिलाफ कोइलकारो जनसंगठन का संघर्ष चरम पर था। इस आंदोलन में जाकर नजदीक से आंदोलन को समझने का मौका मिला। पड़हा राजा स्व0 स्वर्गीय पौलुस गुडिया-जनसंगठन के तत्कालीन अध्याक्ष, वर्तमान जनसंगठन के अध्याक्ष श्री सोमा मुंडाजी आदि के नेतृत्व में जनआंदोलन अपने स्थानीय संसाधनों से, सामूहिक निर्णय से, जाति-धर्म और राजनीति से उपर उठकर आंदोलन को पूरी अनुषान के साथ संचालित किया। लगातर आंदोलन में रहकर समाज के लिए समझौताविहीन आंदोलन को जीत के मंजिल तक कोइलकारो जनसंगठन ने पहुंचाया। नारा दिया था-जान देगें, लेकिन जमीन नहीं देगें। जनसंगठन ने अपनी वादा पूरी की। राज्य बनने के बाद 2 फरवरी 2001 में 8 लोगों के श -हादत के बाद जनसंगठन ने नारा दिया-हम आठ लोग षहीद हुए हैं, आठ हजार लोग षहीद होगें-फिर भी अपना जंगल-जमीन नहीं देगे। परियोजना के नाम पर जनसंगठन ने आज तक 256 गांव का एक इंच जमीन सरकार को लेने नहीं दिया।
कोईलकारो जनआंदोलन से बहुत कुछ सिखने बाद राज्य में जमीन, जंगल बचाने के लिए संघर्षरत कई आंदोलनों को करीब देखने का मौका मिला। 1993 में पहली बार नेतरहाट के टुटवापानी में 245 गांवों को विस्थापित होने से रोकने, 1471 किमी में फैली जंगल को बचाने से लिए संघर्षरत नेतरहाट जनसंघर्ष समिति के आंदोलन को देखने को मौका मिला। 1993 में रूटीन फायरिंग के लिए नेतरहाट के गांव में आ रहे सैनिकों को टुटवापानी में डेढ लाख आदिवासी-मूलवासी किसानों ने रोका। नारा दिया-जान देगें, जमीन नहीं देगे। सैनिकों को पीछे लौटना पड़ा। आज तक फिर सैनिक रूटीन फायरिंग के लिए गांवों में नहीं आये। यह बड़ी सफलता जनसंघर्ष समिति की है।
1996 में नेतरहाट फील्ड फायरिंग के विरोध जनआंदोलन से निकले नवजवान साथियों के साथ मिलकर कागज-कलम हाथ में लेकर नया रास्ता तय करने मन बनाये। अगुवाई फैसल दी, बशीर दा, अलफ्रेड दा जैसे लोगों ने किया। दोनों आंदोलन के दौरान कई नये साथी मिले, श्री प्रकाश जी, संजय कुमार, सुनील मिंज, बिजू टोप्पो, कुरदूला, ज्योत्सना षीला डांग, सुसमा कुजूर, जेरोम जेराल्ड कुजूर, अजय टोप्पो, पंकज, धनिक गुडिया, रेजन गुडिया आदि। हम सभी ने मिलकर मीडिया पर काम करना षुरू किये। लेखन का काम जनहक पत्रिका से षुरू करके प्रभात खबर के साथ कई हिंन्दी पत्रिकाओं, अखबरों में भी किये। बाद में अहसास किये, अखबार में बयलाईन मिलने से केवल समाज और राज्य की समस्याओं से लड़ा नहीं जा सकता है, न ही निजात मिल सकता है। इसके लिए मौदान में संघर्ष के साथ हाथ में कलम-कागज भी हो। 1996 में पेसा कानून पास होने के साथ ही पूरे राज्य में आदिवासी समाज को स्वाषासन का हक मिला, इस मान्यता के साथ गांव सभाओं को साथ ही आदिवासी समाज के परंपारिक सस्थाओं को मजबूत करने का अभियान चला। गांव-गांव षिलालेख किया गया। इसके साथ ही महिला अधिकार की लड़ाई भी चली। महिला अधिकार की रक्षा, महिलाओं को जागरूक करने तथा महिला हिंसा को रोकने के लिए झारखंड महिला मुक्ति संगठन भी बनाये। कई सालों तक संगठन के साथ रहे। राज्य बनने के पहले हम महिलाओं का नारा दिया था-कि झारखंड षोषण विहीन राज्य बने, सत्ता और संसाधन में महिलाओं को बराबरी का हक मिले।
महिलाओं को मांग था, राज्य के 81 विधानसभा सीट में से 40 सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हों, 14 लोक सभा सीट में से 7 सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हों। षायद यह एक सपना था, जो राज्य बनने के बाद आज 20 वर्ष हो गये लेकिन महिलाओं के लिए यह नीति नहीं बनी। कई राज्य बनने के बाद जो भी सरकारे आयी सत्ता पर, राज्य में महिला नीति बनाने की मांग की गयी। लेकिन किसी भी सरकार ने पहल नहीं किया।
राज्य में भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी। करीब 68 कंपनियों के साथ उद्योग लगाने के लिए एमओयू साईन किया। राज्य के लिए झारखंड औद्योगिक कानून 2001 बनाया गया। जिसमें कहा गया-झारखंड में उद्योगों का जाल बिछा देगें। इस कानून के गजट में प्रकाषित होने के साथ ही, राज्य में फिर से आदिवासी-मूलवासी किसानों में विस्थापन का भय मंडराने लगा। इस आदिवासी-मूलवासी किसान विरोधी नीति को वापस लेने की लड़ाई भी लड़ी गयी। लेकिन कानून वापस नहीं हुआ।
2006 में भाजपा सरकार ने राज्य का नेतृत्व बदला। इसके साथ ही राज्य सरकार द्वारा कंपनियों के साथ किये गये एमओयू को जमीन पर उत्तारने का प्रयास षुरू किया गया। आर्सेलर मित्तल कंपनी, जिंदल कंपनी, भूषण कंपनी जैसे बड़े कंपनियों के लिए जमीन सरकार तलाषना प्ररंभ किया। इसी क्रम में आर्सेलर मित्तल के लिए खूंटी जिला और गुमला जिला के 38 गांवों को चिन्हित किया गया। जिंदल के लिए पूर्वी सिहंभूम के पोटका प्रखंड के गांवों को चिन्हित किया गया। भूषण कंपनी के लिए पोटका प्रखंड के गांवों को चिन्हित किया गया। यह ऐसा दौर था, राज्य के कई ईलाकों का जमीन अलग अलग कंपनियों को दिया जा रहा था। इन दोनों कंपनियों के विस्थापन के खिलाफ कुमार चंन्द्र मार्डी के साथ दर्जनों आदिवासी-मूलवासी नेताओं की अगुवाई में लड़ाई चला। सभी इलाकों में विस्थापन के खिलाफ ग्रामीण संघर्ष का बिंगुल फंूक दिया था। दुमका में आरपीजी कोयला कंपनी के खिलाफ संताली आदिवासी मुनी हांसदा, चरण मुर्मू सहित कई मांझी हडम के अगुवाई में लड़ रहे थे।
खूंटी, गुमला जिला में आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर में ग्रामीण गोलबंद हुए। संघर्ष 2006 से 2010 जब्रजस्त चला। जब कंपनी के मालिक ने लगजमबार्ग से प्रेस बयान जारी कर कहा-खूंटी-गुमला के प्रस्तावित मित्तल कंपनी उद्योग के स्टील करखाना के इलाके में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष बहुत मजबूत है, इसकारण वहां जमीन लेना कठिन है, इसलिए करखाना का साईट बदल कर हम बोकारो में जमीन देखेगें। कंपनी के इस बयान के बाद भी संगठन का संघर्ष आज भी जारी है।
2010 में ही खूंटी के कर्रा प्रखंड क्षेत्र में छाता नदी पर एक डैम बनना ष्षुरू कर दिया गया था। जानकारी के अनुसार जिस कंपनी ने डैम का ठेका लिया था, गांव के तीन-चार लोगों को गुमराह करके सरकार के जानकारी में दिये बिना ही डैम बनाने का काम ष्षुरू कर दिया था। जमीन मालिक विरोध कर रहे थे। लेकिन सभी तरह की षत्कियां डैम बनाने के पक्ष में थे। इस कारण जमीन मालिक भयभीत थे। जो विरोध कर रहे थे, उसमें एक की अपहरण कर हत्या कर दी गयी। दूसरी ओर गांव के ग्राम प्रधान के साथ और दो लागों को पुलिस पकड़कर 6 दिनों तक कस्टडी में रखा। ग्रामीण इन लोगों को पुलिस से मुक्त करने के लिए सहयोग मांगे। तब से लेकर डैम के लिए जमीन नहीं देने की पूरी लड़ाई 2019 तक मिलकर लडें। अभी तक जमीन सुरक्षित है। 2012 में नगडी के किसानों के अग्राह पर 227 एकड़ खेती की जमीन बचाने की लड़ाई में षामिल हुए। जिस जमीन को राज्य सरकार 1958 में अधिग्रहीत मानती थी, रैयतों का कहना था-कि हम लोगों ने जमीन सरकार का नहीं दिया है, न ही हमारे मां-पिताजी ने जमीन दिया है। स्थिति स्पष्ट नहीं थी। भूअर्जन विभाग एवं कृर्षि विष्वविद्यालय कांके को आरटीआई के तहत उस जमीन के अधिग्रण की पूरी रिपोंट मांगे। दोनों विभाग से जवाब मिला। स्पष्ट था कि सरकार ने जमीन अधिग्रहण नहीं किया है।
इस जानकारी के साथ 2 मार्च 2012 को इसकी एक कापी राज्यपाल महोदय को सौंपा गया, और बताया गया कि नगड़ी का जमीन गांव वालों का है, जिस पर पुलिस द्वारा सरकार जबरन कब्जा कर रही है। इस 227 एकड़ जमीन पर लाॅयूनिर्वसिटी, आईआईएम, ट्रीपल आईटी सहित कई शिक्षण संस्थान बनना था। हम लोगों ने इन षिक्षण संस्थानों का विरोध नहीं किया, लेकिन इन संस्थानों को गैर कृर्षि या बंजर भूमिं पर बनाया जाए, खेती की जमीन पर नहीं। आंदोलन को सत्ताधारी राजनीति पार्टी, भाजपा, सभी वामपंथी पार्टीयां, सामाजिक संगठन सभी ने सहयोग किया। लेकिन दुर्भग्य रहा कि 227 एकड़ में से 70 एकड़ जमीन बचा नहीं सके। कई साथियों पर केस हुआ। मेरे उपर 13 केस हुआ। करीब तीन माह जेल में रहे। आज तक केस चल रहा है।
1995 से आज तक के मैदान का अनुभव बहुत ही जीवंत, अत्मबिश्वाश बर्धक और शत्किबर्धक रहा। जब भी चुनाव आता था, लोगों को समझाने को कोशश करते थे सबमिल कर कि-अपना वोट पैसे से नहीं बेचना, दारू-हाडिंया से ेमत बेचना। अच्छा नेता अपने लिए चुनना। हमारे पास पहले चुनाव के समय कई राजनीति पार्टियां प्रस्ताव लेकर आते थे कि आप हमारे पार्टी से उम्मीदवार बने। मन में तीन सवाल हमेषा उठता था-चुनाव कब लड़ना चाहिए? किसके लिए लड़ना चाहिए और क्यों लड़ना चाहिए?। नगड़ी का जमीन बचाने के क्रम में जेल जीवन से बाहर आने के बाद, महसूस की कि-जेल में रहते हुए मेरे सहयोग में बहुत सारे साथी खड़ा हुए, नौकरी पेसा में रहने वाले, पत्रकार मित्र, सहित्यकार, अटिस्ट , कलाकर सभी साथ थे। जब तक जेल में थी सभी ने मिल कर केस लड़ा, यह मेरे जीवन की सबसे सुखद अनूभूति थी।
हां इसके बाद कई बार कई और केस में बेल लेना था। बहुत समय एैसा भी रहा कि बेलर नहीं मिला, खोजना पड़ा। दूसरी ओर जो भी सरकारे आती है सत्ता में आते ही सबकी पहली प्रथमिकता उद्योग घराने और पूंजीपति होते हैं। आदिवासी-मूलवासी किसान, दलित, महिलाएं, यंवा, गरीब, शोषित]जल ,जंगल ,जमीन, भषा , संस्कृति , पहचान , उनके अजेंडा में नहीं होते हैं। जिस जमीन को कोयलकारो जनसंगठन, नेतरहाट जनसंघर्ष समिति, जमीन संगठन, भूमिं सुरक्षा समिति जैसे सामाजिक संगठन लड़कर बचाने का काम कर रहे हैं, उस जमीन कर कारपोरेट को हस्तांत्रण करना चाहते है।
चुनाव आते ही बहुत सारे नेता उभर कर आते हैं। जो कभी भी समाज के किसी मुददे के साथ दिखते नहीं हैं। न ही सामाजिक समस्याओं के प्रति उन्हें किसी तरह की चिंता होती है। ऐसे परिस्थिति में अगर हम जागरूक लोग राज्य के लिए कानून जहां बनता है, और जहां से कानून लागू किया जाता है, वहां नहीं जाएगे, और उम्मीद करेगें कि हमारे सवाल हल हो जाए तो, षायद यह हमारी कमजोरी होगी। मानते हैं सारी समस्याओं का हल राजनीति या विधानसभा या संसद नहीं है। लेकिन अपने लोगों के लिए कुछ और काम हो, अपने लोगों को ताकत मिले इस सोच के साथ ही चुनाव में जाने की सोच बनी। और यह सोच व्यत्किगत नहीं था, लोगों का अग्राह भी था। अगर हम लोगा अपने लोगों के लिए इस चुनौती का स्वीकार नहीं करते हैं, तो यह भी अपने लोगों के हमारे तरफ से अपराध ही होगा।
गांव-घर से लेकर देष-दुनिया के सभी साथियों को अपने सामने देखती हंु। भले आप मेरे सामने नहीं हैं। बहुत सारे साथियों ने इस सोच का समर्थन किया, कई साथियों ने इसका विरोध भी किया। बहुत सारे साथी नौतिक सर्मथन दिये। कई साथी आर्थिक सहयोग के साथ, साथ खड़ा रहे,आप लोगों ने अपना मुठी खोले, अपने जिंदगी के बचत में एक हिस्सा मेरे नाम कर दिये। मैं आप सभी का अभारी हूुं, आप सभों के प्रेम को लोगों के जिंदगी के साथ जोंड़ पायें, यही हम सभों का प्रयास रहेगा। हां कई साथी न्यूट्रल रहे। कई लोगों ने खुल कर शोशल मीडियो में विरोध किया, कई लोगों ने व्यंग किया। जो साथी इस सोच से सहमत नहीं थे उन्हें भी दिल से आभार प्रकट करती हुं। और जो खुल कर मेंरे विरोध अपने विचार प्रकट किये, क्योंकि जिंदगी को इससे जीने की ताकत मिलती है, और संघर्ष करने के लिए आक्सीजन मिलता है। इसके साथ ही समाज, देश , दुनिया को समझने की नई दृष्टि मिलती है।
मैं जानती हूँ हर संकट के दौर में जो भी हम सब साथ खड़े थे , सभी मुद्दों को लेकर साथ संघर्ष के मैदान में एक -दो दिन नहीं , लेकिन जिंदगी के हमत्वपूर्ण समय साथ बिताये , ये समझौता बिहीन संघर्षो का गठबंधन एक झटके में नहीं टूटेगा , हो सकता है कई मुद्दों में हमारी सहमति एक न हो।
कोईलकारो जनआंदोलन से बहुत कुछ सिखने बाद राज्य में जमीन, जंगल बचाने के लिए संघर्षरत कई आंदोलनों को करीब देखने का मौका मिला। 1993 में पहली बार नेतरहाट के टुटवापानी में 245 गांवों को विस्थापित होने से रोकने, 1471 किमी में फैली जंगल को बचाने से लिए संघर्षरत नेतरहाट जनसंघर्ष समिति के आंदोलन को देखने को मौका मिला। 1993 में रूटीन फायरिंग के लिए नेतरहाट के गांव में आ रहे सैनिकों को टुटवापानी में डेढ लाख आदिवासी-मूलवासी किसानों ने रोका। नारा दिया-जान देगें, जमीन नहीं देगे। सैनिकों को पीछे लौटना पड़ा। आज तक फिर सैनिक रूटीन फायरिंग के लिए गांवों में नहीं आये। यह बड़ी सफलता जनसंघर्ष समिति की है।
1996 में नेतरहाट फील्ड फायरिंग के विरोध जनआंदोलन से निकले नवजवान साथियों के साथ मिलकर कागज-कलम हाथ में लेकर नया रास्ता तय करने मन बनाये। अगुवाई फैसल दी, बशीर दा, अलफ्रेड दा जैसे लोगों ने किया। दोनों आंदोलन के दौरान कई नये साथी मिले, श्री प्रकाश जी, संजय कुमार, सुनील मिंज, बिजू टोप्पो, कुरदूला, ज्योत्सना षीला डांग, सुसमा कुजूर, जेरोम जेराल्ड कुजूर, अजय टोप्पो, पंकज, धनिक गुडिया, रेजन गुडिया आदि। हम सभी ने मिलकर मीडिया पर काम करना षुरू किये। लेखन का काम जनहक पत्रिका से षुरू करके प्रभात खबर के साथ कई हिंन्दी पत्रिकाओं, अखबरों में भी किये। बाद में अहसास किये, अखबार में बयलाईन मिलने से केवल समाज और राज्य की समस्याओं से लड़ा नहीं जा सकता है, न ही निजात मिल सकता है। इसके लिए मौदान में संघर्ष के साथ हाथ में कलम-कागज भी हो। 1996 में पेसा कानून पास होने के साथ ही पूरे राज्य में आदिवासी समाज को स्वाषासन का हक मिला, इस मान्यता के साथ गांव सभाओं को साथ ही आदिवासी समाज के परंपारिक सस्थाओं को मजबूत करने का अभियान चला। गांव-गांव षिलालेख किया गया। इसके साथ ही महिला अधिकार की लड़ाई भी चली। महिला अधिकार की रक्षा, महिलाओं को जागरूक करने तथा महिला हिंसा को रोकने के लिए झारखंड महिला मुक्ति संगठन भी बनाये। कई सालों तक संगठन के साथ रहे। राज्य बनने के पहले हम महिलाओं का नारा दिया था-कि झारखंड षोषण विहीन राज्य बने, सत्ता और संसाधन में महिलाओं को बराबरी का हक मिले।
महिलाओं को मांग था, राज्य के 81 विधानसभा सीट में से 40 सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हों, 14 लोक सभा सीट में से 7 सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हों। षायद यह एक सपना था, जो राज्य बनने के बाद आज 20 वर्ष हो गये लेकिन महिलाओं के लिए यह नीति नहीं बनी। कई राज्य बनने के बाद जो भी सरकारे आयी सत्ता पर, राज्य में महिला नीति बनाने की मांग की गयी। लेकिन किसी भी सरकार ने पहल नहीं किया।
राज्य में भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी। करीब 68 कंपनियों के साथ उद्योग लगाने के लिए एमओयू साईन किया। राज्य के लिए झारखंड औद्योगिक कानून 2001 बनाया गया। जिसमें कहा गया-झारखंड में उद्योगों का जाल बिछा देगें। इस कानून के गजट में प्रकाषित होने के साथ ही, राज्य में फिर से आदिवासी-मूलवासी किसानों में विस्थापन का भय मंडराने लगा। इस आदिवासी-मूलवासी किसान विरोधी नीति को वापस लेने की लड़ाई भी लड़ी गयी। लेकिन कानून वापस नहीं हुआ।
2006 में भाजपा सरकार ने राज्य का नेतृत्व बदला। इसके साथ ही राज्य सरकार द्वारा कंपनियों के साथ किये गये एमओयू को जमीन पर उत्तारने का प्रयास षुरू किया गया। आर्सेलर मित्तल कंपनी, जिंदल कंपनी, भूषण कंपनी जैसे बड़े कंपनियों के लिए जमीन सरकार तलाषना प्ररंभ किया। इसी क्रम में आर्सेलर मित्तल के लिए खूंटी जिला और गुमला जिला के 38 गांवों को चिन्हित किया गया। जिंदल के लिए पूर्वी सिहंभूम के पोटका प्रखंड के गांवों को चिन्हित किया गया। भूषण कंपनी के लिए पोटका प्रखंड के गांवों को चिन्हित किया गया। यह ऐसा दौर था, राज्य के कई ईलाकों का जमीन अलग अलग कंपनियों को दिया जा रहा था। इन दोनों कंपनियों के विस्थापन के खिलाफ कुमार चंन्द्र मार्डी के साथ दर्जनों आदिवासी-मूलवासी नेताओं की अगुवाई में लड़ाई चला। सभी इलाकों में विस्थापन के खिलाफ ग्रामीण संघर्ष का बिंगुल फंूक दिया था। दुमका में आरपीजी कोयला कंपनी के खिलाफ संताली आदिवासी मुनी हांसदा, चरण मुर्मू सहित कई मांझी हडम के अगुवाई में लड़ रहे थे।
खूंटी, गुमला जिला में आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर में ग्रामीण गोलबंद हुए। संघर्ष 2006 से 2010 जब्रजस्त चला। जब कंपनी के मालिक ने लगजमबार्ग से प्रेस बयान जारी कर कहा-खूंटी-गुमला के प्रस्तावित मित्तल कंपनी उद्योग के स्टील करखाना के इलाके में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष बहुत मजबूत है, इसकारण वहां जमीन लेना कठिन है, इसलिए करखाना का साईट बदल कर हम बोकारो में जमीन देखेगें। कंपनी के इस बयान के बाद भी संगठन का संघर्ष आज भी जारी है।
2010 में ही खूंटी के कर्रा प्रखंड क्षेत्र में छाता नदी पर एक डैम बनना ष्षुरू कर दिया गया था। जानकारी के अनुसार जिस कंपनी ने डैम का ठेका लिया था, गांव के तीन-चार लोगों को गुमराह करके सरकार के जानकारी में दिये बिना ही डैम बनाने का काम ष्षुरू कर दिया था। जमीन मालिक विरोध कर रहे थे। लेकिन सभी तरह की षत्कियां डैम बनाने के पक्ष में थे। इस कारण जमीन मालिक भयभीत थे। जो विरोध कर रहे थे, उसमें एक की अपहरण कर हत्या कर दी गयी। दूसरी ओर गांव के ग्राम प्रधान के साथ और दो लागों को पुलिस पकड़कर 6 दिनों तक कस्टडी में रखा। ग्रामीण इन लोगों को पुलिस से मुक्त करने के लिए सहयोग मांगे। तब से लेकर डैम के लिए जमीन नहीं देने की पूरी लड़ाई 2019 तक मिलकर लडें। अभी तक जमीन सुरक्षित है। 2012 में नगडी के किसानों के अग्राह पर 227 एकड़ खेती की जमीन बचाने की लड़ाई में षामिल हुए। जिस जमीन को राज्य सरकार 1958 में अधिग्रहीत मानती थी, रैयतों का कहना था-कि हम लोगों ने जमीन सरकार का नहीं दिया है, न ही हमारे मां-पिताजी ने जमीन दिया है। स्थिति स्पष्ट नहीं थी। भूअर्जन विभाग एवं कृर्षि विष्वविद्यालय कांके को आरटीआई के तहत उस जमीन के अधिग्रण की पूरी रिपोंट मांगे। दोनों विभाग से जवाब मिला। स्पष्ट था कि सरकार ने जमीन अधिग्रहण नहीं किया है।
इस जानकारी के साथ 2 मार्च 2012 को इसकी एक कापी राज्यपाल महोदय को सौंपा गया, और बताया गया कि नगड़ी का जमीन गांव वालों का है, जिस पर पुलिस द्वारा सरकार जबरन कब्जा कर रही है। इस 227 एकड़ जमीन पर लाॅयूनिर्वसिटी, आईआईएम, ट्रीपल आईटी सहित कई शिक्षण संस्थान बनना था। हम लोगों ने इन षिक्षण संस्थानों का विरोध नहीं किया, लेकिन इन संस्थानों को गैर कृर्षि या बंजर भूमिं पर बनाया जाए, खेती की जमीन पर नहीं। आंदोलन को सत्ताधारी राजनीति पार्टी, भाजपा, सभी वामपंथी पार्टीयां, सामाजिक संगठन सभी ने सहयोग किया। लेकिन दुर्भग्य रहा कि 227 एकड़ में से 70 एकड़ जमीन बचा नहीं सके। कई साथियों पर केस हुआ। मेरे उपर 13 केस हुआ। करीब तीन माह जेल में रहे। आज तक केस चल रहा है।
1995 से आज तक के मैदान का अनुभव बहुत ही जीवंत, अत्मबिश्वाश बर्धक और शत्किबर्धक रहा। जब भी चुनाव आता था, लोगों को समझाने को कोशश करते थे सबमिल कर कि-अपना वोट पैसे से नहीं बेचना, दारू-हाडिंया से ेमत बेचना। अच्छा नेता अपने लिए चुनना। हमारे पास पहले चुनाव के समय कई राजनीति पार्टियां प्रस्ताव लेकर आते थे कि आप हमारे पार्टी से उम्मीदवार बने। मन में तीन सवाल हमेषा उठता था-चुनाव कब लड़ना चाहिए? किसके लिए लड़ना चाहिए और क्यों लड़ना चाहिए?। नगड़ी का जमीन बचाने के क्रम में जेल जीवन से बाहर आने के बाद, महसूस की कि-जेल में रहते हुए मेरे सहयोग में बहुत सारे साथी खड़ा हुए, नौकरी पेसा में रहने वाले, पत्रकार मित्र, सहित्यकार, अटिस्ट , कलाकर सभी साथ थे। जब तक जेल में थी सभी ने मिल कर केस लड़ा, यह मेरे जीवन की सबसे सुखद अनूभूति थी।
हां इसके बाद कई बार कई और केस में बेल लेना था। बहुत समय एैसा भी रहा कि बेलर नहीं मिला, खोजना पड़ा। दूसरी ओर जो भी सरकारे आती है सत्ता में आते ही सबकी पहली प्रथमिकता उद्योग घराने और पूंजीपति होते हैं। आदिवासी-मूलवासी किसान, दलित, महिलाएं, यंवा, गरीब, शोषित]जल ,जंगल ,जमीन, भषा , संस्कृति , पहचान , उनके अजेंडा में नहीं होते हैं। जिस जमीन को कोयलकारो जनसंगठन, नेतरहाट जनसंघर्ष समिति, जमीन संगठन, भूमिं सुरक्षा समिति जैसे सामाजिक संगठन लड़कर बचाने का काम कर रहे हैं, उस जमीन कर कारपोरेट को हस्तांत्रण करना चाहते है।
चुनाव आते ही बहुत सारे नेता उभर कर आते हैं। जो कभी भी समाज के किसी मुददे के साथ दिखते नहीं हैं। न ही सामाजिक समस्याओं के प्रति उन्हें किसी तरह की चिंता होती है। ऐसे परिस्थिति में अगर हम जागरूक लोग राज्य के लिए कानून जहां बनता है, और जहां से कानून लागू किया जाता है, वहां नहीं जाएगे, और उम्मीद करेगें कि हमारे सवाल हल हो जाए तो, षायद यह हमारी कमजोरी होगी। मानते हैं सारी समस्याओं का हल राजनीति या विधानसभा या संसद नहीं है। लेकिन अपने लोगों के लिए कुछ और काम हो, अपने लोगों को ताकत मिले इस सोच के साथ ही चुनाव में जाने की सोच बनी। और यह सोच व्यत्किगत नहीं था, लोगों का अग्राह भी था। अगर हम लोगा अपने लोगों के लिए इस चुनौती का स्वीकार नहीं करते हैं, तो यह भी अपने लोगों के हमारे तरफ से अपराध ही होगा।
गांव-घर से लेकर देष-दुनिया के सभी साथियों को अपने सामने देखती हंु। भले आप मेरे सामने नहीं हैं। बहुत सारे साथियों ने इस सोच का समर्थन किया, कई साथियों ने इसका विरोध भी किया। बहुत सारे साथी नौतिक सर्मथन दिये। कई साथी आर्थिक सहयोग के साथ, साथ खड़ा रहे,आप लोगों ने अपना मुठी खोले, अपने जिंदगी के बचत में एक हिस्सा मेरे नाम कर दिये। मैं आप सभी का अभारी हूुं, आप सभों के प्रेम को लोगों के जिंदगी के साथ जोंड़ पायें, यही हम सभों का प्रयास रहेगा। हां कई साथी न्यूट्रल रहे। कई लोगों ने खुल कर शोशल मीडियो में विरोध किया, कई लोगों ने व्यंग किया। जो साथी इस सोच से सहमत नहीं थे उन्हें भी दिल से आभार प्रकट करती हुं। और जो खुल कर मेंरे विरोध अपने विचार प्रकट किये, क्योंकि जिंदगी को इससे जीने की ताकत मिलती है, और संघर्ष करने के लिए आक्सीजन मिलता है। इसके साथ ही समाज, देश , दुनिया को समझने की नई दृष्टि मिलती है।
मैं जानती हूँ हर संकट के दौर में जो भी हम सब साथ खड़े थे , सभी मुद्दों को लेकर साथ संघर्ष के मैदान में एक -दो दिन नहीं , लेकिन जिंदगी के हमत्वपूर्ण समय साथ बिताये , ये समझौता बिहीन संघर्षो का गठबंधन एक झटके में नहीं टूटेगा , हो सकता है कई मुद्दों में हमारी सहमति एक न हो।
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