छोटानागपुर के आदिवासी समुदाय को रेल लाईन बनाने और चाय बगान में काम करने के लिए अंग्रेजो द्वारा 1856 के दशक में ले जाया गया था। इस घटनाक्रम को आदिवासी सामाज अपने लोक गीत में याद करता है-जो मुंडा सामाज जादुर राग में गाता है।
1-हरे रेल चलाए
हरे रेल चलाए
पहिया-पहिया
रेल चालाए रे...........2
2-गाड़ी से उतराय
दुरबिन से देखाय
चाय बगान
हरियारो दिसैरे........2
असम के चाय बगान के अदिवासी समाज के बारे बचपन से ही कई कहानियां सुन रखे थे। कई बार गांव के बुर्जग बताते थे-गांव के कई लोग असम चले गये हैं। ृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृृउन लोगों को जब असम और कलकता में रेल लाईन बन रहा था, उसी समय लोग काम करने के लिए लेकर गये हैं। अब वे वहीं बस गये। मां और मोसी भी हमेशा बताते रहती थी-तुम्हारी मछली मोसी और मोसा भी असम चाय बगान चले गये हैं, उन दोनों को मां के मामा गांव बमहनी के लोग बहुत पहले जाकर बस गये हैं-वही लोग जब गांव वापस आये थे, तब मोसी दोनों को भी लेकर गये हैं। वो लोग पूरा परिवार डिब्रूगढ चाय बगान में काम करते हैं। ये कहानी मैं अपने परिवार और समाज में सुनी थी।
9 सितंबर 2017 को ऑल आदिवासी महिला ऑफ असम की ओर से महिला लीडरशीप पर एक दिन का सेमिनार तेजपुर के सोनिपुर में रखा गया था। मैंने महिलाओं साथियों से पहले ही अपनी मानसा रख दी थी-कि एक बेला मैं सेमिनार हॉल में रहुंगी और दूसरी बेला चाय बगान जाना चाहती हुं। मित्रों ने मेरा कर्याक्रम ऐसी ही तय किया। असम पहुंचने के पहिलंे से मेरे मन में सामाज के बुर्जगों से सुनी कहनी और रेल लाईन और चाय बगान पर गाये गये लोक गीत मन में हिलकोरा मारने लगा था। मन में जिग्यासा थी कि-चलो झारखंड के इतिहास से जुडी कडी को नजदीक से समझने का मौका आज मिला है। मेरे साथ स्टीफन और गोडफ्रे साथ थे। हम लोग तीन नंबर चाय बगान के निकट पहुंचे, मन मचल रहा था-बगान के पौधों को नजदीक से देखने के लिए। हम लोगों ने एक बगान के पास पहुंचे, मैं कैमरा लेकर हरियाली ओढे चाय के पौधों से पटा-फैला लंबा-चौडा खेत को कैमरा में कैद करने लगी। दो-तीन तसबीर ली, तब एक साथी बोले-दीदी मैं आप का पिक्चर यहां लेता हुं। मैंने भी सोचा-सही है, यादगार के लिए जरूरी है। खुब फोटो खिंचाए, अकेल भी, और साथियों के साथ भी बारी बारी से।
हम लोग गांव की ओर बढ़े। रास्ते में दोनों ओर फैला हुआ चाय के हरियाली पौधे। बीच -बीच में पेड़ भी। रास्ते में एक मैदान में फुटबॉल खेलते युवाओं की भीड़ थी। मैं अपनी ऑंख में बल देते हुए --ये तो सभी आदिवासी लडके लगते हैं....लेकिन...इतने संख्या में.........??? मेरा मन सोचने लगा...वहां रूकना चाहिए था .जाकि कुछ जानकारी तो मिला जाता । यह सोचते-सोचते हम लोग आगे बढते जो रहे थे।
तभी हमारे साथियों ने एक व्यक्ति से बेंजामिन कन्डुलना का घर किधर है-पूछने लगे। उनके बताये रास्ते से एक घर के पास पहुंचे। आंगन में एक महिला घर के पिंडा को गोबर से लीब रही है। उनसे मेंजामिन के बारे पूछने पर बतायी-यही घर है-लेकिन वो बगान तरफ लेबर लोगों के पास गया है। आइऐ बैठिये--एक दूसरी महिला घर से निकली--देखते ही पूछने लगी-दिशुमेतेपे हिजुआकना? (देश से आये हैं?) हम लोगों के लिए कुर्सी लाकर रख दिया एक लड़का। उनसे पूछे आप का क्या नाम है? उत्तर दिया-हिरयुस कन्डुलना-पिता अनुग्रह कन्डुलना-गांव बुरू इरगी बताया। (सिमडेगा जिला-बानो प्रखंड)। हिलारियुस का बडा भाई अमरूष कन्डुलना है, जो गांव में रहता है।
हिलारियुस की बहन-मरिया कन्डुलना दुबली-पतली संवली आती है, हम लोगों के सामने ही एक ओर रखे सुखी लकडी के ढुटू-टुकड़ा पर बैठ जाती है। हम लोगों के साथ बैठी मगदली कन्डुलना कहती है-इनु दिशुम रेनको..(देश के).यह सुनते ही मरिया उठकर सामने आकर हाथ मिला कर हम लोगों का अभिवादन करती है। पूछती है- चिलका बेस गी? उत्तर में, मैंने-हे बेसगी, अपे दो? उत्तर देती है-अलेयो बेस गी। ..(कैसे हैं? ठीक हैं? आप लोग? हां-ठीक हैं).।
मरिया पूछती है-विवलाम हिजुवा कना? मैने-कहा होला निंदा, नेताआरे मियद मिटिंग रेको केडाकदिंगा.....अपेलो नेपेल मेनतेंग हिजुआकनांइ। ..(कब आये हैं? कल रात? एक बैठक में आयी हुं, आप लोगों से मिलने आयी हुं).।
मरिया बताती है-अंइग दो नआ दो तोपनो होबाजनांगइ। अंइगा ससुराइर दिशुम तो बनाबुरू तनआ। मैंने पुछा--अमआ किसानआ नुतुम? तानिश तोपनो । बनाबुरू का नाम सुनते ही मैं एक टक मरिया को देखते रही...इसलिए की बनाबुरू गांव में कई बार मित्तल कंपनी के खिलाफ हुए आंदोलन के दौरान गयी हुं, वहां रही हु -बनाबुरू की सुषमा आंदोलन में बहुत एकटिव रहती है।
तीन महिलाएं-8 नंबर बागान में चाय पती तोड रही हैं। हमलोग उनके पास गये। वो आपस में मुंडारी में बातें कर रही हैं- मैंने नजदीक आकर जोहर-बोली-तीनों मेरी तरफ देखते हुए-हाथ में तोडे नन्हे चायपति के कोपलें लिए ही दोनों हाथों को जोडकर जोहार की ।
मैंने -चिलका बेस गी? तीनों एक साथ बोली-बेसगी, आपे दो? मैंने उत्तर दी-अलेयो बेस गी। ..(कैसे हैं? ठीक हैं, आप लोग कैसे हैं? हमलोग भी ठीक ही हैं).।
मैंने-पूछी-अपेआ हातू दो, कोतआ तनआ? ..( आप लोगों का गांव कहां है?).
तीनो -एक साथ बोली-तीन नंबर हातु......याने तीन नंबर गांव
मैं तीनों का जवाब सुनकर .....सोचने लगी......तीन नंबर हातु.........गांव का कैसा नाम है? मैंने पूछा-ओकोते रे तीन नंबर.....हातु मेनआ?..(तीन नंबर गांव किधर है? ). तीनों-सामने लंबा-चौडा चाय बगान की ओर इसारा करते....हने हनतेरे ..(ओ उधर है)...। दूर तक चाय खेत ...के बीच हल्का सा दिखाई दे रहा है....छोटा मिटी का घरनुमा झुंण्ड।
मैंने उन महिलाओं से नाम पूछी-एक महिला उत्तर दी.....मुक्ता केरकेटा...अमआ किसानआ चिनआ नुतुम? उत्तर-कइंग बला कना.....हातु दो कोतआ?..(आप का पति का नाम? बोली -शादी नहीं हुआ है। आप का गांव ? ). -बोली तीन नंबर हातु। तब मैने दोबारा पूछी....दिशुम कोताआ? जवाब दी-रूनडुउ। (दिशुम कहां है? बोली-रूनडुउ). मैं गैरे देखने लगी.....इसलिए कि रूनडुउ -रंेडवा मेरा मामा गांव है। मुक्ता स्वंय बताते जा रही थी-सुशील केरकेटा बड़ा भाई है। बडी दीदी निमुन्ती है, नआ दिशुुम सेनाकनाए। हुडिंग मिसिंगा नुतुम-जेसी केरकेटा नेताआ रेगी मेनाइया। ..(अभी देश गयी है, छोटी बहन जेसी है, वो यहीं हैे)।. अमआ अबा गआ नुतुम..(आप के पिताजी को नाम? ). -.उत्तर दी जकरियास केरकेटा। बोली-बंगाइया आय दो। ..(अब वो नहीं है).।
दूसरी महिला-अंगआ दो? उत्तर दी- गीती डहंगा। अमआ किसानाआ? उत्तर-संजय डंहगा। बतायी-होइयारिंआ-बिरसा डहंगा। दिशुम दो कोतआ? उत्तर दी-जोजो टोला तपकारा। मै पूछी-तपकारा नेलाकदामें? उत्तर दी-कइंग सेना कना। अइंगा किसान दोय सेना मिसा मिसा। ..( आप का नाम? जवाब-गीती डहंगा, आप के पति का? उत्तर-संजय डंहगा, ससुर-बिरसा डहंगा, गांव -तपकरा जोजो टोली, आप अपना गांव गये हैं? कभी नहीं, मेरे पति कभी कभी जाते हैंे).।
तीसरी महिला ने अपना नाम-पालो नाग बतायी। पति का नाम करण नाग। दिशुम का नाम पूछने पर बोली-कले सरिआ, याने नहीं जानते हैं।
हम लोगों के बीच बात-चीत चल ही रहा था-तब तक दो और महिलाएं सिर पर और पीछे पीठ पर बांस की टोकरी लटकाये काम से लौट रही है। उन महिलाओं से भी हम लोग बात करने लगे।
मैं नाम जनना चाही-उत्तर में एक महिला बोली-जितनी तोपनो। पति उलियम तोपनो। अपेआ हातु?(आप का गांव?) उत्तर में-तीन नंबर हातु। मैने दोहराते हुए पूछी-अपेआ दिशुम?(आप का देश?) उत्तर दी-इटम सिदुम(यह गांव खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड में है। ) ।
उनके साथ वाली महिला से पूछी-अमआ नुतुम??(आप का नाम?) उत्तर दी-बीणा डहंगा। अपेआ हातु??(आप का गांव?) उत्तर दी- तीन नंबर हातु । दिशुम दा?(आप का देश?) -बतायी-जोजो टोली तपकारा।
तीसरी महिला-सिर पर टोकरी का रस्सी लटकायी तथा पीठ पर-ठोको लटकायी खडी है। इनसे नाम पूछी-उत्तर दी-फूलमनी केरकेटा। अपमेआ दिशुम?(आप का देश?)- उत्तर दी- जोजोदआ मदहातू। दिशुम नेलाकदाम??(आप का देश देखे हैं?) पूछने पर -उत्तर दी का गीं?, नहीं। इन महिलाओं से बात-चीत के क्रम में बतायी-दिन भर का हजीरी 126 रूप्या मिलता है। 24 किलो पत्ता देने पर ही एक हजिरा बनता है। यदि 24 किलो से कम हो तो हजिरा नहीं बनता है। इन्होंने यह भी बतायी- यदि पूरा काम करेगें तो-12 दिन में 3 किलो आटा और तीन किलो चावल मिलता है। इसके लिए 10 रूपया पेमेंट में ही काट लेता है। पहले 3 रूप्या काटता था। हाजिरी को जोड़ कर बतातें हैं-एक सप्ताह में 820 रू0 मिलता है। यदि काम में नहीं जाएगें तो हाजिरी नहीं बनता है।
बस्ती में दो बुजुर्ग आपस में बात कर रहे हैं, हमलोग दोनों को देखकर जोहार-जोहार, दुकु-सुकु को चिलका? बेस गिआलें....दोनों हम लोगों से पूछा-अपेदो? हमलोगों की तरफ से मैंने उत्तर दिया-अलेयो गी बेस गी। ?(आप लोग कैसे हैं?, ठीक ही हैं) दोनों ने आगे पूछा-दिशुमते हिजुआकनापे? मैंने उत्तर दी-हे अपेलोओ नपम मेनतेले हिजुगा कना। उन दोनों से नाम पूछने पर एक ने बताया-अंइगा दो दोनातुश तोपनो । अमआ आबागआ? उत्तर-लाको तोपनो, आयदो बंगाइआ नाआदो। दिशमु दो अलेआ-बनाबुरू तनाआ। दूसरे से पूछने पर-अमआदो? उत्तर-अंइगआ दो- मतियस गुडिया ..। अबागआ?-अबागआ दो-इलियाजर गुडिया। दिशुम दो गोपलाय तना। हिन्दी-दोनों ने पूछा-आप लोग देश से आये हैं? हां-आप लोगों से मिलने के लिए आये हैं। उनमें से एक ने-मेरा देश का नाम बनाबुरू है। दूसरे ने-मेरा नाम मतियस गुडिया और मेरे पिताजी का नाम इलियाजर गुडिया है, हमलोगों का देश-गोपलाय है। (दोनों गांव खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड में है)।
दोनातियुष तोपनो और मतियस गुडिया ने बताया कि -येे दोनों अब चाय बगान के काम से रिटार्यड हो चुके हैं। इन्होंने बताया-अब हम दोनों के स्थान पर बेटा काम कर रहे हैं। जब उन से पूछे-कितने उम्र में रिटार्यड होते है? इन्होनें बताया-60 साल में।
राजू कोनगाडी-पिता मरकस कोनगाडी सोनाबेल चाय बगान के 8 नंबर लाईन के कॉलोनी के अपने घर के आंगन में मिले। उनसे -आप का गांव कहां है? के उत्तर में बोलते हैं-हम लोगों का अपना गांव तो झारखंड में है, गांव का नाम उडीकेल है। आगे बताने लगते हैं-हम लोग तो नहीं जानते हैं-यहां हमारे दादा-दादी अपने गांव कब आये थे। मेरा-पिता और मां का जन्म यहीं हुआ था, अब तो दोनों नहीं हैं, हम लोग केवल यहां हैं। हम लोग दो भाई हैं। बड़ा भाई तेलेंगा कोनगाडी को गांव भेज दिये-वहां का जमीन जयदाद देख-भाल करने के लिए।
हम लोग बात कर ही रहे थे, तब तक राजू की पत्नि करूणा आती है और पूछती है-दिशुमेते पे हिजुआकना? मैंने -हेई, अबुआ होडो को कोतआ कोरे मेनापेआ मेन ते दंडामेने तेले हिआकना। (आप लोग देश से आये हैं? मैंने-हां, हमलोगों का आदमी कहां-कहां रहते हैं-खोजने के लिए आये हैं) । जवाब सुनते ही करूणा का चेहरा खिल उठता है, कौतुहल पूर्वक दोनों हाथ जोडकर जोहार करती है। और अपने बेटे को जल्दी कुर्सी लाने बोलती है।
राजू बताते हैं-नीई करूणा केदो जठडिंटोलाए तेले आउवा काउआ।(करूणा को तो जठडिंटोली से लाए हैं)। तब करूणा से उनके पिताजी का नाम-पूछने पर बतायी-पिताजी का नाम मंगरा हेमरोम है। वे जठडिटोला में ही रहते हैं। बात-बात में राजू कहते हैं-यहां हम दोनों करूणा के साथ बगान में काम करते हैं। बच्चे पढ रहे हैं। गांव-घर को नहीं छोडेंगें-यही सोच कर बड़ा भाई को गांव भेज दिये। यहां तो बस हजिरा खट रहे हैं। सप्ताह में 820 रूप्या मिलता है, इससे बहुत कुछ नहीं कर पाते है, बस जीवन कट रहा है। राजू बोलते हैं-तीन बेटा हैं, इसलिए गांव आना-जाना अब हर साल कर रहे हैं। पहले तो पता नहीं था-कि हमलोगों का गांव कहां है। बाद में जब पिताजी जिंदा थे-तो बोले-पता कीजिए कि हमलोगों का देश कहां है-हमलोगों को अपना देश जाना चाहिए। तब पिताजी ने खोजना-पता करना शुरू किया, हमलोगों का अपना गांव कहां है, जब पता चला तो हमलोगों वहां गये और हमारे खनदान को खोज निकाले।
प्रकाश आइंद-पिता रमेश आइंद ने बताया कि हमारा मूल देश तो झारखंड है। हमारे पिता का दादू सब यहां आये थे, तब से हमारे मां-बाब यहां रह रहे हैं। प्रकाश कहता है-गांव कभी नहीं गये, कारण कि मां-पिताजी भी कभी गांव गाये नहीं। सिर्फ पिताजी बताये हैं हमलोगों का गांव उकडीमंडी है। विदित हो कि उकडीमंडी खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड में है।
चाय बगान से लौटते हुए रास्ते में पौलुस कन्डुलना गांव इटाम सिदुम-तोरपा प्रखंड(खूंटी जिला), पौलुस से पूछने पर कि-आप का देश का नाम क्या है? उत्तर में -हॉं सुने हैं, लेकिन कभी गये नहीं, कारण की मां-बाबा हमलोगों को अपना गांव लेकर ही नहीं गाये। जेम्स तोपना गांव तोरपा बांस टोली(खूंटी जिला), जेम्स कहता है-अपने गांव के बारे सुने हैं, लेकिन गये नहीं है। कोई जानकार आदमी मिलेगा तो जरूर अपना गांव खोजने जाएगें। परमेश्वर तांती (उडिसा), सुशेल तोपनो-गांव कितापीडी (खूंटी जिला), गुड न्यूज धनवार -गांव रायसेमला तोरपा प्रखंड (खूंटी जिला), जुसफ होरो -गांव सिमडिमडा कर्रा प्रखंड (खूंटी जिला), जुलियस आइंद-गांव -गाडी गांव कर्रा प्रखंड (खूंटी जिला),जुलियस से पूछने पर कि आप अपना गांव देखे हैं? उत्तर में-नहीं मां-बाबा कभी देश हमलोगों को दिखाये ही नहीं। ग्रेगोरी होरो-गांव सिमडिमडा (खूंटी जिला), दोनाशियुष आइंद-गांव गाडी लप्पा कर्रा प्रखंड (खूंटी जिला), स्टीफन गुडिया-गांव तपकरा तोरपा प्रखंड (खूंटी जिला)। बहुतों ने कहा-हमलोग सुने हैं, हमलोंगों का गावं झारखंड में है-लेकिन कहां है? कोई नहीं बता सका।
10 सितंबर को साथियों के साथ तीस नंबर लाईन, तीन खोरिया पहुंचे। जहां तीस नंबर चाय बगान में काम करने वाले लोग रहते हैं। समुएल भेंगरा-से पूछने पर कि-आप का गांव कहां है-उत्तर दिया, हातु रूगडी तनाआ, खूंटी जिला रे मेनआ। इन्होनंे बताया -अब वह चाय बगान के काम से सेवा मुक्त हो चुके हैं, इनके जगह पर इनकी बहु काम कर रही है। आप का परमामेंन्ट हुआ था-पूछने पर कहते हैं-हां परमामेंन्ट हुआ था। कितना बेतन मिलता था-पूछने पर कहते हैं-सप्ताह में 720 रू0 मिलता था। इन्हेंने बताया-जब वह, रिटायमेंन्ट हुआ तो, इनको 2 लाख रूपया मिला, जो पीएफ के रूप में जमा किया गया था।
तीस नंबर लाईन -तीन खोरिया में ही एतवा भूईया और पतरस बिलुंग मिले। दोनों से बात-चीत के क्रम में आप का देश कहां है-पूछने पर बोलते हैं-सुने हैं, हमारे मां-बाप बताते थे, हमलोगों देश झारखंड है, लेकिन मां-बाप हमलोगों को अपना देश एक बार भी नहीं ले गये, तो हमलोग देखे नहीं-कि वो कहां है। हां... हमलोग अब लोगों को खोज रहे हैं......कि जो जनकारी रखते हैं-उनको बोलेंगें, हमलोगों को एक बार देश देखने ले चलो। इसी बस्ती में सुमाती नाग, बीरबल नाग और मनुएल नाग मिलते हैं। इन लोगों ने बताया-हमलोगों को देश तो कोयोंगसार में हैं। (खूंटी जिला-मुरूहू पंचायत)। सुमाती बताती है-अपना दंेश मे खेत-बारी भी है, लेकिन एक बार भी नहीं गये हैं। क्यों नहीं जाते हैं-पूछने पर कहते हैं-पैसा ही े नहीं जोंगाड कर पा रहे हैं। सोच रहे हैं-पैसा जमा करके जो लोग आते-जाते हैं, उनके साथ जाकर देश देख कर आएगें।
शाम को फूटबॉल खेलकर 12-14 संख्या में लड़के आ रहे हैं बस्ती की ओर। हम लोगों ने उन लोगों को रोक कर बाते करना शुरू किये। बच्चों से उनका नाम, किस क्लास में पढ़ाई कर रहो हो? इसी क्रम में उन लोगों से पूछे-आप लोगों को गांव का नाम जानते हैं-एक स्वर में बच्चों ने कहा-तीरीस नंगर लाईन, तीन खोरिया। जब उनसे पूछे-आप लोग जानते हैं-कि आप के दादा-आजा कहां ये आये थे। बच्चों ने कहा-नहीं, नहीं जानते हैं। हमने फिर से दोहरा कर पूछा-आप लोग सुने हैं कि आप लोगों का देश झारखंड है? बच्चे एक दूसरे को देखने लगे, वे असहज महसूस करने लगे, चेहरे से साफ झलक रहा था। तब हम लोगों ने बच्चों से कहा-कोई बात नहीं, नहीं सुने हो.....हां आज घर जाने के बाद अपने बड़ों से, मां-बाबा से जरूर पूछना कि-हमलोगों के दादा-आजा कहां से आकर यहां बसे हैं। बच्चों ने मुस्कुराते हुए--जी हां....तब उनलोगों को जाने के लिए इशारा कर दिये।
झारखंड के आदिवासी समूदाय का इतिहास सांप-बिच्छू, बाघ-भालू से लड़कर जंगल-जमीन को आबाद करने को गौरवशाली इतिहास रहा है। जब अंग्रेज शोषक-साशकों का दमन-छोटानागपुर इलाके में बढ़ने लगा, झारखं्रड के आदिवासी सामाज सिद्वू-कान्हू, सिंदराय-बिंदराय, वीर बुद्वु भगत, फूलो-झानों, माकी-देवमनी, वीर बिरसा मूुडा, जतरा टाना भगत जैसे वीर शहीदों के अगवाई में 1800 के दशक में विदोह का जो बिंगुल फंूका था, 1900 के दशक तक पूरे छोटानागपुर-संतालपरगना ईलाके में या वर्तमान झारखंड में जंगल-जमीन छीनताई के विरोध, तथा अपने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आंदोलन दर आंदोलन की रचना की। यही नहीं जबरन मजगुजारी वासुली एवं बैठबेगारी के खिलाफ आदिवासी समुदाय ने शहादती संघषर््ा को अंजाम तक पहुंचाया। एक तरफ अपनी आहूती देकर अपने दिशुम -झारखंड के विरासत की रक्षा में लगे थे। एैसे समय में दसरी ओर अग्रेंज शासक आदिवासी समुदाय को बंधुवा एवं सस्ता मजदूर के रूप में देश के दूसरे हिस्सों में भी मिटटी काटने, भार ढोने, आदि के काम के लिए लेजाया गया। जब अंग्रेज छोटानागपुर ईलाके से कलकता और असम इलाके में रेल लाईन बिछाना था, तब छोटानागपुर के आदिवासियों को भी रेल लाईन बनाने के लिए ले जाया गया। इसलिए कि आदिवासी समुदाय के लोग कठोर मेहनती तो थे ही, इमानदारी से खटते भी थे।
इतिहासकार बताते हैं-जब रेललाईन बनाने का काम खत्म हुआ, तब भी जिन लोगों को काम करने अंग्रेजों ने लेकर गये थे, उन्हें वापस छोटानागपुर नहीं भेजा गया। उन्हें इधर ही दूसरे कामों में व्यस्त कर दिया गया। अंग्रेजों असम में चाय की खेती करने लगे थे। अधिकांश आदिवासियों को उन चाय खेतों में बंधुवा मजदूर की तरह खटाने लगा। कुछ लोगों को कलकता और बंगाला देश तक रेल लाईन बनाने के लिए लेज जाया गया। आज भी बंगला देश के ढाका आदि ईलाकों में बडी संख्या में संताल, हो, मुंडा, खडिया, उरांव मिलेगें, जो अपने पूर्वजों को याद करके झारखडं को अपना देश मानते हैं।
असम के कोकराझार, उदालगुडी, सोनितपुर, नागोन, नोरर्थ लाखिमपुर, जोरहाट, तीन सुखिया, डिबं्रगढ, शिवासानगर, गोलाघाट आदि जिलों में अधिकतम चाय की खेती होती है। असम 70 लाख करीब आदिवासी आबादी है, जो असम की कुल आबादी का 17 प्रतिशत है। असम के इन आदिवासियों को टी0 ट्राईब के नाम से संबोधित किया गाया है। असम के सभी चाय बगानों में पत्ता तोड़ने का काम आदिवासी, दलित समुदाय ही करते हैं। अंग्रेजों के समय इन्हें गुलामी की तरह रखा जाता था, मजदूरी नाम मात्र का दिया जाता था, आज भी इन आदिवासी, दलित समुदाय के साथ उसी तरह व्योहार किया जाता है। आज भी चाय बगान में काम करने वाले मजदूरों को केंन्द्र सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी दर के तहत तय मजदूरी भी नहीं दिया जाता है। न ही इन्हें बुनियादी सुभिदाएं दी जाती हैं।
चाय बगान में काम करने वाले आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक स्थिति को समझने के लिए सोनितपुर जिला के आदिवासियों के संर्दर्भ में समझने को मौका लिया। जहां तीन चाय बगान में काम करने वालों के रहने वाले स्थल, या सेंन्टर में जा कर एवं कार्यस्थल में उनसे बात करने के बाद मिला। सोनितपुर जिला का अर्थव्यस्था 70-80 प्रतिशत कृर्षि पर आधाति है। इस जिला में भी आदिवासी संख्या बडी है। यहां संताल, उरांव, कुरमी, गोंड, अहीर, ग्वाला, खडिया, भूमिंज, तांती आदि हैं। यहां 73 चाय के बागान हैं। लोगों ने बताया 1865-1881 तक चाय बगान में काम करने वाले मजदूरों को प्रति माह 5 रूपया पुरूषों को तथा महिलाओं को 4 रूपया महिलाओं को मिलता था। यह मजदूरी दर 1900 तक था। 1901 में मजदूरी दर बढ़ा, पुरूषों को प्रतिमाह 5.5 रूपया , महिलाओं को 4.50 रूपया दिया गया। यही व्यवस्था लंबे समय तक चलता रहा।
असम के आदिवासियों की सामाजिक स्थिति बहुत ही दैनिये है। जहां तक सामुहिकता का सवाल है-यह समुदाय समुह में ही है। लेकिन यहां यहा सामाज मालिक की तरह नहीं, बरन बंधुवा मजदूर की तरह जिंदगी गुजार रहा है। चाय बगान चलाने वाले कंपनियां मजदूरों के रहने के लिए जो जंगह दिये हैं, वहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। पानी का सही व्यवस्था नहीं है, न ही राशन का व्यवस्था था। मकानों में सही सौचालयों का भी व्यवस्था नहीं है। छोटानागपुर -वर्तमान झारखंड के कई जिलों-ईलाकों से आये पुर्वजों के पीढी यहां हैैं। कुछ लोग अपनी भाषा-संस्कृति भी पूरी तरह भूल चुके हैं। आज का नया पीढ़ी के कई लोग अपने मूल राज्य के गांव को याद करते हैं। कई लोग कई लोगों के सहयोग से अपना मूल राज्य और गांव, परिवार को खोज निकालने का प्रयास कर रहे हैं। वहां बसे लोग अपनु मूल राज्य एवं गावं को देश मानते हैं। यही कारण है कि-जब कोई झारखंड से चाय बगान में काम करने वालों के पास पहुंचता है-तो लोग बहुत खुश होते हैं-अवभगत में जुट जाते हैं-कहते हैं-हम लोगों का देश के लोग आये हैं।
कई लोगों से बात करने के बाद मैं हैरान रही कि-परमानेट नौकरी का मतलब वहां के लोगों के लिए क्या होता है। परमानेट नौकरी का मतलब है-चाय बगान में 60 साल की उम्र तक काम कर सकते हैं। 60 साल की उम्र के बाद शरीरिक रूप से आयोग्य घोषित करते हुए, सरकारी काम का नियम -कानून को आधार मानते हुए -चाय बगान याने पत्ता तोड़ने यह अन्य काम से मुक्त कर दिया जाता है। सेवा मुक्त करते समय कुछ पीएफ की राशि दी जाती है, जो 50-60 हजार तक की होती है। प्रति दिन का 120, कहीं 134 तो किसी बगान में 128 रू हजीरा तभी बनता है-जब प्रतिदिन 24 किलो चाय पत्ता तोड़ कर जमा किया जाता है। कितना पीएफ काटता है? यह पूछने पर कोई बता नहीं पता है । परमानेट नौकरी के नाम पर 18 साल से उपर के लोगों को बगान में पत्ता तोड़ने, दवा छिड़ने आदि का काम मिलता है। इसमें भी परिवार से दो-तीन लोगों को ही। 18 साल से नीचे के बच्चे किसी तरह के आर्थिक अर्जन जुडे नहीं होते। इस कारण पूरा परिवार का आर्थिक भार एक या दो सदस्यों के मजदूरी पर टिका होता है। 60 साल की उम्र में सेवा मुक्त होने के बाद, उनके जगह पर परिवार के सक्षम सदस्य को काम पर रखा जाता है। इसी लिए आम तौर पर लोग इस तरह के व्यवस्था को परमामेंट नौकरी मानते हैं।
लोगों की जिंदगी को देखने के बाद लगता है-चाय बगान चलाने वाले कंपनियां करोडों का व्योपार कर रहे हैं। मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन जिन मजदूरों के खून-पसीना के कीमत पर चाय का व्योपार चल रहा है-उन मजदूरों को दो जून की रोटी, दवा, सही मकान भी मुनासिब नहीं है। असम में हजारों चाय बगान इन्हीं शोषित मजदूरों के श्रम से जिंदा है। लेकिन इनके मानवअधिकारों कीे रक्षा का ख्याल न तो कंपनियों को है न ही सरकार लोगों से पूछने पर कि-बीमारी के समय इलाज के लिए कहां जाते हैं-इसके उत्तर में लोगों ने बताया-कंपनी के तरफ से इलाज के लिए स्वस्थ्य केंन्द्र है-लेकिन सब बीमारी में एक ही दवा मिलता है, पेट दर्द में भी और सिर दर्द में भी। कहते हैं-हमलोग दूसरे जगह से भी जल्द ठीक होने के लिए दवा खरीद कर लाते हैं।
चाय बगान में काम करने वालों की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर है, जिस कारण बच्चों को अच्छी एवं उंची शिक्षा मां-बाप नहीं दे सकते हैं। कंपनी की ओर से प्राईमेरी, मिडिल स्कुल हैं, जिनका स्तर सरकारी स्कुलों की तरह ही है। कोई कोई परिवार के बच्छे स्कुलों में पढ़ रहे हैं। पढ़ाई कम होने के कारण भविष्य के प्रति भी कोई प्रायोजन नहीं बना सकते हैं। जिंदगी का मकसद सिर्फ प्रतिदिन का रोटी जोगाड़ करना।
निम्न आय आर्जन करने के कारण जीवन स्तर बहुत नीचे है। जीतने बच्चे दिखाई देते हैं-सभी कोपोषित। रहने के लिए छोपडपटीनुमा एक-दो कमरे का घर दिया गया है। लोगों ने बताया-जलावन के लिए लकड़ी कंपनी वाले साल में देते हैं-एक छोटा लोरी में। इसके एवज में 800 रूपया देना पड़ता है। बगान में काम करने वाले सदस्यों को हर 12 दिन में 3 किलो आंटा, 3 किलो चावल कंपनी की ओर से मिलता है। इसके एवज में जब सप्ताह में मजदूरी मिलता है-इसी में से 10 रूपया काट लिया जाता है। मैंने सुन रखी थी कि चाय बगान में दिन भर काम करने वाले मजदूरों को सादा पानी नहीं पिलाया जाता है। उनके लिए प्रति दिन -तीन-चार ड्राम पानी चाय पति और नमक के साथ उबाल कर मजदूरों को पिलाया जाता है। वहां के लोग बताते हैं-इस परंपरा को अंग्रेजो ने शुरू किया था, जो अभी अगस्त 2017 तक चलते रहा। जानकारों का मानना है कि-इससे मजदूरों के स्वस्थ्य पर गहरा प्रतिकूल असर डाला है।
चाय की खेती तो अंग्रेजों शुरू की थी और सर्वविदित है कि-भारत में अंग्रेज नील का व्यापार करने आये थे, जो इस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा व्यापार को पूरे देश में फैला दिये थे। नील की खेती एवं व्यापार करते पूरे भारत की धरती को अपने कब्जे में ले लिया था। आज आजाद भारत में असम के चाय बगान में काम कर रहे मजदूर अपने देश की सरकार के हाथों गुलामी की जिंदगी जीने को विवश हैं। सरकार बनाने के इन टी-टाईबस को वोटर राईटस है, सभी का वोटर आईडी है-लेकिन भारतीय संविधान के तहस असम में कई दशकों से रह रहे इस आदिवासी समुदाय को आज तक आदिवासी का दर्जा भी नहीं मिला।
पूरे असम में ऑल आदिवासी स्टुडेट ऑफ असम के बैनर तले आदिवासी, मेहनतकष समुदाय के हक-अधिकारों सहित चाय बगान में काम करने वालों को केंन्द्र सरकार द्वारा तय मिनिमम वेज रेट के तहत उचित मजदूरी देने, शिक्षा, स्वस्थ्य, तथा आदिवासी स्टेटस की मांग को लेकर संगठित हो कर संघर्ष का बिंगुल फुंक दिए हैं। अंग्रेजो के समय में झारंखड के आदिवासी -मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदाय के उपर जो शोषण-दमन शुरू हुआ था, आजाद भारत में देश के विभिन्न हिस्से में आज भी इन समुदायों के उपर विभिन्न तरह के शोषण-दमन ंबदस्तूर जारी है। आज भी देश के विभिन्न हिस्से में आदिवासी-किसान, दलित अपना अस्तित्व, विरासत-जल-जंगल-जमीन, पहचान बचाने के लिए संघर्षरत है। असम के आदिवासी समुदाय के स्थितियों पर चिंतित युवाओं ने ऑल आदिवासी स्टुडेंट ऑफ असम यूनियन का गठन 22 साल पहले किया है। असम सरकार एवं भारत सरकार से असम के आदिवासी समुदाय को आदिवासी स्टेटस देने की मांग को लेकर लगातार संगठन ने संघर्ष करते आ रहा है। इसके साथ ही चाय बगान में काम करने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक, भाषा-संस्कृति की रक्षा, शैक्षनिक सुविधा तथा स्वस्थ्य सुविधा की मांग के लिए भी संघर्षरत हैं। संगठन चाय बगान में कार्यरत लोगों के आर्थिक स्थिति को मजबूदी प्रदान के लिए सरकार से मांग कर रहा है कि-120, 130 मजदूरी जो वर्तमान में दी जाती है, इसके जगह 250 रूपया दिया जाए। ताकि आर्थिक रूप सश्क्त होने पर सामाज हर स्तर पर स्वतः ही मजबूत होगा।
असम मजदूर यूनियन के ख्रीस्तोफर धनवार तेजपुर, ऑल आदिवासी स्टूडेंट ऑफ असम -कोकराझार के स्टीफन लकड़ा, तोफर कुलू-सदस्य, गणेश उरांव-सदस्य, बिंन्देश्वर गांझू-नोगान, सदस्य, डेविट-लाखिमपुर-ऑल आदिवासी ऑफ असम के सचिव, लियोश सोरेन-अध्यक्ष,-धीमागी जिला सहित दर्जनों नेताओं ने बताया कि-हमलोग अपने समाज के हक-अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्ष करते आ रहे हैं, आगे भी संघर्ष जारी रहेगा। लोगों ने बताया कि-चाय बगान में हमारे लोगों को सिर्फ पत्ता तोड़ने का ही काम दिया जाता है, जबकि दूसरे काम के लिए भी सक्षम होते हैं-लेकिन उससे साजिश के तहत बंचित किया जाता है। यही नहीं-यदि कोई आदमी मेंनेजमेंट के खिलाफ आवाज उठाता है-तब उन्हें काम से ही निकाल दिया जाता है, यही नहीं उसे जहां वो रह रहा है-वहां से भी निकाल दिया जाता है। जिसके चलते अपने उपर हो रहे शोषण के खिलाफ भी बोल रही सकता है। बेरोनिका तिर्की तथा शुभ मेरी टोप्पों ने बताया-तीस नंबर लाईन के इलाके में चाय बगान में काम करने वाले कुछ परिवार खेती-बारी भी करते हैं। कुछ परिवार तो खेती बारी से अपने लिए प्रर्याप्त आनाज पौदा कर लेते हैं।
आज असम में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और झारखंड में बीजेपी की सरकार है। केंन्द्र में भी बीजेपी सरकार है। तब सवाल उठता है कि-जब झारखंड सरकार ने स्थानीयता नीति के तहत जो भी 30 सालों से झारखंड में रह रहे हैं-को झारखंडी होने का अधिकार दे रहा है, जो झारखंड से मैंट्रीक की शिक्षा हाशिल की है-उन्हें भी झारखंडी होने का दर्जा दिया । तब असम के आदिवासी समुदाय जो कई दशकों से वहां रह रहे हैं-को वहां आदिवासी स्टेटस क्यों नहीं देने की पहल कर रही है? यह केंन्द्र की मोदी सरकार के आदिवासी शुभचिंतक होने पर भी सवाल खड़ा करता है।