रांची जिला के उत्तर 16 किलो मीटर दूर है जुमार नदी। नदी का उतरी निकारा कांके नगड़ी गांव का सीमा रेखा है। नदी पार करते ही नदी के किनारे किनारे बारसात के दिनों में धान के हललहाते फसल आप का स्वागत करतें हैं। धार कट जाने के बाद दिसंबर -जनवारी माह से गेंहू, चना, हर तरह की हरि सब्जियां आप के नयनों का प्यारा हो जाएगें। रांची से कांके रिनपास से पार होते हुऐ हर आम आदमी के मन में एक मानसिक असंतुलित व्यक्ति के बारे आप ही मस्तिक में रेखाएं खिंचने लगता हैं। थोड़े समय के लिए यह आदमी को अपने आप में कैद कर लेता हैं। लेकिन जुमार नही पार करते ही रोड़ के दोनों ओर हरियाली मन को अपनी ओर खिंच कर उस रिनपास के उस खमो’ाी से बाहर हरियाली में मन को डूबो देता है। आप के न चाहते हुए भी धान की बालियां आप झुककर आप को स्वागत करती हैं। आप इन हिरयाली में खोकर कब नगड़ी गांव पार कर जाते हैं पत्ता भी नही चलेगा
प’िचम से बहते हुए जुमार नदी अपने किनारे के खेत-टांड, पेड़-पौधों को सिंचते हुए पूरब में छोटका नदी से जा मिलती है। जुमार नदी के किनारे गड़हा खेत-उपजाउ खेत हैं। जहां बहुत सारा जमुन का बहुत पुराना पूराना पेड़ है। इस लिए गांव वाले वहां का खेत को जामुन चांवरा के नाम से पुकारते हैं। वहीं बगल में करंज का बहुत सा पेड़ भी हैं इस लिए जिस तरफ करंज पेड़ उस क्षेत्र को करंज गड़हा कहते हैं। यहां एक जिंदा नाला बहता है जहां गर्मी में भी पानी बहते रहता है। बिरसा कुजूर और छोटू बताते हैं-हम लोग हर साल खसी और मुरगा हाॅकी टुरनामेंट खेलते हैं। जित कर आते हैं और इसी करंज और जामून पेड़ के नीचे पिकनिक मनाते हैं। ये उदास मन से कहते हैं-क्या पता अब ये जगह हमें वापस मिलेगा कि नहीं, अब हम कभी यहां पिकनिक मना पायेंगे कि नहींं। क्योंकि सरकार जबरजस्ती इस पूरा एरिया को आई आई एम और लाॅ कालेज के नाम पर पुलिस बल के द्वारा कब्जा करने की koshish कर रही है।
नगड़ी गांव आदिवासी बहूल है। यहां उरांव, मुंड़ा, खडिया, चीक, बड़ाईक और मुसलिम समुदाय भी है।गांव में 400 परिवार रहते हैं। गांव के दक्षिण ओर खेत-दोहर है। पूर्वजों ने इस दोहर का नाम प्रकृति-पर्यावरण की उपलब्धता के आधार पर दिया है। कुछ जगह का नाम उनके मान्याताओं के आधार पर नाम दिया गया है। दोहर के बीच एक जगह का नाम बोंगा ठिपा है-कहते हैं सतयुग में बोंगा-भूत केसर बांध से रात भर मिटटी ढोकर एक जगह जमा किया और इस मिटटी से उंचा मठ बनाना चाहता था लेकिन सुबह हो जाने के कारण वह बना नहीं सका। वहां पर मिटटी का उंचा ढेर हैं-इस ढेर को गांव के पूर्वज सेवा-पूजा करते आ रहे हैं। इसी का नाम बोंगा ढिपा है। केसर बांध ओर बोंगा ढिपा का संबंध एक दूसरे के साथ जुडा हुआ है। लोग बताते हैं आज भी उस खेत में खेती करने वाले -खराने के लोग साल में एक काड़ा का बलि देते हैं। कहते हैं आज भी केसर खेत को दूसरे लोग जोत नहीं सकते हैं, जब दूसरे लोग जातने यह खेती करने जाते है तब एक बड़ा नाग सांप निकलता है।
ग्रामीणों के अनुसार केसर बांध में खूब केसर होता है। पूरा गांव के लोग बरसात के बाद केसर निकालने आते हैं। कुछ लोग केसर को बाजार में बेचते भी हैं। जुमार नदी पार करते ही रोड़ से प’िचम लंबा मिटटी का ढेर था, जिससे अब रिंग रोड़ बनाते समय हटा दिया गया। इसे ग्रामीण जिलिंग ढिपा कहते थे। नदी के किराने किराने कई नाला बह रहा है। सभी नालों को ग्रामीण अलग अलग नाम से पुकारते हैं। एक है-चुरिन गढ़हा, होंगा गढ़हा, नंदुल ढि़पा, एनी ढि़पा आदि। इसी तरह खेत-टांड का अपने प्रकृति के अनुसार अलग अलग नाम दिये हैं-मरेया सोकड़ा, नगरा बेड़ा, जामुन चांवरा, जोजो सोकड़ा आदि। यह इलाका कृर्षि प्रधान है। 100 पति’ात परिवार खेती-बारी पर ही टिका हुआ हैं। किसान पूरा साल भर अपने खेत का ही अनाज खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं। नगदी फसल के रूप में बाजार में भी बेचते हैं।
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