Sunday, March 25, 2012

कुलीन वर्ग एवं काॅरपोरेट को ताकत देने की अपनी नवदरारवादी दौड़ में भारतीय राज ने अपनी ही जनता को मुनाफे की बलिबेदी पर लाकर खड़ा कर दिया है।



कुलीन वर्ग एवं काॅरपोरेट को ताकत देने की अपनी नवदरारवादी दौड़ में भारतीय राज ने अपनी ही जनता को मुनाफे की बलिबेदी पर लाकर खड़ा कर दिया है। आंदोलनों में काॅरपोरेट के साथ मिलीभगत से सरकारों द्वारा लागू किये जा रहे तेज विकास के punjiwadi modal के खिलाफ बढ़ता जन उभार एवं संघर्ष साफ दिख रहा है। पिछले कुछ समय से प्रधानमंत्री परमाणु उर्जा एवं जैव संसोधित ( जीएम) खाद्य पदार्थों के विरूद चल रहे संघर्षों को दबाने के लिए प्रधानमंत्री जनता पर एक नया युद्व थोपने में लगें हुए हैं।
परमाणु के खतरे
दुनिया भर में परमाणु शक्ति को आम जनधारणा में बहुत ही खतरनाक व असुरक्षित प्रौद्योगिक के तैर पर लिया जाता है। फुकुसीमा डाइची परमाणु दुर्घटना के बाद से परमाणु उर्जा की लोकप्रियता घटी है। जल को गर्म करके बिजली पैदा करने के लिए परमाणु उर्जा के इस्तेमाल को परमाणु विरोधी आलोचक खतरनाक व महंगा मानते हैं। परमाणु उर्जा विरोधियों ने परमाणु दुर्घटनाओं, रेडियोधर्मी कचरा निस्तारण, परमाणु अस्त्रों के प्रसार, अत्यधिक उच्च लागत और राष्टी्रय सुरक्षा एवं आतंकवाद की आड़ में नागरिक अधिकारों के हनन जैसी कई संबंधित चिंताओं को जाहिर किया है।
इस चिंताओं में से परमाणु दुर्घटनाएं, दीर्घाअवधि तक असरदार बने रहने वाले रेडियोधर्मी कचरे का निस्तारण ऐसी चिंताएं हैं, जिनका दुनिया भर में ‘’ाायद सार्वजनिक असर पड़ा है। परमाणु विरोधी अभियान आयोजक 2011 के फुकुशीमा परमाणु +त्रासदी और चेर्नोबिल(यूएसएसआर) और थ्री माइल आइलैंडस(यूएसए) जैसे पहले के संकटों को इस बात के समर्थन में सबूत की तरह रखते हैं कि परमाणु शक्ति कभी सौ फीसदी सुरक्षित नहीं हो सकती है।
फतेहाबाद (हरियाणा), जैतापुर (महाराष्ट्र), छुटका (मध्य प्रदेश ) कवड़ा(अंध्रप्रदेश ) और मीठी वरदी (गुजरात) के प्रस्तावित परमाणु सयंत्रों और कुडनकुलम (तमिलनाडु) सयंत्र को चालू करने के विरोध सामने आये संघर्षों के उभार कोई आ’चर्य नहीं है।
थाली में जहर
जैव संशोधित (जीएम) खाद्य पदार्थों से संबंधित विवाद अपेक्षाकृत नया मुददा है, जो चिंताजनक है, और जिसके दायरे में शक्तिशाली जैव-प्रौद्योगिकी कंपनियों, सरकारी नियामक, एनजीओ, किसान संघ और वैज्ञानिक आ रहे है। चिंता के मुख्य बिंन्दु हैं-खाद्य सुरक्षा, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर असर, गैर -जीएम फसलों में जीन प्रवेश कराना और खाद्य आपूर्ति पर काॅरपोरेट नियंत्रण। सामाजिक कार्यकर्ता जीएम की खेती को लेकर शासंकित एवं सचेत हैं, क्योंकि बड़ी कंपनियों का छदम-विज्ञान तमाम किस्म के जैव विज्ञानों के सारे सिद्वांतों के प्रतिकुल जाता है और प्रकृति की वि’िाष्टता के चयन को तहस-नहस करता है। यह मोनो कल्चर को बढ़ावा देता है और तमाम किस्म के जहर पैदा करता है।
जीएम खाद्य पदार्थों के खिलाफ बढ़ती आलोचना के कारण यूरोनीयन जीएमओ -फ्री रीजन्स नेटवर्क बना है जो 2003 में यूरोनिय संसद में यूरोप के 10 देशों की संयुक्त घोषणा पर आधारित है। इन देशों ने यह घोषणा इसलिय किया कि उनकी कृर्षि नीतियां (मुख्यत उच्च गुणवता, खास एवं कम असर वाले उत्पादनों पर आधारित) सुरक्षित रह सके। जो अन्यथा जीएमओ के प्रवेश से बरबाद हो सकती है। वर्तमान में इसमें 53 यूरोपीय क्षेत्र और क्षेत्रीय स्तर के स्थानीय अथोरिटी हैं।
लेकिन एक तरफ जहां भारतीय सरकार इन मुददों पर जीएमओ के खिलाफ संघर्षरत वैज्ञानिकों और एनजीओ का चर्चा कर रही है, वहीं प्रधानमंत्री दबाव में आकर थाली में जीएम खाद्य परोसना चाह रहे हैं और ऐसा इसलिए कि उन्होंने 2005 में बुश की भारत यात्रा के दौरान बीज कंपनियों और अमेरिका से इसका वायदा कर लिया था। दिलचस्प यह है कि भारत-अमेरिका परमाणु सौदा तो उन दिनों सुर्खियों मे रहा, जबकि एक अन्य खतरनाक भारत-अमेरिका कृर्षि ज्ञान पहलकदमी (ऐकेआई) पर नही ंके बराबर धयान दिया गया।
अपनी ही जनता के खिलाफ खड़ी राजसत्ता
इन दोनों ही आंदोलनों ने सरकार या उसके वैज्ञानिक नौकरशहों से जनता एवं पारिस्थितिकी पर उनकी प्रौद्योगिकी नीतियों के कारण मंडराते खतरों पर चर्चा -बहस करने के भरपूर प्रयास किये है। ठोस जन नेतृत्व के साथ कई-कई संगठनों द्वारा आयोजित अभियानों और सीधी कारवाईयों के बाद या तो सरकार पीछे हटी है या प्रतिष्ठान-संस्थानों, काॅरपोरेट वैज्ञानिकों ने तोड़-मरोड़ कर मनगढंत बातें सामने रखीं। आम जनता किसानों, मच्छुआरों, आदिवासियों एवं दलितों से मिली पराजय को सह पाने में अक्षम प्रधानमंत्री अब एक पुराने हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं कि उन सबकों बिदेशी एजंेट बता दो और कुछ एनजीओ को नष्ट की दो, फिर आगे जैसा चल रहा था, चलता रहेगा। इससे पहले इंदिरा गांधी ने भी बिदेशी हाथ का हथियार आजमाया था। जो बुरी तरह फेल हो गया। और एनडीए द्वारा चलाया गया इंडिया शइनिंग का जुलमा भी चुनावों में ध्वस्त हो गया। लेकिन प्रधानमंत्री इन दोनों चूके हुए हथियारों का ही इस्तेमाल कर रही हैं।
वक्त की मांग है कि हम भारतीय राजसत्ता द्वारा थोपी गई उन चुनौतियों का सामना करते हुए आगे बढ़े, जो राजसत्ता द्वारा काॅरपोरेटीकरण करने और कृर्षि प्रणाली को बुरी तरह से बदलने के साथ ही बुद्विजीवियों एनजीओ और जनआंदोलनों की वाजिब चिंता को दबाने की हड़बड़ी में सामने आ रही हैं।

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