भारत के इतिहास में सर्वप्रथम भारत को एक ही कंपनी-इस्ट इंडिया कंपनी- ने गुलाम बनाया था। इस्ट इंडिया कंपनी भारत में नील का व्यवसाय करते करते पूरी तरह से भारत पर कब्जा जमा लिया था। अंग्रेजों ने छोटानागपुर इलाके में भी अपना पांव पसारना प्ररंभ किया और आदिवासियों के जगंल-जमीन-पानी पर कब्जा करने लगे। आदिवासियों ने जिस जंगल-झाड़ को सांप-बिच्छु, बाघ-भालू से लड़कर आबाद किया था, जिस पर आदिवासी समाज के खूंटकटी अधिकार था, जो अलिखित था। इस अधिकार का दमन -हनन shuru हुआ। अंग्रेजों prashashan ने आदिवासियों के सामुदायिक धरोहर-जंगल-जमीन-पानी के अधिकार को व्यत्किगत संपति के रूप में परिवर्तित करना प्ररंभ किया। आदिवासियों का सामुदायिक संपति को व्यत्कि के नाम पर बंदोबस्त किया जाने लगा। इस बंदोबस्ती के खिलाफ 1800 के dashak में संताल परगाना इलाके में सिद्वू-कान्हू, फूलो-झानों के नेतृत्व में संताल हुल। इस हुल में हजारों संताली आदिवासयों ने shहादत दिया। 30 जून 1856 भोगनाडीह का वह shahadat जलियांवाला कांड से किसी भी मायने में कम नहीं था। इस दिन 15 हजार से अधिक संताली आदिवासियों का सामूहिक shahadat हुआ था। आदिवासी अंग्रेज सैनिकों के बंदुक की गोलियों का सामना सीना से कर रहे थे लेकिन पीठ दिखाकर कभी भागे नहीं, न ही अंगे्रजों के सामने घुटने टेके।
अंग्रेजों और जमींदारों के जुल्क-shoshan के खिलाफ हूल की आग छोटानागपुर के मुंडा इलाके में भी फैलने लगा। छोटानागपुर इलाके के मुंडा आदिवासियों की यह लड़ाई सरदार विद्रोह के नाम से जाना जाता हैं। इस सरदारी विद्रोह के बीच ही 1875 में वीर बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर को वर्तमान अडकी प्रखंड के उलीहातु में किसान सुगना मुंडा के घर हुआ। अंग्रेज shoshkon के जुल्क और आदिवासियों के लुटाते हक-अधिकार के दर्द भरी गथा के साथ बिरसा मुंडा पला-बढ़ा। यही दर्द इनके बढ़ते उम्र के साथ आदिवासी मुक्ति का संघर्ष इनके nashon में खून की धारा बन के बहने लगा। मात्र 18-19 साल के उम्र से ही वे अंग्रेज-जमींदरों के जंजीर को तोड़ने के लिए उलगुलान का बिंगुल फूंकना प्ररंभ किया। उलगुलान के नगाड़े से समूचा छोटानागपुर डोल उठा। इस उलगुलान मे भी हजारों मुंडा आदिवासियों ने shahadat दिये। 9 जनवरी 1900 के डोंबारी बुरू में अंगे्रज सैनिकों के गोलियों का जबाब तीन-धनुष से देते हुए 15 सौ से अधिक लोग shहीद हुए। आदिवासियों के इस shहीद धरती ने एलान किया-कि जंगल-जमीन-नदी-नाला हमारा खूंटीकटी धरोहर है। अंग्रेज हुकूमत के इस गुलामी से मुत्कि के लिए छोटानागपुर सहित पूरा देsh झटपटाने लगा।
इतिहास गवाह है-आदिवासियों ने जंगल-जमीन सहित समुचा प्रकृतिक धरोहर की रक्षा के लिए संघर्ष दर संघर्ष की रचना की। जमीन जो आदिवासियों का सामुदायिक धरोहर था-इसमें टैक्स वासुलना प्ररंभ किया गया। जब टैक्स का भी आदिवासी समुदाय विरोध किया-कि जब हम जंगल-जमीन खूद आबाद किये हैं-तब टैक्स क्यों। अंगे्रज shoshkon ने आदिवासियों से टैक्स वासूलने के लिए जमींदरों और इजारेदारों की बहाली की। जब आदिवासी जमीन का टैक्स नहीं वासूल कर पाते-तब जमींदार टैक्स की rashi के एवज में आदिवासियों के हाथ में बची जमीन पर कब्जा लेते थे। यह जब्रजस्त दमन का हथियार बनाता गया। इसे आदिवासियों के हाथ बची-खूची जमीन इजारदारों और जमींदरों के हाथों जाने लगा। इसे अंग्रेजों ने महसूस किया कि-यदि इसी तरह से आदिवासियों के हाथ से जमीन छीनता रहा -तब एक दिन एैसा होगा कि-आदिवासी समुदाय के हाथों एक इंच भी जमीन नहीं बचेगा।
इसी चिंतन के साथ अंगे्रज shashkon ने आदिवासियों के सामुदायिक धरोहर-जंगल-जमीन-नादी-नाला, पहाड़ आदि की रक्षा के लिए छोटानागपुर kastkari अधिनियम 1908 बनाया। यह आदिवासियों के जमीन का रक्षाकवच के रूप में देखा गया। इसीलिए छोटानागपुर kastkari अधिनियम 1908 के धारा 46 में (1) में प्रावधान किया गया कि-आदिवासियों की जमीन को कोई भी गैर आदिवासी यह बाहरी नहीं खरीद सकता है। न ही बहरियों के हाथ बेच सकते हैं। इसी में कृर्षि भूंमि को केवल कृर्षि कार्यों में ही उपयोग करने का प्रावधान रखा गया।
आज यह कानून सही मायने में देखा जाए तो सिर्फ आदिवासियों के जमीन रक्षा की ही वकालत नहीं करता हैं-लेकिन आदिवासी-मूलवासी, किसान समुदाय चाहे जिस भी जाति-समुदाय के हों, जिनका जीविका, भाषा-संस्कृति, आर्थिक आधार, तथा राजनैतिक ’ाक्ति प्रकृतिक ताना बाना के साथ जीवंत रिस्ता रखता है-इनके अस्तित्व-हक-हुकूक, सामुदायिक अधिकार, पहचान की रक्षा कर रहा है। यह सत्य है, इससे हम नकार नहीं सकते हैं। आज देsh की बात करें यह फिर झारखंड का, आज सैकड़ों कंपनियां देsh के आर्थिक, prashashnik एवं राजनीति को अपने sharton पर संचालित-नियंत्रित कर रहे हैं। आज स्वाधीन भारत भारत का संविधान कारपोरेट ग्लोबल पूंजि के सामने घुटना टेक दिया है। देsh को अपने नागरिकों के प्रति जो जिम्मेवारी निभाना था-उसे कारपोरेट घरानों को सौंप दे रहा है। आज नागरिकों के जीवन के बुनियादी सेवाएं-पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, sikcha व्यवस्था, भोजन, आवागमन, मकान, बिजली, रोड़, रोजगार, आदि उपलब्ध कराने के लिए कारपोरेट पूंजि पर सरकार निर्भर होता जा रहा है। देsh की अर्थव्यवस्था के साथ राजतंत्र भी ग्लोबल पूंजि का गुलाम होता जा रहा है। यही आज देsh के नागरिकों के लिए तय कर रहा है-कि एक व्यत्कि को एक दिन में कितना लीटर पानी चाहिए, कितना कैलोरी भोजन चाहिए, कौन सी ’िाक्षा दी जाए, आप किस तरह को भोजन करें, कौन सा कपड़ा पहनें, आप कैसे हंसे, कैसे रोयं, यहां तक कि स्वांस लेने के लिए आप को कितना अक्सीजन चाहिए सभी पूंजि बाजार ही तय कर रहा है। आज देsh के लिए अहम सवाल यह है- यदि जंगल-जमीन, नदी -नाला बचेगा तो, सभी समुदाय जीवित रहेगा। सभी को shudh हवा, पानी, भोजन मिलेगा। इसके बिना कोई जींदा नहीं रह सकता है। आज कारपोरेट पूंजि इसी को अपना मुनाफा कमाने के सबसे बड़ा आधार बना लिया है। पूर biswa के पूंजिपति इसी में अपना पूंजि निवेsh करने जा रहे हैं। एक -एक इंच जमीन, एक-एक बुंद पानी उनके लिए अरब डोलर मुनाफा कमाने का साधन है। आज इसीलिए जंगल-जमीन-पानी समुदाय के ही हाथ में रहे-यह कोई नहीं चाह रहे हैं। पूरा ग्लोबल बाजार का दबाव झारखंड के प्रकृतिक संसधनों पर टिका हुआ है। सभी यहीं पूंजि निवे’ा करना चाहते हैं-ताकि हम सभी कल के दिन में अपना नदी, झरना, तालाब का पानी ही हम उनसे भारी कीमत देकर खरीदें। अब देsh में वहीं जिंदा रह सकता है-जो shudh हवा, पानी, महंगी दवाईयां, महंगा भोजन, महंगा मकान खरीद सकता है।
सीएनटी एक्ट में अब तक तीन बार shanshodhan किया गया-
छोटानागुपर ‘का’तकारी अधिनियम 1908 अब तक तीन बार sanshodhan हो चुका है। कानून के भाग-46 के प्रावधानों को प्रकरांतर में बदला गया लेकिन इसकी मूल आत्मा के साथ बहुत छेड़छाड़ नहीं की गयी। हालांकि कानूनी नजरिए ये बदलाव महत्वपूर्ण माने जाते रहे। अभी एक्टा को लेकर पूरे राज्य में उथल-पुथल मची हुई है। सरकार के अंदर ही द्वांद्व छिड़ा हुआ है। सरकार में shamil दलों के नेता इसे लेकर अलग अलग खेमें में बटें हैं।
खासकर इस कानून के उन प्रावधानों को लेकर सबसे अधिक हलचल है, जिसमें अनुसूचित जाति और सूचीबद्व पिछड़ी जाति के लोग अपनी भूंमि का स्थानांतरत्रण उसी जिले के निवासी अपनी ही जाति यह वर्ग के लोगों के नाम कर सकते हैं। बिहार सरकार ने एक कार्यपालक आदेsh एक्सक्यूटिव आर्डर के जरिये इसे shithil कर दिया था।
पहली अप्रैल 1970 को बिहार सरकार के राजस्व एवं भूंमि सुधार विभाग के सचिव ने सभी जिला उपायुक्तों को nirdeshit करते हुए एक सर्कुलर जारी कर दिया कि बिना उपायुक्त की अनुमति के अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जाति की जमीन की रजिस्ट्री की जाए। साथ ही सीएनटी एक्ट की धारा 46 (1) (बी) को लागू न कराएं। उसके बाद से अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति की जमीन स्थानांतरण (रजिस्ट्री) बदस्तूर होने लगी।
बिहार सरकार के इस सर्कुलर के बाद न तो बिहार और अब न झारखंड सरकार ने इस सर्कुलर को खारिज करने का कोई आदेsh निकाला। लेकिन झारखंड हाईकोर्ट के एक ताजा आदेsh के बाद अनुसूचित जाति और सूचिबद्व पिछड़ी जातियों की जमीन की रजिस्ट्री पर रोक लगा दी गयी है।
कब कब हुए सीएनटी एक्ट में sanshodhan
यहां यह गौर करने की बात है कि-जब भी सरकार को अपना हित साधना था-अपने हित को केंन्द्रबिदू में रख कर सीएनटी एक्ट के मूल धारा में shanshodhan करते आयी। ताकि आदिवासी और पिछड़े और मूलवासियों के हाथ से जमीन आसानी से लिया जा सके। इतिहास गवाह है कि-जब जब भी इस एक्ट में shanshodhan किया गया-आदिवासियों के हाथ से जमीन धड़ले से गैर adivasiyon या बाहरियों के हाथों कब्जा होता गया। आज भी पूंजिपति, बिलडर, माफिया, राजनेताएं, सरकारी तंत्र 46 के मूल आत्मा में बदलाव लाने के लिए सरकार पर दबाव डालना shuru कर दिये हैं। ताकि पूजिंपति के हाथ जमीन का कब्जा हो जाए।
1908 में क्या था एक्ट-धारा 46 (1) रैयत अपनी जमीन या जमीन का कोई भाग किसी दूसरे के नाम स्थानांतरित नहीं कर सकता है।
46 (1)(बी) रैयत अपनी जमीन या उसका कोई भाग सात साल के लिए भुगत बंधा कर सकता है। तभी उसकी बिक्री, गिफट या दूसरे संदर्भ में एग्रीमेंट एक हद तक बैध होगा।
1--1938 में पहला shanshodhan हुआ-मूल कानून में यह shanshodhan किया गया कि अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाति अपनी ही जाति के सदस्य को अपने ही थाना क्षेत्र के अंतर्गत जमीन स्थानांतरित कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें उपायुक्त से पूर्वानुमति लेनी होगी।
2---1947 में दूसरा shanshodhan जो मूलवासी या आदिम (एबोरिजनल ) या अनुसूचित जाति के सदस्य न हो, अपनी जमीन या जमीन का भाग उपायुक्त की बिना अनुकति के अपने जिला क्षेत्र के रहनेवाले किसी के नाम स्थानांरित कर सकते हैं।
3---1955 में तीसरा shanshodhan -एक्ट के भाग 46 (1) को shanshodhan कर वर्तमान स्वरूप दिया गया। इसके 46 (1) (ए) में प्रावधान है कि अनुसूचित जनजाति का कोई रैयत अपनी जमीन या जमीन का कोई भाग अपनी ही थाना क्षेत्र के अधीन रहनेवाले किसी अनुसूचित जनजाति के सदस्या के नाम स्थानांरित कर सकता है।
46 (1) (बी) के मुताबिक अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के सदस्य का कोई रैयत अपनी जमीन या जमीन का कोई भाग अपने निवास के जिला क्षेत्र के अधीन रहनेवाले अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्ग के किसी दूसरे सदस्य के नाम स्थानांरित कर सकते हैं।
46 (1) (डी) के प्रावधान के मुताबिक अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्ग का कोई सदस्य न हो तो वह अपनी जमीन किसी को स्थानांरित कर सकता हैं।
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