Saturday, February 26, 2011

भरतें हैं पेट हजारों पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

अपने घर की तलाश में......निर्मला पुतुल

बाहामुनी
तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर
भरतें हैं पेट हजारों
पर हजारों पत्तल
भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी बिडम्बना है
कि जमीन पर बैठ बुनती हो चटाईयां
और पुखा बनाते टपकता है
तुम्हारे करियाये देह से टप...टप--पसीना

क्या तुम्हें पता है जब कर रही होती हो तुम दातुन
तब कर
चुके होते हैं सैंकड़ों भोजन पानी तुम्हारी ही
दातुन से मुंह धोकर

जिन घरों के लिए बनाती हो झाड़ू
उन्हीं बस्तियों से आता है कचरा
तुम्हारी बस्तियों में
इस उबड़ खाबड धरती पर रहते
कितनी सीधी हो बाहामुनी
कितनी भोली हो तुम
कि जहां तक जाती है तुम्हारी नजर
वहीं तक समझती हो अपनी दुनियां
जब कि तुम नहीं जानती कि
तुम्हारी दुनियां जैसी
कई कई दुनियाएं शामिल हैं
इस दुनियां में

नहीं जानती
कि किन हाथों से गुजरती
तुम्हारी चीजें
पहुंच जाती है दिल्ली
जबकि तुम्हारी दुनियां से बहुत दूर है अभी
दुमका भी।

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