Tuesday, May 24, 2022

एक सफर कई अनुभवों के साथ 17, मई 2022 की सुबह, हल्की ठंड गुनगुनी हवा के स्पार्स से ताजगी चेतना, नई और सकारात्मक सोच के साथ यात्रा के लिए शुरुवात के लिए कदम बढ़ा। पक्का पपाया, खीरा और दो मंडुवा की थपड़ी रोटी, हरी पोई साग की झोर के नाश्ता के बाद 7 बजे घर से बाहर । मेरे साथी तीन धुस्का और चाय की कुस्की से नस्ता का आनन्द पूरा किया। सुबह का समय है। गांव की ओर से रांची शहर रेजा, कुली , दैनिक मजदूरी करने वाले गांव से निकले तो होंगे, लेकिन बिनगांव, लोधमा कर्रा रास्ता अभी खाली खाली है। चलते चलते रोड़ से दूर दूर नजर जा रहा था। लाह लहलहाते हरियाली बिखेरे खेत, धान की बालियों से झूमता खेत , अब बिकने के लिए तैयार हैं। एक नंबर का दोन, ऊंचा, मोटा आड़ अब समतल हो चूका है। दोन और टांड में फर्क नजर नही आ रहा है। प्राकृतिक आड़ तो बुलडोज हो गाया, अब कीमत के अनुसार जमीन का आकार, प्रकार ईट, सीमेंट , बालू के दीवारों ने ले लिया है। आंखें उन खेतों को निहारते बढ़ रहा है, याद है इस खेत में पहली बारिश में खोंघी निलते थे। गांव वाले , महीला, बच्चे घोंघी चुनते थे। यंहा खेत था, खेत से धान काटने के बाद गांव के बच्चे मिलकर गुडु मूसा खोदते थे। आगे लम्बा चौड़ा टांड़ था। जंहा गांव के लोग गाय, बकरी, भैंस चराते थे। अब तो.. बड़े बड़े बिल्डिंग खड़ा हो गया है। कुछ जगह मे ऊंचा ऊंचा घेरा। अब ये इलाका गांव जैसा नहीं लग रहा है। हां अब इसी क्षेत्र से फॉर लेन भारतमाला संडक योजना भी आने वाला है। ग्रीन प्रोजेक्ट। योजना के अनुसार फॉर लेन, कहीं कहीं सिक्स लेन रोड होगा, जो सिर्फ खेतों से होकर गुजरेगा। इसके लिए सकड़ों पेड़ काटेंगे, खेती की जमीन अधिग्रहित होगी, नदी, नाला, जलश्रोत का आस्तित्व मिट जायेगा। विकास की कहानी सब जानते हैं। विकास का दो रूप होता है, विकास और विनाश।, पर्यावरण प्रदूषण, अति वृष्टि, अना वृष्टि, सूखा और बाढ़, ग्लोबल वार्मिंग…और ना जाने क्या क्या इनके गवाह हैं। इस सचाई को इनकार। नहीं किया जा सकता। मन में था, सुवारी के ग्रामीण बड़े पैमाने पर रोड़ किनारे नाले के पानी से सिंच कर तरबूज, ककड़ी, खीरा, झींगी, बोदी हर गर्मी में खेती करते हैं। इस बार भी तरबूज खाने को मिलेगा। जगह पर पहुंच भी ...। आंखें तरबूज खेत ढूंढने लगा। इस बार तरबूज नहीं… स्वीटकॉर्न /मीठा मकई की खेती किए हैं। शायद इसलिए..2020 और 2021 में कोरोना माहामारी के कारण लोकडाउन था। बाजार नहीं के कारण पुरी तरबूज बरबाद हो गई थी। इसलिए इस साल तरबूज का रिस्क नहीं लिए होंगे। सोचते सोचते छोटा सा छायादार पेड़ नीचे बैठी बहन दिखी। नजदीक आते ही मन खुश हो गया। ताजा बोदी, भेंडी, झिंगी, ककड़ी, तरबूज साजा कर रखी है। पूछे तरबूज कैसन किलो..? 15 रुपया किलो। बहन से बात कर ही रहे थे, तब तक उनके पति आ आए। बहन बोली… तोएं तो हमेशा आविस्ला। मैं उनके तरफ देख रही थी, तब तक उनका पति कटा हुआ लाल तरबूज का टुकड़ा मेरी और पढ़ाते हुए बोला लेवा खावा। मैं दाहिना हाथ बढ़ाकर तरबूज लेकर खाने लगी, ताजा मीठा ,मेरे बाद मेरे साथी के हाथ में लाल लाल..तरबूज। हम दोनों तोता की तरह कुतर कुतर कर तरबूज का मजा ले रहे थे, तोरपा की ओर से एक गाड़ी आकर सामने रुकी। गाड़ी से युवक उनके परिवार के साथ उत्तरा , तरबूज मालिक उस दंपति को भी तरबूज का लाल टुकड़ा देते हुए कहा लेवा लेवा तोहरो खावा, बेस लगी। दोनों दंपति तरबूज खाने लगे ।खाते-खाते युवक ने पूछा कैसन किलो देवा था? उत्तर मिला ₹15 किलो । तरबूज खाते खाते युवक ने बोला, ₹10 में सब बाजार में मिलाते थे। तरबूज वाली बहन बोली बाजार में मिला थे ₹10 में , हमारे तो या ₹15 किलो में बेचा थी , आवे ना रांची लाली से, और कीन के ले लेजायना। जेके खाए कर मन करेला, से दूर दूर से आए ना और ₹15 में लेईजाए ना। बात नहीं बनी 10 ₹ किलो में , तो युवक और उनके परिवार गाड़ी में बैठ कर रांची की ओर निकल गए । हम दोनों ने 5 किलो ₹15 रुपया किलो के भाव से खरीद कर अपने साथ लेकर चल दिए। नाला के उस पार टांड़ में तरबूज का खेती किया गया है लेकिन पानी नहीं मिलने के कारण नारंग सुख दे रहा है, पत्ती सूख गया है, छोटा-छोटा तरबूज जमीन पर पड़ा हुआ है । खेत में तरबूज खेती की स्थिति देख .. सोचने लगे एक तरबूज का फसल लगाने, तैयार करने और उसमें फूल , फल लगने , तैयार करने तक 3 महीना तक मेहनत लगता है पानी खाद मेहनत..। इस मेहनत का कीमत हम लोग को 1 किलो में ₹15 नहीं दे सकते हैं , तब अपने किसान भाई बहनों विकास के रास्ते हम लोग किस तरह आगे बढ़ने में मदद करेंगे? ऐसे किसानों से जुड़ा कई सवाल मन में उठने लगा। तोरपा मेन रोड पहुंचने के पहले बाजार के पास कुछ किसान सफेद चित काबरा तरबूज बेचने के लिए दूकान लगाकर रखे, ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं। कुलड़ा जंगल पहुंचते ही हाथियों का झुंड की आने जाने की यादें मन को ताजा करने लगा। कारो नदी का पानी बह तो नहीं रहा है लेकिन अभी भी तोरपा शहर के लोगों को इंटेक्स वेल द्वारा बड़ा पाइप से पानी पहुंचा रहा है । नदी में जहां पानी जमा हुआ है, बच्चे किलकारियां भरते 10:12 बच्चे खेल रहे हैं । एक तरफ गांव वाले अपने कड़ा और भैंस को नहला रहे हैं। कोरको टोली पूरा गांव, अंबाटोली पूरा गांव ,कारो नदी से बालू निकाल कर, पानी एकत्र करके पाईप से करीब एक किलोमीटर दूर खेतों में , सब्जी, गेंहू, खीरा, ककड़ी सिंचते थे। गर्मा धान भी बूते थे। पूरा गर्मी खेत हरा भरा रहता था। इस साल सभी खेत खाली पड़ा हुआ है ,हरियाली दूर-दूर तक नजर नहीं आया। हां नाला में अभी भी भरपूर पानी है लोग अपने भैस धो रहे है। कहीं-कहीं महिलाएं बच्चों के साथ कपड़े धो रहे हैं, नहा रहे हैं। कहीं कहीं बतख पानी में किलकारियां भर रहे हैं। ऊपर से गर्मी का ताप है, लेकिन नाला का साफ पानी, बतख, बच्चों का किलकारी... मन , तन को शितलता से भींगो दीया….। इमली पेड़ की छांव में कई पुरुष साथी बैठे हैं हम लोगों के वहां पहुंचने पर कई महिलाएं भी आई ।अपने साथ लोटा में पानी और ग्लास, पहले हाथ मुंह धोने के लिए लोटा में पानी दी, उसके बाद सातू पानी पीने के लिए दी। साथियों । बताया, इस साल आम। नहीं फला है, इस कारण आम का शर्बत पीने को नहीं मिल रहा है। पानी पीते पीते मैंने पूछा, जब भी मैं आई हूं गांव में आप लोग घर में ककड़ी ,खीरा ,तरबूज ,खूब खिलाएं जाते समय बोदी, भिंडी ,मकई तोड़कर साथ में भेज देते थे। पहली बार मैं खेत में। कुछ नहीं देख रही हूं, सब्जी, गरमा धान कुछ नहीं..अभी तक खेत में गरमा धान पाक रहा होता था इन साल क्या हुआ ? कहीं पर भी ना सब्जी दिखा, ना धान। सभी साथी एक साथ बोले एक , दो साल से हम लोग खेती नहीं कर पा रहे हैं, दिन को तो हम लोग गाय बैल बकरी से खेती को बचा लेते हैं । लेकिन रोज रात को बड़का लोग आते हैं (याने हाथी ) कई बार 10 ,12 एक साथ आते हैं । कई बार एक, तो कभी-कभी, भटक के अकेले चलाता है । सब तरबूज ,खीरा, कादू को जाता है, सब्जी बोदी, भेंडि सबको पैर से रौंद के बर्बाद कर देता है । यहां तक की गांव का कई कटहल पेड़ का फल को खा कर खत्म कर दिया। साथियों ने बताया, पालक साग ढंडा है, इसलिए इसको छोटा छोटा पति को भी एक एक कर तोड़ कर खा लेता है। हाथियों का झुंड कुल्डा, केनक्लोया, , उलिहतु, बानबीरा, उड़ी केल, गांवों में हमेशा आते रहता है। बच्चा छोटा रहता है तो 5,6, दिनों तक एक ही स्थान पर जमे रहते हैं। एक बार एक युवा हाथी झुंड से भटक कर बनाबिरा गांव आ गया। करिस्थान के पास 3 दिन तक डाकू पेड़ के नीचे ही खड़ा रहा। कई गांव के लोग देखने के लिए आइए ,चारों तरफ से घेर के लोग खड़े रहे। कई लोग पत्थर उठाकर हाथी के ऊपर फैंकने लगे। एक साथी कहते हैं , ऐसे में हाथी भागेगा और वह गुस्सा होकर लोगों पर हमला तो करेगा ही। लेकिन किसी पर हमला नहीं किया। जल जंगल जमीन, नदी झरना, गांव समाज, पर्यावरण बचाने की लड़ाई इस इलाके में 2006 से शुरू होकर आज तक जारी है ।इस इलाके के आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय ने जल जंगल जमीन की रक्षा की लड़ाई का इतिहास पूरे विश्व में परचम लहराया है। मित्तल कंपनी 2008 में खूंटी जिला के तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड ,कर्रा प्रखंड, गुमला जिला के कामदारा प्रखंड के करीब चालीसा गांव को हटाकर 50,000 करोड़ की लागत से स्टील प्लांट लगाने के लिए तत्कालीन झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के साथ एमओयू किया था ।इसके साथ ही अर्जुन मुंडा की सरकार आर्सेलर मित्तल कंपनी को जमीन देने की कवायद शुरू कर दी थी ।लेकिन ग्रामीण आदिवासी मूलवासी किसान समुदाय सहित इलाके के हर जाति समुदाय और वर्ग ने विस्थापन के खिलाफ आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर तले एक मंच में आए और अपने पूर्वजों की 1 इंच भी जमीन नहीं , देंगे के नारा के साथ मैदान में डटे रहे। 200 8 से 2010 तक के संघर्ष के बीच लक्ष्मी निवास मित्तल ने लक्जमबर्ग जो आर्सेलरमित्तल का हेड क्वार्टर है से घोषणा किया की खूंटी कामडारा क्षेत्र में जमीन लेना कंपनी के लिए संभव नहीं है क्योंकि वहां का स्थानीय संगठन बहुत मजबूत है। इसलिए कंपनी बोकारो जिला में अपना प्रोजेक्ट सिफ्ट कर रहा है। यदि कंपनी जमीन लेने में सफल हो जाता तो, 40 गांवों को विस्थापित होना पड़ता। संघर्ष के 12 सालों में भी संघर्ष का ऊर्जा कमजोर नहीं हुआ है । आज भी वही जोश ,वही तलाक ...हम अपने पूर्वजों का 1 इंच जमीन नहीं देंगे, लड़ेंगे और जीतेंगे ,यही संकल्प के साथ सरकार, कंपनी, रीयल एस्टेट, माफिया, दादलों के मनसूबों में पानी फेरता रहा है। सरकार की विकास योजनाओं पर चर्चा करते हुए साथी कहते हैं सरकार ₹1 किलो का चावल देकर लोगों को भूख से तो निजाद दे रही है, लेकिन इस ₹1 किलो का चावल हम ग्रामीण, समुदाय के लिए घातक भी सिद्ध हो रहा है । ग्रामीण आदिवासी समुदाय हम लोग मेहनत करने वाले हैं , खेत में परिश्रम करने वाले हैं और परिश्रम करके ही बंजर भूमि में अनाज पैदा करते हैं , लेकिन ₹1 किलो का चावल हमारे लोगों को परिश्रम करने से अपने मेहनती परंपरा थी , जो समाज का पहचान था उससे अलग कर दे रहा है । यही कारण है कि आज गांव में खेतों में मजदूरी करने के लिए रूपा डोभा करने के लिए लोग नहीं मिलते हैं। क्योंकि काम करें या ना करें महीना में ₹1 किलो वाला चावल तो मिल ही रहा है। इससे हमारा समाज मेहनत से दूर भाग रहा है, कोढिया हो जा रहा है । एक बुजुर्ग साथी कहते हैं , हमको तो लगता है सरकार को इस ₹1 किलो वाला चावल का स्कीम को बंद कर देना चाहिए , यह सुनते ही यहां बैठे कई बुजुर्ग साथी एक साथ करते हैं हमको भी लगता है कि इस योजना को बंद करना चाहिए, नहीं तो हमारा समाज बर्बाद हो जाएगा। सभी साथियों ने इस मामले में चिंतित.. छन भर सर नीचे.. एक ने कहा.. हम सोचते हैं.. एक बार 1रुपया किलो राशन चावल को बंद करना चाहिए..। दुसरे ने कहा.. नहीं बंद न हो.. हम ही लोगों में सुधार लाने की जरुरत है.. दुसरे लोग इस चावल से फायदा उठा रहे हैं। हम लोगों को भी फायदा उठाना सीखना चाहिए। जब खाने के लिए मिल ही रहा है, तब, अपने काम को और सही तरीके से, पूरी लगन से करना होगा, चाहे खेती किसानी का काम हो, या दूसरा काम। एक साथी.. हां देखिए न, हम लोग हर चीज में परभरोसा/ सरकार के उपर निर्भर हो जा रहें हैं। बच्चों का पढ़ाई/ लिखाई, मकान, राशन, चावल/ गेंहू, सब में, ये ठीक नहीं है। बाकी साथियों ने हमीं भरते.. सही में हम अपनी क्षमता को भूल जा रहें हैं, हमारे पास सबकुछ है, हम सबकुछ कर सकते हैं, अपनी क्षमता पर लोगों ने भरोसा करना छोड़ दिया है। इसीलिए हमारा समाज कमजोरी की दिशा…. थोड़ी देर के लिए सब शांत... रहे सभी। शानाट्टा तोड़ते.. एक दूसरे की ओर देखते, मुस्कुराते...अपना ताकत हमें पहचाना जरूरी है, खेती किसानी को और मजबूत करेगें, ग्राम सभा को मजबूत करेंगे, जंगल, झाड़, नदी, नालों को हर हाल में सुरक्षित रखेंगे... इसके लिए सामूहिक प्रयास करेगें.. लड़े हैं, जीते हैं, आगे भी लड़ेंगे और जीतेंगे...

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