झारखण्ड के इतिहास में जून माह शहीदों का महीना है
जल जंगल जमीन-भाषा संस्कृति, इतिहास, अस्तित्व को बचाने का झारखंड़ का गैरवपूर्ण इतिहास रहा है। 1700 के दशक से 1900 ई0 का दशक अपने अस्तित्व इतिहास बचाने का अंग्रेज साम्राज्यवाद -जमीनदारों के खिलाफ झारखंडियों ने समझौताविहीन संघर्ष का इतिहास रचा। इस संर्घष में आदिवासियों ने अेगं्रज हुकूमत के सामने कभी घुटना नहीं टेका। अंग्रेजों के गोलियों का सामना सिना तान कर किया-लेकिन पीठ दिखाकर कर आदिवासी समाज पीछे कभी नहीं हटा। 9 जून 1900 में बिरसा मुंडा के आगुवाई में डोम्बारी बुरू में अं्रग्रेजों के बंदुक के गोलियों को सामना करते हुए 500 लोग शहीद हुए। 30 जून 1856 में संथाली आदिवासियों ने सिद्-कान्हू के नेतृत्व में भोगनाडीह में अंग्रेजों के गोलियों का सामना करते हुए-10,000 की संख्या में समूहिक शहादत दिये ।
झारखंड के इतिहास के पनों में जल-जंगल-जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने का संघर्ष के लिए जून महिना -शहीदो का माहिना है। आज जब पूरा झारखंड को देशी-विदेशी पूंजीपति, कारपेरेट घराने कब्जा जमाने की कोशिश में हैं-ऐसे समय में हम झारखंड़ी आदिवासी-मूलवासियों को अपने पूर्वजाों के दिये बलिदान को याद करने की जरूरत है। यही नहीं अपने अस्तित्व की रक्षा के संघर्ष को आगे ले जाने की भी जरूरत है- और यह जिम्मेवारी हम और आप को ही पूरा करना होगा। यह जिम्मेवारी हर युवक-युवाती,, महिला-पुरूष, बुधिजीवियो, सामाजिक कार्यकर्ताओं, झारखंडी शुभचिंतकों की है।
जल,जंगल,जमीन, पर्यावरण की सुरक्षा और समुन्नत झारखंड के विकास के लिए हम सभी आदिवासी, मूलवासी, किसान लगातार संघर्षरत हंै। हमरा संघर्ष और निर्माण का सपना एक ऐसी जनराजनीति से निर्देशित है जिसकी दिशा हूलगुलान के शाहीदों और विचारकाों ने ही तय कर दिया था। झारखंड राज्य गठन के बाद हमारी चुनौती और हमारा दायित्व और ज्यादा गहन हो गया है। हमने देखा है कि झारखंड कारपोरेट घरानों के हाथों फिर से गुलाम होता जा रहा है, और झारखंड की अधिकांश राजनीति इन ग्लोबल संस्थाओं का पिछलग्गू बन गयी है। आज सारी दुनिया के आदिवासी-मूलवासियों के संसाधनों की लूट कर पूंजीपतियों की आर्थिक संरचना को मजबूती देने का दौर चला है। यहां के प्रकृतिक संसाधनों का दोहन ही मुख्य लक्ष्य है। ऐसे समय में आदिवासी मूलवासी, किसान, मेहनतकश, मजदूर समुदाय को समुन्नत समाज के नवनिर्माण की नई जनराजनीतिक चेतना को विकसित करना होगा, और इसके लिए हम सब को अपने विचारांे की धार को तेज करना होगा। कोई भी समाज या जनसंगठन बिना विचार के न तो जीवित रह सकता है और न ही वह समकालीन चुनौतियों का पूरी तत्पराता के साथ मुकाबला कर सकता है।
हम उन खतरों से वाकिफ हैं जो हमारे इर्दगिर्द मौजूद है। हमारी भाषा, संस्कृति और हमारी आजीविका की संस्कृति तथा परंपरागत हुनर, तकनीक और कृर्षि-जंगल आधारित आजीविका को न केवल खत्म करने की कोशीश की जा रही है बल्कि इसे अवैज्ञानिक साबित कर विनाशकारी विकास की परियोजनाओं को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसी विकास नीति के पक्ष में बात की जा रही है जिससे न केवल परस्थिकीय संकट खड़ा हुआ है बल्कि धरती और जीवन ही संकटग्रस्त हो गया है। झारखंडी समाज और संस्कृतिक जीवन मूल्यों के सामने हजारों चुनौतियां हैं। जिसका सामना हमें करना ही होगा। इतिहास साक्षी है और हमारे शहीदों के विचार बताते हैं कि झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों ने जिस तरह के लयात्मक समन्वय की सामाजिक चेतना का सृजन किया था उसे और सशक्त और गतिशील बना कर ही संकट का मुकाबला किया जा सकता है साथ ही झारखंड के नवनिर्माण का भावी मार्ग को भी प्रषस्त किया जा सकता है।
झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों का सपना दिनां दिन कठिन होता जा रहा है. झारखंड को एक ऐसे मुकाम पर पहंुचा दिया गया है, जहां भविष्य बहुत अंधकारमय दिखता है.। इससे बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता जनसंघर्ष को तेज करना और उसके आधार पर एक नई जनराजनीतिक बहस और चरित्र का निर्माण करना है। हमें यह बताना होगा कि झारखंडी मूल्य और विचार क्या हैं तथा उसे जीवन में किस तरह सार्थक किया जा सकता है। हमारे वीर शहीदों ने समझौताविहीन संघर्ष का जो रास्ता दिखाये हैं वही झारखंड को नवपूजीवादी कारपोरेट लूट से मुक्त कर सकता है।
झारखंड की अस्मिता और अस्तित्व का वैज्ञानिक नजरिया क्या है तथा उन्नति के मानक का मतलब क्या है, इससे विमार्ष और बहस के केंन्द्र में खड़ा करना होगा। एक सीमा तक हमने उस विमर्ष को पुनः रेखांकित किया है कि समुन्नति एक प्रकृतिक अवधारणा है और यदि दुनिया के पर्यावरण की हिफाजत करनी है तो विकास के वर्तमान माडल को बदलना होगा। हमारे जनसंगठन ने यह भी स्थापित किया है कि जनसंगठन और जनांदोलन की राजनीति का वास्तविक अर्थ क्या है। हमने अपने अनुभव से सीखा है कि इतिहास केवल प्रेरित ही नहीं करता बल्कि वह गढ़ने की शक्ति भी प्रदान करता है और जनसक्रियता के व्यापक संदर्भ न केवल जनगण की राजनीतिक चेतना को उन्नत करते हैं बल्कि उनके इतिहासबोध को और ठोस बनाते हुए भावी समाज के निर्माण की दिषा में ठोस तर्क और प्रवृतियों का सृजन भी करते हैं।
हम कह सकते हैं कि हमारी बचनबद्धता झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत, लोगों की आजीविका संस्कृति को आगे ले जाने, भाषा और विरासत के पुननिर्माण के साथ एक ऐसी जनराजनीतिक चेतना के निर्माण के प्रति है जिससे हूलगुलानों के सपने को जमीन पर उतारा जा सके। हूलगुलानों का संदेष था कि हमें अपने अस्तित्व को न केवल बचाना है बल्कि उसे गतिशील भी रखना है और साथ ही ऐसे सामाजिक मूल्यों के साथ स्वयं को आत्मलीन करना है जिसमें एक ईमानदार और जनतांत्रिक झारखंड गढ़ा जा सके। हमारा अनुभव है कि असली ताकत तो गांवों में है और लोगों में है लेकिन इस ताकत का राजनीतिक इस्तेमाल कर जिस तरह झारखंड की छवि बना दी गयी है उसे बदलना होगा। संताल हूल और बिरसा उलगुलान ने जिस तरह का नेतृत्व विकसित किया था उसी तरह का नेतृत्व हमें भी निर्मित करना होगा। जो समझौताविहीन संघर्ष तथा जनगण के नियंत्रण में हो। हमारा साफ मानना है कि असली राजनीतिक और आर्थिक ताकत जनता में है और किसी भी निर्णय की प्रक्रिया में उसे नजरअंदाज करने की प्रवृति को खतम कर हम वास्तविक स्वशा -सन की दिशा में आगे बढ सकते हैं।
आज आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश समुदाय को अपने अंतरिक और बाहरी दुशमनों की पहचान करनी होगी। रास्ता रोकने वाले घर के भीतर, बाहर आंगन में और राज्य और दुनिया में सक्रिये हैं। आज जब जून माह को शहीदों का माह मान रहे हैं-तब समीक्षा करना होगा कि, बिरसा मुंडा, गाया मुंडा, डोंका मुंडा, माकी मुंडा, सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, फूलो-झानों के नेतृत्व में अंग्रेज षोशक-षासकों के खिलाफ हुए हुलउलगुलान के खून से लिख सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट का खून किया जा रहा है। इन कानून में प्रावधान अधिकारों को खत्म कर कारपोरेट के लिए जंगल-जमीन, नदी-पहाड़ की लूट के रास्ते को चैड़ा किया जा रहा है। यही नहीं आजाद भारत में आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश और दलितों के लिए प्रावधान अधिकारों को भी समाप्त करने की कोशीश हो रही है। कई कानून तो खत्म भी कर दिया गया।
पांचवी अनुसूचि में प्रदत अधिकार जिसमें गांव को अपने तरह से संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार मिला है। गांव सभी को गांव के सीमा के भीतर जंगल-झाड़, नदी-नाला को विकसित और उपयोग करने का अधिकार है, इससे भी खारिज किया जा रहा है। लघु वनोपज, लघु खनिज पर भी ग्रास सभा को अधिकार है। ग्राम सभा के इजजाजत के बिना किसी तरह का जमीन अधिग्रहण संभव नहीं है। लेकिन ये तमाम अधिकार पूंजिपति राजनीतिक गंठजोड़ का भेंट चढ चुका है। इसके लिए जबादेह हम लोग भी हैं, हम सभी एकता, अखडता, सामूहिकता का नारा तो देते हैं, लेकिन स्वंय भी एक नहीं होते। अपनी शक्ति एक दूसरे के विरूध, एक दूसरे को रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। हम खंड-खंड में बंटे हुए हैं। हम स्वंय का खून करते, किसी तरह की आत्मग्लानी तक महसूस नहीं करते। आखरी इससे दूसरे को ही लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं। जब हम अपने में ही इतनी उल्झन है, तब अपने सामने के बड़े दुशमन भी हमें नजर नहीं आते। वो मुदा हमारे लिए बड़ा नहीं दिखता जो, हमारी धरोहर, हमारा अधिकार हमसे छीनने के लिए पंजा फैलाया है।
जब अपने गैरवशाली इतिहास की बात करते नहीं थकते हैं, तब हमें आत्मसमीक्षा करना होगा, कि हम कहां खड़े हैं। क्या हमारे वीर ष्षहीदों के सपनों को हम साकार करने के दिषा में आगे बढ़ रहे हैं, या उनके सपनों का खून कर रहे हैं। आदिवासी -मूलवासी बहुल राज्य के तौर पर राज्य का पहचान है। लेकिन इस राज्य में हमारा सामाज हशिये पर खड़ा है। संविधान ने हमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिणिक एवं राजनीतिक मजबूती के लिए विषेश आरक्षण दिया। आज ये हक भी लूटा गया। हमारा देश भारत धर्मनिपेक्ष कल्याणकारी देश है। जहां देश अपने नागरिकों के प्रति हर स्तर पर विषेश रूप से जिम्मेदार है। अपने नागरिकों के दुख-सुख के साथ सीधा संबंध रखता है। लेकिन आज देश की नीति जनगणमन के प्रति जिम्मेदार नहीं है, बाल्कि देश -विदेश के पूंजिपतियों और कारपोरेट घरानों के मुनाफा बढ़ाना, उनकी सुख-सुविधा, सरकार की पहली प्रथमिकता है।
आज देश की अर्थव्यस्था ग्लोबल बाजार के पूंजी पर खड़ा किया जा रहा है। इस विशव बाजार में पूंजी निवेश और मुनाफा पर ही अर्थव्यस्था केंन्द्रित है। शिक्षा, स्वस्थ्य का नीजिकरण, भोजन का नीजिकरण के साथ सभी सरकारी सेवाओं का नीजिकरण, रेल सेवा, बैंक सेवा, यतायात, खनन उद्योग, जल प्रबंधन जैसे सेवाओं का नीजिकरण पूजीपतियों और कारपोरेट को सिर्फ लाभ पहुंचने का योजना है।
राज्य और देश का समुनत विकास जनतांत्रिक मूल्यों को स्थापित कर के ही संभव है। विशवास करता है। जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए सर्पित जनआंदोलन व्यापक जनसमुदाय की निर्णायक हिस्सेदारी में विश्वास करता है। हमारी सफलता का यही मूख्य कारण है.हमारा यह भी मानना है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों से जनगण के व्यापक सपनों को पूरा नहीं किया जा सकता। हमें जनगण की सक्रियता के साथ एक जीवंत समाज का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। इतिहास से सीखते हुए हमारा अनुभव यह भी बताता है कि संघर्ष स्थानीय संसाधनों के बल पर ही मंजिल हासिल करता है। हम देख रहे हैं कि झारखंड को विखंडित करने की हर तरह की साजिश चल रही हैं. झारखंड की अस्मिता को खत्म करने के षडयंत्र को नाकामयाब करना भी हमरा मकसद है। झारखंड को किसी भी हालत में हम भ्रष्ट तथा लुटेरे लोगों का साम्राज्य नहीं बनने दे सकते।. हूलगुलानों की सीख यही है। हमें साफ तौर पर कहना होगा कि झारखंड षोशकों और लुटेरों का चारागाह नहीं है बल्कि उन करोड़ांे आदिवासियों और मूलवासियों का एक जीवन है जो श्रम की महत्ता का आदर करते हैं तथा लूट की संस्कृति से नफरत करते हैं.। कारपोरेट राजनीति और विकास की कारपोरेट नीतियों को चुनौती देने के लिए हमें अपनी परंपरा के ईमानदार तथा सादगीपूर्ण जीवन को और आगे ले जाने की जरूरत है.। दुनिया को कारपोरेट साजिश से बाहर निकल कर जनतांत्रिक उन्नति के रास्ते पर ले जाने के लिए हमें वैकल्पिक नीतियों को जमीन पर उतारने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा, यही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
जल जंगल जमीन-भाषा संस्कृति, इतिहास, अस्तित्व को बचाने का झारखंड़ का गैरवपूर्ण इतिहास रहा है। 1700 के दशक से 1900 ई0 का दशक अपने अस्तित्व इतिहास बचाने का अंग्रेज साम्राज्यवाद -जमीनदारों के खिलाफ झारखंडियों ने समझौताविहीन संघर्ष का इतिहास रचा। इस संर्घष में आदिवासियों ने अेगं्रज हुकूमत के सामने कभी घुटना नहीं टेका। अंग्रेजों के गोलियों का सामना सिना तान कर किया-लेकिन पीठ दिखाकर कर आदिवासी समाज पीछे कभी नहीं हटा। 9 जून 1900 में बिरसा मुंडा के आगुवाई में डोम्बारी बुरू में अं्रग्रेजों के बंदुक के गोलियों को सामना करते हुए 500 लोग शहीद हुए। 30 जून 1856 में संथाली आदिवासियों ने सिद्-कान्हू के नेतृत्व में भोगनाडीह में अंग्रेजों के गोलियों का सामना करते हुए-10,000 की संख्या में समूहिक शहादत दिये ।
झारखंड के इतिहास के पनों में जल-जंगल-जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने का संघर्ष के लिए जून महिना -शहीदो का माहिना है। आज जब पूरा झारखंड को देशी-विदेशी पूंजीपति, कारपेरेट घराने कब्जा जमाने की कोशिश में हैं-ऐसे समय में हम झारखंड़ी आदिवासी-मूलवासियों को अपने पूर्वजाों के दिये बलिदान को याद करने की जरूरत है। यही नहीं अपने अस्तित्व की रक्षा के संघर्ष को आगे ले जाने की भी जरूरत है- और यह जिम्मेवारी हम और आप को ही पूरा करना होगा। यह जिम्मेवारी हर युवक-युवाती,, महिला-पुरूष, बुधिजीवियो, सामाजिक कार्यकर्ताओं, झारखंडी शुभचिंतकों की है।
जल,जंगल,जमीन, पर्यावरण की सुरक्षा और समुन्नत झारखंड के विकास के लिए हम सभी आदिवासी, मूलवासी, किसान लगातार संघर्षरत हंै। हमरा संघर्ष और निर्माण का सपना एक ऐसी जनराजनीति से निर्देशित है जिसकी दिशा हूलगुलान के शाहीदों और विचारकाों ने ही तय कर दिया था। झारखंड राज्य गठन के बाद हमारी चुनौती और हमारा दायित्व और ज्यादा गहन हो गया है। हमने देखा है कि झारखंड कारपोरेट घरानों के हाथों फिर से गुलाम होता जा रहा है, और झारखंड की अधिकांश राजनीति इन ग्लोबल संस्थाओं का पिछलग्गू बन गयी है। आज सारी दुनिया के आदिवासी-मूलवासियों के संसाधनों की लूट कर पूंजीपतियों की आर्थिक संरचना को मजबूती देने का दौर चला है। यहां के प्रकृतिक संसाधनों का दोहन ही मुख्य लक्ष्य है। ऐसे समय में आदिवासी मूलवासी, किसान, मेहनतकश, मजदूर समुदाय को समुन्नत समाज के नवनिर्माण की नई जनराजनीतिक चेतना को विकसित करना होगा, और इसके लिए हम सब को अपने विचारांे की धार को तेज करना होगा। कोई भी समाज या जनसंगठन बिना विचार के न तो जीवित रह सकता है और न ही वह समकालीन चुनौतियों का पूरी तत्पराता के साथ मुकाबला कर सकता है।
हम उन खतरों से वाकिफ हैं जो हमारे इर्दगिर्द मौजूद है। हमारी भाषा, संस्कृति और हमारी आजीविका की संस्कृति तथा परंपरागत हुनर, तकनीक और कृर्षि-जंगल आधारित आजीविका को न केवल खत्म करने की कोशीश की जा रही है बल्कि इसे अवैज्ञानिक साबित कर विनाशकारी विकास की परियोजनाओं को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसी विकास नीति के पक्ष में बात की जा रही है जिससे न केवल परस्थिकीय संकट खड़ा हुआ है बल्कि धरती और जीवन ही संकटग्रस्त हो गया है। झारखंडी समाज और संस्कृतिक जीवन मूल्यों के सामने हजारों चुनौतियां हैं। जिसका सामना हमें करना ही होगा। इतिहास साक्षी है और हमारे शहीदों के विचार बताते हैं कि झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों ने जिस तरह के लयात्मक समन्वय की सामाजिक चेतना का सृजन किया था उसे और सशक्त और गतिशील बना कर ही संकट का मुकाबला किया जा सकता है साथ ही झारखंड के नवनिर्माण का भावी मार्ग को भी प्रषस्त किया जा सकता है।
झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों का सपना दिनां दिन कठिन होता जा रहा है. झारखंड को एक ऐसे मुकाम पर पहंुचा दिया गया है, जहां भविष्य बहुत अंधकारमय दिखता है.। इससे बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता जनसंघर्ष को तेज करना और उसके आधार पर एक नई जनराजनीतिक बहस और चरित्र का निर्माण करना है। हमें यह बताना होगा कि झारखंडी मूल्य और विचार क्या हैं तथा उसे जीवन में किस तरह सार्थक किया जा सकता है। हमारे वीर शहीदों ने समझौताविहीन संघर्ष का जो रास्ता दिखाये हैं वही झारखंड को नवपूजीवादी कारपोरेट लूट से मुक्त कर सकता है।
झारखंड की अस्मिता और अस्तित्व का वैज्ञानिक नजरिया क्या है तथा उन्नति के मानक का मतलब क्या है, इससे विमार्ष और बहस के केंन्द्र में खड़ा करना होगा। एक सीमा तक हमने उस विमर्ष को पुनः रेखांकित किया है कि समुन्नति एक प्रकृतिक अवधारणा है और यदि दुनिया के पर्यावरण की हिफाजत करनी है तो विकास के वर्तमान माडल को बदलना होगा। हमारे जनसंगठन ने यह भी स्थापित किया है कि जनसंगठन और जनांदोलन की राजनीति का वास्तविक अर्थ क्या है। हमने अपने अनुभव से सीखा है कि इतिहास केवल प्रेरित ही नहीं करता बल्कि वह गढ़ने की शक्ति भी प्रदान करता है और जनसक्रियता के व्यापक संदर्भ न केवल जनगण की राजनीतिक चेतना को उन्नत करते हैं बल्कि उनके इतिहासबोध को और ठोस बनाते हुए भावी समाज के निर्माण की दिषा में ठोस तर्क और प्रवृतियों का सृजन भी करते हैं।
हम कह सकते हैं कि हमारी बचनबद्धता झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत, लोगों की आजीविका संस्कृति को आगे ले जाने, भाषा और विरासत के पुननिर्माण के साथ एक ऐसी जनराजनीतिक चेतना के निर्माण के प्रति है जिससे हूलगुलानों के सपने को जमीन पर उतारा जा सके। हूलगुलानों का संदेष था कि हमें अपने अस्तित्व को न केवल बचाना है बल्कि उसे गतिशील भी रखना है और साथ ही ऐसे सामाजिक मूल्यों के साथ स्वयं को आत्मलीन करना है जिसमें एक ईमानदार और जनतांत्रिक झारखंड गढ़ा जा सके। हमारा अनुभव है कि असली ताकत तो गांवों में है और लोगों में है लेकिन इस ताकत का राजनीतिक इस्तेमाल कर जिस तरह झारखंड की छवि बना दी गयी है उसे बदलना होगा। संताल हूल और बिरसा उलगुलान ने जिस तरह का नेतृत्व विकसित किया था उसी तरह का नेतृत्व हमें भी निर्मित करना होगा। जो समझौताविहीन संघर्ष तथा जनगण के नियंत्रण में हो। हमारा साफ मानना है कि असली राजनीतिक और आर्थिक ताकत जनता में है और किसी भी निर्णय की प्रक्रिया में उसे नजरअंदाज करने की प्रवृति को खतम कर हम वास्तविक स्वशा -सन की दिशा में आगे बढ सकते हैं।
आज आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश समुदाय को अपने अंतरिक और बाहरी दुशमनों की पहचान करनी होगी। रास्ता रोकने वाले घर के भीतर, बाहर आंगन में और राज्य और दुनिया में सक्रिये हैं। आज जब जून माह को शहीदों का माह मान रहे हैं-तब समीक्षा करना होगा कि, बिरसा मुंडा, गाया मुंडा, डोंका मुंडा, माकी मुंडा, सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, फूलो-झानों के नेतृत्व में अंग्रेज षोशक-षासकों के खिलाफ हुए हुलउलगुलान के खून से लिख सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट का खून किया जा रहा है। इन कानून में प्रावधान अधिकारों को खत्म कर कारपोरेट के लिए जंगल-जमीन, नदी-पहाड़ की लूट के रास्ते को चैड़ा किया जा रहा है। यही नहीं आजाद भारत में आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश और दलितों के लिए प्रावधान अधिकारों को भी समाप्त करने की कोशीश हो रही है। कई कानून तो खत्म भी कर दिया गया।
पांचवी अनुसूचि में प्रदत अधिकार जिसमें गांव को अपने तरह से संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार मिला है। गांव सभी को गांव के सीमा के भीतर जंगल-झाड़, नदी-नाला को विकसित और उपयोग करने का अधिकार है, इससे भी खारिज किया जा रहा है। लघु वनोपज, लघु खनिज पर भी ग्रास सभा को अधिकार है। ग्राम सभा के इजजाजत के बिना किसी तरह का जमीन अधिग्रहण संभव नहीं है। लेकिन ये तमाम अधिकार पूंजिपति राजनीतिक गंठजोड़ का भेंट चढ चुका है। इसके लिए जबादेह हम लोग भी हैं, हम सभी एकता, अखडता, सामूहिकता का नारा तो देते हैं, लेकिन स्वंय भी एक नहीं होते। अपनी शक्ति एक दूसरे के विरूध, एक दूसरे को रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। हम खंड-खंड में बंटे हुए हैं। हम स्वंय का खून करते, किसी तरह की आत्मग्लानी तक महसूस नहीं करते। आखरी इससे दूसरे को ही लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं। जब हम अपने में ही इतनी उल्झन है, तब अपने सामने के बड़े दुशमन भी हमें नजर नहीं आते। वो मुदा हमारे लिए बड़ा नहीं दिखता जो, हमारी धरोहर, हमारा अधिकार हमसे छीनने के लिए पंजा फैलाया है।
जब अपने गैरवशाली इतिहास की बात करते नहीं थकते हैं, तब हमें आत्मसमीक्षा करना होगा, कि हम कहां खड़े हैं। क्या हमारे वीर ष्षहीदों के सपनों को हम साकार करने के दिषा में आगे बढ़ रहे हैं, या उनके सपनों का खून कर रहे हैं। आदिवासी -मूलवासी बहुल राज्य के तौर पर राज्य का पहचान है। लेकिन इस राज्य में हमारा सामाज हशिये पर खड़ा है। संविधान ने हमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिणिक एवं राजनीतिक मजबूती के लिए विषेश आरक्षण दिया। आज ये हक भी लूटा गया। हमारा देश भारत धर्मनिपेक्ष कल्याणकारी देश है। जहां देश अपने नागरिकों के प्रति हर स्तर पर विषेश रूप से जिम्मेदार है। अपने नागरिकों के दुख-सुख के साथ सीधा संबंध रखता है। लेकिन आज देश की नीति जनगणमन के प्रति जिम्मेदार नहीं है, बाल्कि देश -विदेश के पूंजिपतियों और कारपोरेट घरानों के मुनाफा बढ़ाना, उनकी सुख-सुविधा, सरकार की पहली प्रथमिकता है।
आज देश की अर्थव्यस्था ग्लोबल बाजार के पूंजी पर खड़ा किया जा रहा है। इस विशव बाजार में पूंजी निवेश और मुनाफा पर ही अर्थव्यस्था केंन्द्रित है। शिक्षा, स्वस्थ्य का नीजिकरण, भोजन का नीजिकरण के साथ सभी सरकारी सेवाओं का नीजिकरण, रेल सेवा, बैंक सेवा, यतायात, खनन उद्योग, जल प्रबंधन जैसे सेवाओं का नीजिकरण पूजीपतियों और कारपोरेट को सिर्फ लाभ पहुंचने का योजना है।
राज्य और देश का समुनत विकास जनतांत्रिक मूल्यों को स्थापित कर के ही संभव है। विशवास करता है। जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए सर्पित जनआंदोलन व्यापक जनसमुदाय की निर्णायक हिस्सेदारी में विश्वास करता है। हमारी सफलता का यही मूख्य कारण है.हमारा यह भी मानना है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों से जनगण के व्यापक सपनों को पूरा नहीं किया जा सकता। हमें जनगण की सक्रियता के साथ एक जीवंत समाज का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। इतिहास से सीखते हुए हमारा अनुभव यह भी बताता है कि संघर्ष स्थानीय संसाधनों के बल पर ही मंजिल हासिल करता है। हम देख रहे हैं कि झारखंड को विखंडित करने की हर तरह की साजिश चल रही हैं. झारखंड की अस्मिता को खत्म करने के षडयंत्र को नाकामयाब करना भी हमरा मकसद है। झारखंड को किसी भी हालत में हम भ्रष्ट तथा लुटेरे लोगों का साम्राज्य नहीं बनने दे सकते।. हूलगुलानों की सीख यही है। हमें साफ तौर पर कहना होगा कि झारखंड षोशकों और लुटेरों का चारागाह नहीं है बल्कि उन करोड़ांे आदिवासियों और मूलवासियों का एक जीवन है जो श्रम की महत्ता का आदर करते हैं तथा लूट की संस्कृति से नफरत करते हैं.। कारपोरेट राजनीति और विकास की कारपोरेट नीतियों को चुनौती देने के लिए हमें अपनी परंपरा के ईमानदार तथा सादगीपूर्ण जीवन को और आगे ले जाने की जरूरत है.। दुनिया को कारपोरेट साजिश से बाहर निकल कर जनतांत्रिक उन्नति के रास्ते पर ले जाने के लिए हमें वैकल्पिक नीतियों को जमीन पर उतारने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा, यही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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