Sunday, June 21, 2020

इस साल क्या रोग आ गया है, आम , जामुन , अमरूद में तैयार होने के पहले ही अंदर में कीड़ी हो जा रहे हैं, बाहर से अच्छा दिखता है, लेकिन अंदर में कीड़ा है।

विकास, और प्रर्यावरण प्रदूषण असर हमारे भोजन पर पेड़  रहा है , जो पेड़ के फलों में दिखाई दे रहा है


 जामुन फल पक तो गया है , लेकिन खाने लायक नहीं है।  इस गुच्छा में जितना फल दिख रहा है., अधिकांश में कीड़ा लगा है , जो साफ दिखाई दे रहा है।
 इस गुच्छा के फलों को ध्यान से देखेंगे , जो हरा है अभी तैयार नहीं हुआ है , इसमें भी काला दाग है, जिसके अंदर कीड़ा लग चूका है।

 इस गुच्छा में फल हरा है, अभी तैयार नहीं हुआ है , लेकिन उसमे छेद  हो गया है।  इस पेड़ का जितना तक नजर गया , सभी फल का यही हाल है।

 आज जब पूरा विश्व कोरोना महामारी से परेशान है। विश्व की बात कहें तो 60 लाख तक लोग कोरोना संक्रमित हैं और 4 लाख तक लोग महामारी से जान गांवा चुके हैं। जब भारत देश की बात करें तो 4 लाख तक संक्रमित हो चुके हैं और 13 हजार तक की जान जा चुकी है। एैसे परिस्थितियों ने हमे बहुत कुछ सीख दे चुका है। आज कोरोना महामारी ने बहुत कुछ बदल दिया है। हम बदलने को मजबूर हो गये है। आज सभी महसूस कर रहे हैं कि अगर स्वस्थ्य रहना है, स्वस्थ्य सामाज और राष्ट्र का निर्माण करना है, तब हमें आज के विकास मोडल से उत्पन्न विस्थापन और प्रर्यावरण प्रदूषण जैसे गंभीर मामलों पर गंभीरतापूर्वक विमार्श और चिंतन करना होगा। दुखद बात तो यह है कि हम स्वस्थ्य जीवन की कामना तो करते हैं, लेकिन प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण और संर्वधण जैसे बुनियादी सवालों से बचना भी चाहते हैं। आज हमे इन मुददों पर ईमानदारी विमार्श और बहस की जरूरत है। तभी समाज और देश के भविष्य की कल्पना की जा सकती है।
आज का विकास मोडल ने राज्य और देश को जितना दिया है, उससे ज्यादा देश के नागरिकों से रोजगार छीना, घर, जंगल,जमीन, नदी, झील, झरना, स्वस्थ्य जिंदगी, शुद्व हवा, पानी, शुद्व भोजन सब छीना। हां अभी भी वक्त है, जो कुछ बचा है, उसको सुरक्षित रखना, और विकसित करना है। प्रकृति ओर प्र्यावरण को संरक्षित और संवर्धन से ही स्वस्थ्य सामाज और स्वस्थ्य राष्ट्र निर्माण संभव है। राज्य के ग्रामीण आवाम एवं किसान कोरोना का प्रकोप के पहले  ओलावृष्टि का सामना किये। लाॅकडाउन ने तो ग्रामीण आवाम को 15 साल पिछे ढाकेल दिया। जून -जूलाई में फलदार वृक्षों से जामुन, आम, अमरूम आदि मौसमी फल आ रहे हैं। जो ग्रामीणों के लिए पोषाहार तो है ही, साथ ही नगदी फसल के रूप में बाजार उपलब्ध होता है। लेकिन इस साल आम, जामुन और अमरूद जैसे फलों में तैयार होने के पहले ही अंदर मे कीड़ा पैदा हो जा रहे हैं। इस कारण ग्रामीण ने तो खाने में उपयोग कर पा रहे हैं और न ही बाजार में बेच पा रहे हैं।
खूुटी जिला के जबड़ा के अनिल हेमरोम कहते हैं-इन साल किसानों को हानि ही हानि उठाना पड़ रहा है। पेड़ पर आम तों फला है लेकिन कच्चा में ही अंदर में कीड़ा पैदा हो जा रहा है। यह खाने लायक ही नहीं हैं। तोरपा मरचा के हादू तोपनो, तुरतन तोपनो, बासिल तोपना कहते हैं, इस साल क्या रोग आ गया है, आम , जामुन , अमरूद में तैयार होने के पहले ही अंदर में कीड़ी हो जा रहे हैं, बाहर से अच्छा दिखता है, लेकिन अंदर में कीड़ा  है। गुमला के कमडारा प्रखंड के रमतोलया महुआ टोली के राजू लोहरा कहते हैं, जमुन फला है लेकिन जमुन खाने लायक नहीं है, कारण कि अंदर में कीड़ा पैदा हो जा रहा है। कहता है इसी तरह से अमरूद और आम का भी हो रहा है। सिमडेगा जिला के भूण्डूपानी के सेंतेंग कहती है, आम तो फला हैं, लेकिन सब आम में दाग है, कैसे एैसा हो रहा है, पत्ता नही लग रहा है। कहती हैं, दाग लगने के बाद सड़ जा रहा है।

Friday, June 19, 2020

सुबह -शाम हमारे भोजन के टेबल पर तरह तरह के भोजन सजे होते है, गेंहू की रोटी, बाजरे की रोटी, भात , दाल , सरसों सैग, पत्ते दर सब्जी , पत्ता गोभी की सब्जी, भेंडी की सब्जी , टमाटर की चटनी , प्याज़ सैग का पकौड़ा आदि आदि --कहते समय क्या हमने सोचा है, इस हाथों को

 जल , जंगल , जमीन  और जिंदगी ---यंहा कुछ आप देख रहे हैं , घर का आंगन है, घर मालकिन अपने आंगन में अपने घर के लिए साथ ही आप और मेरे लिए भी खाने के लिए चावल तैयार करने में ब्यस्त है. दो लकड़ी की चूल्हा में अलग अलग सामान तैयार कर रही है. एक में धन से चावल निकलने के लिए धान उबाल रही है. दूसरे में घर की रंगाई-पोताई के लिए करड़ा छल उबाल रही है. घर में शादी का प्रोग्राम है. घर की साफ -सफाई जरुरी है।  घर को छल से तैयार मेरून कलर से पोताई की जाएगी. मिट्टी का घर चमकने लगा।  दूर -दूर से आने वाले मेहमान रेंज-पुते घर के फर्श और दीवाल को निहारने लगेंगे।  मन मन बोलेंगे , कितना सुन्दर घर।  आज कल शहरी जीवन शैली के कारन लोगों को शुगर की बीमारी आम बात हो गयी है।  लोग अब चमकदार पुलिस किया चावल खाने से बचना चाहते हैं. शुगर मुक्त चावल तलाशते हैं. लोग बोलते है. पानी में पका कर पानी निकला गया , चावल खाने से शुगर नहीं बढ़ता है।  यह सून कई बार मैं सोचती ,ग्रामीण आदिवासी -मूलवासी सामुदाय तो उसना चावल ही हमेशा कहते हैं, इसलिए की खेत में शारीरिक श्रम करने वालों के लिए यह चावल देर तक शारीर को सपोर्ट करता है.है, इसलिए इसे ही खाना पसंद करते हैं. लेकिन या नहीं जानते थे की , उसना चावल डाइबिटीज़ के लिए उपयुक्त भोजन है. अब शहर वाले भी इसी चावल को पसंद करने लगे हैं.
 किसान के घर में पाने खेत का धान से चावल बनती महिला--हम सुबह -शाम जीवित रहने के लिए भोजन करते है , सुबह -शाम हमारे भोजन के टेबल पर तरह तरह के भोजन सजे होते है, गेंहू की रोटी, बाजरे की रोटी, भात , दाल , सरसों सैग, पत्ते दर सब्जी , पत्ता गोभी की सब्जी, भेंडी की सब्जी , टमाटर की चटनी , प्याज़ सैग का पकौड़ा आदि आदि --खाते समय क्या हमने सोचा है, इस हाथों को? जो हाथ हमारे लिए आनाज उपजाते हैं, शायद नहीं न.. . उस जंगल, जमीन , नदी -झील -झरनों को भी शायद ही हम आदर से याद करते हैं, जरुरत है इन्हे सम्मान देने की, इनको सुरक्छित रखने की, ताकि ये धरती हमारे आने वाले पीढ़ी याने जेनेरेशन को भी हमारी तरह तरह तरह का पौस्टिक भोजन , पानी दे सके।

 इस सिस्टम को जिन्दा रखना है, जो हमें स्वथ्य जिंदगी दे सके। . यह सिस्टम पुराणी है, लिकेन पिछड़ा सिस्टम का हिस्सा नहीं हैं , या सस्टेनेबल डेवलपमेंट का बेसिक आधार है।
       छाल , मट्टी और पत्थर से घर की दिवार को चिकना और रंगाई -पोताई करती आदिवासी लड़कियां।                       
 आप के घर की तरह कांक्रिटी का महल नहीं है, देखने में आप को अच्छा न लगे , लिखे हमारे लिए तो यह पूर्वजो का दिया महल है, इस घर में अददिंग ओड़ा है, इसके पीछे सरना-मासना, ससंदिरी  भी है। .इसी मिटटी में सना आदिवासी -मूलवासी ,किसानों का गौरवशैली इतिहास भी है.

Wednesday, June 17, 2020

EK pal Phul Pati ke sath---




















नदी , झील , झरना , जंगल , पह्ड़ एक दूसरे के पूरक हैं. इसके साथ ही जंगली जानवर, सांप , बीछू , पशु , पक्छी , सहित प्रकृति के साथ जीने -मरने वाले सभी जीव -जंतु पर्यावरण के प्रमुख आंग हैं. इसमें कोई भी कमजोर हो जाता है, तो इसका प्रतिकूल असर पर्यावरण पर पड़ता है. संतुलित पर्यावरण के लिए जरुरी है सभी पहलु या अंग का संग्रक्षण करना

 झारखण्ड का धरोहर -झारखण्ड -की धरती में जो भी है, चट्टान , पहाड़ , जंगल , झाडी , पेड़ , पौधा , घांस , झाड़ , लत्तर , फूल , पत्ता , नदी , नाला , गाढ़ा , ढोड़हा , बालू , सभी सभी हमारा धरोहर है।  यही गांव देवी -देंवता हैं , यही मरांग बुरु , हुडिंग बुरु , बड़पहाडी , बुरु बोंगा भी है।  इसके साथ समाज का अधयत्मिक संबंद है।  यही खान -खनिज , हिरा, सोना भी है , यही झारखंडी आदिवासी समाज का इतिहास , भाषा -संस्कृति , भी है।  यही पर्यावरण भी है. यही कारन है की आदिवासी समाज अपने इस सह अस्तित्वा को सम्पति नहीं , धरोहर मानते हैं. यह पूरा गांव का है. सीएनटी एक्ट , एसपीटी एक्ट कानून के तहत एवं सविधान के पांचवी अनुसूची के तहत इस पर पुरे गांव का मालिकाना हक़ है।
 दूसरी तरफ -पूंजी आधारित अर्थबवस्थ में यह दूसरे समादाय के लिए यह पूंजी निवेश कर मुनाफा कमाने का साधन है।  उनके लिए सिर्फ मुनाफा कामना ही मुख उदेस्य होता है।  आदिवासी सामाजिक मान्यताओं और बाजार की मान्यताओं में बिलकुल अलग है. जो एक दूसरे से टकराते हैं.
 नदी , झील , झरना , जंगल , पह्ड़ एक दूसरे के पूरक हैं. इसके साथ ही जंगली जानवर, सांप , बीछू , पशु , पक्छी , सहित प्रकृति के साथ जीने -मरने वाले सभी जीव -जंतु पर्यावरण के प्रमुख आंग हैं. इसमें कोई भी कमजोर हो जाता है, तो इसका प्रतिकूल असर पर्यावरण पर पड़ता है. संतुलित पर्यावरण के लिए जरुरी है सभी पहलु या अंग का संग्रक्षण करना.
आदिवासी समाज का नदी , झील, झरना के साथ भी अध्यात्मिक  संबंद है . इकिर बोंगा , गडा  बोंगा , लगे एरा जल भगवन  हैं. , आदिवासी समाज प्राकृतिक पूजक हैं..

Tuesday, June 16, 2020

-यह मट्टी , यह पेड़, यह चटान , यह पथल का टुकड़ा का जुड़ाव आदिवासी गांव के सामाजिक अस्थित्वा के साथ आत्मीय समबन्ध है. आज भी आदिवासी समुदाय कई सामाजिक मुद्दों पर सामूहिकता पर विश्वाश करता है। गांव के मुद्दों पर एक साथ बैठ कर बिचार विमर्श करता है. समूह में निर्णय लेते हैं. प्रकृति के साथ जुड़ा समुदाय बड़ा बड़ा निर्णय किसी ताम -झाम वाले मंच पर नहीं लेता , गांव के इसी मिटटी, चट्टान पर गांव सभा , अखड़ा में बैठ कर लेता है।

 मुंडा आदिवासी गांव ---यह मट्टी , यह पेड़, यह चटान , यह पथल का टुकड़ा का जुड़ाव आदिवासी गांव के सामाजिक अस्थित्वा के साथ आत्मीय समबन्ध है. आज भी आदिवासी समुदाय कई सामाजिक मुद्दों पर सामूहिकता पर विश्वाश करता है।  गांव के मुद्दों पर एक साथ बैठ कर बिचार विमर्श करता है. समूह में निर्णय लेते हैं. प्रकृति के साथ जुड़ा समुदाय बड़ा बड़ा निर्णय किसी ताम -झाम वाले मंच पर नहीं लेता , गांव के इसी मिटटी, चट्टान पर गांव सभा , अखड़ा में बैठ कर लेता है।  अखड़ा जंहा परब -तयोहार में नाच -गान भी करते हैं. सामान्य समय में सुबह -शाम गाँव के लोग बैठे -उठते हैं. खेत -टांड के काम से लौट कर यँही बैठ गैप-शाप कर थकन भी मिटाते  हैं। गांव का दुःख-सुख भी आपस में बांटते हैं.

यह बड़ा सा फैला हुवा चट्टान , जिसमे में गाढ़े हैं, आखिर ये क्या है, सायद आप को जिग्यसा हो रही होगी की ये क्या है...है। इस अखड़ा के बगल में ये बड़ा बिछा हुवा चट्टान , जिसमे कई गड्ढ़े बने हैं।  गांव की महिलाएं धान इसी चट्टान के गाढ़े में धान कूटती  और चावल निकलती हैं. पुरे गांव की महिलाएं बारी बारी से धान लेकर कूटने आती हैं। एक साथ तीन-चार महिलाएं साथ में कूटने आती है. धान कुटते गांव  घर के दुःख सुख पर चर्चा भी और काम भी. किसी को मनाही नहीं है. महिलाएं मिल कर इस जगह को साफ -सुथरा भी करती हैं.
हाँ अभी तो चावल निकलने का मिल सभी जगह बैठा दिया गया है. गांव वालों को इससे सुविधा भी हो गयी है।  फिर भी ये धान कूटने का काम एमरजेंसी में चलता ही है. लोग इसका उपयोग करते ही हैं. आदिवासी समाज के बिकास यात्रा का जीवंत पहचान भी है.

9 जून 1900 में बिरसा मुंडा के आगुवाई में डोम्बारी बुरू में अं्रग्रेजों के बंदुक के गोलियों को सामना करते हुए 500 लोग शहीद हुए। 30 जून 1856 में संथाली आदिवासियों ने सिद्-कान्हू के नेतृत्व में भोगनाडीह में अंग्रेजों के गोलियों का सामना करते हुए-10,000 की संख्या में समूहिक शहादत दिये ।

झारखण्ड के इतिहास में जून माह शहीदों का महीना है 
जल जंगल जमीन-भाषा संस्कृति, इतिहास, अस्तित्व को बचाने का झारखंड़ का गैरवपूर्ण इतिहास रहा है। 1700 के दशक से 1900 ई0 का दशक अपने अस्तित्व इतिहास बचाने का अंग्रेज साम्राज्यवाद -जमीनदारों के खिलाफ झारखंडियों ने समझौताविहीन संघर्ष का इतिहास रचा। इस संर्घष में आदिवासियों ने अेगं्रज हुकूमत के सामने कभी घुटना नहीं टेका। अंग्रेजों के गोलियों का सामना सिना तान कर किया-लेकिन पीठ दिखाकर कर आदिवासी समाज पीछे कभी नहीं हटा। 9 जून 1900 में बिरसा मुंडा के आगुवाई में डोम्बारी बुरू में अं्रग्रेजों के बंदुक के गोलियों को सामना करते हुए 500 लोग शहीद हुए। 30 जून 1856 में संथाली आदिवासियों ने सिद्-कान्हू के नेतृत्व में भोगनाडीह में अंग्रेजों के गोलियों का सामना करते हुए-10,000 की संख्या में समूहिक शहादत दिये ।
झारखंड के इतिहास के पनों में जल-जंगल-जमीन, इतिहास-अस्तित्व बचाने का संघर्ष के लिए जून महिना -शहीदो का माहिना है। आज जब पूरा झारखंड को देशी-विदेशी पूंजीपति, कारपेरेट घराने कब्जा जमाने की कोशिश में हैं-ऐसे समय में हम झारखंड़ी आदिवासी-मूलवासियों को अपने पूर्वजाों  के दिये बलिदान को याद करने की जरूरत है। यही नहीं  अपने अस्तित्व की रक्षा के संघर्ष को आगे ले जाने की भी जरूरत है- और यह जिम्मेवारी हम और आप को ही पूरा करना होगा। यह जिम्मेवारी हर युवक-युवाती,, महिला-पुरूष, बुधिजीवियो, सामाजिक कार्यकर्ताओं, झारखंडी शुभचिंतकों की है।

जल,जंगल,जमीन, पर्यावरण की सुरक्षा और समुन्नत झारखंड के विकास के लिए हम सभी आदिवासी, मूलवासी, किसान लगातार संघर्षरत हंै। हमरा संघर्ष और निर्माण का सपना एक ऐसी जनराजनीति से निर्देशित है जिसकी दिशा हूलगुलान के शाहीदों और विचारकाों  ने ही तय कर दिया था। झारखंड राज्य गठन के बाद हमारी चुनौती और हमारा दायित्व और ज्यादा गहन हो गया है। हमने देखा है कि झारखंड  कारपोरेट घरानों के हाथों फिर से गुलाम होता जा रहा है, और झारखंड की अधिकांश  राजनीति  इन ग्लोबल संस्थाओं का पिछलग्गू बन गयी है। आज सारी दुनिया के आदिवासी-मूलवासियों के  संसाधनों की लूट कर पूंजीपतियों की आर्थिक संरचना को मजबूती देने का दौर चला है। यहां के प्रकृतिक संसाधनों का दोहन ही मुख्य लक्ष्य है। ऐसे समय में आदिवासी मूलवासी, किसान, मेहनतकश, मजदूर समुदाय को समुन्नत समाज के नवनिर्माण की नई जनराजनीतिक चेतना को विकसित करना होगा, और इसके लिए हम सब को अपने विचारांे की धार को तेज करना होगा। कोई भी समाज या जनसंगठन बिना विचार के न तो जीवित रह सकता है और न ही वह समकालीन चुनौतियों का पूरी तत्पराता के साथ मुकाबला कर सकता है।
हम उन खतरों से वाकिफ हैं जो हमारे इर्दगिर्द मौजूद है। हमारी भाषा, संस्कृति और हमारी आजीविका की संस्कृति तथा परंपरागत हुनर, तकनीक और कृर्षि-जंगल आधारित आजीविका को न केवल खत्म करने की कोशीश  की जा रही है बल्कि इसे अवैज्ञानिक साबित कर विनाशकारी विकास की परियोजनाओं को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसी विकास नीति के पक्ष में बात की जा रही है जिससे न केवल परस्थिकीय संकट खड़ा हुआ है बल्कि धरती और जीवन ही संकटग्रस्त हो गया है। झारखंडी समाज और संस्कृतिक जीवन मूल्यों के सामने हजारों चुनौतियां हैं। जिसका सामना हमें करना ही होगा।  इतिहास साक्षी है और हमारे शहीदों के विचार बताते हैं कि झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों ने जिस तरह के लयात्मक समन्वय की सामाजिक चेतना का सृजन किया था उसे और सशक्त  और गतिशील  बना कर ही संकट का मुकाबला किया जा सकता है साथ ही झारखंड के नवनिर्माण का भावी मार्ग को भी प्रषस्त किया जा सकता है।
 झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों का सपना दिनां दिन कठिन होता जा रहा है. झारखंड को एक ऐसे मुकाम पर पहंुचा दिया गया है, जहां भविष्य बहुत अंधकारमय दिखता है.। इससे बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता जनसंघर्ष को तेज करना और उसके आधार पर एक नई जनराजनीतिक बहस और चरित्र का निर्माण करना है। हमें यह बताना होगा कि झारखंडी मूल्य और विचार क्या हैं तथा उसे जीवन में किस तरह सार्थक किया जा सकता है। हमारे वीर शहीदों ने समझौताविहीन संघर्ष का जो रास्ता दिखाये हैं  वही झारखंड को नवपूजीवादी कारपोरेट लूट से मुक्त कर सकता है।
झारखंड की अस्मिता और अस्तित्व का वैज्ञानिक नजरिया क्या है तथा उन्नति के मानक का मतलब क्या है, इससे विमार्ष और बहस के केंन्द्र में खड़ा करना होगा। एक सीमा तक हमने उस विमर्ष को पुनः रेखांकित किया है कि  समुन्नति एक प्रकृतिक अवधारणा है और यदि दुनिया के पर्यावरण की हिफाजत करनी है तो विकास के वर्तमान माडल को बदलना होगा। हमारे जनसंगठन ने यह भी स्थापित किया है कि जनसंगठन और जनांदोलन की राजनीति का वास्तविक अर्थ क्या है। हमने अपने अनुभव से सीखा है कि इतिहास केवल प्रेरित  ही नहीं करता बल्कि वह गढ़ने की शक्ति भी प्रदान करता है और जनसक्रियता के व्यापक संदर्भ न केवल जनगण की राजनीतिक चेतना को उन्नत करते हैं बल्कि उनके इतिहासबोध को और ठोस बनाते हुए भावी समाज के निर्माण की दिषा में ठोस तर्क और  प्रवृतियों का सृजन भी करते हैं।
 हम कह सकते हैं कि हमारी बचनबद्धता झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत, लोगों की आजीविका संस्कृति को आगे ले जाने, भाषा और विरासत के पुननिर्माण के साथ एक ऐसी जनराजनीतिक चेतना के निर्माण के प्रति है जिससे हूलगुलानों के सपने को जमीन पर उतारा जा सके। हूलगुलानों का संदेष था कि हमें अपने अस्तित्व को न केवल बचाना है बल्कि उसे गतिशील  भी रखना है और साथ ही ऐसे सामाजिक मूल्यों के साथ स्वयं को आत्मलीन करना है जिसमें एक ईमानदार और जनतांत्रिक झारखंड गढ़ा जा सके। हमारा अनुभव है कि असली ताकत तो गांवों में है और लोगों में है लेकिन इस ताकत का राजनीतिक इस्तेमाल कर जिस तरह झारखंड की छवि बना दी गयी है उसे बदलना होगा। संताल हूल और बिरसा उलगुलान ने जिस तरह का नेतृत्व विकसित किया था उसी तरह का नेतृत्व हमें भी निर्मित करना होगा। जो समझौताविहीन संघर्ष तथा जनगण के नियंत्रण में हो। हमारा साफ मानना है कि असली राजनीतिक और आर्थिक ताकत जनता में है और किसी भी निर्णय की प्रक्रिया में उसे नजरअंदाज करने की प्रवृति को खतम कर हम वास्तविक स्वशा -सन की दिशा  में आगे बढ सकते हैं।
आज आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश  समुदाय को अपने अंतरिक और बाहरी दुशमनों की पहचान करनी होगी। रास्ता रोकने वाले घर के भीतर, बाहर आंगन में और राज्य और दुनिया में सक्रिये हैं। आज जब जून माह को शहीदों का माह मान रहे हैं-तब समीक्षा करना होगा कि, बिरसा मुंडा, गाया मुंडा, डोंका मुंडा, माकी मुंडा, सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, फूलो-झानों के नेतृत्व में अंग्रेज षोशक-षासकों के खिलाफ हुए हुलउलगुलान के खून से लिख सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट का खून किया जा रहा है। इन कानून में प्रावधान अधिकारों को खत्म कर कारपोरेट के लिए जंगल-जमीन, नदी-पहाड़ की लूट के रास्ते को चैड़ा किया जा रहा है। यही नहीं आजाद भारत में आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश  और दलितों के लिए प्रावधान अधिकारों को भी समाप्त करने की कोशीश  हो रही है। कई कानून तो खत्म भी कर दिया गया।
पांचवी अनुसूचि में प्रदत अधिकार जिसमें गांव को अपने तरह से संचालित और नियंत्रित करने का अधिकार मिला है। गांव सभी को गांव के सीमा के भीतर जंगल-झाड़, नदी-नाला को विकसित और उपयोग करने का अधिकार है, इससे भी खारिज किया जा रहा है। लघु वनोपज, लघु खनिज पर भी ग्रास सभा को अधिकार है। ग्राम सभा के इजजाजत के बिना किसी तरह का जमीन अधिग्रहण संभव नहीं है। लेकिन ये तमाम अधिकार पूंजिपति राजनीतिक गंठजोड़ का भेंट चढ चुका है। इसके लिए जबादेह हम लोग भी हैं, हम सभी एकता, अखडता, सामूहिकता का नारा तो देते हैं, लेकिन स्वंय भी एक नहीं होते। अपनी शक्ति एक दूसरे के विरूध, एक दूसरे को रोकने में सारी ताकत लगा देते हैं। हम खंड-खंड में बंटे हुए हैं। हम स्वंय का खून करते, किसी तरह की आत्मग्लानी तक महसूस नहीं करते। आखरी इससे दूसरे को ही लाभ पहुंचाने का काम कर रहे हैं। जब हम अपने में ही इतनी उल्झन है, तब अपने सामने के बड़े दुशमन भी हमें नजर नहीं आते। वो मुदा हमारे लिए बड़ा नहीं दिखता जो, हमारी धरोहर, हमारा अधिकार हमसे छीनने के लिए पंजा फैलाया है।
जब अपने गैरवशाली इतिहास की बात करते नहीं थकते हैं, तब हमें आत्मसमीक्षा करना होगा, कि हम कहां खड़े हैं। क्या हमारे वीर ष्षहीदों के सपनों को हम साकार करने के दिषा में आगे बढ़ रहे हैं, या उनके सपनों का खून कर रहे हैं। आदिवासी -मूलवासी बहुल राज्य के तौर पर राज्य का पहचान है। लेकिन इस राज्य में हमारा सामाज हशिये  पर खड़ा है। संविधान ने हमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिणिक एवं राजनीतिक मजबूती के लिए विषेश  आरक्षण दिया। आज ये हक भी लूटा गया। हमारा देश  भारत धर्मनिपेक्ष कल्याणकारी देश  है। जहां देश  अपने नागरिकों के प्रति हर स्तर पर विषेश  रूप से जिम्मेदार है। अपने नागरिकों के दुख-सुख के साथ सीधा संबंध रखता है। लेकिन आज देश  की नीति जनगणमन के प्रति जिम्मेदार नहीं है, बाल्कि देश -विदेश  के पूंजिपतियों और कारपोरेट घरानों के मुनाफा बढ़ाना, उनकी सुख-सुविधा, सरकार की पहली प्रथमिकता है।
आज देश  की अर्थव्यस्था ग्लोबल बाजार के पूंजी पर खड़ा किया जा रहा है। इस विशव बाजार में पूंजी निवेश  और मुनाफा पर ही अर्थव्यस्था केंन्द्रित है। शिक्षा, स्वस्थ्य का नीजिकरण, भोजन का नीजिकरण के साथ सभी सरकारी सेवाओं का नीजिकरण, रेल सेवा, बैंक सेवा, यतायात, खनन उद्योग, जल प्रबंधन जैसे सेवाओं का नीजिकरण पूजीपतियों और कारपोरेट को सिर्फ लाभ पहुंचने का योजना है।
राज्य और देश  का समुनत विकास जनतांत्रिक मूल्यों को स्थापित कर के ही संभव है।  विशवास करता है। जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए सर्पित जनआंदोलन व्यापक जनसमुदाय की निर्णायक हिस्सेदारी में विश्वास  करता है। हमारी सफलता का यही मूख्य कारण है.हमारा यह भी मानना है कि संकीर्ण राजनीतिक हितों से जनगण के व्यापक सपनों को पूरा नहीं किया जा सकता। हमें जनगण की सक्रियता के साथ एक जीवंत समाज का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। इतिहास से सीखते हुए हमारा अनुभव यह भी बताता है कि संघर्ष स्थानीय संसाधनों के बल पर ही मंजिल हासिल करता है। हम देख रहे हैं कि झारखंड को विखंडित करने की हर तरह की साजिश चल रही हैं. झारखंड की अस्मिता को खत्म करने के षडयंत्र को नाकामयाब करना भी हमरा मकसद है। झारखंड को किसी भी हालत में हम भ्रष्ट तथा लुटेरे लोगों का साम्राज्य नहीं बनने दे सकते।. हूलगुलानों की सीख यही है। हमें साफ तौर पर कहना होगा कि झारखंड षोशकों और लुटेरों का चारागाह नहीं है बल्कि उन करोड़ांे आदिवासियों और मूलवासियों का एक जीवन है जो श्रम की महत्ता का आदर करते हैं तथा लूट की संस्कृति से नफरत करते हैं.। कारपोरेट राजनीति और विकास की कारपोरेट नीतियों को चुनौती देने के लिए हमें अपनी परंपरा के ईमानदार तथा सादगीपूर्ण जीवन को और आगे ले जाने की जरूरत है.। दुनिया को कारपोरेट साजिश  से बाहर निकल कर  जनतांत्रिक उन्नति के रास्ते पर ले जाने के लिए हमें वैकल्पिक नीतियों को जमीन पर उतारने की दिशा  में कदम बढ़ाना होगा, यही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

Monday, June 15, 2020

वो मुझे बहुत आकर्षित करता है , जब भी इन बतखों को कहीं जाते दीखते हैं , तो वे लाइन से एक पीछे एक चलते हैं।

 हम लोगों में से बहुत से साथी इन साधारण बतखों को देखे ही हैं।  यह भी जानते ही हैं की ये साधारण बतख दो तरह के होते हैं. एक पानी में रहते , तैरते अपना भोजन तलाशते रहते हैं।  दूसरा जमीन पर ही रहते और अपना तलाशते हैं. हाँ दोनों तरह के बतखों को मालिक खाना-दाना देते हैं. . इन दोनों तरह के बतखों में एक सामान गुण है, वो मुझे बहुत आकर्षित करता है , जब भी इन बतखों को कहीं जाते दीखते हैं , तो वे लाइन से एक पीछे एक चलते हैं।  जब भी इस तरह से चलते देखि। .एक मिनट के लिए रुक कर देख लेती हूँ।

बोली घर में सभी है, लेकिन क्यों किसी का इंतजार करेंगे , अपना काम खुद ही कर रहे हैं।

 गांव का बाजार --गाँव में महिलाएं आर्थिक आधार की रीढ़ होते हैं , घर चलने में , खेत बरी के काम में, जंगल, जमीन की रक्षा या समाज -संस्कृति को सुरक्षित रखने में।  यह गाँव का साप्तहिक बाजार है. जंहा ग्रामीण अपने जरुरत की चीजों की खरीद बिक्री करते हैं, महिलाएं अपना सामना बेचने के लिए बलि -लकड़ी गाड कर बांस और पेड़ के पते से छत बना कर दुकार चलती हैं, गर्मी और बरसात पहुँचने के पहले महिलाएं अपने दुकान की छतों की मरमत कर रही हैं।
 हालाँकि आदिवासी समाज में महिलांओं को घर का छापर पैर चढ़ना परम्परानुसार मनाही है।  यदि घर बरसात में चू भी रहा है , तो महिलाएं छत चढ़ कर छत की मरमत नहीं कर सकती हैं. यदि कोई महिला छत चढ़ कर मरमत करती है. तो उससे परम्परा तोड़ने के नाम पैर कई गावो में दण्डित भी किया जाता है।
 इन महिलाओं को देख कर थोड़ी देर के लिए सोने लगी --की आखिर इन महिलांओं के घर में पुरुष सदस्य हैं की नहीं, मन में आया सायद नहीं होंगे। .इसीलिए ये बहने अपने दुकानों का छत खुद मरम्त कर रही हैं... बहनों से मैं बात की। .बोली घर में सभी है, लेकिन क्यों किसी का इंतजार करेंगे , अपना काम खुद ही कर रहे हैं। .. मैंने पूछा, साल में कितना बार छत मरमत करते है -बोली जरुरत पड़ता है तो दो बार करते हैं, नहीं तो एक बार तो करना ही पड़ता हैं।

गांव की अपनी जिंदगी , अपने तरह से जीने की शैली है.

गांव की अपनी जिंदगी , अपने तरह से जीने की शैली है. गांव -किसान अपना बैल , गाय , भैंस को बरसात के समय घांस खिलने के लिए लकड़ी का मचान बना रखा है. बरसात के समय पशु को जमीन में घांस नहीं दिया जाता है, जमीन पैर देने से घांस बालू और मिटटी हो जाने से पशु उससे नहीं कहते हैं,
 फुर्सत में हैं बच्चे --बताये स्कूल से लौट कर खेत में काम करने जाते हैं, गाय , बैल भी चराने जाते हैं, फुर्सत में गुलेल से निशाना भी साधते है,
अपने गांव में अपने तरह की जिंदगी.. जंगल जमीन, नदी पहाड़ के साथ जीने की अपने कला, अपनी संस्कृति

Thursday, June 11, 2020

सेवा में, महामहिम राज्यपाल महोदया झारखंड , पत्रांक.......04 , दिनांक.....8 अगस्त 2017.,. mang -राज्य में मनरेगा मजदूरों का मजदूरी दर 500 रूपया किया जाए

सेवा में,                           
महामहिम
राज्यपाल महोदया                                                                            पत्रांक.......04
झारखंड                                                                                       दिनांक.....8 अगस्त 2017.......
विषय-सीएनटी, एसपीटी एक्ट संषोधन बिल को पूरी तरह निरस्त करने, तथा ग्रामीणों कें समुदायिक धरोहर गैरमजरूआ आम एवं खास जमीन को भूमिं बैंक से मुक्त करने, पांचवी अनुसूचि के प्रावधानों को कडाई से लागू करने के संबंध में।
महाशया,
सविनयपूर्वक कहना है कि-हमारे पूर्वजों ने सांप-बिच्छू, बाघ-भालू जैसे खतरनाक जानवरों से लड़कर इस झारखंड राज्य की धरती को आबाद किया है। इतिहास गवाह है-कि जब अंग्रेजों के हुकूमत में देश  गुलाम था, और आजादी के लिए देश  छटपटा रहा था तब आदिवासी समुदाय के वीर नायकों ने, सिदू-कान्हू, चांद-भैरव, सिंदराय-बिंदराय, तिलका मांझी से लेकर वीर बिरसा मुंडा के अगुवाई में देश  के मुक्ति संग्राम में अपनी शहादत  दी। इन्हीं वीर नायकों के खून से आदिवासी-मूलवासियों के धरोहर जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियक 1908 और संताल परगना कास्तकारी  अधिनियम 1949 लिखा गया। जो राज्य के आदिवासी-मूलवासी समुदाय के परंपरागत धरोहर जल-जंगल-जमीन का सुरक्षा कवच है।
हम आप को यह भी बताना चाहते हैं-कि भारतीय संविधान ने हम आदिवासी-मूलवासी ग्रामीण किसान समुदाय को पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में गांव के सीमा के भीतर एवं गांव के बाहर जंगल-झाड़, बालू-गिटी, तथा एंक -एक इंच जमीन पर, ग्रामीणों को मालिकाना हक दिया है।
जमीन -जंगल पर समुदाय का परंपारिक मलिकाना हक से संबंधित जमीन का अभिलेख खतियान भाग दो में गैर मजरूआ आम एवं गैरमजरूआ खास जमीन पर समुदाय का हक दर्ज है। इसके आधार पर सरकार इस तरह के जमीन का सिर्फ संरक्षक है ( कस्टोडियन)  देख-रेख कर सकता है, सरकार इस जमीन का मालिक नहीं है, न ही सरकार इस तरह के जमीन को बेच सकती है।
लेकिन दुखद बात है कि-सरकार हम आदिवासी-मूलवासी किसानों के परंपरागत हक-अधिकार को छीन के गैर मजरूआ आम एवं खास जमीन का भूमिं बैंक बना कर, पूजिंपतियों को आॅनलाईन हस्तांत्रण कर रही है। यदि एैसा होता है-तो ग्रामीण आदिवासी-मूलवासी सहित प्रकृति एवं पर्यावरण पर निर्भर समुदाय पूरी तरह समाप्त हो जाएगें। समुदाय की सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, जीविका एवं पहचान अपने आप खत्म हो जाएगा।
हम यह भी बताना चाहते हैं-कि राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था यहां के जंगल-झाड़, पेड़-पैधों, नदी-नाला, झरनों में आधारित है, इसी पर पूरी ग्रामीण अथव्यवस्था टिकी हुई है, जिसका मूल स्त्रोत किसानों के जोत के अलावे गैर मजरूआ आम और गैर मजरूआ खास जमीन ही है।
आज आदिवासी-मूलवासी समुदाय सुरक्षा कवच सीएनटी एक्ट तथा एसपीटी एक्ट को संशोधन  कर हम आदिवासी- मूलवासी समुदाय को समूल उखाड़ फेंकने की तैयारी की जा रही है। इससे आदिवासी समुदाय खासे चिंतित हैं।
आप को यह भी बताना चाहते है कि 95 प्रतिषत ग्रामीण आबादी न तो कमप्युटर देखी है, न ही इंटरनेट ओपरेट कर सकती है। एैसे में जमीन संबंधी सभी तरह के कार्यों को आॅनलाईन संचालित होने से ग्रामीणों की परेसंनी बढ़ी है।
वर्तमान सरकार द्वारा लाये गये स्थानीयता नीति में्र प्रावधान कानूून के लागू होने से-एक ओर दूसरे राज्यों से आयी आबादी सहित बड़े बड़े पूजिंपतियों को राज्य में आबाद करने एवं विकसित होने का बड़ा अवसर दे रहा है। दूसरी ओर राज्य के आदिवासी-मूलवासियों को अपने परंपरागत बसाहाट, धरोहर से उजाड़ने के लिए बड़ा हथियार के रूप में इस्तेमाल होने जा रहा है।
सीएनटी-एसपीटी संषोधित बिल, भूमि बैंक एवं वर्तमान स्थानीय नीति, इन कानूनों के लागू होने से आदिवासी-मूलवासी समुदाय पर निम्नलिखित खतरा मंडरा रहा है-
1-परंपारिक आदिवासी-मूलवासी गांवों का परंपरागत स्वाषासन गांव व्यवस्था तहस-नहस हो जाएगा।
2-आदिवासी-मूलवासी किसानों के गांवों की भौगोलिक तथा जियोलोजिकल या भूमिंतत्वीय, भूगर्भीय अवस्था पूरी तरह तार-तार हो जाएगा।
3-परंपारिक आदिवासी इलाके में भारी संख्या में बाहरी आबाद के प्रवेष से आदिवासी परंपरागत सामाजिक मूल्य, सामूहिकता पूरी तरह बिखर जाएगा।
4-जंगल-जमीन, जलस्त्रोंतों, जंगली-झाड़, भूमिं पर आधारित परंपरागत अर्थव्यस्था पूरी तरह नष्ट हो जाएगें।
5-स्थानीय आदिवासी-मूलवासी समुदाय पर बाहर से आने वाली जनसंख्या पूरी तरह हावी जा जाएगी, तथा आदिवासी जनसंख्या तेजी से विलोपित हो जाएगा।
6-सामाजिक, आर्थिक आधार के नष्ट होने से भारी संख्या में आदिवासी-मूलवासी समुदाय दूसरे राज्यों में पलायन के लिए विवष होगी।
उपरोक्त तमाम खतरों एवं बिंन्दुओं को आप के ध्यान में लाते हुए-हम भूमि अधिकार आंदोलन  आप के सामने निम्नलिखित मांग रखते हैं-
1-सीएनटी एक्ट एसपीटी एक्ट संषाेिधत बिल पूरी तरह निरस्त किया जाए।
2-गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास जमीन को भूमिं बैंक में षामिल किया गया है,ंको उसे भूमिं बैंक से मुक्त किया जाए तथा किसी भी बाहरी पूजिं-पतियों को हस्तंत्रित नही किया जाए
 3- भूमिं सुधार/भूदान कानून के तहत जिन किसानों को गैर मजरूआ खास जमीन का हिस्सा बंदोबस्त कर दिया गया है-उसे रदद नहीं किया जाए
4-जमीन अधिग्रहण कानून 2013 को लागू किया जाए
5-किसी तरह का भी जमीन अधिग्रहण के पहले ग्रांव सभा के इजाजत के बिना जमीन अधिग्रहण किसी भी कीमत में नहीं किया जाए।
6-5वीं अनुसूचि को कडाई्र से लागू किया जाए।
7-राज्य में मनरेगा मजदूरों का मजदूरी दर 500 रूपया किया जाए
8-आदिवासी-मूलवासी विरोधी वर्तमान स्थानीयता नीति को खारिज किया जाए तथा सदियों से जल-जंगल-जमीन के साथ रचे-बसे आदिवासी-मूलवासियों के सामाजिक मूल्यों, संस्कृतिक मूल्यों, भाषा-संस्कृति इनके इतिहास को आधार बना कर 1932 के खतियान को आधार बना कर स्थानीय नीति को पूर्नभाषित करके स्थानीय नीति बनाया जाए।

                               निवेदक
                        भूमि अधिकार आंदोलन
                              झारखंड

Wednesday, June 10, 2020

एैसे ही किसान पहले से लोन -कर्ज से दबे हुए हैं। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए, समय पर कमजोर किसान परिवार को बीज और खाद उपलब्ध कराना चाहिए, तभी किसान खेती कर पायेगें। यदि किसान खेती नहीं कर पायेगें, तो आने वाले समय में अथ्रिक संकट का सामना करना पड़ेगा।

भारत गांवों का देश  है। देश  की 80 फीसदी आबादी गांवों रहती है।  कोरोना महामारी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को 15 साल पिछे ढाकेल दिया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था खेत-खलिहान, जंगल-झाड, नदी-नालों तथा पेड़-पौधों पर आधारित है। वर्ष के छह महिने खेती के पैदवार पर तथा बाकी छह माह जंगल, झाड़, और फलदार वृक्षों एवं पर्यावरण पर अर्थव्यवस्था टिका होता है। धान कटनी के बाद किसान खेतों में सब्जी  खेती करना शुरू कर देते हैं। राज्य के सभी ग्रामीण इलाकों में फरवरी माह तक हर तरह की सब्जी खेती तैयारी हो जाती है। लाॅकडाउन के कारण राज्य के लाखों किसानों के सब्जी की तैयार फसल ग्रहक नहीं मिलने के कारण करोड़ो की फसल बरबाद हो गयी। पाषुपालक, दुध उत्पादकों को भी करोड़ो का नुकसान उठाना पड़ा। मुर्गी फर्म चलाने वालों को भी भारी छति हुआ। फरवरी, मार्च और अप्रैल माल में वनोउत्पाद या मौसमी नगदी फसल इमली, महुंआ, कटहल, लीची, चार, केउंद, पुटकल साग, कोयनार साग, जीलहूर फूल, आम, पपीता, बेल आदि बहुत अधिक मात्रा में राज्य के सभी इलाकों से निकलता है। लेकिन लाॅकडाउन के कारण इन सभी उत्पादों को बाजार नहीं मिलने के कारण किसानों का अर्थिक स्थिाति कमजोर हो गयी है। लाॅकडाउन के बीच इमली, महुंआ, कटहल, पपीता के स्थानीय खरीददार किसी किसी गांव में पहुंचे और मनमाने कीमत देकर किसानों के मजबूरी का लाभ उठाया। 

                                                  धान रोपने की तयारी करते किसान -२०१९ 
                                                              कटहल --किसानों का नगदी फसल 
70 प्रतिषत किसान इन मौसमी नगदी उत्पाद बेच कर लाखों आय कमाते हैं। बच्चों के पढ़ाई के साथ अगले साले के कृषि कार्य में इसी धन राशि को निवेष करते हैं। खाद-बीज खरीदने, खेत तैयार करने से लेकर बीज लगाने तक इसी पैसो से किया जाता है। जहां पानी उपलब्ध है नदी-नालों में, किसान गरमा धान की खेती भी फरवरी -मार्च में करते हैं। लेकिन गरमा खेती पर भी लाॅकडाउन का प्रतिकूल असर रहा। बाजार बंद रहने के कारण किसान खाद-बीज का प्रबंध नहीं कर पाने के कारण खेती भी नहीं हो सका। मई-जून माह से धान की खेती शुरू करते हैं। मई-जून में गडहा दोन में धान बो दिया जाता है। जुलाई के प्ररंभ में गोड़ा, गोंदली, मडुआ सहित सभी चांवरा और टांड खेती प्ररंभ करते हैं। खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड के किसान शिवशरण मिस्त्रा जी कहते हैं, लाॅकडाउन का सबसे बड़ा मार तो किसानों पर पड़ा है। किसान अपना उपज बेच नही पाने के कारण खेती करने के लिए खाद-बीज नहीं जुटा पा रहे हैं। जिनके पास थोड़ा बहुत पौसा है भी तो दुकान नहीं खुलने के कारण खाद-बीज समय से खरीद नहीं पा रहे हैं। इस कारण समय पर खेती नहीं करेगें, तो 2021 में भूखमरी का सामना करना पड़ेगा।   परिणामता 2021 में राज्य में खाद्यान की कमी होगी। 
किसान गर्मी के आगमन की तैयारी अपने तरह से करते हैं। गर्मी में किसान बड़े पौमाने पर तरबूज, खीरा, ककडी, कददू, प्याज आदि की खेती करते हैं। खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड अतंर्गत सुवारी, कांटी, बाला आदि गांवों में बहुत अधिक मात्रा में नदी-नालों के किनारे खेती करते हैं। कोरकोटोली के बंधना तोपनो, बुधवा तोपनो, बिरसा तोपनो कहते हैं-जनवरी से जून महिना तक नदी के किनारे हर साल तरबूज, बोदी, निनवा, करेला, झिंगा, टमाटर, मुली, बीन, पालक साग, कदू, ककडी खेती करते हैं उसी बच्चों का षिक्षा, और खेती बारी के लिए पैसा एकत्र करते थे। लेकिन इस बार तो सारा सब्जी खेत में ही रह गया। गाय-बैल को खिलाये।  तोरपा पं्रखंड के रायसेमला, कनकलोया, सटाल, कुलडा, कोरकोटोली, सुंदारी आदि गांव के किसान बड़े पौमाने पर अपना उपज दूसरे जिलों  को सप्लाई करते हैं। लेकिन लाॅकडाउन ने किसानों को उपनी फसल मावेषियों को खिलाने को मजबूर किया। 

 जंगल --जंहा से ग्रामीण लाह , चार, महुवा , केन्दु , बीड़ी पता , डोरी , चिरौंजी , साल  आदि बनोपज एकत्र करते हैं 
इमली -हर गाव में सैकड़ों पेड़ है --जंहा से प्रति वर्ष लाखों रुपये का इमली निकलता है 

 लोहरदगा जिले में लगभग 400 एकड़ जमीन पर गन्ने की खेती होती है। किसान कर्ज लेकर गन्ने की खेती किये अब बाजार नहीं रहने से खेत में ही फसल सूख गये, मजबूर किसानों को फसलों को खेत में ही जलाना पड़ा। हजारीबाग, गामगढ़, ब्रंबे व पलामू समेत राज्य के विभिन्न हिस्सों में लाॅकडाउन ने किसानों की कमर तोड़ दी है। उपर से मौसम की मार, अलग पड़ रही है। मखमुदरों, ब्रांबे और बीजुपाड़ा, हुटार में खरीदार नहीं मिल रहे हैं। चान्हो  गांव के किसान दर्द बयां किया, कहते हैं-कोरोना वासरस और लाॅकडाउन ने जिंदगी तबाह कर दी। इस सीजन में साढ़े चार लाख रूपये खर्च कर खेती की, लेकिन हाथ आये सिर्फ 28000 रूपये । कर्ज लेकर किसानों ने खेती किया था, लाॅकडाउन ने उन्हें कर्जदार बना दिया। 
सिल्ली के नीचे टोला, ब्राहमणडीह, जोबला व छाताटांड इलाके के किसान सब्जियों को खेतो में ही छोड़ दिया। लाॅकडाउन के पहले किसानों को ओलावृष्टि से  नुकसान हुआ। अब लाॅकडाउन के चलते व्यापारी नहीं आने सेे सब्जियां खेतों मे ही पड़ी रह गयी। 
स्थानीय बाजार में इतनी खपत नही हो सकती, कदु व नेनुआ सकहत अन्य सब्जियां खेतों में ही सड़ गया। मिर्च तो सूख गया। खेत में भिंड़ी, लौकी, मिर्चा, नेनुवा, करैला व कीवा आदि तैयार हैं, लेकिन इन्हें मंडी तक भी पहंचा नहीं सकते। किसानों ने कहा कि इलाके में एकमात्र कोल्ड स्टोर कृषि विभाग द्वारा बन कर तैयार है, लेकिन इसे अबतक चालू नहीं किया गया है। अगर कोल्ड स्टोर चालू रहता तो किसानों का राहत मिल सकती थी। 
लाॅकडाउन से बुडमू प्रखंड के दूध विकें्रताओं को भारी परेषानी का सामना करना पड़ा। होटलों के बंद हो जाने के कारण मेघा डेयरी ने खपत घटने से 27 मार्च से यहां के किसानों से दूध लेना बंद कर दिया।  दुध मित्र सदस्यों के अनुसार बुडमू प्रखंड में कोटारी, कंडेर, बंड़बारी व बरौदी में दुग्ध षीतक केंन्द्र है। 
कोटारी, मुरूवे, साड़म, मुरवे, मुर्गी, आरा, बुढतू, पिरागुटू, मतवे, मक्का, सोसई, उमेडंडा, लावागड़ा, गुरूगाई, मनातु,, सालाहन सहित अन्य गांवों के एमपीपी केंन्द्र में किसानों द्वारा, रोजाना जमा किये गये लगभग पांच हजार लीटर दूध को लाकर ठंडा किया जाता था। जिसे मेघा डेयरी की गाड़ी ले जाती थी। लेकिन 27 मार्च से दुध का उठाव बंद हो गया। लाॅकडाउन के कारण दर्रा, खल्ली व कुटी की दुकान बंद होने से 24 मार्च से पषुओं के लिए दर्रा खल्ली व कुटी भी मिलना बंद था। किसान इस संबंध में प्रखंड पषुपालन पदाधिकारी से मांग किये कि दूध उत्पादकों की समस्या के समाधान किया जाए।  

                                       मुरहू बाजार में --महुवा और इमली खरीद कर रखा है खरीददार 
                   मुरहू बाजार में ग्रामीण महिलाएं अपना उपज-केला, कुटुम्बा आदि बाजार में बेचते 
दुग्ध की खरीद बंद रहने से चान्हो व मांडर प्रखंड में दुग्ध उत्पादन से जुड़े 2500 से अधिक किसानों की आर्थिक स्थिति गडबडा गयी है। जनकारी के अनुसार चान्हो व मांडर प्रखंड में प्रतिदिन 20 से 25 हजार लीटर दूध का उत्पादन होता है। जिसे बोरेया, लेपसर, बीजूपाड़ा, कैमबो, हुरहुरी , पतरातू, ओपा, कारगे, बरगड़ी, मजुआजाड़ी, झिझरी सहित अन्य गांव में बने 14 दुग्ध षीतक सह ग्रहण कें्रनद्र के माध्यम से झारखंड मिल्क फेडरेषन दुग्ध उतपादकों से खरीदने का कार्य करती है। बताया जा रहा है कि फेडरेषन द्वारा 27 मार्च से तीन दिन तक किसानों से दूध नहीं खरीदने की घोषणा के बाद दोनों प्रखंड के तमाम दुग्ध षीतक केंन्द्रों को बंद कर दिया गया है, जिस कारण वैसे किसान जिनके यहां अधिक मात्रा में दुध का उत्पादन होता है, वे भारी परेषानी में रहे। किसानों का कहना है कि गांव में 10 रूपये लीटर भी कोई दूध खरीदने को तैयार नहीं है। 
इटकी क्षेत्र से प्रतिदिन 10-15 टन फ्रेजबीन बिक्री के लिए हाट-बाजार आ रही है, परंतु लाॅकडाउन के कारण बिक्री नहीं हो पा रही है। मालवाहक बाहनों के बंद रहने व सरकार द्वारा सब्जियों को अन्य़त्र भेजे जाने के संबंध में सरकार स्पष्ट नीति तय नहीं हाने के कारण किसान अपनी फसल बाहर भे नहीं पा रहे हैं।  छोटे व फुटकर व्यापारी ही औन-पौने दाम पर आवष्यकतानुसार खरीद रहे हैं। वहीं बिक्री के अभाव में फूलगोभी, पतागोभी व मटर सेमी किसान खेतों में ही छोड़ दे रहे हैं। 
ग्रामीण इलाकों के पषुपालकों के साथ-साथ षहरी इलाकों के खटाल वालों के समक्ष संकट की घड़ी आ गयी है। कांके, टाटीसिलवे, रातू रोड़, नामकुम, चुटिया आदि में जानवरों के खाने के सामान का कारोबार करने वालों के यहां पषुपालकों की भीड़ लगी रही।  पांच रूपये प्रति किलो मिलने वाले कुटी के लिए 18-20 रू0 किलो तक वसूले गये। इसमें भी राषनिंग की जा रही थी। इसी तरह आम तौर पर 22 से 25 रू0 किलो मिलने वाला चोकर 40 रू0 में बेचा गया। 
दुध उत्पादकों के अनुसार प्रतिदिन करीब 35 हजार लीटर दूध की मांग हो रही थी, जबकि उत्पादन क्षमता 1.35 लाख लीटर प्रतिदिन है। लेकिन खरीददार नहीं रहे। 

रांची षहर की आबादी 1073,872 है को ग्रामीण इलाके के किसान सब्जी पूरा करते हैं। इस षहरी आबादी में जहां रोजाना करोड़ो का सब्जी खपत होता था।  लाॅकडाउन में कारोबार पूरी तरह ठप रहा। डेली मार्केट सब्जी, हरमू फल, सब्जी मंडी, लालपूर, बहुबाजार, डोरांडा, चुटिया, मोरहबादी, रातू रोड़, नागाबाबा खटाल सब्जी बाजार, सतरंजी, नामकोम, हटिया, ध्रुवा आदि षहरी फल, सब्जी बाजार को बेड़ो, नगड़ी, मांडर, इटकी, तोरपा, सिमडेगा, बानो, कर्रा, खूंटी, तमाड, बुडु, नामकोम, अनगड़ा, कांके आदि इलाकों के किसान लाखों टन अपनी उपज उपलब्ध कराते हैं। लाॅकडाउन में सभी इलाके का बाजार ढप रहने से ग्रामीण अर्थव्यस्था चरमरा गया।  लाॅकडाउन में यहां 50 हजार का भी कारोबार नहीं हो सका।  हरमू फल मंडी से ग्राहक और व्यापारी नदारद है। थोक विक्रेता बताते हैं कि सामान्य दिनों में मंडी में लगभग 40 लाख रूपये का कारोबार होता था, मौजूदा समय में 50,000 रूपये का भी फल बेचना मुष्किल हो रहा है। लाॅकडाउन के कारण दूसरे जिलों के व्यापारी बाजार में नहीं पहुंच पा रहे हैं। छिटपुट विके्रता ही फल ले जाकर बाजारों में बेच रहे हैं। वहीं, राजधानी में सब्जियों की आवक भी नहीं सुधर रही है। मांग होने के बावजूद बाजार में प्रर्याप्त सब्जियां नहीं लाना चाह रहे हैं, इनका कहना है कि जब तब आवागमन में सहूलियत नहीं होगी, तब तक यही स्थिति रहेगी। 
लाॅकडाउन में खरीददार नहीं रहने के कारण फल विक्रेताओं को बाजार में लाया फलों को वापस कोल्ड स्टोरेज भेजना पड़ा। हरमू फल मंडी आदि सामान्य दिन 20-25 दुकानें लगती है, वहां सिर्फ 2-3 दुकाने ही लगती थी। यह स्थिति पहली लाॅकडाउन में रही। दूसरी लाॅकडाउन में भी किसानों की स्थिति वैसी ही रही। तीसरी लाॅकडाउन के बाद किसानों को थोड़ी राहत मिली। उसमें भी वो कीमत नहीं मिला जो, उन्हें मिलना चाहिए था। 
सिमडेगा जिला, खूंटी जिला, गुमला जिला और रांची जिला के ग्रामीण किसानों ने बताया महुआ का कीमत 30-40 रू0 किलो बिकता था, लेकिन लाॅकडाउन के कारण महुआ 10-12 रू किलो बिका। इसी तरह इमली और समय 30-50 रू किलो बिकता था, लाॅकडाउन में कुछ के्रता गांव आकर मनमना कीमत देकर माल बटोर लिये। तुरतन तोपनो, राजू लोहरा-कमडारा गुमला, सलमोन बरला-भूण्डूपानी सिमडेगा, बासिल तोपनो-मरचा खूुटी, बिरतुस, फुलचंद मुंण्डा, बुधराम बोदरा, सनिका मुंडा कहते हैं-लाॅकडाउन ने सबसे ज्यादा किसान और मेहनत मजदूरी करने वाले सामूदाय को प्रभावित किया है। इससे बाहर निकलने में समाज को दो साल लगेगा। इन्होंने बताया किसानों ने कर्ज लेकर खेती किया था, सब डूब गया। एैसे ही किसान पहले से लोन -कर्ज  से दबे हुए हैं। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए, समय पर कमजोर किसान परिवार को बीज और खाद उपलब्ध कराना चाहिए, तभी किसान खेती कर पायेगें। यदि किसान खेती नहीं कर पायेगें, तो आने वाले समय में अथ्रिक संकट का सामना करना पड़ेगा।