Thursday, April 25, 2019

आदिवासी-मूलवासी, किसान एवं मेनतक समुदाय को राज्यकीय व्यवस्था के सहारे काबू में ला कर इनके हाथ से जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण को छीन कर काॅरपोरेट घरानों कों सौंपने की पूरी तैयारी है


विकास का भ्रमजाल क्यों?
विकास के मकडजाल में आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकष समुदाय फंसते जा रहा है। विकास का यह मकडजाल काॅरपोरेट घरानों, देश-विदेश के पूंजिपतियों के लिए जमीन की लूट के लिए केंन्द्र तथा राज्य के रघुवर सरकार द्वारा तैयार नीतियों का जाल है। जो आदिवासी-मूलवासी, किसान सामाज के उपर एक ष्ष्फेंका जालष्ष् की तरह  है। इस जाल के सहारे आदिवासी-मूलवासी, किसान एवं मेनतक समुदाय को राज्यकीय व्यवस्था के सहारे काबू में ला कर इनके हाथ से जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण को छीन कर काॅरपोरेट घरानों कों सौंपने की पूरी तैयारी है। एक ओर भाजपानीत केंन्द्र एवं राज्य सरकार आदिवासी, किसानों के हक-अधिकारों के संगरक्षण की ढोल पीटती है, और दूसरी ओर इनके सुरक्षा कवच के रूप में भारतीय संविधान में प्रावधान अधिकारों को ध्वस्त करते हुए काॅरपोरेटी सम्राज्य स्थापित करने जा रही है। जिंदगी के तमाम पहलूओं-भोजन, पानी, स्वस्थ्य, शिक्षा, सहित हवा सभी को व्यवसायिक वस्तु के रूप में मुनाफा कमाने के लिए ग्लोबल पूंजि बाजार में सौदा करने के लिए डिस्पले-सजा कर के रख दिया है।
भारतीय संविधान में प्रावधानों आदिवासी-मूलवासी, दलित, मेहनतकष किसानों के हित रक्षाक कानूनों की अवहेलना क्यो?
आजाद भारत के राजनीतिज्ञों, बुधीजीवियों, एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि-देश का विकास, शांति-व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं-इसीलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये। एक सामान्य कानून जो सामान्य क्षेत्र के लिए दूसरा विशेष कानून विशेष क्षेत्र के लिए बनाया गया। प्रकृतिकमूलक आदिवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र के अंतर्गतं रखा गया। इन क्षेत्रों पांचवी अनुसूचि तथा छठी अनुसूचि में बांटा गया।
इसी अनुसूचि क्षेत्र में छोटानागपुर काष्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना अधिनियम 1949, पेसा कानून 1996, वन अधिकार अधिनियम 2006 भी है। ये सभी कानून आदिवासी, मूलवासी, दलित, मच्छूवरा सहित 32 आदिम जनजाति समुदायों के अधिकारों के रक्षा के लिए है।
लेकिन- हर स्तर पर राज्य सरकार स्वंय ही इन कानूनों का उल्लंघन कर रही है।  देश के विकास का इतिहास गवाह है-जबतक आदिवासी समाज अपना जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा रहता है-तबतक ही वह आदिवासी अस्तित्व के साथ जिंदा रह सकता है। आदिवासी सामाज को अपने धरोहर जल-जंगल-जमीन से जैसे ही अलग करेगें-पानी से मच्छली को बाहर निकालते ही तड़प तड़पकर दम तोड़ देता है-आदिवासी सामाज भी इसी तरह अपनी धरोहर से अलग होते ही स्वतः दम तोड़ देता है।
अपनी मिटटी के सुगंध तथा अपने झाड-जंगल के पुटुस, कोरेया, पलाश,  सराई, महुआ, आम मंजरी के खुशबू से सनी जीवनशैली के साथ विकास के रास्ते बढने के लिए संक्लपित परंपरागत आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के उपर थोपी गयी विकास का मकडजाल स्थानीयता नीति 2016, सीएनटी, एसपीटी एक्ट संशोधन बिल 2017, महुआ नीति 2017, जनआंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया-क्षति पूर्ति कानून 2016, गो रक्षा कानून 2017, भूमि बैंक, डिजिटल झारखंड, लैंण्ड रिकार्ड आॅनलाइन करना, सिंगल विण्डोसिस्टम से आॅनलाइन जमीन हस्तांत्रण एवं म्यूटेशन जैसे नीतियों को लागू करना, निश्चित रूप से आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदायों के समझ के परे की व्यवस्था है। यह व्यवस्था राज्य के एक-एक इंच जमीन, एक-एक पेड-पौधों, एक-एक बूंद पानी को राज्य के ग्रामीण जनता के हाथ से छीनने का धारदार हथियार है।
 इसी के आधार पर राज्य में आदिवासी सामाज का जमीन को आबाद करने का अपना परंपरिक व्यास्था है यही नहीं इसका अपना विशिष्ट इतिहास भी है। आदिवासी परंपरागत व्यवस्था में जमीन को अपने तरह से परिभाषित किया गया है-रैयती जमीन, खूंटकटीदार मालिकाना, विलकिंगसन रूल क्षेत्र, गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, परती, जंगल-झाड़ी भूंमि।
आज सरकार विकास के नाम पर लैंड बैंक---बना कर आदिवासी समुदाय के हाथ से उनका जमीन-जंगल छीन कर उद्योपतियों को देने का योजना बना रही हैं। केंन्द्र की मोदी सरकार तथा राज्य की रघुवर सरकार झारखंड से बाहर एवं देष के बाहर कई देषों में पूजिपतियों को झारखंड की धरती पर पूंजि निवेष के लिए आमंत्रित करने में व्यस्त हैं। 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची में ग्लोबल इनवेस्टर समिट को आयोजन कर 11 हजार देषी-विदेषी पूंजिपतियों को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान 210 कंपनियों के साथ एमओयू किया गया। इस एमओयू में 121 उद्वोगों के लिए किया गया, जबकि कृषि -खेती-के क्षेत्र के लिए सिर्फ एक एमओयू किया गया। 2014 से 2018 तक में रघुवर सरकार ने 4 मोमेंटम झारखंड किया। हजारों पूजि- पतियों के साथ किया, तथा पूजिपतियों को अष्वास्त किया कि, जो भी निवेषक जहां भी जमीन चाहिए, बिना देर किये सिंगल वीण्डों सिस्टम से जमीन हस्तांत्रण कर देगें।  मूलवासी, किसान ,मेहनतकष समुदाय केवल नहीं उजडेगें, परन्तु प्रकृति पर निर्भर सभी समुदाय स्वता ही उजड़ जाऐगें। माननीय सर्वोच्च न्यायालय का आदेष आया है कि देष में जिन आदिवासी, मूलवासियों ने फोरेस्ट राईट एक्ट के तहत वनपटा के लिए दावा पत्र भरा दिया, और इनका दावा पत्र रिजेक्ट किया गया। ऐसे सभी आदिवासी मूलवासी परिवारों को जंगल से बाहर निकाला जाए। आदेष में देष के करीब 25 लाख आदिवासियों को जंगल से निकालाने को को आदेष है। इसके साथ ही एक दूसरा संषोधन आया है-जिसमें कहा गया है कि-अब आदिवासी जंगल में अपने साथ दौली, टंगिया, हंसुवा, तीर-धनुष लेकर नहीं घुस सकते हैं, यदि इन परंपारिक सामान के साथ जंगल जाएगें तो, फोरेंस्टर को अधिकार दिया गया है, कि इन्हें देखते ही गोली मारी जाए। यहां समझने की जरूरत है कि आदिवासी किसान परिवार के लिए जंगल ससर्फ लकड़ी के लिए नहीं होता है। जंगल में पूरी जिंदगी जुडी हुइ है। किसान सुबह सुबह गाय, बकरी को जंगल चराने जाते हैं-तो साथ में जंगली झाडी साफ करन कर रास्ता बनाने, गाय, बकरी के लिए डहुरा काफ करने के लिए भी टंगिया,  बलुआ की जरूरत होती हैं । लेकिन सरकार इसे गैकानूनी मान कर  सीधे गोली मारने का आदेष दे रही है। यह लोकतंत्र का हत्या ही है। इन परिस्थितियों में आदिवासी समाज का कल का कोई भविष्य नहीं होगा।

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