आप लोगों ने मुझे पुरस्कार से सम्मानित किया इसके लिए मैं आप लोगों को धन्यवाद देना चाहती हु। खास करके इंडिजिनस राईट -कलचरल सरवाइबल को। आज जब देsh ही नहीं दुनिया के हर कोने में एक तरफ जल-जंगल-जमीन -नदी-झरनों और पहाड़ों पर जो जनता के समुदायिक धरोहर है-पर ग्लोबल पूंजिवादी अर्थव्यस्था कब्जा जमाने की हर कोशिश में जुटी है। वहीं दूसरी ओर अपने धरोहर-जंल-जंगल-पानी की रक्षा में देश के एक एक गांव संकल्प के साथ -हम अपने पूर्वजों का एक इंच जमीन नहीं देगें-का नारा के साथ संर्घषरत है। देश की ग्लोबल अर्थव्यस्था ने पूरी दुनिया में जिस फासिवाद को जन्म दिया है-इससे पूरी दुनिया सामाजिक, आर्थिक, संस्कृतिक संकट से गुजर रहा है, इस संकट में एक ओर जहां विकाससिल एंव गरीब तथा यहां तक कि विकसीत दुनिया में भी सामाजिक आर्थिक और संस्कृतिक विषमता बढती जा रही है, और इसे एक जनाक्रोश पूरी दुनिया में दिखाई दे रही है। वहीं दुसरी ओर बंचित जन समूदाय अपनी अधिकारों प्रकृति...एवं प्रर्यावरण के संरक्षण, प्रकृतिक संसाधनों पर अपना निर्णनायक अधिकार और सत्ता के लोकतंत्रिक प्रकिया में अपना दावा पूरी ताकत के साथ पेश कर रहा है। दुनिया एक ओर जहां हिंसा और आंतक, धार्मिक नसीलिए , भेद-भाव से ग्रास्त दिख रही है। वहीं इन स्थितियों को बदलने और सामानतामूलक सामाज के निर्माण के लिए दुनिया भर के जनसमूदाय खास तौर पर आदिवासी समूदाय अपनी विभिन्न तौर-तरीकों से लोकतंत्रिक प्रतिरोध का स्वर बुलंद कर रहे हैंं। संकट को एकांगी होकर नहीं समझा जा सकता है, ना ही विकास के मौजूदा ढांचे में वह ताकत है , कि वह बंचित जन समूदायों की आकाक्षाओं को पूरा कर सके। ‘खास तौर पर एशिया , अफ्रिका और अरब के अनेक देशों में लोंकतंत्र जनसंघर्ष का एक कारगार अभिव्यक्ति उभर रहा है।
यूरोप के युवा वर्ग, मजदूर-किसान विकास के वर्तमान ढांचा के बदहाली के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। मेरी दृष्टिटी में हमारा यह काल खंड परिर्वतन, आकांचा , और जनता की बंचित जनता की सशक्त एकजुटता के माध्यम से लैस है। अब हमें तय करना है कि दुनिया में बढ़ती , ’भेदभाव, सामानता, सहयोग, सहकार-सहभागिता जैसे उच्चतम मानवीय मूल्यों जो आदिवासी समाज की विरासत भी है उसकी भविष्य की गारंटी कैसे किया जाए यह चिंता का विषय है। आज अकसर पूछा जाता है कि तकनीक संचालित दुनिया में आदिवासी समाज उसके मूल्य, संस्कृति और उनके विषेशताओं का कोई भविष्य बचा हुआ हैं यह नहीं। यह भी कहा जाता है कि दुनिया की जो मुख्य धारा है और उनका उपक्र्रम है, में आदिवासियों को शामिल हो जाना चाहिए और और संस्कृति को इतिहास का विषय बना देना चाहिए। लेकिन मै यहां पूरी दृढता से जनता के अनुभवों की, और अपनी सीख के आधार पर कहना चाहती हुं कि आदिवासी जन समूदाय के साथ साथ सभी बंचित जन समूदायों की एकजुटता से जारी संघर्ष का भविष्य है और वह निकट भविष्य में प्रकृतिक संसाधनों और आर्थिक असामानता के मौजूदा ढांचे को वास्तविक लोकतंत्रिक सामाज में बदल देगा। जिसमें हर समुदाय की अपनी विधिता, बहुलता और संस्कृतिक अस्तित्वा की गारंटी होगी । मेरे विचार में आदिवासी जन समूदायों का भविष्य इसलिए भी है कि उनकी मौलिक दर्निक सामाजिक और सकृतिक, प्रकृति और चेतना वैज्ञानीक और निरंतर नये की तालाश के साथ जूटी रही है। यही कारण है कि हजारों सालों के संस्कृतिक अतिक्रण और आक्रमण के बावजूद आदिवासी जन समूदाय अपने संघषों से इसकी हिफाजत और विकसित करते रहे हैंं। मेरी मातृ भाषा मुंडारी में कहा जाता है-सेनगी सुसुन-काजीगी दुरंग,(बोलना ही गीत-संगीत और चलना ही नृत्य है) यही आदिवासियों की ताकत है। इसी में हमारा सामाजिक अंतवि’वास(इनर विलिभ) निहित है। यही हमारे संघर्षों के प्रेरणा का स्त्रोत है। हमारे महान नायक बिरसा मुंडा के उलगुलान के जमाने का गीत मैं यहां आप को एक उदाहरण में देना चाहती हुं कि किस तरह हम नृत्य, संगीत और जीवन के तौर तरीकों को अपना संघर्ष का प्रयाय मानते हैं-
डुम्बारी बुरू चेतन रे....ओकोय दुमंग रूताना को- सुसुनेतना
ओकोय दुमंग रूताना को -सुसुनेतना
डुम्बरी बुरू चेतन रे बिरसा दुमंग -रूताना को सुसुनतना
बिरसा दुमंग रूताना को सुसुनतना
(डुम्बरी पहाड़ पर कौन मंदर बजा रहा है -लोग नाच रहे हैं। डुम्बरी पहाड़ पर बिरसा मंदर बजा रहे हैं-लोग नाच रहे हैं)
बिरसा मुंडा ने जो राह दिखाई उसी रास्ते पर चलते हुए हम आदिवासी मूल्यों की हिफाजत के लिए आज विस्थापन के खिलाफ-जंल-जंगल-जमीन, समाज-भाषा-संस्कृतिक, इतिहास और पहचान को संरक्षित करने का नया उलगुलान(रिवोले’ान) चल रहा है। आदिवासी चेतना वा संस्कृति को इन विन्दुओं में रखना चाहती हुं
1-समुदायिक जीवन सैली
2-प्रकृतिक संपति पर समुदायिक अधिकार
3-सहकार की चेतना(कोओपरे’ान)
4-स्त्री-पुरूष सामानता
5-जनतंत्र में सर्वानुमति मूलक निर्णायक चेतना(कोलोकटिव डि’िाजन एंड इमप्लिमेंटे’ान)
यही हमारा मूल विचार है, जिस पर जहां से मैं आती हुं वहां के आदिवासियों ने लगभग 300 सालों से संघष किया और हजारों की संख्या में बलीदान दिया और आज भी संघर्ष कर रहे हैं और बलीदान दे रहे हैं। मैं भी इस सघर्ष की विनम्र हिस्सेदार हुं और इस बात की मुझे बेहद खुशी है।
बाबा तिलका मांझी, बिंदराय-सिंदाय, सिद्वु-कान्हू, चांद-भैरव, फुला-झानों, बिरसा मुंडा, गाया मुंडा, माकी मुंडा जैसे महान क्रांतिकारी उपरोक्त मुल्यों के लिए ही शहिद हुए। और हमारे समय में भी उन्हीं की प्रंेरणा से हम प्रकृतिक संसाधन, समाज, भाषा, संस्कृति को न केवल बचाने बल्कि एक नया समाज बनाने के लिए संघर्षरत हैं।
झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, दलित, मेहनतकश समूदाय का प्रकृति के साथ पिता और पुत्र का रिस्ता रहा है। इन समुदयों का सामाजिक, भाषा-संस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, और इतिहासिक अस्तित्व जल-जंगल-जमीन, नदी-पहाड़ में ही जीवित है और रहेगा। यह समुदाय तब तक ही जीवित रहेगा-जब तक जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा हुआ है। जब आदिवासी -इंडिजिनस सोसाईटी अपने जल-जंगल-जमीन-नदी-पहाड-से उजड़ता है, तो वह सिर्फ अपने जीविका यह घर से नहीं उजड़ता है लेकिन वह अपने माजाजिक मूल्यों, भाषा-संस्कृति, आर्थिक और इतिहास से उजड़ता है। विशव में आदिवासी इतिहास को देखेगें-तो यह साफ हो जाता है कि आदिवासी समूदाय वहीं जीवित रहते जहां जंगल -जमीन-नदी-पहाड-झरना है। इंडिजिनस सोसाईटी प्रकृति के हिसा हैं। एक दूसरे से अलग होकर न तो हम आदिवासी -इंडिजिनस सोसाईटी की कल्पना कर सकते हैं न जंगल-नदी झरना और पहाड़ की। जिस तरह पानी के बिना मच्छली जिंदा नहीं रह सकता है-उसी तरह प्रकृतिक धरोहर के बिना इंडिजिनस सोसाईटी जीवित नहीं रह सकता है।
इस सच्चाई को देखते हुए ही देश के आजादी के बाद भारत देश में अपने नागरिकों के अधिकारों को कानूनी रूप भारतीय संविधान में दर्ज कर रहे थे-तब देश के आदिवासी-मूलवासी बहुल क्षेत्रों को भारतीय संविधान में 5वीं और 6वी अनुसूचि क्षेत्र के रूप में विशेष दर्जा दिया गया। इस कानून में 5वीं अनुसूचि क्षेत्र को अधिकार दिया गया कि-हर गांव -ग्राम सभाएं अपने सीमा क्षेत्र के प्रकृतिक संसाधनों को अपने परंपरागत समुदायिक अधिकार क्षेत्र के तहत जंगल-पानी, जमीन आदि को नियंत्रित और संचालित करेगें। जब भी देश की सरकार को या किसी भी एजेंन्सी को विकास कार्यो के लिए जमीन अधिग्रहण की जरूरत होगी-तब स्थानीय गांव सभा(ग्राम सभा) के सहमति के बिना जमीन अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है।
झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है। इतिहास गवाह है-यह इलाका बीहड़ जंगलों से पटा हुआ था। आदिवासी-मूलवासी किसान समुदाय ने बाध-भालू, सांप -बिच्छु से लड़कर इस राज्य को आबाद किया। यही कारण है कि-झारखंड के आदिवासी समुदाय को अपने आबाद किये इस जमीन-जंगल पर सीएनटी एक्ट 1908 और संताल परगना क’तकारी अधिनियम के तहत जमीन-जंगल रक्षा संबंधित विशेष अधिकार मिला हुआ है। छोटानागपुर कश तकारी अधिनिय और छोटानागपुर क’तकारी अधिनियम में अदिवासियों का जमीन कोई भी बाहरी व्यक्ति यह संस्था अधिग्रहण नहीं कर सकता है। लेकिन आज सरकार, कारपोरेट घराने, लैंड माफिया, सरकार की आदिवासी किसान विरोधी नीतियां और पुलिस-प्रशासन मिल कर इस कानून का वयलेशन कर पूरे राज्य के अदिवासी-मूलवासी किसानों को जमीन विहीन और बेघरबार के दिया जा रहा है।
भूअर्जन कानून 1894 के तहत सरकार जहां चाहती है-मनमानी ढंग से जमीन अधिग्रहण करते आ रही है। इस कानून में प्रावधान धाराएं जो जनहित में है-उसे भी पालन नहीं करती है। आदिवासी -मूलवासी किसानों के हित में दिये प्रावधानों का संशोधण धन कर उसे कंपानियों के लिए के लिए परिर्वतित किया जाता रहा है। इस कारण आजादी के बाद आज तक में झारखं ड में 2 करोड़ से ज्यादा आदिवासी-मूलवासी किसान विस्थापित हो चुके हैं। आज ये विस्थापित कहां हैं? किस हालात में हैं? सरकार या कोई राजनीतिक दल को इसकी कोई चिंता नहीं है। विस्थापित आदिवासी समुदाय आज अपना पहचान खो चूका है। सामाजिक मूल्य और उनकी सामूहिकता पूरी तरह तार तार हो गयी है। आज न तो उनकी भाषा है न ही संस्कृति ही है।
झारखंड राज्य में छोटानागपूर का’तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना का’तकारी अधिनिय, पांवची अनूसूचि और छठवीं अनूसूचि जैसे कानूनों के प्रावधान होते हुए भी राज्य सरकार इन कानूनों का हनन वयलेशन करके आदिवासी-मूलवासी -इंडिजिनस सोसाईटी तथा किसानों का जमीन, जंगल, नदी-पहाड़ को गैर-कानूनी तरीके से कब्जा कर रही है। साथ ही कारपोरेट घराने के हवाले भी कर रही है। सरकार गैर-कानूनी तरीके से किसानों के जंगलों -खेती की उपजाउ जमीन, जलस्त्रोतों को माइनिंग कंपानियों के साथ एमओयू करके हड़प रही है। जहां भी सरकार विकास के नाम पर या कंपानियों के कारखाना या माइंनिग के लिए जमीन अधिग्रहण कर रही है वहां न तो जमीन मालिक से-गांव वालों से या गांव सभा से ने तो पूछ रही है और न ही गांव वालों की सहमति ले रही है। जहां जमीन लेना चाह रही है-पुलिस के बल पर हिंसा और आतंक के सहारे जमीन कब्जा कर रही है।
राज्य बनने के बाद 12 सालों के भीतर राज्य सरकार ने 104 औधोगिक घरानों के साथ एमओयू कर चुकी है। इसमें से 98 प्रतिशत कंपानियां माइनिंग कंपानियां हैं। एक-एक कंपानी को कोयला माइंस, अयरन ओर माइंस, बोक्साइड मांइस, अबरख माइंस, माईका माइंस, पानी के लिए डैम, प्लांट के लिए जमीन, यतायात के लिए जमीन, शहरीकरण के लिए, बाजार के लिए जमीन चाहिए।
यदि सभी कंपानियों को सरकार माइंस के लिए जमीन देती है-तब झारखंड पूरी तरह से पर्यारणविहीन और बंजर भूमिं में तब्दील हो जाएगा। आजादी के बाद आज तक जितना आबादी विस्थापित नहीं हुआ है- उसे चैगुणा आबादी सिर्फ दस वर्षों के भीतर अपने रहवास और जीविका से उजड़ जाएगें।
मानव अधिकार पर चैतरफा हमला हो रहा है। पूरे झारखंड में जल-जंगल-जमीन-पर्यावरण संरक्षण के लिए जनआंदोलन चल रहा है। पूरे देश के किसान आज विस्थापन के आतंक के साये में जी रहे हैं। देश की कल्याणकारी सरकार सरकार उन्हें असामाजिक तत्व, उग्रवादी तथा माओवादी घोषित कर उन पर दर्जनों फाॅल्स केस डाल दिया जा रहा है। केस में फंसा कर उन्हें जेल में डाल दिया जाता हैै।
हमारे पूरखों ने वर्चास्व की संस्कृति को हमेशा से चुनौती दी है क्योंकि आदिवासियों का विशवास कलचरल डायवर्रसिटी एंड पुलुरलिजम में है। हम सभी संस्कृतियों के साम्मान के साथ नया सामाज चाहते हैंं। हमारे देश में इस समय एक संस्कृतिक वर्चस्व का राजनैतिक अभियान जोरो से जारी है। जो एकत्म संस्कृतिक राष्टवाद के नाम पर र्धािर्मक एवं संस्कृतिक अल्पसंख्याकों को खतरे में डाल दिया है। पिछले 20 सालों में भारत का लोकतंत्र बंचित जन समूदायों की हिस्सेदारी का जितना गवाह है -उतना ही वह संस्कृतिक राष्टवाद के अक्रमाण का शिकार है। आइसे से महौल में सेकूलर इंडिया को बचाने में आदिवासी समाज की संस्कृतिक बहुलतावादी दृष्टिटीकोण की अहमियत बढ़ जाती है। हमारा पूरा भारतीय उपमहाद्वीप कटटरता और उदारता के बीच एक निर्णायक लड़ाई लड़ रहा है चुकी यह वही दौर है, जिसमें पूराने समांती मूल्य नव उदारवाद के प्रचार-प्रसार के आधार बनाये जा रहे हेैं यह अजीब बिडंमना है। हमने पिछले दो दशकों में अपने जंगल-जमीन-पानी -समुद्र और नदियों पर बड़े बड़े कारपोरेट घरानों का कब्जा देख रहे हैं। हम यह भी देख रहे हैं कि साप्रदायिक उन्नमाद को इस्तेमाल किस तरह नयी आर्थिक संरचाना को मजबूत बनाने में किया जा रहा है, लेकिन मैं उन सबके प्रति कृतज्ञ हुं जो इस परिघटना के खिलाफ निरंतर संघार्ष कर रहे हैं और इस बात को दस्तक भी दे रहे हैं कि आदिवासी पुरखों ने और बाद में स्वंतत्र संग्राम सेनानीयियों ने जो सपने दिखाये थे। उसके अनुकूल एक नये समाज का निर्माण संभव है। एक ऐसा समाज जहां कोई गैर बरा -बरी और किसी भी तरह के वर्चस्व के लिए जगह नहीं है।
जल-लंगल‘-जमीन की हिफाजत और प्रकृतिक संसाधनों पर जनसमुदाय के समूहिक अधिकार की लड़ाईयां इसी से प्रेरित है। पिछले 20 सालों में कारपोरेट लूट और उसकी हिफाजत के लिए जितनी कार्रवाइयां की गयी है-उससे आंदोलन कमचोर नहीं हुए हैं-बाल्कि और मजबूती से सभी बंचित जन समुदायों को एक साथ एक मंच पर ला रहे हैं। लगभग 100 सालों के संघर्ष के बाद हमारा झारखंड एक प्रात के रूप्प में अस्तित्व में आया तो जंगल झुम उठे थे और मांदर गुंज उठा था। लेकिन हमारो खुशी छनिक साबित हुई। राज्य गठन के मात्र ढंड महिना के बाद ही 30 सालों से जो आंदोलन शांति से कोयल और कारो नदियों के प्रवाह को बचाये रखने की लिए संघर्षरत थां उससे प्रसशनिक आधिकारियों के गोलियों से छलनी कर दिया गया थाा।
कोयल कारो आदिवासियों के लिए केवल नदियां नहीं है-एक संस्कृतिक पहचान है। साथ ही हमारे आजीविका का मूल आधार है। 2 फरवारी 2001 को जब तपकारा में आठ आदिवासी ओर एक मूलवासी को शहित हुए तब हमें एहसास हुआ कि 15 नोवेम्बर 2000 को जिस झारखंड राज्य की नींव डाली गयी है वह हमारे लिए नहीं है। और हमने देखा कि हमारे प्रकृतिक संसाधनों के दोहन और लूट के लिए किस तरह हमारे अस्तित्व के साथ खिलवाड करते हुए हमें चुनौती दी गयी। मैं कहना चाहती हुं कि झारखंड के आदिवासी और मूलवासियों ने सरकार और कारपोरेट की चुनौती को स्वीकार किया और एक इंच भी जमीन नहीं देगें का नारा झारखंड के 33 हजार गांवों में गूंजने लगा। इस आवाज को विभिन्न जनसंगठनों और आदिवासी मूलवासी संगठन ने बुलंद किया।
कोयल कारो परियोजना के तहत डैम बनने से लगभग ढाई लाख आदिवासी-मूलवासी किसान विस्थापित हो जाती। 55 हजार एकड़ कृर्षि भूंमि पानी में डूब जाता। 27 हजार एकड़ जंगल पानी में डूब जाती। 80 से ज्यादा आदिवासी समुदाय के धार्मिक स्थल सरना ससनदीरी जलमग्न हो जाता।
राज्य के दुमका जिला के काठीकुड़ प्रखंड में आरपीजी ग्रुप ने कोयला माइंस के लिए जमीन कब्जा करना शुरू कर दिया। कोयला माइंस के लिए गांव वाले जमीन नहीं देना चाहते हैं-गांव वाले जमीन-जंगल बचाने के लिए कई षर्वों से संघर्षरत हैं। कंपानी कोयला माइंस के साथ ही वहां बिजली उत्पादन के लिए प्लांट बनाना चाहती है। ग्रंामीणों ने कंपानी द्वारा जबरन जमीन अधिग्रहण का विरोध में रैली निकाले। इस रैली पर पुलिस वालों ने फायरिंग किया। घटनास्व्थल पर ही एक साथी मारा गया। दर्जनों घायल हो गये। बाद में एक घायल
साथी मर गया। एक ने पूरी तरह से बिलंग हो गया, एक के दोनों आंख की रोशनी हमेशा के लिए छिन लिया गया।
सरकार ने इस आंदोलन के अगुवा मुनी हांसदा और उनके साथियों पर उग्रवादी होने को झूठा मुकदमा डाल दिया। मुनी हांसदा और उनके साथी 7 महिने तक जेल में रहंंे
2003-4 में साहेबगंज जिलो के पचुवाड़ क्षेत्र में पेेनम कोल माइंस ने कई गांवों को हटा कर किसानों की जमीन जबरन कज्बा करना प्ररंभ कर दिया। गांव वाले विरोध करते रहे। बाद में कंपनी के दलाल, लमीन माफिया, कंपानी वाले पुलिस-प्र’ाासन के सहयोग से गांव की जनता को जबरन उजाड़ फेंका। यही नहीं आंदोलन की अगुवा सिस्टर बालस की हत्या भी कर दी गयी।
राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिला के पोटका प्रखंड में भूसन स्टील प्लांट बैठाने के लिए जबरन गांव वालों का जमीन कब्जा करना प्ररंभ्म किया। गांव वाले शुरू से ही इसका विरोध करते आ रहे हैं। यहां भी आंदोलन का अगुवाई कर रहे दर्जनों माहिला-पुरूषों कई फालस केस कर दिये। कुछ साथी 3 महिनों तक जेल के अंदर बंद रहे।
जिन जिन इलाकों में कंपानियों को सरकार अयरन ओर माइंस के लिए जमीन देने की तैयारी कर रही है-उन इलाके को सरकार माओविस्ट प्रभावित एरिया घोषित कर बेकसूर ग्रामीणों को उग्रवादी होने के जुल्म में जेल में डाल रही है। इन इलाकों में ग्रीणहंट चला कर गांव में सीआरपीफ भर दे रही है। महिलाएं और बचियां बलात्कार की शिकार हो रही हैंं । एक ओर प्रशासन और दूसरी ओर उग्रवादी संगठनों के बीच ग्रामीण पीस रही है।
विकास के नाम पर विस्थापित लगभग 2 करोड़ की आबादी में आधी आबादी महिलाओं की है। आज ये विस्थापित महिलाएं यह तो राज्य से पलायन कर दूसरे राज्यों में रोजी-रोटी के लिए चली गयी हैं, यह फिर महानगरों में आया-जुठन धोनी वाली नौकरानी बन गयी है। कुछ घांस बेच कर एक बेला की रोटी जुगाड़ी में रहती हैं। बच्चियां-युवातियां शिक्षा से पूरी तरह बंचित हैं। 98 प्रतिशत विस्थापित बच्चियां और युवातियां अशिक्षित हैं। 95 महिलाएं एनेमिक की शिकार हैं। 95 प्रतिशत महिलाएं घर विहीन हैं। जानवरों की तरह शहर के गली-कुचे की गंदी नलीयों के किनारे झोपडि़यों में जीवन बसर करने को विवश हैं।
सरकार अपने नागरिकों के प्रती जो संविधानिक जिम्मेवारी था-को पूरी तरह खारिज कर दे रहा है। अब कारपोरेट घरानों को जमीन उपलब्ध कराने के लिए संविधान प्रदत जमीन अधिग्रहण कानून को भी खारिज करके कंपानियों को सीधे तौर पर जमीन बेचने का रास्ता खोल दिया जा रहा है। सभी कंपानियों को साम-दाम-दंड-भेद अपना कर किसानों से जमीन लेने की छूट दी जा रही है। कंपानियां जहां चाह रही हैं-वहां अपना दलाल बैठा कर जमीन लूट रहा है। गांव वाले-जमीन मालिकों के विरोध करने पर उन्हें किसी न किसी फोल्स केस में फंसा कर जेल में डाल दिया जा रहा है।
बोकारो जिला के चंदन क्यारी प्रखंड में हजारों एकड़ जमीन एलेक्ट्रो स्टील ने स्टील प्लांट लगाने के लिए ग्रामीणों को आतंक में रख कर खरीदा। कुछ जमीन मालिकों को जमीन का कीमत मिला, कुछ जमीन मालिकों को कुछ भी नहीं मिला। कंपानी ने हजारों एकड़ जमीन कोयला माइंस के लिए हड़प लिया। जमीन मालिकों से कंपानी के दलालों ने वादा किया कि जमीन का किमत भी देगें और मुवाअजा भी देगें। मुवाअजा में नौकरी भी देगें। कोयला माइंस के लिए कंपनी ने 2005 में जमीन लिया। लेकिन आज तक कंपनी ने किसानों को न तो जमीन का पूरा कीमत ही दिया ना ही नौकरी ही।
खूंटी जिला और गुमला जिला के तोरपा ब्लोक, कमडारा ब्लोक, कर्रा ब्लोक, रनिया ब्लोक के करीब 40 गांवों को उजाड़ कर वि’व का स्टील जैंट आर्सेलर मित्तल 12 मिलियन टन का स्टीन प्लांट लगाना चाहता था। कंपनी ने जमीन लेने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर गांव वालों का जमीन कब्जा करना चाहता था। मित्तल कंपनी द्वारा जबरन जमीन अधिग्रहण के खिलाफ में हम लोगों 2006 से लोगों को गोलबंद कर आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर से आंदोलन करना शुरू कर दिये। 2006 से लगातार दिन-रात अभी तक लंबा संर्घष के बाद हमारा संगठन ने इस इलाके के लाखों आबादी के भविष्य के साथ पर्यावरण को उजड़ने-विस्थापित होने के बचा सके। मित्तल कंपनी के साथ इस इलाके में इस्पात इंडस्टी्र्र भी 8000 एकड़ जमीन स्टील प्लांट के लिए अधिग्रधण करने वाला था। इसके अलावे दर्जनों छोटे औद्योगिक घराने भी इस इलाके में जमीन-जंगल पर कब्जा करने आते।
इन कंपनियों और औद्योगिक घरानों को पानी उपलब्ध कराने के लिए करो नदी में रेहड़गडा गांव के पास एक डैम बनाने का प्रस्ताव था। एक दूसरा डैम कर्रा प्रखंड के छाता नदी में बनाने का प्रस्ताव था। इन डैमों से भी कई दर्जन गांव विस्थापित हो जाते। इस तरह से खूुटी जिला के आदिवासी मूलवासी समुदाय की आधी आबादी विस्थापित हो जाती। रांची के कांके स्थित नगड़ी में सरकार ने फरर्जी तरीके से 227 एकड़ जमीन अधिग्रहण के कागजात तैयार किये। इसी कागजात के आधार पर जमीन अधिग्रहण किये जाने का दावा करती है। लेकिन मैंने जिला भुअर्जन विभाग से आरटीआई से जानकारी मांगी-उसमें साफ लिखा हुआ है कि-1957-58 में नगडी में 153 जमीन मालिक थे। इसमें से 128 किसानों ने जमीन का पैसा लेने से इंकार किया।
सरकार कहती है-रांची बिरसा एग्रीकलचर यूनिर्वसिटी के लिए उत्क जमीन को अधिग्रहण किया गया है। मैने बिरसा एग्रीकलचर यूनिर्वसिटी से इस संबंध में जनकारी मांगी -तो इन्होंने कहा-हमारे पास जमीन अधिग्रहण संबंधी कोई भी जानकारी नहीं है। दूसरी ओर उत्क कृर्षि भूमिं पर सदियों से खेती करते आ रहे हैं-आज भी खेती कर रहे हैं। साथ ही जमीन का जामाबंदी भी सरकार को 2012 तक भुगतान किये हैं। किसाना जमीन नहीं देने का विरोध 1957-58 से ही करते आ रहे हैं। मैं बताना चाहती हुं-हमलोग किसी भी ’िाक्षण संस्थान के विरोध में नहीं हैं सभी संस्थान बने, लेकिन हमारी उपजाउ कृर्षि भूंमि पर नहीं, बंजर भूंमि पर बने ।
आज सरकार जब्रजस्त इस जमीन को पुलिस के बल पर छीन रही है। किसान विरोध कर रहे हैं-तब हम लोगों पर दर्जनों फोलस केस थोपा गया। चार साथियों जुलाई 2012 में जेल में डाला। इसमें दो महिला साथी हैं। इसके बाद मुझे ढाई माह तक फोलस केस में जेल में रखा। गांव की दर्जनों महिलाओं पर दर्जनों फोलस केस है।
सरकार कहती है-विस्थापित होने वालों को मुआवजा दिया जाएगा और साथ ही पूर्नस्थापित एवं पूनर्वासित किया जाएगा। लेकिन सवाल है-कंपनी और सरकार किसका मुआवजा देगें? क्या हमारा शुद्व हवा-शुद्व पानी, शुद्व भोजन, नदी-झरनों, हमारे भाषा-संस्कृति, धर्मिक स्थल सरना-ससन दीरी, हमारा पहचान और इतिहास को पूनस्थापित और पूनर्वासित कर सकता है? नहीं कतई संभाव नहीं हैं। हम आदिवासी समूदाय मानते हैं-हमारा इतिहास, भाषा-संस्कृति, धर्मिक स्थल सरना-ससन दीरी, हमारा पहचान और इतिहास को किसी भी कीमत पर पूनर्वासित नहीं किया जा सकता है-न ही किसी मुआवाजा से भरा जा सकता है।
हम विकास विरोधी नहीं हैं-हम विकास चाहते हैं, लेकिन हमारे कीमत पर नहीं। हम चाहते हैं-हमारे नदी-झरनों का विकास हो। हम चाहते हैं-जंगल-पहाड़, पर्यावरण और कृर्षि का विकास हो। हम चाहते हैं-सामाजिक मूल्यों का विकास, भाषा-संस्कृति का विकास हो। हम चाहते हैं-हमारी पहचान और इतिहास का विकास, चाहते हैं-हर व्यक्ति को सामान शिक्षा और स्वस्थ्य जिंदगी मिले। हम चाहते हैं-प्रदुषित नदियों को प्रदूषण मुक्त हो। बंजर भूमिं को हरियाली में तब्दील करना। हम चाहते हैं-सबको शुद्व हवा, पानी, भोजन मिले। यही है हमारा जनविकास का मोडल।
जिस झारखंडी अवधारना की बात की जा रही थी उसे सत्ता में गये राजनेता तो भूल गये, लकिन जनसंघर्षो ने नया आयाम दिया। तेरह साल के झारखंड में जितने कंपनियों को लाने के लिए प्रयास किये गये हैं उसी तरह प्रकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए उसी तरह से मजबूत और विस्तारित हुई जनता की लड़ाईयों ने झारंखडी आवधारणा को नया प्रोसपेकटिव दिया है। यह प्रोसपेकटिव है आजीविका की आदिवासी जन संस्कृति को प्रगति का नया आधार बनाना। एक एैसे विकास मोडल को गढ़ना जिसमें आदिवासी जीवन सैली की तरह का वैज्ञानिक सोच हो और तकनीक प्रकृति के अनुकूल समन्वाय और सहकार को महत्व दे। इसमें केवल सिर्फ प्रकृति से लेने का सोच न हो और इसमें सर्वाधिक महत्व लोगों विचार के अनुकूल योजनाओं का चयन एवं क्रियान्वयण हो । एैसे समुचित तकनीक का विकास हो जा सहअस्तित्व के सर्वाकालिक मूल्य को गतीशील बनाये। हमारे आदिवासी नृत्य की सैलियां, और गीतों के स्वर-राग-लय और उसकी ध्वानियां इस बात के गवाह है कि सहअस्तित्व के विचार से हमारा गहरा रिस्ता है। हमारे गांव में अब भी जब जंगल से कोई शिकार का कोई उत्सव होता है, और उसमें प्रप्त समग्री केवल आदमी के बीच नहीं लेकिन इंसान और जनवारों के बीच किया जाता है। हम अर्थतंत्र में इस उत्साव के मूल भावना को जीवंत देखना चाहते हैं। यानी वर्तमान अर्थ तंत्र के तौर तरीके को बदल कर एक मानवीय विकास का मोडल खड़ा करना चाहते हैं।
हम जानते हैं कि यह चुनौती मामूली नहीं है, यह हमारे चाह लेने भर से हमारी यह आकांक्षा साकार हो जाएगी एैसा नहीं है, इसलिए हम संस्कृतिक आंदोलन को सामाजिक-आर्थिक आंदोलनों के लहर(वेभ) के रूप में वि’व व्यापी परिघटना(मुवमेंट-ईभेंट) के बतौर देखते हैं। हमारा दृढ़ वि’वास है कि हमारे सपनों की यह दुनिया अब ज्यादा दूर नहीं है।
आप ने मुझे पुरस्कृति किया है इससे में संघर्षसील आदिवासी -मूलवासी किसान समुदाय को समार्पित करती हुं जिसका हिस्सा बनने का गैरव मुझे प्राप्त है। जिनके स्नेह और वि’वास ने मुझे जिंदगी के हर कठीन मोंड पर रास्ता दिखाया है। मैं यहां फिर कहना चाहती हुं-उनके वि’वास और स्नेह को और अधिक पाने की कोशिश करूगीं और जनतंत्रिक लड़ाईयों में गांव-शहर के गरीब-गुरबो-शोषित-बंचितों-मेहनतकशों के साथ कमद से कदम मिला कर आगे बढ़ती रहुंगी।
विशव के तमाम संघर्षसील साथियों को मेरा जोहार
दयामनी बरला