बरसाती पहना आदमी की नियत सही नहीं थी
ग्लोशोप मेमोरियल हाई स्कूल कमडारा से आठवीं पास कर मैं रांची पढ़ने के लिए आयी। क्योंकि रांची में ही मेरी मां पीपी कमपाउंड के एक पंजाबी परिवार में आया का काम करती थी, और मेरा मिझला बड़ा भाई पीपी कमपाउंड में ही एक पजाबी परिवार के आउटहाउस में मजदूरों के साथ रह कर मजदूरी करता था। स्ंात मग्रे्र्रटस बालिका उच्चा विद्यालय चर्च रोड़ में मेरा दखिला 9वीं क्लास में हुआ। रोटी के लिए रांची मेन रोड़ स्थित सुजाता चैक के पुलिस टीओपी में सुबह-शाम वर्तन धोते थे, झाडू लगाते थे। मेरे साथ बड़ा भाई भी पुलिस टीओपी जाते थे। मैं वर्तन धोती थी, दादा टीओपी में झाडु लगाते थे, और मासाला पीसते थे। इसकी मजदूरी महिने में 15 रूपया मिला था। साथ ही जो भी खाना उनका बचता था, उसी से जिंदगी कट रही थी। 9वीं क्लास का किताब, काॅपी, फीस भी देना पड़ता था। रहने के लिए पीपी कंमपांउड के एक पंजाबी परिवार के बागान में बना छोटा सा आउट हाउस ही असियाना बना। खाने-पीने की तंगी के कारण अपने जरूरत की चीजें भी नहीं खरीद पाते थे। हां पढ़ाई लिखाई के लिए किताब-काॅपी का जुगाड़ी कर लेना ही काफी था।
बरसात का समय पहुंच गया था। हमदानों छाता नहीं खरीद सके थे। रिमछिम रिमछिम चार दिनों से लगातार बारिश हो रही थी। मैं अपना किताब-काॅपी एक प्लासटिक में डालकर स्कूल जाती थी। लड़कियां छाता से यह तो बरसाती से बचते स्कूल जाती थी। स्कूल ट्रेस आसमनी रंग का फ्रांक के साथ सफेद दुपटा लगाते थे। मैं पानी से बचने के लिए अपने सिर पर सफेद दुपटा ढांक कर, प्लासटिक में काॅपी किताब दबा कर जाती थी।
दिन भर रिमझिम पानी बरस रहा रहा था , स्कुल छुटटी हुई तब भी पानी बरस ही रहा था। स्कूल से घर जाने के लिए सभी लड़कियां निकलने लगी। मेरे पास छाता नहीं था, लेकिन घर तो जाना ही था। मैं और दिनों की तरह ही अपनी किताब-काॅपी प्लास्टिक में डाली, सिर पर दुपटा डाली और स्कूल से बाहर निकली। चर्च रोड़ में बरनाबस अस्पताल होते हुए गुुगुटोली वाली गली में पहुंचें। गुंगुटोली से बाबूलाइन के लिए दो-तीन घरों को पार करना होता था। जैसे ही बाबूलाइन वाले गली में पहुंची एक बरसाती पहना आदमी मुझको पार करते आगे निकला। सिर पर भी बरसाती टोपी था। बरसाती पहना आदमी बेथेसदा स्क्ूल वाले रोड़ पर आगे आगे जाने लगा। जैसे जैसे बड़ा इमली पेड़ के नजदीक पहुंचने लगा, वह आदमी धीरे-धीरे चलने लगा। मैं उनको पार कर स्कूल के पिछवाडे बड़ा जामुन पेड़ पहुंचने के पहले दहिने लीची बगान की ओर जाने वाले रास्ता पहुंचने के पहले ही उसने मुझे पकड़ कर बलपूर्वक लीचीबगान की ओर लेजाने लगा। मेरा किताब जमीन पर गिर गया। मैं अपनी पूरी ताकत से अपने को छूड़ाने की कोशिश में थी। छटका देकर मैं अपने को छुटा ली। सामने जामुन पेड़ की एक छोटी सूखी डाली गिरा हुआ था। मैने उसे उठा कर उस आदमी को मारने लगी।
पिलर्गल लाईन की लड़कियां स्कूल के सामने के कुंआ से पानी भर रही थी। उन लोगों ने हमदोनों को देखा, उनलोगों को समझ में आ गया कि क्या हो रहा है। तीन-चार लड़कियां पानी भरना छोड़कर हमारे तरफ दौड़ने लगी। लड़कियों को आते देख बरसाती वाला आदमी आगे लीची बागान के रास्ते जाने लगा। लड़कियां आयीं, मैं अपनी किताब जो जमीन पर गिरा पिछे छूट गया था, वापस लौट कर उठायी। लड़कियां मुझ से पूछी, कहां जाना है तुमको? बतायी-पीपी कमपाउंड जाना है। लड़कियां बोली-लेकिन वो तो उसी रास्ता से जा रहा है-खजूर तलाब के रास्ते से। तब लडकियां पूंछीं, अगर मेन रोड़ तक हम लोग तुमको छोड़ देगें तो, घर तक चली जाओगी?
तब सभी लड़कियां मुझ को मेने रोड़ तक पहुंचा दी। तब मैं अपना बाजार वाले रास्ते से मां के बीबीजी के घर तक पहुंची। मां को सारी बात बतायी। मां-इसीलिए तुम अकेले मत आना करो कहती हुं। आगे से तुम अकेले नहीं आना।
मैं प्रतिदिन इसी रास्ते से स्कूल आती -जाती थी। इस घटना के बाद मां अपने दाई साथियों से पता लगायी की, कि इधर से कौन-कौन लड़कियां संत माग्रेटस हाई स्क्ूल जाती हैं। पता चला दो आदिवासी लड़कियां हिंदपीड़ी की जाती हैं। तब उन दोनों से मुझको मिला दिये और एक साथ स्कूल आने जाने लगे।
आज भी इस जामुन पेड़ को देखकर, पेड़ से गिरे सुखी टहनियों को देखकर हिम्मत बढ़ता है। कुंआ में पानी भरते लोगों को देखती हुं-तो वहीं लड़कियां याद आती हैं। महेशा मन ही मन उन लड़कियांे को धन्याबाद देती हंु और उनके कुशलता की कामना करती हुं। लड़कियों ने मुझे नयी जिंदगी दी।
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