15 नवंबर 1875 देश के इतिहास के कालेंडर में एक महत्वपूर्ण दिन है। भारत देश अंग्रेज हूकुमत के सिकांजे में जकड़ा, अजादी के लिए छटपटा रहा था। देश की आजादी का विगुंल फुंकने की तैयारी देश के अन्य क्षेत्रों में चल रही थी। एैसे समय में छोटनागापुर की धरती अंग्रेजों shosk -शासकों से मुक्ति के नागाड़ा से डोल रहा था। संताल परगना क्षेत्र में संताल आदिवासियों ने 1700 के दशक से ही अंग्रेज हूकुमत के खिलाफ हूल का बिंगुल फूंक चुके थे। समझौताविहीन और शहादती संर्घष का परच संतालियों ने सिद्धू-कान्हु, तिलका मांझी, फूलो-झानो के नेतृत्व में 30 जून 1856 को भोगनाडीह में हूल का इतिहास रचा। यह समुहिक जनचेतना की हूल था-जो जंगल-जमीन -पानी, ऩदी-पहाड़, गांव समाज बचाने की लड़ाई थी। 30 जून को 10,000 के लगभग संताल आदिवासीयों को अंग्रेज सैनिकों ने गोलियों से भून दिया था। इसके बाद आदिवासी आंदोलनों ने इतिहास दर इतिहास रचा। 1800 के दषक में आदिवासी हो समाज ने सिंदराय-बिंदराय के अगुवाई में अंगें्रजो के खिलाफ भोगनाडीह इलाके में जले मषाल को छोटानागपुर के हो-मुंडा इलाकों में फैलाते गये। इसी बीच मुंडा इलाके में वर्तमान खूंटी जिला के मुरूह ूप्रखंड के उलिहातु गांव में 15 नवंबर 1875 को सुगना मुंडा के घर बिरसा का जन्म हुआ। शारीर और चेतना के साथ बिरसा का विकास होता गया। अंग्रेजों का जूुल्म-जंगल-जमीन, नदी-पहाड़, गांव पर अग्रेंजों और जमींदारों द्वारा जबरजस्त कब्जा से पूरा आदिवासी इलाका रक्तरंजित हो गया था। युवा बिरसा आंदोलनरत मुंडा समुदाय का झंण्डा थाम लिया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व पूरा मुंडा इलाका उलगुलान के नागाड़ा से डोल रहा था। तब तक बिरसा मुंडा लड़ते रहे जब तक अंग्रेज सैनिकों ने बिरसा को पकड़ कर जेल में बंद नहीं किया। आज हमें अपना इस महान इतिहास को आगे ले जाने की जरूरत है। आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच ने तय किया की-हम सिर्फ विस्थापन के खिलाफ संघर्ष नहीं कर रहे हैं-बल्कि हमारी लड़ाई-हमारा इतिहास, भाषा-संस्कृति बचाने की लड़ाई है। इसी निर्णय के साथ मंच 2010 से ही बिरसा जयंती मनाने का निर्णय लिया और लगातार मानते जो रहा है।
आपके तेवर को सलाम!
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