Monday, November 7, 2011

गुलामी की नीति को हम किसी भी कीमत में स्वीकार नहीं कर सकते-हम प्रतिबद्व हैं-अपने सामाजिक, मानवीय, पर्यावरणीय, सामुदायिक धरोहर की रक्षा के लिए-लड़ेगे

दयामनी बरला
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच
खूंटी-gumla
4-6 nov. 2011 think.gowa -.me maine yah baat rakhi..

विश्व में आदिवासियों का पहचान-जल-जंगल-जमीन-पर्यावरण के साथ इनका जीवंत संबंध में है। जंगल, जमीन, नदी-पहाड़, झरना, माटी आदिवासी समाज के लिए -संपति नहीं-बल्कि धरोहर है। विश्व का इतिहास गवाह है-जब तक आदिवासी-जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा हुआ है-वह आदिवासी है। इसे अलग होकर आदिवासी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है-ना ही जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण की ही कल्पना की जा सकती है। प्रकृति और आदिवासी समाज एक दूसरे के ताना-बाना हैं। हमारी भाषा-संस्कृति, नदियों में बहता पानी, आकाश में मंडरते बादल, प्रकृति की गोद में उगे -घांस, फूस, फूल-पता, और आकाश में उड़ते चिडियों की चहक के साथ ही फूल-फल और विकसित हो सकता है। विश्व का सभ्यता और संस्कृतिक विकास का इतिहास गवाह है-देश के जिस भी हिस्से में आदिवासी बसे -घने जंगज-झाड़ का सांप, बिच्छु,, बाघ-भालू से लड़कर आबाद किये। रहने लायक गांव बसाये, खेती-किसानी को आगे बढ़ाये। 6 माह खेतों में अन्न पैदा करके खुद भी खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं। 6 माह प्रकृति खुद इसे स्वंय-वनोपज से खिलाती है। दोनों के बीच माॅ और बेटा का रिस्ता है। यह दशकों से हमें पुस्त दर पुस्त हमें जीवन देता आया है और आगे भी देता रहेगा।
यही कारण है कि देश के किसी भी हिस्से में इनके हाथ से जंगल-जमीन छिनने की कोशीश की गयी-आदिवासियों ने हमेशा विद्रोह किया। आज भी यह जारी है। आदिवासियों के संघर्ष को को झारखंड से लेकर विश्व स्तर में देखे- इसके पीछे जल-जंगल-जमीन समुदाय के हाथ से छिनना-कब्जा करना, ही रहा है। जब अंग्रेज अमेरिका में आदिवासियों के हाथ से जंगल-जमीन छीन कर , उस पर कब्जा कर रहे थे. आदिवासियों से बोल रहे थे- उन्होंने आदिवासी नेता- lard shiyatel se bole..tumhara jangal-jamin ke badle ham tum ko paisa denge...ise tum chhod do.tab lard shiyatel ne angrejon se kaha tha- था-हम अपनी man का सौदा कैसे बेच सकते हैं, हम sudh हवा, पानी, सूरज की रोshनी, समुद्र के लहरों को कैसे, jangal ki hariyali ko kaise बेच सकते हैं। यह कतई संभव नहीं है।
आज wishw के पूंजिपति हमारा पानी, जंगल, गांव, झारना, खेत-खलिहान, नदियों से मुनाफा कमाने के लिए आंखे गड़ाये हुए हैं। सभी अपना पूंजि हमारे धरोहर का दोहन करने के लिए निवेsh करने की होड़ में हैं। राज्य गठन के दस सालों में राज्य और केंन्द्र सरकार ने 104 से अधिक कंपनियों के साथ एमओयू साईन किया है। प्रत्येक कंपनी को अपना उद्योग चलाने के लिए-कारखाना के लिए जमीन, पावर प्लांट के लिए जीम, अयरन ओर माइंस, कोल मांइस, पानी के लिए डैम, taunship , बाजार, आवागमन-रेल सेवा, संड़क सेवा आदि के लिए जमीन चाहिए। इस तरह से प्रत्येक कंपनी को विभिन्न स्ट्राकचर-बुनीयादी व्यवस्थाओं के लिए विभिन्न इलाकों में 50-60 हजार हेक्टेयर जमीन चाहिए। यदि 104 कंपनियों को जमीन उपलब्ध कराया जाए-तो झारखंड के किसानों, आदिवासियों, मूलवासियों के हाथ एक इंच भी जमीन-जंगल नहीं बच पाएगा। तब सवाल है-आखिर विकास किसका?

आजादी के बाद आज तक सिर्फ झारखंड में विभिन्न विकास योजनाओं से 2 करोड़ से अधिक आदिवासी, मूलवासी, किसाने, मच्छुवारे अपने धरोहर से विस्थापित हो चुके हैं। 1956 में रांची जिला में एचईसी से 30 गांव के 32 हजार लोग विस्थापत हुए। 1957 -58 में बोकारो स्टील प्लांट से 40 हजार लोग विस्थापित हुए। 1956 में बोकारो के तेनुघाट डैम से 84 गांवों के लोग विस्थापित किये गये। 1986 में चांडिल डैम से 86 मौजा-गांवो के 75 हजार लोग विस्थापित हुए । jamshedpur स्थित यूसीआईएल कंपनी से राखा मांइस, बदुहुरांग मांइस, तुराडीह माइंस से लाखों आबादी उजड़ गयी। टाटा कंपनी से लाखों उजड़ें। इसी तरह कोल माइंस-की दर्जनों इकाईयों के सौंकड़ो कोयला खदानों से लाखों परिवार उजड़े और उजड़ते जा रहे हैं। इन 2 करोड़ विस्थापितों में से mushkil से 4-5 pratishat को किसी तरह से पूनर्वासित किया गया है। बाकी कहां किस हाल में हैं, जिंदा हैं यह नहीं। इसकी जानकारी ना तो सरकारी अधिकारियों के पास है, ना राजनेताओं या मत्री-विधायकों के पास। सरकार इसके पुनार्वास की बात भी नहीं करना चाहती। यही स्थिति पूरे देsh की है। अभी जो भूमि अधिग्रहण, पुर्नावासन और पुर्नाअस्थापन बिल 2011 आ रही है-इसमें पूर्व में हुए विस्थापितों के बारे एक shब्द भी नहीं कहा गया है। विस्थापितों को इस बिल में कहीं जगह नहीं दिया गया। यह नीति पूरी तरह से जनविरोधी है। यह सिर्फ किसानों को लुभाने और उनसे जमीन छीनने का एक मात्र हथियार है।

किसी मुआवजा से भरा नहीं जा सकता-ना ही पूनार्वासित और पूनर्वाअस्थपन भी संभव नहीं है---
आज पूरे राज्य में आदिवासी, मुलवासी , किसान अपना गांव, नदी-पहाड़, जंगल, जमीन, खेत-खलिहान बचाने के लिए संघर्षरत हैं। सरकार कहती है-पूनर्वास करनेगें, अच्छा मुआवजा देगें-लेकिन हमारा भाषा-संस्कृति, इतिहास-पहचान, पर्यावरण, shudh हवा, shudh पानी-नदी, झरना, अखड़ा, सरना-ससन दिरी को किसी तरह पूनर्वासित नहीं किया जा सकता है, ना ही किसी मुआवजा से भरा जा सकता है। हम विकास विरोधी नहीं हैं-हमें विकास चाहिए-हमारा भाषा-सस्कृति, इतिहास-पहचान, जंगल-जमीन, नदी-झरनों के साथ हम विकसित होना चाहते हैं। कृर्षि का विकास, पर्यावरण का विकास, सामाजिक मूल्यों का विकास, मानवीय मूल्यों का विकास ही देsh को स्थायी विकास का मोडल दे सकता है।

सरकार देsh में भूमिं अधिग्रहण, पूर्नावासन और पूनास्थपना नीति 2011 ला रही हैं-यह देsh के आदिवासी, मूलवासी, किसान, मजदूर, mehnatkashon के लिए एक मीठा जहर है। इस समुदाय को अहिस्ते अहिस्ते जड़ से खत्म करने की साजिsh है। यही कारण है-हमारे देsh की कल्याणकारी सरकार अब अपने नागरिकों के कल्याण तो दूर लेकिन इनके प्रति अपनी उत्तरदायित्व की भूमिका भी खत्म करना चाहती है। यह सरकार द्वारा लायी जा रही- भूमिं अधिग्रहण, पूर्नावासन और पूनास्थपना नीति गवाह है। इसमें कहा गया है-अब कारेपोरेट घराने सीधे किसानों से जहां कहीं भी जमीन खरीदना चाहें-सीधे रेयातों से 100 प्रतिshat जमीन खरीद सकते हैं। इसमें सरकार पूर्ण सहयोग करेगी। इसी कानून में कहा गया है-जहां कारपोरेट घराने 100 प्रतिshat जमीन रखीदेगें-वहां पूनर्वासन और पूनर्वास्थापन नीति लागू नहीं होगा।

देsh के हर राज्यों में दर्जनों स्पेshal एकाॅनामिक जोन बनाने का प्रयास सरकारkar रही है। इसके विरोध में देsh की जनता आवाज बुलंद किये हुए है। यह योजना सिर्फ औद्योगिक घरोनों को विकासित करने के लिए है। देsh के किसान, आदिवासी, मूलवासी, मच्छुवारे, मेहनतकsh इसका कड़ा विरोध करती है। सरकारी और उद्योग घराने कहते हैं-जमीन देने वाले हर विस्थापत परिवार से एक को नौकरी दिया जाएगा। हम प्रकृति के साथ जीने वाले कोई भी बेराजगार नहीं हैं। कृर्षि प्रधान समाज में छोटा बच्चा से लेकर 80 साल के बुर्जों का भी परिवार में और समाज में मुख्य भूमिंका होती है। प्रकृति हमें पीढ़ी दर पीढ़ी खिलाते आ रही है, पूरा समाज को, और तब तक हमारी अगली पीढ़ी भी इसी के साथ जीता रहेगा-जब तक वो प्रकृति के साथ है। तब सरकार या कंपनियों द्वारा एक नौकरी देने की बात हस्यस्पद ही होगा। ,

आज पूर देsh में कारपोरेट घरानो कों आदिवासी, मूलवासी, किसानों से साम, दाम, दंण्ड़, भेद अपना कर जंगल-जमीन-पानी पर कब्जा जमाने के छुट दे दी है। 14 मई 2010 को अंध्रपेदेsh के shrikakulam में नागारजुन कंपनी के गुड़ों द्वारा अपने विरासत की रक्षा का आवाज बुलंद करने वालों पर लाठी और गोलियां चलायी गयी। जिसमें तीन किसान मारे गये। झारंखड के दुमका जिला के अमरापड़ा में आरपीजी ग्रूप के लिए जमीन अधिग्रहण करने के लिए जनआंदोलन को दबाने की कोshish में 6 दिसंबर 2008 को आंदीलनकारियों पर गोलियां चलायी गयी। जिसमें अब तब तीन लोग मरे गये हैं। दो लोग अपंग की जिंदगी जी रहे हैं। देsh भर में आदिवासी किसानों के आंदोलनों को बंदूक की गोलियों से दबाने का काम किया जा रहा है।

झारखंड में -सरांडा जंगल में ग्रीण हंट का सच- झारखंड का इतिहासिक जंगल, जो साल के पेड़ो से पटा हुआ है। इस इलाके में 34 आदिवासी गांव हैं। सरकार इसी क्षेत्र में जिंदल स्टील, टाटा स्टील, एस्सार इस्पात, मित्तल कंपनी को अयरान ओर माइंस के लिए जमीन देने की योजना बनायी है। इसके लिए सरकार पहले गांव को खाली कराना चाहती है। इसी योजना के तहत-वहां उग्रवादियों के खत्म करने के नाम पर bishesh अभियान चला रही है। दुखत बात है-सरकार द्वारा भेजी गयी-सैनिक बल भाले-भाले आदिवासियों को उग्रवादियों के संबंध रखने के नाम पर प्रताडित कर रही हैं। अभियान में लगी सीआरपी निर्दोषों को मार कर फरजी मुकाबला में मौत करार रही है। जब कि राज्य के आईजी की रिर्पोट ने स्वकारा है कि-मंगल होन हागा और सोमा मुंडा को पुलिस ने जान बुझ कर मारा है। इस तरह के कई घटनाऐ ग्रीणहंट के नाम पर हो रही हैं।

graminon को 100 दिन रोजगार उपलब्ध कराने के नाम से 2006 से देsh में मनरेगा योजना चलायी जा रही है। इसका 95 योजना भ्रष्टाचार का बलि चढ़ चुका है। सिंचाई के नाम पर तलाब, कुंआ योजना 98 pratishat विफल है। किसान जहां खेती करते थे-वो जमीन आज न तो खेती करने लायक रहे गया, ना ही वहां, कुंआ और तालाब ही बना। प्रखंड कार्यालय से लेकर, जिला के आला-अधिकारियों, नेता-मंत्री इस लूट में shamil हैं। ग्रामीणों ने जो काम मनरेगा योजना में 2008, 9, 10 में किये हैं-आत तक भुगतान नहीं किया गया। मनरेगा योजना भ्रष्टाचार का घर बन गया है। मैंने गुमला जिला, रांची जिला, सिमडेगा जिला के कई प्रखंड का जमीनी अध्ययन किया है। कागजों में रोड़, कुंआ, तलाब तैयार हो गये हैं-जमीन में ये लपता है।

वनअधिकार कानून 2006-आदिवासियों के लिए सिर्फ हांथी के दांत ही साबित हुए। कानून बनने 6 साल हो गये। आज तक ग्रामीण इलाकों के किसान, आदिवासियों को इसकी सही जानकारी नहीं। जहां जानकारी है-किसान 4 एकड़ जंगल पर दावा पत्र भर रहा है, जो इनके जोत में, दshकों से इनके जोत-कोड़ में है, उसे आंचल कार्यालय और वन विभाग मात्र 2 डिसमिल जंगल का पटा दे रहे हैं। अधिकारी तर्क दे रहे हैं-कि बाकी जमीन सरकारी है। मैंने इस संबंध में गुमला जिला के बसिया और कमडारा प्रखंड, खूंटी जिला के कर्रा, रनिया और तोरपा प्रखंड अध्ययन किया है।
यह कानून 5वीं अनुसूचि क्षेत्र के ग्राम सभाओं को मिले परंपारिक जगल अधिकार को पूरी तरह से खारिज कर रहा है।

झारखंड में आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन संबंधित वि’ोष कानून हैं छोटानागपुर kastkari आधिनियम 1908 और संताल परगाना का’ताकरी अधिनियम । इन दोनों कानून को खारिज करते हुए सरकार आदिवासियो के जमीन, जंगल को पूंजिपतियों को देने के लिए एमओयू कर रही है। जिन इलाके के आदिवासियों के जमीन -जंगल-पानी को अध्रिहण के लिए एमओयू के पहले जमीन मालिकों से न तो सहमति ली जा रही है, ना ही इन्हें बाताया जाता है। एमओयू के बाद उद्वोगपति सीधे गांव को साम-दाम-दंड भेद अपना कर खाली करवा रही हैं। यह कारईवई सिर्फ अलोकतंत्रिक ही नहीं -बल्कि भारतीय लोकतंत्र की हत्या ही मानी जाएगी।

नीजि कंपनियां, ठेकेदार, दलाल, माफिया, और अपराधिक राजनीतिक गांठजोड़ तंत्रों का राज --झारखंड के बोकारो जिला में एलेक्टो्र स्टील ने 2005 में किसानों से जमीन सीधे कंपनी ने माफिया, ठेकेदार और दलालों का लगाकर -साम, दाम, दंड भेद की नीति अपनाकर जमीन खरीदे। किसानों को कहा गया-नौकरी देगें, मुआवजा देगें, जमीन का कीमत भी देगें। जमीन स्टील प्लांट और कोयला खदान के लिये खरीदा। कोयला स्टील प्लांट चलाने के लिए दिया गया था। चैंकाने वाली बात तो यह है-2007 से ही कंपनी कोयला निकालकर बेच रही है। जबकि स्टील प्लांट अभी बनने के क्रम में है। उत्पादन suru करने में अभी और एक -दो साल लगेगा। दोनों जगह जमीन मालिकों को छला गया। कैड़ी के भाव जमीन हड़प लिया दलालों ने और कंपनी को भारी कीमत लेकर सौप दिये। आज जमीन मालिक के हाथ में ना तो नौकरी है, ना जमीन का पैसा, न ही मुआवजा ही।
कारपोरेट लूट-खनिज संसाधनों को बढ़ावा-राज्य और केंन्द्र सरकार ने पूंजीपितयों को प्रकृतिक संसाधनों की लूटने की छूट दे रखे हैं। सरकार प्रतिदिन किसी न किसी औधोगिक घराने के साथ एमओयू कर रही है। सर्वविदित है कि हर एमओयू-के पीछे करोड़ों पीसी का डिलिंग है। माइंस के कारण पूरा धरती खोखला किया जा रहा है। जल-जंगल-जमीन पर पूरी तरह पूंजिपतियों का कब्जा हो रहा है। एक ओर- भारत सहित wishw के औधीगिक घरानों की अमीरी गिनाई जाती है। कि कौन कितना आरब डाॅलर का मालिक है। किसी का अमीर होना बुरा नहीं है-

लेकिन जिनका खेत-खलिहान, गांव-संसार उजाड़ कर उद्योग- व्यवसाय चला रहे हैं-वो क्यों भूखे मर रहा है, वो क्यों बेघर है ? उनके बच्चे क्यों asikchhit हैं? वो क्यों बेरोजगार हैं? इलाज के अभाव में बेमौत क्यों मर रहे हैं? वो बंधुवा मजदूर क्यों बनते जा रहे हैं? आज देsh में आदिवासी-मूलवासी किसानों की संख्या क्यों दिन-दिन घटते जा रही है? जबकि दूसरों की आबादी तेजी से बढ़ते जा रही है? वो बुंद बुंद पानी के लिए क्यों तरस रहे हैं? यह देsh के लिए सबसे अहम सवाल है। इन सवालों का जवाब खोजे -बिना औधोगिकीकरण को विकास का मापदंण्ड बताना देsh से इस समुदाय को खत्म करने की साजिsh मात्र है ।

भारतीय संविधान में प्रवधान आदिवासी-मूलवासी-किसानों के लिए भारतीय संविधान में प्रवधान bishesh अधिकार संबंधित कानूनों को खारीज कर पूंजिपतियों को स्थापित करने विकसित करने के लिए सरकार दर्जनों नीतियां बना रहीं हैं-लेकिन राज्य सहित देsh के आदिवासियों, मुलवासियों, किसानों के हक-अधिकारों की रक्षा, इनके जल-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़, पर्यारण का संरक्षण-विकसित करने, इनके भाषा-संस्कृति को विकसित करने की कोई नीति बनाना नहीं चाहती है। आखिर क्यों?

झारखं डमें दर्जनों बड़े बड़े डैम बनाये गये। लाखों परिवार विस्थापति हुए। आज इन विस्थापितों को एक बुद पानी नसीब नही हो रहा है। पानी किसानों के खेतों में पहंुचना चाहिए था। लेकिन पहुंच रहा है-कारखाना में, खदानों में, पूजिंपतियों के व्यवसायिक संस्थाओं में। और किसानों के खेत सूख रहे हैं। इस तरह का विकास अब हमें किसी भी कीमत में नहीं चाहिए। जंगल-पर्यावरण -सामुदायिक धरोहर है-समुदाय के जीविका का-आधार है-इसे मुनाफा कमाने वालों के हाथों सौंप कर स्थानीय समुदाय-समाज को कंगाल बना दिया जा रहा है। दूसरी ओर हमें कोमोनिटि राईट का पाठ पढ़ाया जाता है, यह सिर्फ हमारे प्रकृतिक संसाधनों को लूटने का एक मात्र हथकंडा है।

तमाम जिंदा नदियों को मार-मृत दिया जा रहा है। इसका उदाहरण-झारखंड का जीवन रेखा मानी जानी वाली दमोदर नदी है। अत्यधिक औधोगिकीकरण, माइंस, कोल बसरियों के कारण आज दमोदर नदी का पानी न तो किसी इंसान के पीने के लायक है, ना जानवर के, ना ही खेती-किसानी के उपयोग लायक है, ना नहाने-धाने लायक ही रह गया है। दमोदर नदी की तमाम सहायक नदियां भी पूरी तरह प्रदूषि हो गयी हैं। यही नहीं पूरे के सभी जलस्त्रोत सुख गये हैं।

प्रदूषण की मार झेलता-पर्यावरण-जलवायु के नाम पर झारंखड कभी shimla माना जाता था। हर साल गर्मी के दिनों में यहां लाखों लोग यहां के sheetalta का आनंद लेने आते थे। प्रकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन, माइंस, औधोगिकीकरण के जंगलों को सफाया, जलस्त्रोंतो के प्रदुषित होने से अब यहां 52 डिग्री selsiyash tapman रहता है। परिणामता-झारखंड ही नहीं देsh को हर वर्ष सुखा का dansh झेलना पड़ रहा है। जंगलों पर प्रतिकूल असर के कारण अब वनोपज दिन-दिन कम होता जा रहा है। पेड़-पौधे मर रहे हैं। फलदार वृक्षों में फूल-फल नहीं लग रहें हैं। लाह आदि मर रहे हैं।

वै’िवक पूंजि और बाजार आधारित विकास ने हमारा इतिहास, भाषा-सस्कृति, इतिहास-पहचान, जंगल-जमीन, कृर्षि, जलस्त्रोत का विनाsh किया है। हमारा परंपारिक जीविका के तमाम आधारों को नष्ट कर हमें बाजार आधारित जिंदगी थमा कर पंगु-लकवा बना दे रहा है। अब हम जीने के लिए पूंजि बाजार के लाभ-हानि के बीच अपनी एक बेला की रोटी जुगाड़ करने के लिए मोटिया मजदूर, सफाई कर्ता, बंधुवा मजदूर बनने का baishakhi थमा दिया जा रहा है।

कल तक हम आदिवासी-मलवासी, किसान पर्यावरण, जंगल, कृर्षि, स्वच्छ जलसंसाधनों, , मानवीय मूल्यों के मालिक थे-बाजार का गुलाम बनाने की koshish की जा रही है। सरकार और कारपोरेट घरानों की-इस विनाshक और गुलामी की नीति को हम किसी भी कीमत में स्वीकार नहीं कर सकते-हम प्रतिबद्व हैं-अपने सामाजिक, मानवीय, पर्यावरणीय, सामुदायिक धरोहर की रक्षा के लिए-लड़ेगे और जीतेगें।

2 comments:

  1. लड़ेगे और जीतेगें।

    ReplyDelete
  2. हम बिकाऊ नहीं हैं/ हमें कोई भी मजबूर नहीं कर सकता हमें खरीदने के लिए/ जो राज्य हमारे साथ करने जा रहा है वो टिकाऊ विकास नहीं है और टिकाऊ विकास क्या होता है हम इन्हें बताएँगे/ बहुत जल्द हम इन्हें अपने मॉडल ऑफ़ डेवेलोपमेंट पर कम करने के लिए मजबूर करेंगे/ थोडा बहुत पढने और गणित सीख लेने के बाद इन्हें लगता है की देश का विकास कैसे किया जाये सिर्फ इन्हें आता है/ हम इन्हें जल्द ही चुनौती देंगे...............दीदी हम आपके साथ हैं.......

    ReplyDelete