Monday, August 10, 2020

आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी।

 9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी 

अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसे समय में विश्व के आदिवासी, मुलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित, बंचित सामुदाय को,  अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्वीक गोलबंदी की भी जरूरत है। 




इसी सोच के साथ  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने आदिवासियों के हित रक्षा के लिए एक कार्यदल गठित किया था जिसकी बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। उसी के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सदस्य देशों को प्रतिवर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की। आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी। संकल्प लेना होगा, कि नीजि स्वर्थ से उपर उठ कर आदिवासी, मुलवासी समाज के अधिकारो की रक्षा के लिए हम सामाजिक एकता को मजबूत करेगें, इसके लिए बचनबद्व हैं। दुनिया के आदिवासी एक हों, के साथ भारत के आदिवासी एक हो का नारा बुलंद करने की जरूरत है। पहले तो अपनी जड़ को मजबूत करना चाहिए, इसके लिए झारखंड के आदिवासी, मुलवासी सहित प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े सभी सामुदाय को एक होना होगा।  संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने महसूस किया था कि-ग्लोबल शक्ति के हमले के खिलाफ, विश्व के आदिवासी, मूलवासी सामुदाय को एक होना होगा। इसीलिए 9 अगस्त को पूरे विश्व में आदिवासी दिवस मनाते हैं। 

आदिवासी दिवस के अवसर पर संविधान में प्रावधान अधिकारों का मूल्यंकन करना होगा, आज इसकी क्या स्थिति है। देश के संदर्भ में देखें तो, 5वीं अनुसूचि, 6वीं अनुसूचि में प्रावधान अधिकार, पेसा कानून में प्रावधान अधिकार, वनअधिकार कानून, सूचना अधिकार कानून, राईट टू एजेकेशन, स्वास्थ्य का अधिकार सहित अन्य अधिकारों की  जमीनी हकिकत क्या है, जिनके लिए यह कानून बना, उन्हें इसका लाभ मिला या नहीं?। झारखंड के संदर्भ में, सीएनटी, एपीटी एक्ट, ग्राम सभा के अधिकार, कोल्हान में ़़़़़.विलकिनशन रूल., मुडारी खूंटीकटी अधिकार की जमीनी स्थिति क्या है? सामाजिक, आर्थिक सामानता के लिए कमजोर समुदाय के लिए विभिन्न स्तर पर आरक्षित अधिकारों का क्या हुआ? इसकी समीक्षा करने की जरूरत है।

जमीन संबंधित अधिकारों पर लगातार केंन्द्र और राज्य सरकार कारपोरेट हित में संशोधन करते जा रहा है। पिछली राज्य सरकार ने ग्राम सभा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सामुदायिक झाड-जंगल, झाड़ी सहित सभी गैरमजरूआ आम और खास जमीन को कारपोरेट निवेश के लिए भूमि बैंक में एकत्रित किया है। इसके लिए ग्राम सभा से किसी तरह की सहमति नही ली गयी। जो आदिवासी, मूलवासी अधिकार पर सीधा हमला है। पांचवी अनुसूचि, सीएनटी, एसपीटी एक्ट, वन अधकार कानूून सहित सभी परंपरागत अधिकारों में गांव के भीतर की सभी जमीन, जंगल पर सामुदाय का परंपरागत अधिकार है। आज जगल,जमीन के साथ सभी जल स्त्रोतों पर समाज का अधिकार खत्म कर दिया जा रहा है। 





आदिवासी जनसंख्या लगातार घटते जा रहा है। जो ंिचता का विषाय है। देश में 130 करोड की आबादी में आदिवासी जनसंख्या 8.6 प्रतिशत है याने 10 करोड़ लगभग है। राज्य में 32 आदिवासी समुदाय हैं (अनुसूचित जनजातियां) और 22 अनुसूचित जातियां हैं। 2011 के जनणना के अनुसार झारखंड की 3,29,88,134 हंै। इसमें आदिवासी आबादी 86,45,042 है, जो 26.2 प्रतिशत है।  राज्य में आदिवासी आबादी घटने का मुल कारण विकास के नाम पर हो रहा विस्थापन और पलायन। बड़े परियोजनाओं से एक करोड़ से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है, साथ ही शहरीकरण से भी भारी विस्थापन हो रहा है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव राज्य के आदिवासी सामुदाय के सामाजिक, आर्थिक सहित तमाम अधिकार पर पड़ रहा है। यह आदिवासी सामुदाय के लिए चिंता बढ़ाने वाला है। 

आदिवासी दिवस में सभी एक मंच में आ तो जाते हैं, लेकिन यह पहल स्थायी नहीं पाता है। आज समाज, धर्म और राजनीतिक रूप से सामुदाय कई टुकड़ों में बांटा हुआ है। हमारी कमजोरी अगले के लिए ताकत साबित हो रहा है। इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि, जब तक समाज संगठति हैं, सामूहिक ताकत है, तभी हमारी पहचान भी है। यही संगठित ताकत झारखंड को, अपने सपनों का झारखंड के नवनिर्माण के दिशा में आगे बढ़ा सकती है। नीजि इच्छा के सामने क्या समाज, और राज्य के मुददे सर्वोपरी हो सकते हैं, क्या इस चुनौति को हम स्वीकार कर सकते हैं? यही चुनौती हमें आदिवासियों के सामाजिक, भाषा, सास्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्तित्व की नींव को मजबूती दे सकता है, जो सिद्वू, कान्हु, सिंदराय, बिंदराय, तिलका मांझी, वीर बुद्वु भगत, तेलेंगा खाडिया, बिरसा मुंडा और जतरा टाना भगत के समझौताविहिन शहादती इतिहास के नीवं को हिलाने नहीं देगा।

                                      दयामनी बरला


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