आज पूरे झारखंड के ग्रामीण-किसानों के उपर विस्थापन का तलवार लटक रहा है। इसे न सिर्फ किसानों का अस्तित्व संटक में है बाल्कि झारखंड का पर्यावरण, जैविक-विधिता, सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना, भौगोलिक संरचना सभी के उपर विनाश का बादल मंडरा रहा है। राज्य में 13 साल के भीतर करीब 104 देशी और विदेशी कंपनियों के साथ यहां उद्वोग लगाने के लिए राज्य सरकार ने एकरारनामा किया। इन कंपनियों में से 98 प्रति’ात कंपनियां सिर्फ स्टील उत्पदाक हैं। सभी कंपनियों को अपना व्यवसाय को बढ़ाने के लिए सैंकड़ो एकड़ जमीन चाहिए। नदियों, का झरनों का और धरती के नीचे का पानी भी कंपनियों को चाहिए। जंगल-झाड सभी उन्हें चाहिए। तब यहां सवाल उठता है-क्या झारखंड का अस्तिव्त बच पाएगा? आदिवासी-मूलवासी किसान बच पाऐगें? क्या आदिवासी सामाज की संस्कृतिक विरासत बच पाऐगी? यहां का पर्यावरण बच पाऐगा? क्या यहां की कृर्षि भूंमि रहेगी? यह एक अहम सवाल है
आजादी के बाद गुजरे इन 65 सालों में विकास के नाम पर स्थापित विभिन्न परियोजनाओं की वजह से 2 करोड़ से अधिक झारखंडी आदिवासी-मूलवासी विस्थापित हो चुके हैं। इन विस्थापितों में से मात्र 5 से 6 प्रतिशत को ही किसी तरह पूनर्वासित किया जा सका है। शेष विस्थापित आज अपनी भूमि से बेदखल होकर एक बेला की रोटी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। इनके पेट में आनाज नहीं है। इनके सर के उपर छत नहीं है। इसके बदन पर कपड़े नहीं हैं। इलाज के अभाव में बेमौत मर रहे हैं। कभी जमीन के खूंटकटीदार रहे विस्थापित, अब कुली-रेजा और बंधुआ मजदूर बन गये हैं। खेत-खलिहान से उजड़ने के बाद बहु-बेटियां महानगरों में जूठन धोने को मजबूर हैं। पहले जहां आदिवासियों की संख्या 70 प्रतिशत थी, 2001 की जनगणना में मात्र 26 प्रतिशत में सिमट गये। इन विस्थापितों में आज 80 प्रतिशत आदिवासी-दलित महिलाएं ऐेनेमिया (खून की कमी) की शिकार हैं। 85 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। आखिर विस्थापित आदिवासीं-मूलवासियों को क्या मिला। 80 प्रतिशत विस्थापित युवावर्ग बेरोजगार हैं-आखिर क्यों।
विकास के नाम पर उजड़े विस्थापितों के पीड़ा ने राज्य और देश के सामने कई अहम सवाल खड़ा किये हैं। यह सर्वविदित है कि इन सवालों के प्रति राजनेताएं, सरकारी तंत्र, राजकीय व्यवस्था तथा देश की कानून व्यवस्था भी र्निउतर है। विकास में योगदान देने के लिए झारखंड के किसानों-आदिवासियों-मूलवासियों ने अपने पूर्वजों द्वारा आबाद जल-जंगल-जमीन, घर-द्वार, खेत -खलिहान सभी न्योछावर किया। इनकी जमीन पर एचईसी, बोकारो थर्मल पावर, तेनुघाट, चंद्र्रपुरा, ललपानिया डैम, सीसीएल, बीसीएल, इसीएल, चांडिल डैम, टाटा स्टील प्लांट, यूसीएल यूरेनियम माइंस, चिडिया माइंस, बोक्साइड खदान, चांडिल डैम, पतरातु थर्मल पावर प्लांट, टाटा स्टील, कोहिनूर स्टील, वर्मा माइंस, राखा माइंस, करमपदा, किरीबुरू, बदुहुरांग, महुलडीह जैसे सौकडा+ें खदान और कारखाना बैठाया गया। सवाल है इससे किसका विकास हुआ?। यहां के विस्थापितयों के जिंदगी को जरूर नजदीक से देखना चाहिए। पिछलेे सप्ताह चांडिल के विस्थापितों को मुआवजा देने की मांग पर की गई पीआइएल का सुनवाई करते हुए हाईकोट ने कहा कि विस्थापन के 35 वर्ष भी आज तक विस्थापितों को मुआवजा नहीं मिला है यह टिप्पणी करते हुए सरकार को एक माह के भीतर मुआवजा भूगतान करने की बात कही।
2005 में वि’व बैंक ने केंन्द्र सरकार के पास प्रस्ताव दिया था शहरी विकास, योजना का। इसके तहत यह समझौता किया गया कि-शहरी विकास के लिए ‘शहर, में बड़े पूंजिपतियों को जगह देना होगा। शहर का अकार्षक बनाना होगा। इसके लिए छोटे मकानों, झुगी-झोपडियों को साफ करना होगा। शहर, को साथ-सुथरा रखने में, नागरिकों को बुनियादी सुविधाऐं देने में सरकार विफल है-इस लिए यह काम प्राईवेट पर्टनरशिप -पीपीपी को दिया जाए। गैरतलब है कि-इसके लिए भी जमीन चाहिए। हर कमद में जमीन चाहिए। सरकार अपने को प्राईवेट कंपनियों के हाथों सौंप दे रही है।
2005 के जनेेराशन मिशन के तहत शहरों में अतिक्रमन, हटाने के नाम पर शहरों, के गरीबों को साफ किया। इस कानून के एक्सटेंशन-2011 सुप्रीम कोट का फैसला है। इसी के तहत देश के सभी राज्य के हाईकोट ने आदेश दिया है-कि ग्रामीण इलाकों में पंचायत स्तर पर जितने भी गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, परती जमीन, समुदायिक जमीन, बंजर भूमि आदि को पंचायत के अधिकार में करने का निर्देश दिया है। इसी के आधार पर पूरे झारखंड के जिला प्रशासनों , अंचलों अधिकारियों को नोटिश जारी कर दिया है। इसकी कारईवाई भी शुरू की दी गयी । गांव किसानों को पत्ता भी नहीं हैकि उनके जमीन पर सरकारी अधिकारी क्यों घेरा बंदी कर रहे हैं। जिस जमीन पर किसान सदियों से खेती-बारी करते आ रहे थे-आज उस जमीन पर मलगुजारी किसानों को मलगुलारी देने पर रोक लगाया जा रहा हैं।
एक तरफ सरकार की जनविरोधी नीति, कारपोरेट घराना, जमीन माफिया- ठेकेदार, पुलिस माफियाओं के गंठजोड़ की बंदूक, आदिवासी-मूलवासी किसानों के जल-जंगल-जमीन छीनने के लिए गरज रहा हैं-वहीं दूसरी ओर अपना वर्चस्वा कायम करने में लगे उग्रवादीवाद गतिविधियों ने भी गा्रमीण सामाज बहुत हद तक प्रभावित कर दिया हे। दोनों ताकतें मिल कर गा्रमीण समाज को आतंक में कैद कर ले रहा है। जंगल-झाड़, नदी-झरना, खेत-खलिहान पहले, गाय, भैंस बकरी चराने वाले युवकों के बंसुरी की तान और गीतों से रसमय और रोमंचित हो उठता था। खेत-खलीहान, जंगल-झाड़ में काम कर रहे लोगों को पता चला जाता था कि-फंला आदमी कहां है। गीत और बंसुरी की मधुर धुन से ही व्यक्ति की पहचान करते थे कि उस दि’ाा में कौन भैंस, गाय चराने गया है। साथी अपने मावेशियों को उसी ओर ले जाता था और सभी साथी साथ चरवाही करते थे। अब समूचा ग्रामीण इलाका बंदूक और अधुनिका हथियारों के गोलियों के आवाज से थररा रहा है। मंदर और नागाड़ा भय से चुप हो गया। वर्चास्व स्थापित करने के लिए उग्रवादी संगठनों के संघर्ष से लाल होती धरती के आतांक से अखड़ा भी अब सनाटा में तब्दील हो गया। खेत-खलिहान में दिन भर मेहनत करने के बाद शाम को निशचिंत गली-कोचा में झुंण्ड बना कर गांव के समस्याओं पर युवक चर्चा करते थे, यह मनोरंजर करते थे। गांव के बुजूर्गों की टोली एक अलग जगह में बैठता था। परिवार और सामाजिक दुख-दर्द एक दूसरे से बांटते थे। अब सभी जगह भय के आंतांक में तब्दील हो गया। अब सूरज की रोशनी हल्का अंधकार में बदलते ही कोई भी आदमी घर से बाहर नहीं रहता है। हल्का अंधकार होते ही-घरों के दरवाजे बंद हो जाते हैं। सभी कोशिश करते हैं-जितना जल्दी हो -खाना खा कर डिबरी-लालटेन बुझा कर लेदरा-पटिया में चले जाएं।
बरसात के दिनों में कादो खेत रोपा-डोभा, गाय, भैंस, बकरी से काम निपटा कर घर वापस आते थे। महिलाएं चुल्हा-चैका, लकड़ी-झूरी में जुट जाती थीं। पुरूष यह युवा वर्ग घर के भीतर ही मंदर टंगा कर बजाने लगते थे। बंसुरी में माहीर लोग बंसुरी बजाते थे। मंदर और बंसुरी सुन कर गांव के सभी लोगों का थकान दूर होने लगता था। सप्ताह के एक-एक दिन का महत्व होता था। पूरा सप्ताह एक दिन इस गांव में, एक दिन कहीं दूसरे गांव में बाजार लगता है। सप्ताह के दो-तीन दिन अपने नजदीकी गांवों में लगता है। लोग गांव की सामाजिक कार्यों को इसी के आधार पर निस्चित करते थे।
आदिवासी सामाज का जीवन शैली -भाषा-संस्कृति, आर्थिक-सामाजिक अस्तित्व पूरी तरह से प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। हर मौसम में सामाज ने धार्मिक-संस्कृतिक मूल्यों को कई रीति-रिवाजों में संपन करता है। सामाजिक, आर्थिक, संस्कृतिक, भाषाई और इतिहासिक शक्ति को मजबूत करने के लिए मौसम आधारित परब-त्योहार, जतरा आदि लगाते थे। जतरा-गर्मी के शुरुआत आत में और अगहन महिना में कहीं डाईर जतरा, बुरू जतरा के रूप में संपन करते थे। वहीं अगहन महिना में दसांइ और डाईर जतरा होता था। सरहूल-करमा सहित दर्जनों प्रकृतिक त्योहारों का संपन होता था। कोई एैसा गांव नहीं था-जिस गांव में दर्जनों मंदर, बंसुरी, नागाड़ा, ढोल नहीं हो। परब-त्योहार को छोड़ सप्ताह में दो-तीन रात फिक्स होता था-जिस रात को पूरा गांव नाचते थे। गांव गांव मंदर-नगाडा के आवाज से गुंज उठता था।
आदिवासी सामाज में सेन गी सुसुन-कजी गी दुरंग, दुखः में भी गाते-नाचते हैं-यही जीवंत संस्कृति आदिवासी सामाजिक एकता-समुहिकता की ताकत है। यह सच है जब तक आदिवासी समाज गाते-राचते रहेगा-उनकी समुदायिक ताकत को कोई तोड़ नहीं सकता । लेकिन विकास का बवंडर ने आदिवासी समाज की इस संस्कृतिक विरासत को छकछोर कर रख दिया है। आज हमें अपनी संस्कृतिक विरासत कमजोर लगने लगी है-प’िचमी सभ्यता-संस्कृति हमें ताकतवर सहमूस होने लगा है। हमारी इस मनसिक कमजोरी की देन है-कि आज हम अपनी समुहिक ताकत को तोड़ कर व्यत्किवादी ताकत को मजबूत करने में लगे हैंं। आज हमारे बीच घरेलू हिंसा जब्रजस्त घर करता जा रहा है। धर्म के नाम पर ईसाई और सरना की राजनीति हो रही है। एक समुदाय दूसरे समुदाय के खिलाफ सोच रहा है। एक सामाजिक अगुवा दूसरे अगुवे को खिंच रहा है। हर कोई एक दुसरे को नीचा दिखाने में पूरी ताकत लगा दे रहे हैं। तब हम आदिवासी सामाज को पूरी इमानदारी के साथ अपना भी अत्मसात करने की जरूरत है। तब आदिवासी समाज बच पाएगा। जब आप के दु’मन चारों ओर से घेरे हुए हैं, राजतंत्र, पुलिसतंत्र, माफियातत्रं, पूंजिपति और बाजारवाद, आप पर हावी होते जा रहे हैं। तब हर हाल में आदिवासी मूलवासी सामाजिक एकता-समुहिकता की ताकत को फिर से पूनसंगठित करने की जरूरत है।
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