मांदर के मधुर गूंज के बीच -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले
आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2
भाले...भाले के गीत के साथ युवक-युवातियां करमा राजा का गांव के अखड़ा में स्वागत किये। प्रकृति के जीवनचक्र में बसंत की नई किरण के बाद जेठ की तपती धूप से झुलसे प्रकृति को रिम झिम बारिस ने षीतला प्रदान किया है। आकाष के काले धने बादल किसानों के जीवन में नयी उम्मीदें भर दी है। लेवा-लुंडा, रोपा-डोभा, में व्यस्त प्रकृतिकमूलक आदिवासी-मूलवासी समाज अपने प्रकृति प्रेम तथा इनके साथ अपने सहचार्य जीवन की जीवंतता को करम त्योहर में इजहार कर रहे हैं। करम त्योहार, मात्र एक त्योहार ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासी मूलवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, इतिहासिक तथा पर्यावरणीय जीवन षैली का ताना बाना है। भादो के एकादष के दिन पूरे राज्य में आदिवासी मूलवासी समाज राईज करमा मना रहा हैं। झारखंड के सभी आदिवासी समूदाय करमा त्योहार मनाते हैं। करमा त्योहार मनाने के पीछे मुंडा, उरांव, खडिया, हो-संताल, आदिमजाति, मूलवासियों का अपना मन्याता है। कालेंडर के आधार पर राईज करमा 18 अगस्ता को मनाया गया। इसके साथ ही अपनी सुविधानुसार सभी गांव करमा त्योहार मनाएंगेे। सभी गांव अपने हिसाब से कहीं बुढ़ी करम, कहीं ईन्द करमा, कहीं जितिया करमा, कहीं ढेढिरा करम मनाते है। इन सभी करमा त्योहार मनाने के पीछे अपनी अपनी मन्याताएं हैं।
karam ped se karam dali la kar akhra me karam gadtekaram ka sewa karte, gaon ka pahan, pujar
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच -हम अपनू पूर्वजों की एक इंच जमीन नहीं देगें का संकल्प के साथ संर्घषरत है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच सिर्फ जमीन बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहा है लेकिन इसके साथ सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, इतिहास-पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। पूरे झारखंड में जब आदिवासी मूलवासी समाज मंदर की थाप पर करमा अखड़ा में झुम रहा है-
karam parab ka ..Nachte- Gate
आठ दिन पहले गांव की उपासिनों ने नहा-धोवा कर नदी से बालू ला कर मकाई का जावा, उरद, गोंदली आदि अनाज का जावा उठा दी हैं। जावा उठाने के बाद उसको सारू पता से ढंक देती हैं। जावा का सेवा करती हैं, इसको हल्दी पानी से सिंचती हैं। करमा के दिन सुबह नहा-धोवा कर उपवास किये युवक-युवातियां अरवा सूता लेकर करमा लाने जाते हैं। जहां जंगल नजदीक है-वहां के लोग जंगल से लाते हैं और जहां जंगल दूर है, वहां के लोग अगल बगल गांवों से या अपने गांव में हो, तो वहीं से लाते हैं। अखडा में गाड़ने के लिए भूंईफूट करमा याने जो करमा पेड जमीन से उगा होता है, उसी को काटते हैं। लेकिन अब जंगल खत्म होते जा रहा है, इस कारण करमा पेड भी कम होता जा रहा है। इस कारण जो भी पेड मिलता है उसी से काट लेते हैं। उपवास किया युवक अरवा धागा लापेट कर करम डाली काटता है, नीचे उपासिन युवातियां डालियां सम्भाती हैं। करमा डाली को नीचे जमीन पर गिरने नहीं दिया जाता है।
Sengi -Susun, kaji gi durang...bolna hi get- sangit, chalna hi nrityajal, jangal, jameen, bhasha, sanshkriti ka sangharsh
षाम को पूरा गांव के लोग अखडा में जमा होते हैं, पाहन पूजा करते हैं, उपवास किये युवक-युवातियां करमा के पास बैठते हैं, सभी अपने साथ जावा फूल और खीरा बेटा लेकर आते हैं। पाहन के पूजा के बाद सभी महिलाएं एक दुसरे के कमर में हाथ डाले जोडाती है, पुरूष मांदर केे साथ अखडा में प्रेवष करते हैं-गीत षूरू होता है-
लगे बाबू मंदिरिया-मंदेराबाजय रे,
लगे बाबू मंदिरिया मंदेराबाजय,
लगे माईया खेला जामकाय..
ओ रे लगे माईया खेला जामकाय
करमा पेड का समाज हमेषा आदर करता है। इस पेड का लकड़ी जलावन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, न ही इसका पीडहा -बैठने के लिए नहीं बनाते हैं। करमा त्योहार और आदिवासी मूलवासी समाज पर्यावरण बचाने का संदेष दे रहा है। रात भर करम खुषीयाली मनाने के बाद दूसरे दिन करमा को घर-घर बुलाया जाता है। सभी परिवार करमा का पैर धोते हैं, उसे करमा को भेंट देते हैं। पूरां गांव घुमने के बाद इसे नजदीक के नदी में जा कर बहा देते हैं।
jal, jangla, jameen ke sath juda bhasha sanshkriti aur dharmik Astha...Sasan Diri
किसान करम पर्व के पहले दिन जंगल से भेवला डाली लाकर घर के छत में रखे रहता है, इस डाली को दुसरे दिन किसान खेतों में लेजाकर गाड़ते हैं। इसके पीछे कृर्षि सुरक्षा का वैज्ञानिक महत्व हैं। धान के लहलहाते खेत हैं कुछ कीडे पौधों को खाते हैं-जो धान के पौधों में चिपके होते हैं। इन किड़ों को ठेंचुवा चिंडिया खाता है। जो भेलवा डाली धान खेत में गाड़ा जाता है-उसी में चिंडिया बैठकर किड़ों को खाता है। इसके साथ ही भेलवा पेड़ के और कई महत्व हैै। कृर्षि सुरक्षा का यह प्रकृतिक पद्वति है।
मानसून की पहली बारिस के साथ ही धान बुनी, गोडा, गोंदली, मंडुआ, लेवा, बिंडा, कादो-धान रोपनी, के बाद खेती बारी में प्रकृति के योगदान की खुषीयाली मनायी जाती है-जो करमा पर्व के रूप में जाना जाता है। एैसे तो असार, सावन, भादो, कुवार, कातिक और अघन महीना तक करमा का मौसम होता है। इस मौसम में करमा का ही गीत गाते हैं। करमा के एक-एक गीत आदिवासी, मूलवासी सामाजिक जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सास्कृतिक, पर्यावरणीय जीवन मूल्यों का विष्लेषण करता है। जो प्रकृति-पर्यापरण और मानव सभ्यता का वैज्ञानिक जीवन पद्वति पर आधारित है।
आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एैसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही। दिन को खेत-खलिहान, नदी-नाला, जंगल-पहाडों में काम करते हैं और रात को थकान मिटाने के लिए गांव के बीच तीन-चार ईमली पेड़ो से घिरे अखड़ा में पूरा गांव नाचता गाता है। आदिवासी समाज के पुरखों ने पूरी वैज्ञानिकता के साथ परंपारिक धरोहरों को संयोने का काम किये हैं। मनोरंजन के दौरान वहां उपस्थित लोगों के बैठने के लिए अखड़ा के किराने बडे़ बडे़ पत्थरों का पीढ़हा-बैठक बनाये है, साथ ही ईमली की ष्षीतल छाया मिलती है। 98 प्रतिषत आदिवासी गांवों में अखड़ा ईमली पेड़ के पास ही है। प्रकृति जीवनषैली-को करम गीत गाते हैं-ईमली पेड़ के नीचे अखड़ा में करमा नाचते गा रहे हैं-
1-रिमी-छिमी तेतारी छाईयां
ना हारे धीरे चालू
रासे चलू मादोना
न हारे धीरे चाल
एंडी का पोंयरी झलाकाते-मलाकाते आवै
न हारे धीरे चालू-रासे
धामिका चंदोवा झलाकाते-मलाकाते आवै
2-जेठे में तोराय कोयनार साग रे
सावन भादो रोपा-डोफा कराय रे-2
3-बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे-2
बोन में झाईल मिंजुर सोभाय-2
4-चंकोड़ा जे जनामलै-हरियार रे
से चंकोड़ा फूला बिनू सोभाय-रे
चंकोड़ा जे फरालैं-रूणुरे झुणु
हलुमान हिरी जोहे जाए
करम त्योहार मनुष्य और प्रकृति से संबेध को मजबूत करता है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी। एक गांव में करम गड़ाता है, इसमें अगल-बगल कई गांवों के लोग षामिल होते हैं। पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बंसुरी के सुरीली तान से गूुज उठता था। अखड़ा में मांदर के गुंज के बीच महिलाओं के जुड़ों में सफेद बगुला के पंख से बना-कलगा के साथ जावा फूल पूरे महौल को खुषियों में सराबोर कर देता था। लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोस में सामेटता जा रहा है। आज जब हम करमा मना रहे हैं-तब हमे यह चिंतन करना होगा कि औधोगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए। नही ंतो एक ऐसा समय आएगा-जब न जंगल-झाड़, नदी-नाला, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा-तब हमारा यह करमा त्योहार लोक गीतो-कथाओ में ही जीवित रहेगा।
बहुत बदिया लगा पढ़कर, करम पर्व को मनाने के भाव से भर गई.
ReplyDeleteहाल में अख़बारों ने इसे भी हिंदूओं के त्योहार से जोड़ने का कुत्सित प्रयास शुरु कर दिया है जिसके लिए आदिवासी समाज के जीवन को लिखा जाना बहुत ज़रूरी पहल है.