VOICE OF HULGULANLAND AGAINST GLOBLISATION AND COMMUNAL FACISM. OUR LAND SLOGAN BIRBURU OTE HASAA GARA BEAA ABUA ABUA. LAND'FORESTAND WATER IS OURS.
Friday, August 28, 2020
Thursday, August 27, 2020
मांदर के मधुर गूंज के बीच -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2 आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एैसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही।
मांदर के मधुर गूंज के बीच -ओताई दिन तो करम राजा बोने बोनेम रहाले
आईज तो करम राजा आखेरा उपारे चंवरा डोलाते आवै-2
भाले...भाले के गीत के साथ युवक-युवातियां करमा राजा का गांव के अखड़ा में स्वागत किये। प्रकृति के जीवनचक्र में बसंत की नई किरण के बाद जेठ की तपती धूप से झुलसे प्रकृति को रिम झिम बारिस ने षीतला प्रदान किया है। आकाष के काले धने बादल किसानों के जीवन में नयी उम्मीदें भर दी है। लेवा-लुंडा, रोपा-डोभा, में व्यस्त प्रकृतिकमूलक आदिवासी-मूलवासी समाज अपने प्रकृति प्रेम तथा इनके साथ अपने सहचार्य जीवन की जीवंतता को करम त्योहर में इजहार कर रहे हैं। करम त्योहार, मात्र एक त्योहार ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासी मूलवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, इतिहासिक तथा पर्यावरणीय जीवन षैली का ताना बाना है। भादो के एकादष के दिन पूरे राज्य में आदिवासी मूलवासी समाज राईज करमा मना रहा हैं। झारखंड के सभी आदिवासी समूदाय करमा त्योहार मनाते हैं। करमा त्योहार मनाने के पीछे मुंडा, उरांव, खडिया, हो-संताल, आदिमजाति, मूलवासियों का अपना मन्याता है। कालेंडर के आधार पर राईज करमा 18 अगस्ता को मनाया गया। इसके साथ ही अपनी सुविधानुसार सभी गांव करमा त्योहार मनाएंगेे। सभी गांव अपने हिसाब से कहीं बुढ़ी करम, कहीं ईन्द करमा, कहीं जितिया करमा, कहीं ढेढिरा करम मनाते है। इन सभी करमा त्योहार मनाने के पीछे अपनी अपनी मन्याताएं हैं।
karam ped se karam dali la kar akhra me karam gadtekaram ka sewa karte, gaon ka pahan, pujar
आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच -हम अपनू पूर्वजों की एक इंच जमीन नहीं देगें का संकल्प के साथ संर्घषरत है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच सिर्फ जमीन बचाने की लड़ाई नहीं लड़ रहा है लेकिन इसके साथ सामाजिक मूल्य, भाषा-संस्कृति, इतिहास-पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। पूरे झारखंड में जब आदिवासी मूलवासी समाज मंदर की थाप पर करमा अखड़ा में झुम रहा है-
karam parab ka ..Nachte- Gate
आठ दिन पहले गांव की उपासिनों ने नहा-धोवा कर नदी से बालू ला कर मकाई का जावा, उरद, गोंदली आदि अनाज का जावा उठा दी हैं। जावा उठाने के बाद उसको सारू पता से ढंक देती हैं। जावा का सेवा करती हैं, इसको हल्दी पानी से सिंचती हैं। करमा के दिन सुबह नहा-धोवा कर उपवास किये युवक-युवातियां अरवा सूता लेकर करमा लाने जाते हैं। जहां जंगल नजदीक है-वहां के लोग जंगल से लाते हैं और जहां जंगल दूर है, वहां के लोग अगल बगल गांवों से या अपने गांव में हो, तो वहीं से लाते हैं। अखडा में गाड़ने के लिए भूंईफूट करमा याने जो करमा पेड जमीन से उगा होता है, उसी को काटते हैं। लेकिन अब जंगल खत्म होते जा रहा है, इस कारण करमा पेड भी कम होता जा रहा है। इस कारण जो भी पेड मिलता है उसी से काट लेते हैं। उपवास किया युवक अरवा धागा लापेट कर करम डाली काटता है, नीचे उपासिन युवातियां डालियां सम्भाती हैं। करमा डाली को नीचे जमीन पर गिरने नहीं दिया जाता है।
Sengi -Susun, kaji gi durang...bolna hi get- sangit, chalna hi nrityajal, jangal, jameen, bhasha, sanshkriti ka sangharsh
षाम को पूरा गांव के लोग अखडा में जमा होते हैं, पाहन पूजा करते हैं, उपवास किये युवक-युवातियां करमा के पास बैठते हैं, सभी अपने साथ जावा फूल और खीरा बेटा लेकर आते हैं। पाहन के पूजा के बाद सभी महिलाएं एक दुसरे के कमर में हाथ डाले जोडाती है, पुरूष मांदर केे साथ अखडा में प्रेवष करते हैं-गीत षूरू होता है-
लगे बाबू मंदिरिया-मंदेराबाजय रे,
लगे बाबू मंदिरिया मंदेराबाजय,
लगे माईया खेला जामकाय..
ओ रे लगे माईया खेला जामकाय
करमा पेड का समाज हमेषा आदर करता है। इस पेड का लकड़ी जलावन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, न ही इसका पीडहा -बैठने के लिए नहीं बनाते हैं। करमा त्योहार और आदिवासी मूलवासी समाज पर्यावरण बचाने का संदेष दे रहा है। रात भर करम खुषीयाली मनाने के बाद दूसरे दिन करमा को घर-घर बुलाया जाता है। सभी परिवार करमा का पैर धोते हैं, उसे करमा को भेंट देते हैं। पूरां गांव घुमने के बाद इसे नजदीक के नदी में जा कर बहा देते हैं।
jal, jangla, jameen ke sath juda bhasha sanshkriti aur dharmik Astha...Sasan Diri
किसान करम पर्व के पहले दिन जंगल से भेवला डाली लाकर घर के छत में रखे रहता है, इस डाली को दुसरे दिन किसान खेतों में लेजाकर गाड़ते हैं। इसके पीछे कृर्षि सुरक्षा का वैज्ञानिक महत्व हैं। धान के लहलहाते खेत हैं कुछ कीडे पौधों को खाते हैं-जो धान के पौधों में चिपके होते हैं। इन किड़ों को ठेंचुवा चिंडिया खाता है। जो भेलवा डाली धान खेत में गाड़ा जाता है-उसी में चिंडिया बैठकर किड़ों को खाता है। इसके साथ ही भेलवा पेड़ के और कई महत्व हैै। कृर्षि सुरक्षा का यह प्रकृतिक पद्वति है।
मानसून की पहली बारिस के साथ ही धान बुनी, गोडा, गोंदली, मंडुआ, लेवा, बिंडा, कादो-धान रोपनी, के बाद खेती बारी में प्रकृति के योगदान की खुषीयाली मनायी जाती है-जो करमा पर्व के रूप में जाना जाता है। एैसे तो असार, सावन, भादो, कुवार, कातिक और अघन महीना तक करमा का मौसम होता है। इस मौसम में करमा का ही गीत गाते हैं। करमा के एक-एक गीत आदिवासी, मूलवासी सामाजिक जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सास्कृतिक, पर्यावरणीय जीवन मूल्यों का विष्लेषण करता है। जो प्रकृति-पर्यापरण और मानव सभ्यता का वैज्ञानिक जीवन पद्वति पर आधारित है।
आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, याने चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है। सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचते-गाते रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह एैसा ही है-जब तक बांस है बंसुरी बजेगी ही। दिन को खेत-खलिहान, नदी-नाला, जंगल-पहाडों में काम करते हैं और रात को थकान मिटाने के लिए गांव के बीच तीन-चार ईमली पेड़ो से घिरे अखड़ा में पूरा गांव नाचता गाता है। आदिवासी समाज के पुरखों ने पूरी वैज्ञानिकता के साथ परंपारिक धरोहरों को संयोने का काम किये हैं। मनोरंजन के दौरान वहां उपस्थित लोगों के बैठने के लिए अखड़ा के किराने बडे़ बडे़ पत्थरों का पीढ़हा-बैठक बनाये है, साथ ही ईमली की ष्षीतल छाया मिलती है। 98 प्रतिषत आदिवासी गांवों में अखड़ा ईमली पेड़ के पास ही है। प्रकृति जीवनषैली-को करम गीत गाते हैं-ईमली पेड़ के नीचे अखड़ा में करमा नाचते गा रहे हैं-
1-रिमी-छिमी तेतारी छाईयां
ना हारे धीरे चालू
रासे चलू मादोना
न हारे धीरे चाल
एंडी का पोंयरी झलाकाते-मलाकाते आवै
न हारे धीरे चालू-रासे
धामिका चंदोवा झलाकाते-मलाकाते आवै
2-जेठे में तोराय कोयनार साग रे
सावन भादो रोपा-डोफा कराय रे-2
3-बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे-2
बोन में झाईल मिंजुर सोभाय-2
4-चंकोड़ा जे जनामलै-हरियार रे
से चंकोड़ा फूला बिनू सोभाय-रे
चंकोड़ा जे फरालैं-रूणुरे झुणु
हलुमान हिरी जोहे जाए
करम त्योहार मनुष्य और प्रकृति से संबेध को मजबूत करता है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी। एक गांव में करम गड़ाता है, इसमें अगल-बगल कई गांवों के लोग षामिल होते हैं। पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बंसुरी के सुरीली तान से गूुज उठता था। अखड़ा में मांदर के गुंज के बीच महिलाओं के जुड़ों में सफेद बगुला के पंख से बना-कलगा के साथ जावा फूल पूरे महौल को खुषियों में सराबोर कर देता था। लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोस में सामेटता जा रहा है। आज जब हम करमा मना रहे हैं-तब हमे यह चिंतन करना होगा कि औधोगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए। नही ंतो एक ऐसा समय आएगा-जब न जंगल-झाड़, नदी-नाला, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा-तब हमारा यह करमा त्योहार लोक गीतो-कथाओ में ही जीवित रहेगा।
Monday, August 17, 2020
Wednesday, August 12, 2020
आदिवासियों की सही जनसंख्या का आकलन करने एवं उनके अस्तित्व को पहचान देने के लिए सरना कोड जरूरी है। इसीलिए 2001 से सरना कोड की मांग को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा हैं ।
2011 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी का 8.6 प्रतिशत देश में आदिवासी जनसंख्या है। जो लगभग ग्यारह करोड़ है। पहले देश के आदिवासी समुदाय को जनगणना के विभिन्न धर्म कोड के तहत गनणना किया जाता था। वर्ष 1871, 1881, 1891 के जनगणना में आदिवासी समुदाय को अबोरिजनल काॅलम रख कर गणना किया गया था। 1901, 1911 और 1921 में इन्हें एनिमिस्ट काॅलम में दर्ज किया गया। 1931 और 1941 में ट्राइबल रिलिजन काॅलम में दर्ज किया था। 1951 में शिडयूल ट्राइबस काॅलम में रखा गया। लेकिन 1961 के जनगणना में हिंन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौध, जैन और अन्य काॅलम रखा गया। इस तरह से आदिवासी समुदाय के पहचान को खत्म कर दिया गया, इस तरह तब से आदिवासी समुदाय को मजबूरन अन्य या दूसरे धर्म कोड में शामिल करना पड़ रहा है।
झारखंड में आदिवासी आबादी
2011 के जनगणना के अनुसार झारखंड की कुल आबादी 3 करोड़, 29 लाख, 88 हजार, 134(3,29,88,134) है। इसमें आदिवासियों की संख्या 86,45,042 है। जिसमें ईसाई लिखने वाले आदिवासियों की संख्या 14,18,608 लाख और सरना लिखने वाले 42,35,786 हैं। अगर दोनों को मिला दिया जाए, तो ईसाई औ सरना आदिवासियों की कुल संख्या 56,54,394 है। इसे कुल संख्या से घटा दिया जाए, तो 30,09,256 लाख कहां गए, या तो इन्हे हिंदू धर्म में दर्ज कराया या फिर अन्य में। 2011 में सरना कोड की मांग उठी, तो आदिवासियों ने जनगणना में फार्म में खुद ही सरना धर्म अंकित कर दिया था। इसलिए जनगणना रिपोर्ट में सरना धर्मावलंबियों का अंकडा 42 लाख आ सका। आदिवासियों की सही जनसंख्या का आकलन करने एवं उनके अस्तित्व को पहचान देने के लिए सरना कोड जरूरी है। इसीलिए 2001 से सरना कोड की मांग को लेकर आंदोलन तेज होता जा रहा हैं ।
Samuhita Adivsi Samaj ka phachan hai- Jal, Jangal, Jameen hi Samaj ka bhsha- Sanshkriti hai
2020 के अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस के अवसर पर राज्य प्रबुद्व नागरिकों और राजनेताओं ने आदिवासी धर्म कोड की मांग के लिए एकजुट होकर आंदोलन करने का संकल्प लिया। इस अवसर पर राज्य के वितमंत्री सह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डाॅ रामेश्वर उरांव जी ने आदिवासी दिवस सम्मारोह को संबोधित करते घोषण किया कि-जल्द ही गठबंधन की सरकार विधान सभा से सरना कोड लागू करने के लिए प्रस्ताव पारित कर केंन्द्र सरकार को भेजेगी। उन्होनंे बताया कि इस संबंध में हमारी बात मुख्यमंत्री श्री हेमंत सोरेन जी से भी हो गयी है।
रघुवर दास की सरकार 2014 से 2019 तक सत्ता में रही। केंन्द्र में भी 2014 से भाजपा की सरकार रही। राज्य की रघुवर सरकार अपने कार्यकाल में कई नये कानून लेकर आये। सबसे पहले आदिवासी-मूलवासी जनविरोधी स्थानीयता नीति 2016 लाया। गो रक्षा कानून, झारखंड धर्म स्वतंत्र विधेयक 2017, जमीन अधिग्रहण संशोधन विधेयक 2017, भूमिं बैक भी बनाया। निवेशकों को झारख ड में आमंत्रित करने के लिए कई विदेशों में रोड़ शो किया। निवेशकों को झारखंड में बुलाया, इसके लिए राज्य में चार मोमेंन्टम झारखंड को आयोजन किया। लेकिन आदिवासी सामुदाय को पहचान देने के लिए विधानसभा में सरना कोड का प्रस्ताव नहीं ला सका। जब कि मुख्यमंत्री रहते हुए रघवर दास जी ने कई बार बयान भी दिया कि , सरना कोड जल्द लाया लाएगा।
इन सभी कानून को विधानसभा में बिना बहस किये, जनता से बिना विमार्श किए एक छण भर में राज्य का कानून का रूप दिया गया। तब सरना समुदाय के लिए सरना धर्म कोड क्यों नहीं लाया गया? इस साजिश का समझने की जरूरत है। जबकि राज्य के 14 संासदों में 12 संसद बीजेपी के, 4 राज्यसभा सदस्यों में 3 बीजेपी के थे, और राज्य में भी उन्हीं की सरकार थी। तब सरना कोर्ड को कानूनी रूप देने में कोई बाधा थी ही नहीं, सिर्फ इच्छा शक्ति होना चाहिए था।
झारखंड के कई कदावर आदिवासी नेता भाजपा के साथ है। श्री अर्जुन मुंडाजी केंन्द्र जनजाति मंत्री हैं, जो हमेशा आदिवासियों के अस्तित्व की बात करते रहते हैं। साथ ही श्री बाबूलाल मरांडी जी भाजपा विधायक दल के नेता हैं, आप भी भाजपा के बाहर थे, तो लगातार सरना कोड लागू कराने की बात करते थे। यदि सचमुच आदिवासी समुदाय के हितचिंतक हैं, तो गृहमंत्रालय से स्वीकृति दिलाना चाहिए। भाजपा जानती है कि यदि सरना कोड दे दिया जाए तो, उनका अंकड़ा में भारी कमी आएगी, तब सरना कोड़ दे कर अपना पैर पर कुल्हाडी नहीं मारेगा। सच्चाई है कि भाजपा सरना आदिवासियों के हितौसी बन कर सिर्फ राजनीतिक कार्ड खेलते रहना चाहती है। क्योंकि जाति और धार्मिक आंकडा पर ही सभी खेल खेला जाता है।
Monday, August 10, 2020
आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी।
9 अगस्त अंतरराष्ट्रीय आदिवासी
अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस में, आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ऐसे समय में विश्व के आदिवासी, मुलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित, बंचित सामुदाय को, अपने हक-अधिकारों की रक्षा के लिए वैश्वीक गोलबंदी की भी जरूरत है।
इसी सोच के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने आदिवासियों के हित रक्षा के लिए एक कार्यदल गठित किया था जिसकी बैठक 9 अगस्त 1982 को हुई थी। उसी के बाद से संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सदस्य देशों को प्रतिवर्ष 9 अगस्त को आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की। आज के इस दौर में आदिवासी, मूलवासी (प्दकपहमदवने च्मवचसम), किसान, दलित, मेहनतकश सामुदाय जिस संकट के चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब 9 अगस्त को आदिवासियों के हक-अधिकारों के संघर्ष को याद करना या सेल्ब्रेशन करना ‘‘संकल्प‘‘ के बिना बेइमानी होगी। संकल्प लेना होगा, कि नीजि स्वर्थ से उपर उठ कर आदिवासी, मुलवासी समाज के अधिकारो की रक्षा के लिए हम सामाजिक एकता को मजबूत करेगें, इसके लिए बचनबद्व हैं। दुनिया के आदिवासी एक हों, के साथ भारत के आदिवासी एक हो का नारा बुलंद करने की जरूरत है। पहले तो अपनी जड़ को मजबूत करना चाहिए, इसके लिए झारखंड के आदिवासी, मुलवासी सहित प्रकृतिक जीवनशैली से जुड़े सभी सामुदाय को एक होना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने (न्छव्) ने महसूस किया था कि-ग्लोबल शक्ति के हमले के खिलाफ, विश्व के आदिवासी, मूलवासी सामुदाय को एक होना होगा। इसीलिए 9 अगस्त को पूरे विश्व में आदिवासी दिवस मनाते हैं।
आदिवासी दिवस के अवसर पर संविधान में प्रावधान अधिकारों का मूल्यंकन करना होगा, आज इसकी क्या स्थिति है। देश के संदर्भ में देखें तो, 5वीं अनुसूचि, 6वीं अनुसूचि में प्रावधान अधिकार, पेसा कानून में प्रावधान अधिकार, वनअधिकार कानून, सूचना अधिकार कानून, राईट टू एजेकेशन, स्वास्थ्य का अधिकार सहित अन्य अधिकारों की जमीनी हकिकत क्या है, जिनके लिए यह कानून बना, उन्हें इसका लाभ मिला या नहीं?। झारखंड के संदर्भ में, सीएनटी, एपीटी एक्ट, ग्राम सभा के अधिकार, कोल्हान में ़़़़़.विलकिनशन रूल., मुडारी खूंटीकटी अधिकार की जमीनी स्थिति क्या है? सामाजिक, आर्थिक सामानता के लिए कमजोर समुदाय के लिए विभिन्न स्तर पर आरक्षित अधिकारों का क्या हुआ? इसकी समीक्षा करने की जरूरत है।
जमीन संबंधित अधिकारों पर लगातार केंन्द्र और राज्य सरकार कारपोरेट हित में संशोधन करते जा रहा है। पिछली राज्य सरकार ने ग्राम सभा के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सामुदायिक झाड-जंगल, झाड़ी सहित सभी गैरमजरूआ आम और खास जमीन को कारपोरेट निवेश के लिए भूमि बैंक में एकत्रित किया है। इसके लिए ग्राम सभा से किसी तरह की सहमति नही ली गयी। जो आदिवासी, मूलवासी अधिकार पर सीधा हमला है। पांचवी अनुसूचि, सीएनटी, एसपीटी एक्ट, वन अधकार कानूून सहित सभी परंपरागत अधिकारों में गांव के भीतर की सभी जमीन, जंगल पर सामुदाय का परंपरागत अधिकार है। आज जगल,जमीन के साथ सभी जल स्त्रोतों पर समाज का अधिकार खत्म कर दिया जा रहा है।
आदिवासी जनसंख्या लगातार घटते जा रहा है। जो ंिचता का विषाय है। देश में 130 करोड की आबादी में आदिवासी जनसंख्या 8.6 प्रतिशत है याने 10 करोड़ लगभग है। राज्य में 32 आदिवासी समुदाय हैं (अनुसूचित जनजातियां) और 22 अनुसूचित जातियां हैं। 2011 के जनणना के अनुसार झारखंड की 3,29,88,134 हंै। इसमें आदिवासी आबादी 86,45,042 है, जो 26.2 प्रतिशत है। राज्य में आदिवासी आबादी घटने का मुल कारण विकास के नाम पर हो रहा विस्थापन और पलायन। बड़े परियोजनाओं से एक करोड़ से अधिक आबादी विस्थापित हो चुकी है, साथ ही शहरीकरण से भी भारी विस्थापन हो रहा है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव राज्य के आदिवासी सामुदाय के सामाजिक, आर्थिक सहित तमाम अधिकार पर पड़ रहा है। यह आदिवासी सामुदाय के लिए चिंता बढ़ाने वाला है।
आदिवासी दिवस में सभी एक मंच में आ तो जाते हैं, लेकिन यह पहल स्थायी नहीं पाता है। आज समाज, धर्म और राजनीतिक रूप से सामुदाय कई टुकड़ों में बांटा हुआ है। हमारी कमजोरी अगले के लिए ताकत साबित हो रहा है। इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि, जब तक समाज संगठति हैं, सामूहिक ताकत है, तभी हमारी पहचान भी है। यही संगठित ताकत झारखंड को, अपने सपनों का झारखंड के नवनिर्माण के दिशा में आगे बढ़ा सकती है। नीजि इच्छा के सामने क्या समाज, और राज्य के मुददे सर्वोपरी हो सकते हैं, क्या इस चुनौति को हम स्वीकार कर सकते हैं? यही चुनौती हमें आदिवासियों के सामाजिक, भाषा, सास्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक अस्तित्व की नींव को मजबूती दे सकता है, जो सिद्वू, कान्हु, सिंदराय, बिंदराय, तिलका मांझी, वीर बुद्वु भगत, तेलेंगा खाडिया, बिरसा मुंडा और जतरा टाना भगत के समझौताविहिन शहादती इतिहास के नीवं को हिलाने नहीं देगा।
दयामनी बरला