आदिवासी इलाकों की भूमि व्यवस्था देश के शेष इलाकों से बिल्कुल भिन्न है. पुरखों द्वारा जंगल झाड़ साफ़ कर सबसे पहले तैयार की गई ज़मीन ने आदिवासियों का अस्तित्व बचाकर रखा है. इसलिए आदिवासियों के पास अपने पुरखों द्वारा बसाए गांव हैं. जंगल और खेत हैं. पुरखों द्वारा बनाई गई ज़मीन में से ही आदिवासियों ने सहृदयता के साथ गांव के आस पास बाद में बसे अन्य समुदाय के लोगों को भी जीने खाने के लिए ज़मीनें दी. आपसी सहयोग से जीने वाली एक व्यवस्था और समाज बनाई.
आज़ादी के बाद भूमि सुधार अधिनियम में भी आदिवासी इलाकों में विशेष भूमि व्यवस्था को अलग रखा गया. देश में ये विशिष्ट मामले हैं. पर अब तकनीक और आधुनिकीकरण के इस दौर में स्थितियां तेजी से बदल रहीं हैं. केंद्र इन सारी विभिन्नता और विशिष्टता को ख़त्म करना चाहती है. राज्य और देश में भी बहुत सारे लोगों को इन व्यवस्थाओं की सही जानकारी नहीं होती. शिक्षा की कमी के कारण आदिवासी भी देश के शेष लोगों को ठीक से समझा नहीं पाते कि क्यों आदिवासी इलाकों में प्रतिरोध अधिक रहता है? इसके कारण क्या हैं? इन क्षेत्रों में वर्चस्ववादी ताकतों से संघर्ष क्यों बढ़े हैं?
सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला ने महत्त्वपूर्ण काम किया है. अत्यंत गरीब परिवार से निकली और जीवन भर समाज के लिए समर्पित रहने वाली इस कार्यकर्ता ने ज़मीन को लेकर वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा आदिवासी इलाकों में होने वाले कई जनसंहार को रोका है. लोगों में व्यापक जन जागरूकता लाने के लिए वे लगातार जुटी रहीं हैं. आज आदिवासी इलाकों की इस भूमि व्यवस्था पर डिजिटल इंडिया भूअभिलेख आधुनिकीकरण का असर किस तरह पड़ रहा है? संघर्ष किस तरह बढ़ रहे हैं? उन्होंने इन विषयों पर एक शोध परख अच्छी किताब लिखी है.
कल 20/07/2024 को आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर तले डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान, रांची झारखंड में पूर्व निदेशक रनेंद्र जी के सहयोग से इस किताब का लोकार्पण हुआ. इसमें राज्य के सांसद, विधायक, अर्थशास्त्री, समाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, विद्यार्थी सहित गांव के लोग सब मौजूद रहे. उन्होंने बहुत अच्छी बातचीत की. सबको एक दूसरे से कुछ न कुछ सीखने को मिला. यह एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम रहा.
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