Saturday, September 26, 2020

Asthaniyate Neeti ka Matlab..yanha ka Gaourawsali Itihash, Adivasi Mulvasi Samuday ke Jiwan Mulyon, Inki Bhasah-Sanshkritik Chetna aur Pahchan hai.

 आदिवासी और प्रकृति के बीच रचे-बसे विशिष्ठ इतिहास को समझना जरूरी है। सांप, बाघ, भालू, बिच्छू जैसे खतारनाक जानवरों से लड़कर आदिवासी सामुदाय जंगल, झाड़, पहाड़ को साफ कर जमीन आबाद किया, गांव बसाया, खेती लायक जमीन बनया। जंगली, कंद, मुल, फुल-फल, साग-पात इनका आहार था। पेड़ों का छांव, घने जंगल, पहाड की चोटियों और ढलानें इनका अशियाना बना। खतरनाक जीव, जंतुओं को मित्र बनाया। नदी, झील, झरना इनका जीवन दायीनी स्त्रोत बने। प्रकृति की जीवनशैली ने आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा-सहित्य को जीवंत लय दिया। विश्व भर के आदिवासी-मूलवासी सामुदाय का प्रकृतिक धरोहर के साथ यही जीवंत रिस्ता है। विकास के दौर में, प्रकृति और आदिवासी सामुदाय के परंपारिक जीवन अब टुटता जा रहा है। विकास का प्रतिकूल मार ने इनके ताना-बाना की कडी को कमजोर करता जा रहा है। एक तरफ स्टेट पावर और इनकी वैश्वीक आर्थिक नीतियां आदिवासी सामुदाय के परंपरारिक और संवैधानिक आधिकारों के प्रति अपनी उतरदायित्व और जिम्मेदारियों को सीमित करता जा रहा है। दूसरी तरफ वैश्वीक पूंजी बाजार भारत ही नहीं बल्कि विश्व के आदिवासी सामुदाय को जड़ से उखाड़ने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। 

आदिवासी-मूलवासी, किसान, दलित सहित सभी प्रकृतिकमूलक समुदाय के हक-अधिकारों पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं, हमला जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिए बने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम को खत्म करने का प्रयास हो या, पांचवी अनुसूचि क्षेत्र में इस समुदायों के लिए प्रावधान अधिकार हो, या संविधान के धारा 335 में प्रावधान सेवाऔ और नौकरियों में विषेश प्रावधान हो, सभी पर हमले हो रहे है।

21 सितंबर 2020 को हाइकोर्ट द्वारा झारखंड नियोजन नीति 2016 को एक मामले में खारिज कर देना, झारखंड के आदिवासी-मूलवासी समुदाय के लिए बहुत ही दुभग्यपूर्ण माना जाएगा। इसलिए कि राज्य के अनुसूचित क्षेत्र के अधिकारों को नकारा गया है। स्थानीयता का मतलब सिर्फ नौकरी में बहाली नहीं है। स्थानीयता का मतलब, यहां का गैरवशाली इतिहास, आदिवासी-मुलवासी समुदाय के जीवन मूल्य, इनकी भाषा-सांस्कृतिक चेतना और पहचान है। एक शिक्षक का स्थानीय स्तर पर नौकरी का मतलब सिर्फ एक पद विषेश पर सेवा देना नहीं है, बल्कि जहां वो पदस्थापित होगा, वहां के समुदाय के जीवन शैली, भाषा-सांस्कृति से रूबरू हो, बच्चों को शिक्षा से जोड़ना है। जब हम ़़क्षेत्रीय आदिवासी भाषाओं का विकसित करने की वाकालत करते हैं, क्षेत्रीय भाषा -सहित्य को संरक्षित और विकसित करने की बात करते है, तब निश्चित तौर पर शिक्षकों की बहाली स्थानीय स्तर पर होना चाहिए। 

झारखंड को भाषा-सास्कृति के आधार पर अलग-अलग क्षेत्रों में बंाटा गया है। झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय (अनुसूचित जनजाति) और 22 अनुसूचति जाति समुदाय हैं। सबकी अपनी बोली-भाषा है। क्षेत्र के आधार पर कुछ भाषा कोमन बोली-संर्पक भाषा बोली जाती है जैस नागपुरी। जनजातियों की बोली जानी वाली मूल भाषाएं हैं-उरांव, मुंण्डारी, खडिया, हो, संताली, खेरवारी, सदानी, खोरठा, कुडमाली, मालती, पंचपरगानिया और नागपुरी आदि है। यदि प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने के लिए उरांव भाषी का संथाली भाषा क्षेत्र में पदास्थापित किया जाता है, तब निश्चित तौर पर एक संथाली भाषी शिक्षक के तुलना में उरांव भाषी शिक्षक को बच्चों को शिक्षा से जोडने में कठिनाई होगी। इसी तरह मुंण्डारी भाषा क्षेत्र में कुडमाली भाषा को पदस्थापित किया जाए, तो उन्हें भी वहीं दिक्कदें होगी। इन बुनियादी जरूरतों के आधार पर स्थानीयता महत्वपूर्ण है। सिर्फ एक व्यक्ति की नौकरी या उनके मौलिक अधिकार का सवाल नहीं है, बल्कि राज्य के समग्र विकास के साथ सामुदायिक मौलिक अधिकार का सवाल जुड़ा हुआ है। 

ठसी तरह स्थानीय जीवनशैली, बोली-भाषा, सास्कृतिक मूल्यों पर सभी सेवाओं को सुनिश्चित करने की जरूरत है। 1995-96 के दशक में सरकार ने एक सरकुलर जानी किया था, उसमें कहा गया था कि जो अधिकार जिस क्षेत्र में पदास्थापित किया जाएगा, उस क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषा की जानकारी जरूरी है। इस निर्देश साथ सभी अंचल से लेकर जिलास्तर के पदाधिकारी जहां पदास्थापित हैं, वहां का भाषा सिखने लगे। आखिर एैसा क्यों निर्देश दिया गया, इसके पिछे उद्वेश्य था। कारण की अधिकारी जिस क्षेत्र में नौकरी करते हैं, वहां के लोगों के परंपरागत अधिकारों, सामाजिक मान्यओं को समझते हुए प्रशासनिक सेवा बेहतर तरीके से दे सकें। 

2016 में बनी नियोजन नीति में अनुसूचित जिलों के लिए इन्हीें मान्याओं के आधार पर पदों को आरक्षित किया गया था। यह मांग पूरे झारखंड के 24 जिलों के लिए किया जा रहा था। झारखंडियों के लिए बेहतर स्थानीयता नीति की मांग की गयी थी। लेकिन भाजपा सरकार ने राज्य को दो भागों में मांट दिया। अनुसूचित 13 जिलों के लिए 10 वर्षों तक वर्ग तीन और चार श्रीणी के सभी पदों को आरक्षित कर दिया, और 11 गैर अनुसूचित जिलों के वर्ग तीन और चार श्रीणी के पदों को खुला रख दिया, यहां कोई भी, कहीं से भी आकर नौकरी ले सकता है। यह राज्य के स्थानीय समुदाय के अधिकारों की अनदेखी कर दी गयी। यह राज्य के लिए दुभग्यपूर्ण रहा। 

10 हजार पदों पर नियुक्ति के लिए चल रही प्रक्रिया, इसपर लग सकता हैं ग्रहण

झारखंड की नियोजन नीति 2016 के तहत राज्य के विभिन्न विभागों के विभिन्न पदों के लिए 10 हजार नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही थी। जा नियोजन नीति रदद होने के कारण इस पर भी रोक लग सकता हैै। 

राज्य सरकार की नियोजन नीति झारखंड हाइकोर्ट से निरस्त होने के बाद लगभग 10,000 पदों पर नियुक्ति के लिए पूर्व स ेचल रही चयन प्रक्रिया पर संकट पैदा हो गया है। झारखंड कर्मचारी चयन आयोग की ओर से तृतीय व चतुर्थ वर्ग के विभिन्न पदों पर नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की गयी थीं इसमें से संयुक्त पुलिस अवर निरीक्षक, पुलिस अवर निरीक्षक प्रतियोगिता परीक्षा, पुलिस रेडिया आॅपरेटर, इंडिया रिजर्व बटालियन, कारा चालक प्रतियोगिता परीक्षा, झारखंड उत्पाद सिपाही की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। जबकि इंटरमीडिएट स्तरीय संयुक्त प्रतियोगिता परीक्षा, एएनएम प्रतियोगिता परीक्षा, सामान्य योग्यताधारी स्ताक स्तरीय प्रतियोगिता परीक्षा आदि की प्रक्रिया जारी है स्नातक प्रशिक्षित हाइस्कूल शिक्षक प्रतियोगिता परीक्षा की प्रक्रिया भी जारी है। इतिहास, संस्कृत, हिदीं संगीत आदि विषयों में कई जिलों में अभी नियुक्ति नहीं हो पायी है। हाइकोर्ट में नियोजन नीति का मामला लंबित रहने के कारण नियुक्ति प्रक्रिया  भी आगे नहीं बढ़ पा रही थी। इधर झारखंड कर्मचारी चयन आयोग का कहना है कि आदेश की प्रति अभी नहीं मिली है। आदेश की प्रति मिलने के बाद आयोग उस पर विचार करेगा, जरूरत पड़ेगी तो सरकार से मार्गदर्शन लिया जाऐगा। 


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