Friday, May 19, 2017

प्रकृति-पर्यावणीय आदिवासी-मूलवासी गांवों का अस्तित्व खो जाएगा-

रघुवर सरकार कहते हैं-
सीएनटी, एसपीटी एक्ट को खत्म नहीं किया गया है, कानून को सिर्फ सरलीकरण किया गया है।
सरल हो गया-क्या क्या सरल (सहज) हुआ--
धारा-49,
सीएनटी एक्ट की धारा-49 में पहले जमीन सिर्फ दो काम से अधिग्रहण किया जाना था-क-उद्योग के लिए, ख-खदान के लिए। लेकिन अब -संशोधन में सभी तरह के काम के लिए जमीन अधिग्रहण को मंजुरी दिया गया। संशोधन  के बाद अब सभी उद्वेस्यों या परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण करना आसान हो गया है।
धारा 21-सीएनटी एक्ट की धारा 21, और स्ंताल परगना काश्तकारी अधिनियम -1949 के धारा 13 में कृर्षि भूमिं का गैर कृर्षि भूमिं उपयोग में परिर्वति या बदलने की इज्जाजत नहीं देता था। याने खेती की जमीन को सिर्फ खेती के लिए ही उपयोग किया जाना था। लेकिन-संशोधन में अब कृर्षि भूमिं का चरित्र गैर कृर्षि भूमिं में बदलने की इज्जाजत दिया। अब कृर्षि भूमिं में आसानी से व्यवसायिक संस्थान, उद्योग के अलावा जमीन का किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। स्ंाशोधन के पहले- कृर्षि भूमिं में व्यवसायिक भवन आदि के लिए नाक्सा पास नहीं होता था-अब सभी रूकावट को खत्म कर दिया गया। रघुवर सरकार ने कानून में सरलीकरण की बात करते हैं-या एक छलावा है, जबकि आदिवासी समाज के जमीन के अधिकार को पूरी तरह खत्म कर दिया।
सरकार का यह दलील देना कि इन संशोधनों के बाद जमीन का व्यवसायिक उद्वेय के लिए हस्तांत्रण के बाद भी जमीन पर रैयत का मलिकाना हक बना रहेगा -यह तर्क सिर्फ आदिवासी मूलवासी सामाज को दिगभ्रमित करता है। व्यवहारिकता यह कताई संभव नहीं है।



स्थानीयता नीति-
30 साल से रह रहे लोगों को झारखंडी होने का गैरव प्रदान किया गया, जब कि झारखंड के भूमिं पूत्रों, आदिवासी, मूलवासी, किसानों, मेंहनतकसों को अपने जल-जंगल-जमीन से उखाड़ फेंकने की कानून बनायी गयी।
नौकरी में तीसरे और चर्तुथ श्रेणी में अनुसूचित क्षेत्रों के युवकों को सिर्फ दस साल तक पूरी नौकरी देने की बात कही गयी है।
लेकिन-इसके बाद इन इलाकों के युवा वर्ग का क्या होगा। यहां नौकरियां इनको शायद नहीं मिल सकती है, क्योंकि जो स्थानीयता नीति के तहत आज राज्य के शहरी क्षेत्रों में जिस तरह से गैर कानूनी तरीके से बने कमानों को धडले से सरकार छपरबंधी रसीद काट कर उन्हें कानूनी मान्यता दे रही है, ये आबादी आने वाले दिनों में निच्शित रूप से स्थानीय आदिवासी-मूलवासी आबादी पर हावी होगी। ये बाहरी आवादी आदिवासी मूलवासी सहित यहां के तमाम 32 जनजाति आबादी को को निगल जाएगा।
रांची शहर में ढाइ लाख गैर कानून मकानों को कानूनी मान्यता दिया है। यदि इन मकानों या परिवारों में प्रति परिवार 5 सदस्य होगें तो, ...........................कुल आबादी हो जाएगी।
जबकि झारखंड 24 जिलों का है। इसमें हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, जमशेदपुर, कोडरमा, रामगढ, गिरिडीह औधोगिक जिले हैं। यह बाहर से आयी आबादी भी अधिक है। तब स्थनीयता नीति के तहत अब ये भी झारखंडी माने जाएगें और यहां स्थनीय समुदाय को जो सुख-सुविधा राज्य और केंन्द्र सरकार द्वारा मिलता है, इन्हें भी मिलेगा। हां नौकरियों में आरक्षण राज्य की नयी आबादी के आधार पर ही निर्धारण होगा।  तब यहां की कुल आबादी में अब आदिवासी-मूलवासियों की आबादी का ग्राफ सबसे नीचे चला जाएगा। एैसे स्थिति में झारखंड के आदिवासी-मूलवासियों की पहचान स्वत ही खत्म हो जाएगी।
आने वाले जनगणना में आदिवासी-मूलवासी आबादी की जनसंख्या 27 प्रतिशत से घट कर 10-15 प्रतिशत में आ जाएगी।


आदिवासी-मूलवासी सामाजिक, संस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्था तहस-नहस हो जाएगा
गांव के सीमा के भीतर या बाहर के गैर मजरूआ आम, गैरमजरूआ खास जमीन को भूमिं बैंक द्वारा आॅनलाईन किसी को भी हस्तांत्रित करने से, अब गांव की डेमोग्राफी, जियोलाॅजी, जैविक विविधता, विविधता में एकता वाली सामाजिक ताना-बाना, परंपारिक सामाजिक व्यवस्था-पड़हा व्यवस्था, राजी पड़हा, मानकी-मुण्डा, डोकलो-सोहोर, मांझी-परगना व्यवस्था सभी समाप्त हो जाएगा।
इसलिए एैसा होगा-क्योंकि गांव के बीच में, गांव-टोली-महला के आस पास, या किसानों के ख्.ोत-टांड, के बीच, या अगल-बगल जो भी गैर मजरूआ आम, खास जमीन है, को सरकार किसी भी जाति-समुदाय, या भाषा-संस्कृति के लोगों को जमीन हस्तांत्रित करेगी। इस तरह से एक भाषा-भाषी या जाति समुदाय के बीच अब कोई भी बाहरी समुदाय को बैठा सकता है।
प्रकृति-पर्यावणीय आदिवासी-मूलवासी गांवों का अस्तित्व खो जाएगा-
भूमिं बैंक के लिए -गांव के बीच, खेत-टांड के बीच, गांवों सीमाओं के जिन गैर मजरूआ आम, खास जमीन को चिन्हित किया गया है-उन जमीनों के हस्तांत्रण के बाद उस इलाके में पहले की स्थानीय आबादी केवल नहीं रहेगी, लेकिन बाहर से आने वाली आबाद स्थानीय आबादी से ताकतवर होगी। ऐसे परिस्थिति में उस गांव का परंपारिक भाषा-संस्कृति, रहन-सहन के साथ गांव का नाम भी बदल जाएगा। जैसे कि विकास के नाम पर पूरे झारखंड के गांव गायब होते गये, गांवों का नाम अब नगरों, बिहार,(जैसे अशोक बिहार, कुसुम बिहार, प्रेम नगर, नयन नगर आदि)  में तब्दील होता जा रहा है।
जबकि परंपारिक आदिवासी गांवों का नाम पेड़, पैधों, जंगली जनवरों, नदी, नालों, झरनों, पशु-पक्षियों के नाम से रखा गया है। साथ ही हजारों गांवों का नाम गांव के प्रधान याने गांव बसाने वाले पहला बुजूर्ग के नाम पर नामकरण किया गया है।
बडीबिरिंगा, कनारोंवा, लोवागड़ा, अंबाकोना, डाउकोना, जमटोली, करीमाटी, सिमडेगा, मयोमडेगा, लतापानी, सराईपानी, हेसलाबेड़ा, महाबुआंग, किरीबुरू, बाघलता, सारूबेड़ा, मेघाहातुबुरू, कोयोंगसेरा, बगीसेरा, रंगामाटी, टुटवापानी, जोकिपोखर, सेरेंदआ, सरजोमदआ, कहुपानी, जिलिंगसेरेंग, बिलसेरेंग, महुंवाटांड, कादोपानी, चंपाबहा, जोजोहातु, बुरूहातु, मरंगबुरू, बहाबुरू, गरूडपीडी, हेसो, निमडीह, जोजोसेरेंग, सरजोमडीह, बकाकेरा, लउाकेरा, महूंवाटोली, बांसटोली, जनुमपीडी, बंडआजयपुर, नामकुम, सियारटोली, आदि आदि.....

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