आखिर मोदी सरकार अध्याादेश लाने की इतनी हड़बडी क्यों पड़ी ?????
सत्ता में आते ही केंन्द्र की मोदी सरकार विकास के नाम पर हर तरह का सपना दिखा कर देश के किसानों, मेहनतकशों , आदिवासियों-मूलवासियों के हक-अधिकार, जिंदगी के तमाम बुनियादी आधारों को देश-विदेश के कारपोरेट कंपनियों के हाथों सौंपने में जुटी हुई है। कंपनी राज स्थापित करने के लिए केंन्द्र सरकार इन आठ महीनों में देश के मेहनतकश -मजबदूर वर्ग के हितों की रक्षा के लिए बने लेबर लाॅ को खत्म करने की कोशिश की। दूसरा राज्यों के विविधताओं के आधार पर बने 60 साल पुराने योजना आयोग को खत्म कर-नीति आयोग बना दिया। 1894 में बनी भूमिं अधिग्रहण कानून जनहित में नहीं है-को देखते हुए देश के जनआंदोलनो के सतत आंदोलन के कारण पिछली सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 बनाया था, जो किसानों -आदिवासी-मूलवासियों के जंल-जंगल-जमीन के परंरागत अधिकार को स्थापित कर रहा था, तथा ग्राम सभाओं के अधिकारों को मजबूती दिया था। इस कानून में -अधिग्रहण प्रक्रिया के बाद 5 साल तक यदि जमीन का अधिग्रहण नहीं हुआ-तब जमीन किसानों की रहेगी, याने अधिग्रहण से मुक्त होगा। 2-जमीन अधिग्रहण के पहले -सामाजिक दुसप्रभाव अध्ययन याने सोशल इमपेक्शेसमेंट इस्डडी करने के बाद ही जमीन अधिग्रहण करने का प्रावधान था। 3-यदि सरकार जमीन अधिग्रहण करना चाहती है-तब 70 प्रतिषत ग्राम सभा की इजाजत मिलेगी तभी जमीन अधिग्रहण किया जा सकता है। 4- यदि कंपनियां जमीन अधिग्रहण करना चाहते हैं-तब 80 प्रतिषत ग्राम सभा की इजाजत मिलेगी-तभी जमीन अधिग्रहण किया जा सकता है। 5-इस कानून में प्रावधान था-यदि कंपनी को जमीन चाहिए-तब उसे 70 प्रतिषत जमीन खूद को खरीदना था, और 30 प्रतिषत जमीन सरकार अधिग्रहण करके देगी। लेकिन मोदी सरकार ने उपरोक्त तमाम प्रावधानों को खारिज करते हुए जमीन अधिग्रहण अध्यादेश लाया, जो पूरी तरह से आदिवासियों-मलवासियों , मेहनतकशों के अधिकारों को समाप्त कर पूंजि-पतियों और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन-पानी के साथ मताम प्रकृतिक संसाधनों को सौंपने की तैयारी है।
यही नहीं राज्यों में चलाये जा रहे मनरेगा जैसे ग्रामीण क्षेत्रों के रोजगारी का भी खत्म कर दिया जा रहा है। इन तमाम सवालों से यह सवाल उठ रहा है-कि आखिर किसका अच्छा दिने आने वाला है?? क्या किसानों का?? आदिवासी-मूलवासियों का???, मेहनतकशों का?? आम आदमी का ??? या फिर मेक इन इंडिया के नाम पर देश -विदेश के कंपनियों-कारपोरेट घरानों का?????? मित्रों इसका जवाब साफ है-अच्छे दिन तो कारपोरेट घरानों और पूंजिपतियों का आने वाला है। और हम लोगों का दुरदिन आने वाला है।
भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 सितंबर 2013 में पास किया गया था।अध्यादेश 31 दिसंबर 2014 को लाया गया एक साल में देश में इस कानून के तहत कितना जमीन अधीग्रहण किया गया था जिसके अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता था कि भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 देष के विकास के लिए नाकाफी है।
अगर इस कानून के तहत देश में जमीन अधिग्रहण ही नहीं हुआ तो मोदो सरकार को यह कैसे समझ में आया कि यह कानून सही नहीं है, इसलिए इस कानून को हटाने की जरूरत है।
यह सीधी से बात है कि लोक सभा चुनाव 2014 के समय भाजपा ने देश-विदेश के कारपोरेट घरानों, सहित अड़ानी, अंमानी, मित्तल, जिंदल जैसे कंपनियों से भारी पैसा लिया है। इन्हीं कंपनियों से लिऐ गये कर्ज को चुकाने की हड़बड़ी है। इसीलिए मोदो सरकार को इतनी हड़बढ़ी है कि वह फरवारी माह में होने वाले संसाद सत्र का भी इंतिजार नहीं कर पायी।
किसी भी कानून में संषोसधन की आवष्यकता होने पर विधिवत उस पर लोक सभा और राजसभा में पक्ष-विपक्ष में बहस होती है। जनहित में क्या होना चाहिए इस पर चर्चा होती है। जनप्रतिनिधि अपना राय देते हैं। इसके बाद ही कानून में संशोधन संभव होता हैं ।
56 इंच का सीना होने का दावा करने वाली मोदी सरकार आखिर भारतीय लोकतंत्र में पा्रवधान लोकसभा और राजसभा में लोकतंत्रिक बहस से क्यों ड़रती है? इसको समझने की जरूरत है। मोदी सरकार सत्ता में आते ही भारतीय संविधान में प्रावधान आम जनता के हितों की रक्षा के साथ देश के जनतंत्रिक विकास के कानूनों को समाप्त करने की कोशिश में है। मेहनतकश वर्गाें के लिए भारतीय संविधान ने उनके मान-सस्ममान और मानवअधिकारों की रक्षा के लिए लेबर लाॅ था। इसमें भी बदलाव लाने की कोशिश की गयी। ताकि कारपोरेट घरानों को अधिक लाभ पहुंचाया जा सकें।
देश से भ्रष्टाचारमुक्त साशनव्यवस्था देने का राग अलपाने वाली मोदीे सरकार ने भ्रष्टाचार को सिर उठाने के लिए रास्ता खोल दिया। इसका उदाहरण-पिछली सरकार याने यूपीए 2 के समय सुप्रीम कोर्ट ने देश के 20 14 काॅल ब्लाॅकों को यह कहते हुए उनका लाइ्रसेंस रदद करने का फैसला सुनाया था कि-इन काॅल ब्लाॅकों को गैर कानून तरीके से खदान अबांटित किया गया है।
सता में आते ही मोदी केंन्द्र की मोदी सरकार को भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 2014 इतनी हड़बडी में लाने की क्यों आवष्यकता पड़ी? यह जानना हम सभों के लिए अत्यन्त ही आवष्यक है। सर्वविदित है कि केंन्द्र सरकार या राज्य सरकार कोई नया कानून बनाती है या पुराने कानून में संशोधन लाना चाहती है तो नियमतः संबंधित कानून को लेकर विधेयक लाया जाता है। और संसाद में उक्त विधेयक को लेकर सता पक्ष और विपक्ष के ,द्वारा बहस किया जाता है। जनहित में क्या होना चाहिए, इस जनप्रतिनिधि राय देते हैं। इस विधेयक पर राजसभा में भी चर्चा किया जाता है। लेकिन केंन्द्र की मोदी सरकार ने आठ माह में आठ अध्यादेश लाया। इन आठों अध्यादेशों को लाने के लिए न तो लोक सभा में, न ही राजसभा में बहस करने की जरूरत समझे। एक के बाद एक तबड़तोड अध्याादेश लाते गये। मोदी के इस तानाशही रवैये को देखते हुए राष्टपति को भी कहना पड़ा-कि जिस भी में संशोधन की जरूरत हो तो उस पर पक्ष-विपक्ष मिल बैठकर चर्चा करें तो अच्छा होगा।
भारत गांवों का देश है, और हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि भारत कृर्षि प्रधान देश है। आज भी देश की 80 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है। इस पूरी आबादी की जीविका जल-जंगल-जमीन सहित प्रकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है। आजादी के बाद देश के सभी जाति-वर्ग समुदाय के हक-अधिकारों की रक्षा के लिए भारतीय संविधान में कानून का प्रावधान किया गया। राज्यों की भौगोलिक एवं भाषा-संस्कृति की विविधता के आधार पर राजयों के विकास के लिए योजना तय करने के लिए योजना आयोग बनाया गया था। देश के मेहनतकश वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए लेबर लाॅ बना था। ग्रामीण क्षेत्र के किसानों, आदिवासियों, मूलवासियों क ेजल-जंगल -जमीन पर मालिकाना हक की रक्षा के लिए ग्राम सभा को अधिकार दिया गया।
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 किसानों के जंगल-जमीन की रक्षा के लिए नाकाफी था। इसलिए इसमें बदलाव लाकर किसानों, आदिवासी सहित प्रकृति पर निर्भर जनसमुदायों के प्रकृतिक संसाधनों पर समुदायिक हक को और मजबूत किया जाए, इसके लिए देश भर में लंबे समय तक ओदोलन चला। इसका परिणाम ही भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 को रदद की सितंबर 2013 में भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 को लाया गया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि सितंबर 2013 से दिसंबर 2014 तक कोई भी भूमिं अधिग्रहण नहीं हुआ जिसके अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता था कि या कानून नाकाफी था। आखिर एक साल में क्या बदल गया कि कानून में एक साल के भीतर ही संषोधन की जरूरत पड़ी। उपरोक्त तमाम अध्यादेश को लाने का एक ही मक़सद है।
संशोधन का एक ही आधार है कि टाटा, बिड़ला, अंबाना, आडानी, एस्सार, मित्तल को आसानी से और जल्दी से जल्दी जमीन दिलवाना। अमेरिका, फ्रांस और रूस के कंपनियों को परमाणु उर्जा बनाने के लिए जमीन जल्दी देने की जरूरत पड़ी।
अगर इसी जरूरत के लिए संषोधन की जरूरत थी तो फरवरी माह तक इंतजार करना चाहिए था। फरवरी तक क्या बिगड़ जाता। संसाद में बहस करते, जनता की आवाज सुनते, उसके बाद संषोधन करते।
अध्यादेष में मामले में संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि विधायिका संसाद सत्र की निकट भविष्य में नहीं होने कि स्थिति में और मुददे की अरजेंसी कि स्थिति में ही लाया जा सकता है। लेकिन जब कि 23 फरवरी से संसद सत्र होने वाला था, और 31 दिसंबर को संषोधन अध्यादेलाया, याने कि 56 इंच का छाती वाला 54 दिनों का इंतजार भी नहीं कर सका। जाहिर सी बात है-इसलिए इंतजार नहीं कर सका-क्योंकि चुनाव के समय अंबानी, अडानी से जो कर्जा लिया है उस कार्ज को उतारने के लिए ही अध्यादेश लाया।
यह भी सर्वविदित है कि मोदी सरकार उद्योगपतियों/पूंजीपतियों की सरकार है। जिसे हम काॅरपोरेटी सरकार भी कहते है। मोदी सरकार देश में पूंजिवाद का विस्तार करना चाहती है। पूंजिवाद का विस्तार करने के लिये रेलमार्ग, हवाईपटटी, चैड़ी सड़के, इंण्डस्ट्रीयल कोरिडोर, एसीजेड, सहित अनगिनत उद्योग लगाये जाऐंगें। खादान खोदे जाऐंगें। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने देष में मेक इन इंण्डिया का नारा दिया है। सता में आते ही प्रधानमंत्री ने ब्राजील, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देशों का दौरा कर विदेशी कंपनियों को भारत में उद्योग लगान के लिए अमंत्रित किया है। यह सच है कि प्रधानमंत्री जी के मेक इन इंण्डिया के सपनों को पूरा करने के लिए सरकार के पास जमीन नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी की महत्वकांक्षा योजनाओं को पूरा करने के लिए देश के किसानों से उनकी खेतिहर उपजाउ भूमिं जी जायेगी। देश में जमीन-नदी-पहाड़ों से जुडे तमाम समुदाय उजड़ जायेगें। पूरी तरह से विस्थापित हो जायेगें। और हम सभी जानते हैं-कि प्रकृति से जुड़ा समुदाय जब विस्थापित होते हैं-तब वह समुदाय अपने सामाज से, संस्कृति से, आर्थिक आधार से, अपने परंपरा से, पहचान से, अपने गौरवशली इतिहास से भी विस्थापित होते हैं।
अध्यादेष लाकर मोदी सरकार देष के किसानों, आदिवासयिों, मेहनतकषों को उजाड़ कर उद्योगपतियों और काॅरपोरेट घरानों को विकसित करना चाहती है। ऐसे में हम किसी एक समुदाय यह किसी एक लिंग वर्ग पर इसका खास असर की बात नहीं कर सकते, क्योंकि इससे पूरा समाज ही नष्ट हो जाएगा।
सत्ता में आते ही केंन्द्र की मोदी सरकार विकास के नाम पर हर तरह का सपना दिखा कर देश के किसानों, मेहनतकशों , आदिवासियों-मूलवासियों के हक-अधिकार, जिंदगी के तमाम बुनियादी आधारों को देश-विदेश के कारपोरेट कंपनियों के हाथों सौंपने में जुटी हुई है। कंपनी राज स्थापित करने के लिए केंन्द्र सरकार इन आठ महीनों में देश के मेहनतकश -मजबदूर वर्ग के हितों की रक्षा के लिए बने लेबर लाॅ को खत्म करने की कोशिश की। दूसरा राज्यों के विविधताओं के आधार पर बने 60 साल पुराने योजना आयोग को खत्म कर-नीति आयोग बना दिया। 1894 में बनी भूमिं अधिग्रहण कानून जनहित में नहीं है-को देखते हुए देश के जनआंदोलनो के सतत आंदोलन के कारण पिछली सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 बनाया था, जो किसानों -आदिवासी-मूलवासियों के जंल-जंगल-जमीन के परंरागत अधिकार को स्थापित कर रहा था, तथा ग्राम सभाओं के अधिकारों को मजबूती दिया था। इस कानून में -अधिग्रहण प्रक्रिया के बाद 5 साल तक यदि जमीन का अधिग्रहण नहीं हुआ-तब जमीन किसानों की रहेगी, याने अधिग्रहण से मुक्त होगा। 2-जमीन अधिग्रहण के पहले -सामाजिक दुसप्रभाव अध्ययन याने सोशल इमपेक्शेसमेंट इस्डडी करने के बाद ही जमीन अधिग्रहण करने का प्रावधान था। 3-यदि सरकार जमीन अधिग्रहण करना चाहती है-तब 70 प्रतिषत ग्राम सभा की इजाजत मिलेगी तभी जमीन अधिग्रहण किया जा सकता है। 4- यदि कंपनियां जमीन अधिग्रहण करना चाहते हैं-तब 80 प्रतिषत ग्राम सभा की इजाजत मिलेगी-तभी जमीन अधिग्रहण किया जा सकता है। 5-इस कानून में प्रावधान था-यदि कंपनी को जमीन चाहिए-तब उसे 70 प्रतिषत जमीन खूद को खरीदना था, और 30 प्रतिषत जमीन सरकार अधिग्रहण करके देगी। लेकिन मोदी सरकार ने उपरोक्त तमाम प्रावधानों को खारिज करते हुए जमीन अधिग्रहण अध्यादेश लाया, जो पूरी तरह से आदिवासियों-मलवासियों , मेहनतकशों के अधिकारों को समाप्त कर पूंजि-पतियों और कारपोरेट कंपनियों को जंगल-जमीन-पानी के साथ मताम प्रकृतिक संसाधनों को सौंपने की तैयारी है।
यही नहीं राज्यों में चलाये जा रहे मनरेगा जैसे ग्रामीण क्षेत्रों के रोजगारी का भी खत्म कर दिया जा रहा है। इन तमाम सवालों से यह सवाल उठ रहा है-कि आखिर किसका अच्छा दिने आने वाला है?? क्या किसानों का?? आदिवासी-मूलवासियों का???, मेहनतकशों का?? आम आदमी का ??? या फिर मेक इन इंडिया के नाम पर देश -विदेश के कंपनियों-कारपोरेट घरानों का?????? मित्रों इसका जवाब साफ है-अच्छे दिन तो कारपोरेट घरानों और पूंजिपतियों का आने वाला है। और हम लोगों का दुरदिन आने वाला है।
भूंमि अधिग्रहण कानून 2013 सितंबर 2013 में पास किया गया था।अध्यादेश 31 दिसंबर 2014 को लाया गया एक साल में देश में इस कानून के तहत कितना जमीन अधीग्रहण किया गया था जिसके अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता था कि भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 देष के विकास के लिए नाकाफी है।
अगर इस कानून के तहत देश में जमीन अधिग्रहण ही नहीं हुआ तो मोदो सरकार को यह कैसे समझ में आया कि यह कानून सही नहीं है, इसलिए इस कानून को हटाने की जरूरत है।
यह सीधी से बात है कि लोक सभा चुनाव 2014 के समय भाजपा ने देश-विदेश के कारपोरेट घरानों, सहित अड़ानी, अंमानी, मित्तल, जिंदल जैसे कंपनियों से भारी पैसा लिया है। इन्हीं कंपनियों से लिऐ गये कर्ज को चुकाने की हड़बड़ी है। इसीलिए मोदो सरकार को इतनी हड़बढ़ी है कि वह फरवारी माह में होने वाले संसाद सत्र का भी इंतिजार नहीं कर पायी।
किसी भी कानून में संषोसधन की आवष्यकता होने पर विधिवत उस पर लोक सभा और राजसभा में पक्ष-विपक्ष में बहस होती है। जनहित में क्या होना चाहिए इस पर चर्चा होती है। जनप्रतिनिधि अपना राय देते हैं। इसके बाद ही कानून में संशोधन संभव होता हैं ।
56 इंच का सीना होने का दावा करने वाली मोदी सरकार आखिर भारतीय लोकतंत्र में पा्रवधान लोकसभा और राजसभा में लोकतंत्रिक बहस से क्यों ड़रती है? इसको समझने की जरूरत है। मोदी सरकार सत्ता में आते ही भारतीय संविधान में प्रावधान आम जनता के हितों की रक्षा के साथ देश के जनतंत्रिक विकास के कानूनों को समाप्त करने की कोशिश में है। मेहनतकश वर्गाें के लिए भारतीय संविधान ने उनके मान-सस्ममान और मानवअधिकारों की रक्षा के लिए लेबर लाॅ था। इसमें भी बदलाव लाने की कोशिश की गयी। ताकि कारपोरेट घरानों को अधिक लाभ पहुंचाया जा सकें।
देश से भ्रष्टाचारमुक्त साशनव्यवस्था देने का राग अलपाने वाली मोदीे सरकार ने भ्रष्टाचार को सिर उठाने के लिए रास्ता खोल दिया। इसका उदाहरण-पिछली सरकार याने यूपीए 2 के समय सुप्रीम कोर्ट ने देश के 20 14 काॅल ब्लाॅकों को यह कहते हुए उनका लाइ्रसेंस रदद करने का फैसला सुनाया था कि-इन काॅल ब्लाॅकों को गैर कानून तरीके से खदान अबांटित किया गया है।
सता में आते ही मोदी केंन्द्र की मोदी सरकार को भूमिं अधिग्रहण अध्यादेश 2014 इतनी हड़बडी में लाने की क्यों आवष्यकता पड़ी? यह जानना हम सभों के लिए अत्यन्त ही आवष्यक है। सर्वविदित है कि केंन्द्र सरकार या राज्य सरकार कोई नया कानून बनाती है या पुराने कानून में संशोधन लाना चाहती है तो नियमतः संबंधित कानून को लेकर विधेयक लाया जाता है। और संसाद में उक्त विधेयक को लेकर सता पक्ष और विपक्ष के ,द्वारा बहस किया जाता है। जनहित में क्या होना चाहिए, इस जनप्रतिनिधि राय देते हैं। इस विधेयक पर राजसभा में भी चर्चा किया जाता है। लेकिन केंन्द्र की मोदी सरकार ने आठ माह में आठ अध्यादेश लाया। इन आठों अध्यादेशों को लाने के लिए न तो लोक सभा में, न ही राजसभा में बहस करने की जरूरत समझे। एक के बाद एक तबड़तोड अध्याादेश लाते गये। मोदी के इस तानाशही रवैये को देखते हुए राष्टपति को भी कहना पड़ा-कि जिस भी में संशोधन की जरूरत हो तो उस पर पक्ष-विपक्ष मिल बैठकर चर्चा करें तो अच्छा होगा।
भारत गांवों का देश है, और हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि भारत कृर्षि प्रधान देश है। आज भी देश की 80 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है। इस पूरी आबादी की जीविका जल-जंगल-जमीन सहित प्रकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर है। आजादी के बाद देश के सभी जाति-वर्ग समुदाय के हक-अधिकारों की रक्षा के लिए भारतीय संविधान में कानून का प्रावधान किया गया। राज्यों की भौगोलिक एवं भाषा-संस्कृति की विविधता के आधार पर राजयों के विकास के लिए योजना तय करने के लिए योजना आयोग बनाया गया था। देश के मेहनतकश वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए लेबर लाॅ बना था। ग्रामीण क्षेत्र के किसानों, आदिवासियों, मूलवासियों क ेजल-जंगल -जमीन पर मालिकाना हक की रक्षा के लिए ग्राम सभा को अधिकार दिया गया।
भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 किसानों के जंगल-जमीन की रक्षा के लिए नाकाफी था। इसलिए इसमें बदलाव लाकर किसानों, आदिवासी सहित प्रकृति पर निर्भर जनसमुदायों के प्रकृतिक संसाधनों पर समुदायिक हक को और मजबूत किया जाए, इसके लिए देश भर में लंबे समय तक ओदोलन चला। इसका परिणाम ही भूमिं अधिग्रहण कानून 1894 को रदद की सितंबर 2013 में भूमिं अधिग्रहण कानून 2013 को लाया गया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि सितंबर 2013 से दिसंबर 2014 तक कोई भी भूमिं अधिग्रहण नहीं हुआ जिसके अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता था कि या कानून नाकाफी था। आखिर एक साल में क्या बदल गया कि कानून में एक साल के भीतर ही संषोधन की जरूरत पड़ी। उपरोक्त तमाम अध्यादेश को लाने का एक ही मक़सद है।
संशोधन का एक ही आधार है कि टाटा, बिड़ला, अंबाना, आडानी, एस्सार, मित्तल को आसानी से और जल्दी से जल्दी जमीन दिलवाना। अमेरिका, फ्रांस और रूस के कंपनियों को परमाणु उर्जा बनाने के लिए जमीन जल्दी देने की जरूरत पड़ी।
अगर इसी जरूरत के लिए संषोधन की जरूरत थी तो फरवरी माह तक इंतजार करना चाहिए था। फरवरी तक क्या बिगड़ जाता। संसाद में बहस करते, जनता की आवाज सुनते, उसके बाद संषोधन करते।
अध्यादेष में मामले में संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि विधायिका संसाद सत्र की निकट भविष्य में नहीं होने कि स्थिति में और मुददे की अरजेंसी कि स्थिति में ही लाया जा सकता है। लेकिन जब कि 23 फरवरी से संसद सत्र होने वाला था, और 31 दिसंबर को संषोधन अध्यादेलाया, याने कि 56 इंच का छाती वाला 54 दिनों का इंतजार भी नहीं कर सका। जाहिर सी बात है-इसलिए इंतजार नहीं कर सका-क्योंकि चुनाव के समय अंबानी, अडानी से जो कर्जा लिया है उस कार्ज को उतारने के लिए ही अध्यादेश लाया।
यह भी सर्वविदित है कि मोदी सरकार उद्योगपतियों/पूंजीपतियों की सरकार है। जिसे हम काॅरपोरेटी सरकार भी कहते है। मोदी सरकार देश में पूंजिवाद का विस्तार करना चाहती है। पूंजिवाद का विस्तार करने के लिये रेलमार्ग, हवाईपटटी, चैड़ी सड़के, इंण्डस्ट्रीयल कोरिडोर, एसीजेड, सहित अनगिनत उद्योग लगाये जाऐंगें। खादान खोदे जाऐंगें। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने देष में मेक इन इंण्डिया का नारा दिया है। सता में आते ही प्रधानमंत्री ने ब्राजील, अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देशों का दौरा कर विदेशी कंपनियों को भारत में उद्योग लगान के लिए अमंत्रित किया है। यह सच है कि प्रधानमंत्री जी के मेक इन इंण्डिया के सपनों को पूरा करने के लिए सरकार के पास जमीन नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी की महत्वकांक्षा योजनाओं को पूरा करने के लिए देश के किसानों से उनकी खेतिहर उपजाउ भूमिं जी जायेगी। देश में जमीन-नदी-पहाड़ों से जुडे तमाम समुदाय उजड़ जायेगें। पूरी तरह से विस्थापित हो जायेगें। और हम सभी जानते हैं-कि प्रकृति से जुड़ा समुदाय जब विस्थापित होते हैं-तब वह समुदाय अपने सामाज से, संस्कृति से, आर्थिक आधार से, अपने परंपरा से, पहचान से, अपने गौरवशली इतिहास से भी विस्थापित होते हैं।
अध्यादेष लाकर मोदी सरकार देष के किसानों, आदिवासयिों, मेहनतकषों को उजाड़ कर उद्योगपतियों और काॅरपोरेट घरानों को विकसित करना चाहती है। ऐसे में हम किसी एक समुदाय यह किसी एक लिंग वर्ग पर इसका खास असर की बात नहीं कर सकते, क्योंकि इससे पूरा समाज ही नष्ट हो जाएगा।
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