Wednesday, April 3, 2013

2012 कई अर्था में मेरे लिए जीवन का bishesh वर्ष रहा। part---2


2012 कई अर्था में मेरे लिए जीवन का bishesh  वर्ष रहा। part---2
सामाजिक कार्यों में आज तक का अनुभव बहुत कम था। जंगल-जमीन-नदी-पहाड़, गांव समाज, भाषा-संस्कृति, इतिहास यही हमारा परंपरा और पहचान है। मैं जिस परविार से आती हुं उस परिवार में हम बच्चों से पहले न तो कोई लिखने जानता था, न ही पढ़ने जानता था। दादा पर दादा से आज तक इस परिवार या कहें इस खनदान में सिर्फ हल चलाने, बैल-भैंस चराने, खेत जोतने, खेती करने, जंगल-झाड़ साफ करने, नदी-नाला, झरनों से मच्छली पकड़ने, अन्न उपजाने, मंदर बचाने, गीत गाने-नाचने, पेड़ लगाने ही जानते थे। मेरा परिवार किसी भी राजनीतिक पार्टी के करीब नहीं रहा। हां मेरी मां मेरे बारे खुब बोलती थी-कि मेरी बेटी खुब पढ़ेगी लिखेगी और इंदिरा गांधी की तरह कुर्सी पर बैठ कर desh चलाएगी। जब मैं तीसरा क्लास में थी -मेरा गांव का जमींदार परिवार जिसको होदार के नाम से लोग जानते थे-ने कमडारा प्रखंड के सालेगुटू के साहू परिवार को मेरे गांव का मालिक बनाने के लिए मेरे पिताजी को सादा कागज पर अंगुठा का nishana लगवाया लिया। उस सादे कागज में बाद में लोगों ने क्या लिखा यह तो आज तक मेरा परिवार नहीं जानता है, लेकिन इसी सादा कागज पर मेरे पिताजी को लगवाये अंगुठा का nishana ने गुमला कोर्ट में मेरे परिवार का करीब 15 एकड़ जमीन का मालिक सालेगुटु का साहू को बना दिया। मेरा पिताजी -जो इस जमीन का मालिक था अब भूंमिहीन बन गया। 
mujhe याद है-इस जमीन को वापस पाने के लिए मेरा परिवार कोर्ट में अर्जी डाला। कोर्ट में दो-तीन साल तक मुकदमा चला। मुकदमा लड़ने के लिए मेरा परिवार ने घर में जितना मुर्गी चेंगना, गाय-बैल, सुवर, बकरी थें सबको बेच दिया। कुछ जमीन बचा था उसको भी बेच दिया केस लड़ने के लिए। ताकि साहू द्वारा कब्जा किया जा रहा जमीन वापस मिल जाए। पिताजी और बड़ा भाई गुमला कोर्ट हाजरी देने गांव से पैदल ही जाते थे। अपने साथ खाना बनाने के लिए डेगची, सोने के लिए फटा बोरा, चावल और दाल दो बेला के लिए छोला में ले जाते थे। सुबह निकलते थे। दिन भर चलते थे sham को गुमला पहुंचते थे। रात को कहीं किसी पेड़ के नीचे खिचड़ी बना कर खा कर सो जाते थें। लेकिन मेरे परिवार को न्याय नहीं मिला। मेरे पिता स्वा0 जूरा बरला और मा हिसिया बरला पूरी तरह भूमिंहीन हो गये थेंंंं ।
हमारे परिवार के पास अब जीने के लिए कुछ भी नहीं बचा। मेरे पिता जी दूसरे गांव के किसानों के घर में धांगर बना(मजदूर)। मेरा बड़ा भाई गांव के दूसरे किसानों के घर में मूजदूर बना। मां और मछिला बड़ा भाई रांची ‘’ाहर में दाई-नौकरानी बनीं। भाई कुली बना। मैं और मुझ से बड़ा भाई घर में रह गये। खाली घर कुछ भी नहीं। सोने के लिए एक फटा मुडुवा पत्ता का चटाई, और फटा लेदरा ही रह गया था। गांव के किसानों के खेत में धान रोपना, घांस निकाना, बिंडा उखाड़ना यही मजदूरी और जीवन का सहारा बना। गांव के सीमा के भीतर के तमाम पेड़-पौधे, घांस-फूस, साग-पात जिंदगी को थामने वाला आधार रहा। नदी-झरना, जंगल-पर्वत, सभी तरह के जीव-जंतु, pashu-पक्षि, जानवर जीवन के साथी बने।
जेठ का चिलचिलाती तापती धूप और सावन-भादो माह झमाझम बरसा के बीच कड़कते बिलजी जिंदगी में जीने के लिए लड़ने और बढ़ने को पे्ररित करता रहा। बिना मां-बाप, बिना परिवार के मार्ग दर्’ान के बावजूद अपना पढ़ाई जारी रखी। खाना-पिना नहीं मिला फिर भी मेरा कदम कभी नहीं रूका। कमडारा के ग्लो’ाोप मेमोरियल उच्चविद्यालय से आठवीं कक्षा पास कर स्वंय ही अपना सार्टिफिकेट निकाल कर रांची चली आयी। रांची मैं कोई ठौर ठिकाना नहीं था। बस मां पीपी कमपांउड में सरदार के घर में नौकरानी है और भाई कुली है ‘इसी सोच के साथ गांव से ’ाहर में आये । 
रांची shahar यहां खेत-टांड, जंगल-पेड़, नदी-झरना कुछ नहीं है। सिर्फ बड़ा बड़ा बिलडिंग है। रोड़ है जहां दिन-रात लोगों की भीड़ है। रोड़ में जिधर देखो-सरपट सिर्फ गाडियां गाडियां। डर के मारे रोड में चलना भी मु’िकल है। मेरी मां भी अपनी दुनिया यहां बना ली। उनके मियां-बीबी और उनका परिवार ही उनका अन्नदाता बन गया है। काम से थोड़ी फूरसत मिला तो-पीपी कमपांउड में अमीरों के घरों में काम करने वाले नौकर-चाकरों से मुलाकात किये। एक दूसरे से अपना दुख बांटें। भाई के दोस्त आस पास साथ में काम करने वाले कुली, माली, धोबी यही रिस्तेदार भी हैं। मेरे भी अब यही मेरे दोस्त और पड़ोसी भी बने।
स्कूल में नाम लिखाना था नौंवी कक्षा में। मेरी मां ले गयी नाम लिखवाने बेथेसदा बालिका उच्चविद्यालय में। यहां की प्रिंसिपल मुझे अपने घर में रखना चाहती थी और पढ़ना चाहती थी। लेकिन मेरी मां को लगा कि -मैं स्वंय नौकरानी हुं और मेरी बेटी भी नौकरानी बन जाएगी। ‘’ायद यही सोच कर मां ने मुझे प्रिंसिपल के साथ होस्टल में नहीं रखी। जब बात नहीं बना तो मां मुझको संतमग्र्रेट बालिका उच्चविद्यालय ले गयी। यहां मिस कोनगाड़ी मां का कहानी सुन कर मुझे स्कूल में रख ली। 
अब जिंदगी में नया मोड़ आया। shahari जीवन। सभी नया। बोली-भाषा, रहन-सहन सभी नया। स्कूल में तो नाम लिखवाये अब जीने का रास्ता भी तला’ाना था। हमारे ही गांव की एक महिला ने मुझे रांची मेन रोड़ के सुजाता सिनेमा हाल के सामने एक पुलिस चैकी में सुबह-sham वर्तन धोन-घर साफ करने का नौकरी लगा दी। पुलिस मैंने कभी नहीं देखी थी। छावनी के बाहर दिन-रात एक पुलिस बंदूक कंधा में ढ़ोकर कर खड़ा रहता था। बंदूक देख कर डर लगता था। पुलिस देख कर भी बहुत डर लगता था। रोड़ पार होने के लिए भी डर लगता था। हिंन्दी से बात करने के लिए भी डर लगता था। गांव के लोग काले काले होते हैं यहां तो सभी गोरे लोग हैं। 
जितने पुलिस यहां छावनी में थे एक भी हम लोग जैसा नहीं दिखता था। सभी गोर गोर थे। मैं डरती थी इसलिए भाई भी मेरे साथ में आता था। पुलिस वालों को दिन का बचा हुआ भोजन हमारे लिए रात को डीनर होता था। और उनका रात का बचा हुआ भोजन मेरे लिए स्कूल जाने के पहले आहार होता था। कभी खाना नहीं मिला तब छोटा सा टीन का डब्बा में उपला जला कर खाना बना लेती थी। रोटी खाने का मन होता था-तो टीन का ढ़कन में रोटी पका लेती थी। नौंवी क्लास पास किये। दसवीं क्लास पहुंचे। फीस अब पहले से ज्यादा देना है। खर्च भी बढ़ा। अब मैं स्कूल जाने के पहले और स्कूल से लौटकर तीन-चार घरों में वर्तन धोने की रौकरी कीं । एक लड़की जब कमजोर तबके से आती है तब उनको किन किन संकटों से गुजरना पड़ता है। यह भी नजदीक से महसूस करने का अवसर मिला। कई घटनाएं एैसे हैं जो मुझे hamesha  संघर्ष करने के लिए prerit करता है। अपने जीविका के लिए खुद ही रास्ता talashana , उस रास्ते पर बढ़ना, जिस रास्ते पर आप जा रहे हैं-यह बिकुल अनजान भी है। लेकिन जाना तो है ही। 
लोग मुझ से पूछते हैं-आप कैसे सामाज सेवा के क्षेत्र में आयी? मैं इस सवाल का जवाब एक shabad में नहीं दे सकती हूं। इस सवाल का जवाब मुझे देना न पड़े इसीलिए मैं इतनी लंबी यात्रा करवा रही हुं। स्कूली जीवन के बाद कांलेज की जिंदगी भी स्वंय ही अपना रास्ता talashna । कभी कभी लगता है-हर कदम में कांटे ही कांटे थें जितना कदम आगे बढ़ाती थी-पैर लहूलुहान हो जाता था। लेकिन हर कांटों ने जीना सिखाया। एम काॅम कैसे पास की। पता भी नहीं चला। मन में एक ही सोच था-मेरे अनपढ़ मां-बाप को लोगों ने सादा कागज पर अंगुठा का nishan लगवार कर, मेरा परिवार को बेघर कर दिया। मां बाप और तीन बड़े भाईयों के होते भी मैं अनाथ की तरह रही। न जिंदगी का disha निर्देsh  मिला और न ही प्यार ही। 
जब मैं एम काॅम पास की और नौकरी की talash कर रही थी 1995-96 में। इस समय कोयल करो हाईडल पावर प्रोजेक्ट को प्ररंभ्म करने की घोषणा बिहार सरकार ने की। विदित हो कि कोयल कारो प्रोजेक्ट का विरोध स्थानीय ग्रामीण 1956-57 से ही shuru कर दिया थी। कोयल कारो हाईडल पावर प्रोजेक्ट बनने से गुमला जिला और वर्तमान खूंटी जिला के लगभग 2.50 लाख ग्रामीण विस्थापित होते। 55 हजार एकड़ कृर्षि भूमिं पानी में डूब जाता। 27 हजार एकड़ जंगल डैम में समा जाता। करोडो पेड़-पौधे(जंगल के आलावे) पानी में डूब जाते। कोयलकारो जनसंगठन के बैनर तले कोयल और कारो क्षेत्र के ग्रामीण विस्थापन का विरोध किये। लोगों ने समझौता नहीं किया। जमीन किसी भी कीमत में नहीं देने का संकल्प लिया। जान देगें -जमीन नहीं देगें का संकल्प लिया। 2001 में राज्य बनने के बाद 2 फरवारी को जान देगें-जमीन नहीं देगें का संकल्प को पूरा भी किया। तत्कालीन झारखंड सरकार ने कोयलकारो जनसंगठन पर पुलिस फायरिंग किया। 8 आदिवासी-मूलवासियों ने shahadat दी और 33 लोग घायल हुए

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