Friday, August 16, 2019

आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच ने राजनीति, जाति, धर्म से उपर उठर कर इस ईलाके के सभी जाति-धर्म, समुदाय की रक्षा की है। हजारों सरना-ससनदीरी, मसना, कब्रिस्थान, मंदिर, मषजिद, गिरजा घर की रक्षा की है।

अर्सेलर मित्तल कंपनी द्वारा जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच का संर्घष
्र मित्तल कंपनी-अर्सेलर मित्तल कंपनी परियोजना
झारखंड सरकार के साथ अर्सेलर मित्तल कंपनी ने 8 अक्टोबर 2005 को एमओयू किया। एमओयू के तहत कंपनी सालाना 1.2 करोड़ टन स्टील निर्माण कारखाना बनाना चाहता था। परियोजना में कैप्टिव पावर प्लांट, आयर ओर खदान, कोयला खदान, टाउनशिप, जलापूर्ति के लिए जलस्त्रोत सहित बुनियादी ढांचा, माल ढोने के लिए रोड़, एवं रेलवे ट्रेक्स आदि के लिए जमीन लेने का प्रावधान था। इस परियोजना में कंपनी 40,000 करोड रूपये निवेश करने जा रही है।
कंपनी 5000 हेक्टेयर कारखाना स्टील निर्माण के लिए, 3000 हेक्टेयर कैप्टिव पावर प्लांट के लिए, 2000 हेक्टेयर टाउनशीप के लिए, एंसिलरी इकाइयों के लिए भी जमीन चाहिए । इसके आलावे बिजली की पारेषण लाइनों, संडकों, रेलवे लिंक, जल और अन्य सेवाओं की जरूरतों के लिए भी जमीन चाहिए।
लौह अयस्क की खदानें-एक अरब टन लौह अयस्क के भंडार जो 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
कोयले की खदानें-1.28 अरब टन कोयले के भंडार जो 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
मैंगनीज अयस्क--6 करोड़ टन मैंगनीज अयस्क 50 वर्षों के लिए पर्याप्त हो।
पानी--10,000 घन मीटर प्रति घंटा 60 लाख टन सालाना क्षमता के लिए। पूर्ण क्षमता पर 20,000 घन मीटर प्रति घंटे की आवश्यकता होगी।
कैप्टिव पावर प्लांट--2500 मेगावाट उत्पादन की योजना है।
उद्योग जगत में अर्सेलर मित्तल कंपनी को विश्व का स्टील जाएंट माना जाता है। इसके साथ झारखंड सरकार के  एमओयू के साथ ही सरकार ने कंपनी के लिए जमीन तलाशना शुरू कर दिया। सबसे पहले कंपनी ने स्टील निर्माण के लिए मनोहरुपुर के आदिवासी ईलाके को चयन करने की कोशिश की। लेकिन ग्रामीणों को इसका आहट लगते ही विरोध करना शुरू कर दिया। इसके बाद सरकार ने कंपनी के लिए रांची जिला के कर्रा प्रखंड, तोरपा प्रखंड एवं रनिया प्रखंड  के कई गांवों, एवं गुमला जिला के कमडारा प्रखंड के कई गांवों के जमीन को चिन्हित करके प्लांट स्थापित करने के लिए नक्सा तैयार किया। इसके साथ ही जमीन पर उतरने की तैयारी करने लगा था।
इस दौरान नरेगा योजना को लेकर बसिया क्षेत्र में इंसाफ टीम के साथी मजदूरों के साथ हो रहे अन्याय को लेकर दलालों और सरकार अधिकारियों के विरोध लड़ रहे थे। इसी बीच पता चला कि अर्सेलर मित्तल कंपनी खूंटी जिला के कर्रा प्रखंड, तोरपा प्रखंड, रनिया प्रखंड और गुमला जिला के कमडारा प्रखंड के  50-60 गांवों को हटा कर स्टील निर्माण कारखाना बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण करने जा रही है। इसकी जानकारी कंपनी द्वारा चिन्हित गांवों को दी गयी। सभी ग्रामीणों ने एक स्वर में इसका विरोध करना शुरू किया। सबके सहमति से संभावित विस्थापन के विरोध जनगोबंदी आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच के बैनर से शुरू हुआ। मंच ने एक बड़ी रैली-सभा 29 मई 2008 को राजभवन के पास किया। ग्रामीणों की बड़ी संख्या इस रैली में पहुंची थी।
इस रैली के समीक्षा बैठक जो कुलडा में हुआ था, हमलोगों ने यह महसूस करते हुए कि -इस ईलाके के सभी जाति-समुदाय, सभी वर्ग के लोग इस परियोजना से विस्थापित होगें। इसलिए आंदोलन का बैनर आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का नाम को  आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच किया जाए, ताकि सभी समुदाय की भागीदारी हो सके। इस निर्माय के साथ ही मित्तल कंपनी के विरोध जनआंदोलन 2006 से लगातार 2010 तक जोरदार चलता रहा। 2010 के फरवरी माह में श्री लक्ष्मी निवास मित्तल के अपने मुख्य  कार्यालय लग्लजमवार्ग से बयान दिया-खूंटी-गुमला ईलाके में जनआंदोलन  बहंुत मजबूत है, वहां जमीन अधिग्रहण करना संभव नहीं है। इसलिए अब मैं अपना परियोजना का साईड बदलूंगा।
लेकिन आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच अपने संघर्ष के साथ मैदान में डटा हुआ है। कोयल कारो परियाजना के विरोध संघषर््ारत कोयलकारो जनसंगठन के आधार पर ही आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच का मनना है-कि हम अपने पूर्वजों का एक इंच जमीन नहीं देगें, हम विकास विरोधी नहीं हैं-लेकिन हमारे इतिहास मिटा कर, गांव उजाडकर, विस्थापित कर, जंगल-पर्यावारण नष्ट कर, भाषा-संस्कृति नष्ट कर किसी तरह का विकास स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हमारा अस्तित्व, पहचान,  भासा-संस्कृति, जंगल-पर्यावारण को किसी मुआवजा राषि से भरा नहीं जा सकता है, और न ही पूवर्नवासित किया जा सकता है। आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच जाति-धर्म एवं राजनीति से उपर उठकर हिन्दु-मुसलिम, सरना-ईसाई के सामुहिक ताकत ही लाखों लोगों को विस्थापित होने से समाज को बचा पाया है।




आदिवासी-मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच ने राजनीति, जाति, धर्म से उपर उठर कर इस ईलाके के सभी जाति-धर्म, समुदाय की रक्षा की है। हजारों सरना-ससनदीरी, मसना, कब्रिस्थान, मंदिर, मषजिद, गिरजा घर की रक्षा की है। आंदोलन के दौरन भी हमारी समुदायिक एकता तोड़ने की पूरजोर कोशिश  कंपनी समर्थकों ने की थी, लेकिन अपने जल-जंगल-जमीन, भाषा, संस्कृति की रक्षा के प्रति गोलबंद एकता को तोड नहीं सका।
आदिवासी -मूलवासी अस्तितवा रक्षा  मंच का गठन २००६ में , झारखण्ड में देलीमिटेशन लागु करने का केँद्र ने प्रस्ताव लाया था, इस प्रस्ताव के तहत झारखंड के बिधान सभा में आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित २८ सीट  में सात सीट , लोकसभा  -५ आरक्षित सीट में एक सीट घटने का प्रस्ताव था. आरक्षित आदिवासी सीटों को कम करने का मतलब आदिवासी राजनितिक ताकत  को कमजोर करना था, इस खतरे को देखते सामाजिक संगठनों के साथ हम लोगों ने आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का गठन किये. और डेमिलिटेशन के बिरोध संघर्ष तेज किये. जब केंद्रीय चुनाव  आयोग के चेयरमेन ने घोषणा किया , बर्तमान ब्यवस्था २०१९ तक रहेगा , इसी ब्यवस्था के तहत बिधान सभा और लोकसभा का चुनाव २०१९ तक सम्पन किया जायेगा।  इस घोषणा तक आदिवासी  अस्तित्वा रक्षा मंच भी मैदान में रहा।




२००५ में झारखण्ड सरकार ने आर्सेलर मित्तल कंपनी के साथ जमीन देने का mou  साइन किया , तब जम्में बचने के लिए आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच फिर से मैदान में सक्रिय हो गया. मित्तल कंपनी जिन बर्तमान खूंटी जिला के तोरपा , रनिया  एवं कर्रा प्रखंड के गांव तथा गुमला जिला के कामडारा प्रखंड के करीब ३८  गाओं को बिस्थपित कर  १२ मिलियन टन का स्टील प्लांट स्थापित करने की योजना थी. मूलबसि बिदित हो की इस इलाके में आदिवासी,  दलित सभी समुदाल रहते हैं. यही नहीं सभी खेती-बरी , जंगल , जमीन से जुड़े  हुए हैं।  आंदोलन में सबकी भागीदारी सुनुश्चित करने के लिए आदिवासी अस्तित्व रक्षा मंच का नाम आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच किया। मंच आज भी किसानो के बिभिन्न सवालों को लेकर लगातार संघर्षरत

भूमि बैंक में शामिल गाव् की सामुदायिक जमीन गैर मजरुआ आम,खास ,नदी नाला , झाड़-भूमि को भूमि  मुक्त करने की मांग को लेकर राजयपाल भवन के पास धरना।  मांग पत्र राजयपाल को दिया गया.     

Tuesday, August 13, 2019

Sona raa Chanwar teko Hire Laija ...Haire Birsa Munda ke...

 
Adivasi Mulvasi Astitava Rakcha Manch--Arceller Mittal Company Dawara Khunti, Gumla Gila ke karib 35 Gaon Ko Hata-Displace Kar 50,000 Karod (Milion) Niwes ka Stell Plant Banana Chahta Tha,,,Is Bisthapan ke Khilaph Manch ne 2006 se 2010 Tak Jordar Sangharsh Chala, Is Daouran Birsa Munda Jayanti Celebret karte  Sathi  

Har Morcha Me Sanghash Jari Hai,,KALAM KE SATH MAIDAN BHI

Ajadi ke Bad Bikas ke Nam Per Jin Kisanon Ne Apna Jangal Jameen, Ghar-Dawar, Sab Kuch Sarkar Ko De Diya - In Logon Ki Jindagi ko Samjhne Gayi Thi- Tenughat Bisthapiton ke pass--Tab Maine Yah Report Likhi thi,,,,Aaj Bhi  pristhiti  me Badlaw Nahi huwa hai,,

Jal Jangal Jameen Ki Ladai Tab Bhi Thi....Ab Bhi  Jari  hai

Krishi  Bhumi ki   Bhumi   Ab City-Sahar me teji se Tabdil hota ja raha hai

2006 Me Bharat Me Manrega Kanun Lagu Kiya Gaya---Kam to Mila Lekin  Majduron  ka  Shoshan Bhi  charam per tha


 Jameen Jangal, nadi, Pahad, Paryawarn, Samajik Mulyon, awam Bhasha, Sanshkriti ka Punarwas  Sambhaw Nahi.....

Monday, August 5, 2019

अलग राज्य का नींव अबुआ हातुरे-अबुआ राईज, हमर गांव में-हमर राईज छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंगे्रज हुकूमत द्वारा थोपी जा रही भूमि बंदोस्ती कानून या लैंण्ड सेटेलमेंट के खिलाफ संघर्ष के साथ डाला गया

15 नवंबर 2000 में झारख्ंाड अलग राज्य का पूर्नगठन हुआ। यह सर्वविदित है कि झारखंड अलग राज्य की मांग, झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान समुदाय ने अपने जल-जंगल-जमीन, भाषा-सास्कृति, पहचान को विकसित और संगक्षित करने के लिए की थी। अलग राज्य का नींव अबुआ हातुरे-अबुआ राईज, हमर गांव में-हमर राईज छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंगे्रज हुकूमत द्वारा थोपी जा रही भूमि बंदोस्ती कानून या लैंण्ड सेटेलमेंट के खिलाफ संघर्ष के साथ डाला गया। इस, हमारे गांव में हमारा राज के संघर्ष को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संताल हूल 1856, 1788-90 में पहाडिया विद्रोह, 1798 में चुआड विद्रोह, 1800 में चेरो विद्रोह, 1820-21 में हो विद्रोह, 1831-33 में कोल विद्रोह, सरदारी विद्रोह और 1895-1900 में बिरसा मुंडा उलगुलान के नाम से इतिहास में अंकित किया गया है।
इस अलग राज्य की लड़ाई ने आजादी के बाद छोटानागपुर एवं सताल परगना के इलाके में आजादी के बाद संपन्न हुए राजनीतिक चुनाव को भी प्रभावित किया, और आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने 1952 के पहला चुनाव में अलग राज्य के नाम पर 33 जनप्रतिनिधियों को चुन कर बिहार विधान सभा में भेजा। अलग राज्य की इस लड़ाई को राजनीतिक तौर पर जयपाल सिंह मुंडा, निरल ऐनेम होरो सहित हजारों आदिवासी मूलवासी अगुओं ने आगे बढ़ाया। इसके बाद का0 ऐके राय, बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने भी नया दिशा दिया। समय के साथ आंदोलन ने हर तरह के उतार-चढ़ाव देखा। अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासियों के संगठित ताकत का अहसास भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार था, कि अलग राज्य के नाम पर आदिवासी-मूलवासी संगठित हैं। यदि आदिवासी समाज के बीच अपना जगह बनाना है-तो अलग राज्य पुर्नगठन के सवाल को पार्टी अजेंडा बनाना होगा।
विदित हो कि 1996-57 में बीजेपी ने झारखंड अलग राज्य के नाम पर एक 32 पेज की पुस्तिका प्रकाशित किया-वनांचल ही क्यों?। इस पुरे पुस्तिका का एक ही सार था-राज्य में इसाई समुदाय और अल्पसंख्याक समुदाय ने अपनी गहरी पैठ बनायी है, इस पैठ को कौसे उखाडा जाए और स्वंय उस जगह को अपने अजेंडा के साथ पाटा जाए। इस पुस्तिका में आदिवासी समाज को वनवासी के नाम से संबोधित किया गया। आदिवासी समुदाय को वनवासी संबोधन किया गया-इसको लेकर सामाजिक संगठनों सहित लोकतंत्रिक राजनीतिक पार्टियों ने भी विरोध किया। आदिवासी-मूलवासी समुदाय तथा तमाम जनसंगठनों ने सवाल उठाया कि-आदिवासी समुदाय को वनवासी करार कर, आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन के परंपरागत अधिकारों से अलग करने की बड़ी साशिज रची गयी है। साथ ही झारखंड के जंगल-जमीन-पानी और खनिज को पूंजिपतियों के हाथों बेचने की तैयारी है। इस विरोध और सर्मथन के बीच आदिवासी समुदाय ने स्पस्ट नारा दिया था-कि भाजपा द्वारा झारखंड को वनांचल का दर्जा देने का मतलब-झारखंड को व्योपारियों/व्यवसायिक / पूजिंपतियों का अखाडा बनाना है। इस तर्क के साथ आदिवासी-मूलवासी समुदाय ने वनांचल शब्द का कड़ा विरोध किया। विरोध के परिणामस्वरूप भाजपा ने एक कदम पीछे हटा और वनांचल शब्द को छोडकर झारखंड के नाम पर ही अलग राज्य को पुर्नगठन करने इस अजेंडा के साथ बीजेपी ने अलग राज्य पूर्नगठन का काम को आगे बढ़ाया। क्योंकि इस समय केंन्द्र की सत्ता पर भाजपा थी। सत्ता की राजनीतिक गणित का जोड़-घटाव के बाद भाजपा ने देखा कि यही मौका है आदिवासी बहुल, खानिज संपदा से परिपूर्ण धरती पर अपना साम्रज्य स्थापित करने का। इस मौका को हाथ से जाने नहीं दिया, और अजेंडा को अमलीजामा पहनाने में बीजेपी सफल रहा।, और देश में एक साथ तीन आदिवासी बहुल राज्यों को अलग राज्य का दर्जा दिया गया।
इस बात को नहीं भूलना चाहिए भाजपा को कि-झारखंड अलग राज्य के पुर्नगठन की तारीख 15 नवंबर को इसलिए चुना गया कि-झारंखड आदिवासियों का इतिहास, अस्तित्व और पहचान से जुड़ा है। इसके आदिवासी समुदाय ने लंबी लड़ाई लड़ी है। बिरसा मुडा आदिवासी समाज का पहचान है-इतिहास का हिस्सा हैं। भाजपा आदिवासी समाज को जताने चाहा-कि झारखंड आदिवासी समाज के सम्मान में बन रहा है। इसी उद्वेश्य से 15 नवंबर 2000 को राज्य को जन्म दिया गया।
लेकिन राज्य बनने के बाद राज्य ने 16 साल की उम्र देखी। इस 16वें साल में 12 साल तक तो राज्य में भाजपा के नेतृत्व में राज्य का शासन व्यवस्था चला। इन 16वें साल में पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत में आकर अकेले झारखंड का शासन व्यवस्था पर कब्जा जमा ली है। कोई रोकने वाला नहीं-आज बीजेपी अपने असली ऐजेंडा को राज्य में लागू कर रही है। इसी अजेंडा के तहत फरवरी 2016 में स्थानीयता नीति लागू किया गया, जो पूरी तरह आदिवासी, मूलवासी, किसान, सहित राज्य के मेहनतकश आज जनता के विरोध में स्थानीयता नीति का रूपरेखा खींचा गया और कानून का रूप दिया गया। जबकि मूल आदिवासी-मूलवासी झारखंडी समुदाय ने, अपने भाषा-संकृति, रिति-रिवाज, खान-पान, जीवनशैली एवं 1932 के खतियान का आधार बना कर, स्थानीयता नीति बनाने की मांग की थी। लेकिन राज्य सरकार ने इसको खारिज कर, जो 30 सालों से झारखंड में रह रहा हो-सभी झारखंडी हैं, इसी के आधार पर स्थानीयता नीति को पास किया। जो पूरी तरह से आदिवासी-मूलवासी विरोधी है। इसका विरोध हुआ, लेकिन बहुमत का नाजायज लाभ उठाते हुए, अपना अजेंडा को कानून रूप दिया। यहां से शुरू होता है-झारखंड के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकशों के संवैधानिक अधिकारों पर धारदार हमला। जनविरोधी स्थानीयता नीति के साथ ही सीएनटी-एसपीटी एक्ट जो आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज का सुराक्षा कवच है, को तोडना का प्रयास किया गया।
जून 2016 के कैबिनेट में रघुवर सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश लाया, और संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ता़क्षर के लिए भेज दिया। जब इस अध्यादेश का राज्य की जनता ने विरोध की, तब राष्ट्रपति भी उसे वापस का दिये। जबकि कैबिनेट के तीन-चार दिन बाद झारखंड विधानसभा सत्र शुरू होने वाला था, इसका भी रघुवर सरकार ने इंतजार नहीं किया कि, संशोधन पर विधान सभा में चर्चा के लिए रखा जाता।
जब जुलाई में विधानसभा सत्र शुरू हुआ-विपक्षी पर्टी ने विधान सभा के भतीर तथा जनआंदोलनों, सामाजिक संगठनों ने मैदान में विरोध करना शुरू किये। परिणामस्वरूप विधान सभा सत्र स्थागित हो गया। 22 अगस्त को रांची के थेलोजिकल हाॅल में दो दिनों से हो रहे भारी बारिश के बावजूद 600 लोग एकत्र होकर संशोधन अध्यादेश पर चर्चा कर बाद एक स्वर में विरोध किया। इसके साथ ही पूरे राज्य में विरोध का स्वर गूंजने लगा। 23 अगस्त को विपक्षी पार्टियों ने संयुक्त घोषणा किया-कि किसी भी हाल में संशोधन अध्यादेश को पास करने नहीं देगें। 24 अगस्त को राज्य के 24 आदिवासी संगठनों ने राजभवन मार्च के साथ राजभवन के पास सभा के संशोधन के विरोध आवाज बुलंद किये। तथा 22 अक्टोबर को रांची के मोराबादी मैदान में विशाल रैली एवं सभा की घोषणा की।
पूर्व तय कार्यक्रम के अनुसार 22 अक्टोबर को पूरे राज्य के आदिवासी-मूलवासी किसान सीएनटी-एसपीटी एक्ट संशोधन अध्यादेश के विरोध में मोराबादी में जमा होने के लिए गांवों से निकले। लेकिन रघुवर सरकार ने भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान में प्रदत अभिव्यक्ति के अधिकार को हनन करते हुए गांव-गांव में पुलिस प्रशासन द्वारा बे्रेकेटिंग लगवा दिया गया, गांव के लोग रांची मोराबादी मैदान आ रहे थे, सबकी गाडी रोक दी गयी। यहां तक कि लोगों को पैदल भी नहीं आने दिया गया। रांची शहर को चारे ओर ब्रेकेटिंग से घेरा गया। ताकि जनता सभा तक न जा सके। इसी क्रम में खूंटी के सोयको में ग्रामीणों को रांची आने से रोका गया सोयको में। रैली में आने वालों तथा पुलिस प्रशासन के बीच विवाद बढ़ा, तक पुलिस ने फयरिंग की। इस फायरिंग में अब्रहम मुंडू मारा गया,  7 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गये। जिनका इलाज रिम्स में हुआ। इस घटना में 10 लोगों पर नेमड एफआईआर किया गया, यहां तक कि मृतक अब्रहम मुडू सहित घायलों पर भी किया।
केंन्द्र तथा राज्य की रघंुवर सरकार पूरी तरह आदिवासी-मूलवासी, किसानों के जल-जंगल-जमीन और खानिज को लूटने के लिए कई हथकंडे अपना ली है। याद दिलाना चाहती हुॅ कि 2014 में मोदी सरकार ने जिस जमीन अधिग्रहण अध्यादेश को लाया था-वह पूरी तरह से देश के किसानों को उखाड़ फेंकने की नीति थी। ताकि देश-विदेश के कारपोरेट घरानों को आसानी से जमीन हस्तांत्रित किया जा सके। इस अध्यादेश में 9 संशोधन तथा 2 उपनियम लाया गया था। रघुवर सरकार इसी संशोधन के आधार पर सीएनटी एक्ट के धारा-71(2) जिसमें आदिवासियों का जमीन यदि कोई गैर आदिवासी छल-बल से कब्जा किया है, और उस जमीन पर कोई निर्माण कार्य किया गया है-तो इस जमीन का मुआवजा देकर, उसे सेटेल करने का प्रावधान है-को समाप्त करने की बात कही गयी। इस तरह के केस को देखने के लिए हर जिला में जिला उपायुक्त को अधिकृत किया गया है-एसआरए कोर्ट (शिडूयल एरिया रेगुलेशन एक्ट) एैसे मामलों पर न्याय करे। लेकिन दुभग्य की बात है कि-इस तरह के जितने भी मामले आये हैं-सिर्फ 1-2 प्रतिशत में ही रैयतों-आदिवासी समाज को न्याय मिला है।
विदित हो कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के मामले में सामाजिक संगठनों ने पहले भी आवाज उठाया कि-जो छेद है इस एक्ट में, जैसे मुआवजा देकर मामले को रफा-दफा किया जाता है, इसको बंद किया जाए। लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं किया। आज भी सरकार के कार्रवाई पर संदेह है।
धारा-49 -इसमें पहले जनकल्याकारी कार्यों के लिए जमीन हस्तांत्रित करने का प्रावधान था। इसके तहत उद्योग और मांइस के लिए ही जमीन लेना था, लेकिन अब  इसमे संशोधन करके किसी तरह के काम के लिए जमीन लेने का प्रावधान कर दिया गया। याने यह कहा जाए-अब जमीन लेने के लिए पूरी तरह से बड़ा गेट को खोल दिया गया। धारा-21-में प्रावधान है कि-कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदला नहीं जा सकता है। लेकिन रघुवर सरकार ने इस कवच को तोड कर -कृर्षि भूमि का नेचर-ननकृर्षि भूमि में बदलने का कानून बनया। याने अब -कृर्षि भूमि में भी व्यवसायिक संस्थान खडा कर सकते है। यह सबसे खतरनाक साबित होने वाला है। एसपीटी एक्ट -का धारा 13 तथा सीएनटी एक्ट को धारा 21 दोनों एक है। इस कानून के पास होने के एक समय आएगा-झारखंड एक भी किसान नहीं बच पायेगें।
विकास के मकडजाल में आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदाय फंसते जा रहा है। विकास का यह मकडजाल काॅरपोरेट घरानों, देश-विदेश के पूंजिपतियों के लिए जमीन की लूट के लिए केंन्द्र तथा राज्य के रघुवर सरकार द्वारा तैयार नीतियों का जाल है। जो आदिवासी-मूलवासी, किसान सामाज के उपर एक फेंका  जाल की तरह  है। इस जाल के सहारे आदिवासी-मूलवासी, किसान एवं मेनतकश समुदाय को राज्यकीय व्यवस्था के सहारे काबू में ला कर इनके हाथ से जल-जंगल-जमीन एवं पर्यावरण को छीण कर काॅरपोरेट घरानों कों सौंपने की पूरी तैयारी कर ली है। एक ओर भाजपानीत केंन्द्र एवं राज्य सरकार आदिवासी, किसानों के हक-अधिकारों के संगरक्षण की ढोल पीटती है, और दूसरी ओर इनके सुरक्षा कवच के रूप में भारतीय संविधान में प्रावधान अधिकारों को ध्वस्त करते हुए काॅरपोरेटी सम्राज्य स्थापित करने जा रही है। जिंदगी के तमाम पहलूओं-भोजन, पानी, स्वस्थ्य, शिक्षा, सहित हवा सभी को व्यवसायिक वस्तु के रूप में मुनाफा कमाने के लिए ग्लोबल पूंजि बाजार में सौदा करने के लिए डिस्पले-सजा कर के रख दिया है।
देश जब अेग्रेज सम्रज्यवाद के गुलामी जंजीर से जकड़ा हुआ था -तब देश को अंग्रेज हुकूमत से आजाद करने के लिए झारखंड के आदिवासी -जनजाति व अनुसूचित जाति समुदाय ने शहादती संघर्ष कर स्वतत्रता संग्राम को मुकाम तक पहुंचाने का काम किया। शहीद सिद्वू-कान्हू, ंिसदराय-बिंदराय, जतरा टाना  भगत, बीर बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हमारे गांव में हमारा राज-याने जल-जंगल-जमीन पर अपना परंपरागत अधिकार बरकरार रखने, गांव-समाज को पर्यावरणीय मूल्यों के साथ विकसित करनेे, अपने क्षेत्र में में अपना प्रशासनिक व्यवस्था पुर्नस्थापित करने, कर अपना भाषा-संस्कृति के साथ संचालित-नियंत्रित एवं विकसित करने का सपना था।
आजाद देश के राजनीतिज्ञों, बुधीजीवियों, एवं संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि-देश का विकास, शांति-व्यवस्था एक तरह के कानून से संभव नहीं हैं-इसीलिए देश में दो तरह के कानून बनाये गये। एक सामान्य कानून जो सामान्य क्षेत्र के लिए दूसरा विशेष कानून जो विशेष क्षेत्र के लिए बनाया गया। प्रकृतिकमूलक आदिवासी बहुल एरिया को विशेष क्षेत्र में रखा गया। इन क्षेत्रों पांचवी अनुसूचि तथा छठी अनुसूचि में बांटा गया।
इसी अनुसूचि क्षेत्र में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना अधिनियम 1949, पेसा कानून 1996, वन अधिकार अधिनियम 2006 भी है। ये सभी कानून आदिवासी, मूलवासी, दलित, मच्छूवरा सहित 33 आदिम जनजाति समुदायों के अधिकारों रक्षा के लिए है।
लेकिन- हर स्तर पर इन कानूनों को वयलेशन-हनन किया जा रहा है।
देश के विकास का इतिहास गवाह है-जबतक आदिवासी समाज अपना जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा रहता है-तबतक ही वह आदिवासी अस्तित्व के साथ जिंदा रह सकता है। आदिवासी सामाज को अपने धरोहर जल-जंगल-जमीन से जैसे ही अलग करेगें-पानी से मच्छली को बाहर निकालते ही तड़प तड़पकर दम तोड़ देता है-आदिवासी सामाज भी इसी तरह अपनी धरोहर से अलग होते ही स्वतः दम तोड़ देता है।
अपनी मिटटी के सुगंध तथा अपने झाड-जंगल के पुटुस, कोरेया, पलाश,  सराई, महुआ, आम मंजरी के खुशबू से सनी जीवनशैली के साथ विकास के रास्ते बढने के लिए संक्लपित परंपरागत आदिवासी-मूलवासी, किसान समाज के उपर थोपी गयी विकास का मकडजाल स्थानीयता नीति 2016, सीएनटी, एसपीटी एक्ट संशोधन बिल 2017, महुआ नीति 2017, जनआंदोलनों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया-क्षति पूर्ति कानून 2016, गो रक्षा कानून 2017, भूमि बैंक, डिजिटल झारखंड, लैंण्ड रिकार्ड आॅनलाइन करना, सिंगल विण्डोसिस्टम से आॅनलाइन जमीन हस्तांत्रण एवं म्यूटेशन जैसे नीति-कानूनों को लागू होना, निश्चित रूप से आदिवासी-मूलवासी किसान, मेहनतकश समुदायों के समझ के परे की व्यवस्था है। यह व्यवस्था राज्य के एक-एक इंच जमीन, एक-एक पेड-पौधों, एक-एक बूंद पानी को राज्य के ग्रामीण जनता के हाथ से छीनने का धारदार हथियार है।
 गांव-आदिवासी गांव का मतलब -गांव सीमाना के भीतर एक-एक इंच जमीन, मिटी, गिटी, बालू, पत्थर, घांस-फूस, झाड- जंगल  मिलाकर  गांव बनता है-
इसी के आधार पर राज्य के आदिवासी बहुल गांवों का अपना परंपरिक मान्यता है। गांव घर को आबाद करने वाले आदिवासी समुदाय के पूर्वजों ने सामाजिक-पर्यावरणीय जीवनशैली के ताना बाना के आधार पर गांव बसाये हैं।
सामाज के बुजूगों ने अपने गांव सीमा को खेती-किसानी सामाजिक व्यवस्था के आधार पर व्यवस्थित किये हैं-क-घरो को एक तरफ बासाया गया-जहां हर जाति-धर्म समुदाय बास करता हैंै। ख-खेत-टांड एक तरफ गंाव सीमा भीतर के कुछ खेत-टांड को गैराही रखा, कुछ को परती रखे-ताकि गा्रमीण सामुदायिक उपयोग करे। जिसमें नदी-नाला, तालाब, कुंआ-आहर, सरना-मसना, खेल मैदान, खलिहान, अखड़ा बाजार, जतरा, मेला, चरागाह आदि के लिए।
इसी के आधार पर राज्य में आदिवासी सामाज का जमीन को आबाद करने का अपना परंपरिक व्यास्था है यही नहीं इसका अपना विशिष्ट इतिहास भी है। आदिवासी परंपरागत व्यवस्था में जमीन को अपने तरह से परिभाषित किया गया है-रैयती जमीन, खूंटकटीदार मालिकाना, विलकिंगसन रूल क्षेत्र, गैर मजरूआ आम, गैर मजरूआ खास, परती, जंगल-झाड़ी भूंमि।
नोट-1932 में जो सर्वे सेटेलमेंट हुआ-इस रिकोर्ड के आधार पर जमीन को उपरोक्त वर्गों में बांटा गया। उस समय लोगों की आबादी कम थी। कम परिवार था। 84 साल पहले जमीन को चिन्हित किया गया था-कि ये परती है, जंगल-झाडी भूमिं है। 84 वर्ष में जो भी परती-झारती था, अब वो आबाद हो चूका है। अब उस जमीन पर बढ़ी आबादी खेती-बारी कर रही है।
गैर मजरूआ आम भूंमि पर तो गांव के किसानों को पूरा अधिकार है ही, गैर मजरूआ खास जमीन पर भी ग्रामीणों का ही हक है।
आज सरकार विकास के नाम पर लैंड बैंक---बना कर आदिवासी समुदाय के हाथ से उनका जमीन-जंगल छीन कर उद्योपतियों को देने का योजना बना रही हैं। केंन्द्र की मोदी सरकार तथा राज्य की रघुवर सरकार झारखंड से बाहर एवं देश के बाहर कई देशों में पूजिपतियों को झारखंड की धरती पर पूंजि निवेश के लिए आमंत्रित करने में व्यस्त हैं। 16-17 फरवरी 2017 को झारखंड की राजधानी रांची में ग्लोबल इनवेस्टर समिट को आयोजन कर 11 हजार देशी-विदेशी पूंजिपतियों को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान 210 कंपनियों के साथ एमओयू किया गया। इस एमओयू में 121 उद्वोगों के लिए किया गया, जबकि कृर्षि के लिए सिर्फ एक एमओयू किया गया। इसके पहले 2000 से 2006 के बीच 104 बड़े बडे कंपनियों के साथ एमओयू किया गया हे। यदि सभी कंपनियों को अपने जरूरत के हिसाब से जमीन, जंगल, पानी, खनीज उपलब्ध किया जाए-तो आने वाले दस सालों के अंदर झारख्ंाड में एक इंज भी जमीन नहीं बचेगी, एक बूंद पानी नहीं बचेगा।  इसे सिर्फ आदिवासी मूलवासी, किसान ,मेहनतकश समुदाय केवल नहीं उजडेगें, परन्तु प्रकृति पर निर्भर सभी समुदाय स्वता ही उजड़ जाऐगें। जिनका कल का कोई भविष्य नहीं होगा।
अपने इतिहास को याद करन का समय आया है। हमारा संघर्ष का इतिहास है-घुटना नहीं टेक सकते। जब आप के विरोधी ताकतें एक साथ खड़ा हैं-तब परिस्थिति की मांग है कि-राज्य और देश के आदिवासी-मूलवासी, किसान, मेहनतकश, शोषित-बंचित सबकों एक मंच में आना होगा, अपने इमानदारी  जनसंघार्षों को संगठित करके अपने धरोहर की सुरक्षा की गारंटी करनी होगीं

SANGHARS JARI HAI KHUNTI